अनहद नाद / भाग-19 / प्रताप सहगल

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उसने देखा कि साहिल की आँखें डबडबा आई थीं और उसके हलक में शब्द फँसे हुए थें शिवा ने कह तो दिया, साथ ही यह सोचने लगा कि क्या वाकई आदमी को उसके अतीत से एकदम काटा जा सकता है? क्या वाकई परंपराएँ और संस्कार कुछ मंत्रों के उच्चारण से बदल जाते हैं? शायद हाँ! शायद नहीं! शायद लंबा अंतराल...समय ही धीरे-धीरे व्यक्ति को बदल देता है। ऐसा है तो साहिल आज भी अतीत को याद क्यों करना चाहता है? ऐसी कौन-सी विवशता थी कि उसे यह सब शिवा को बताना ही पड़ा? शिवा ने कभी पूछा नहीं, उसके ज़हन में भी कभी ऐसी बात नहीं आई। फिर साहिल...शायद अतीत उसके साथ लसूड़े की तरह चिपका था। भविष्य की कोई आशंका थी या फिर दोस्ती के चलते सिर्फ एक मानवीय ईमानदारी। जो भी हो, शिवा को यह जानकर कहीं भी यह एहसास नहीं हुआ कि साहिल उसके लिए अब पहले से कुछ और हो गया है। फिर भी एक जिज्ञासा उसके मन में जागी-”और भाभी जी...?”

“हाँ, यह भी एक मुख्तसर-सी कहानी है। बड़ा हुआ तो यहीं मिल में नौकरी करने लगा। अब तक मेरे मन पर भी आर्य समाज के कुछ संस्कार पड़ गए थे। मैं वहाँ जाता भी था। वहीं लुभायाराम ने ही मेरी शादी की चर्चा की। मेरा अतीत सबके सामने था। कोई भी आर्य समाजी अपनी बेटी की शादी मुझसे करने को तैयार नहीं हुआ। यह मेरे लिए एक तरह का सामाजिक बहिष्कार था। वहीं मुझे किसी ने नारी निकेतन का पता दिया। वहाँ चला गया। अकेला। कमला वहीं थी। तब गर्भ से थी। मैंने इसे देखा, शादी का प्रस्ताव किया...इसने माना, पर बड़ी मुश्किल से।”

कमला की आँखें छलछला आई थीं। देखा शिवा ने। सुना, जो साहिल कह रहा था-”बस! तब से हम साथ हैं।” अचानक खिलखिलाकर कहने लगा, “गुले गुलज़ार, गुले गुलनार...मेरी जान, उठो और एक-एक प्याला चाय पिलाओ।”

कमला उठकर चली गई।

“यह बच्ची इसकी है। किसी से इसका इश्क था, वह छोड़कर भाग गया। फिर क्या...अब यह बच्ची मेरी है।” सब सुनकर शिवा का मन भी भर आया और उसके मन में साहिल के प्रति प्यार पहले से भी कहीं ज़्यादा हो गया। किसी कोने में उसके प्रति एक आदर का भाव भी जाग गया था।

निष्क्रियता जब आदमी को घेरती है तो पूरी तरह से उसे अपने लपेटे में ले लेती है। यही शिवा के साथ भी हो रहा था। मौसम का असर था या चढ़ती जवानी का नशा। अकर्मण्यता थी या भविष्य की अनिश्चितता। एकदम से छलाँग लगाकर कहीं बहुत ऊँचा बैठ जाने की लालसा थी या आगे पढ़ाई जारी रखने की इच्छा। कारण जो भी रहा हो, परिणाम एक ही था-निठल्लापन और यह निठल्लापन जगतनारायण को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं था। उसके लिए हायर सेकेंडरी पास होना काफी था। उसके खयाल से शिवा को कोई नौकरी करनी चाहिए। चार पैसे घर में लाने चाहिए। अपने छोटे भाई-बहनों का ध्यान रखना चाहिए। उसका हाथ बँटना चाहिए। आदमी आखिर बेटे की कामना करता ही किसलिए है। इसीलिए न कि बड़ा होकर कमाए, बुढ़ापे की लाठी बने। शिवा और जगतनारायण में अक्सर इसी बात पर कहा-सुनी हो जाती। शिवा अपने भविष्य की सोचता, जगतनारायण के सामने संकट वर्तमान से उबरने का था। दोनों की रस्साकशी रैफरी का काम करती, पर यह खेल बँधे हुए नियमों का खेल नहीं था। कभी पलड़ा इधर भारी तो कभी उधर-और वह भी बिना किसी तर्क के। जिसकी चल गई सो चल गई।

शिवा कॉलिज में दाखिला लेता है तो उसका खर्चा आखिर कहाँ से आएगा? तीन साल बाद बी.ए. होगी, फिर वह कौन-सा अफसर बन जाएगा। बनेगा तो तब भी कहीं क्लर्क ही न! तो अभी क्यों नहीं?

इसी तरह की बातें कर-करके जगतनारायण ने शिवा के सामने खुला एलान ही कर दिया-”मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि तुझे और पढ़ाऊँ!”

“बी.ए. करना ज़रूरी है पिताजी!”

“क्या कर लेगा बी.ए. करके?”

“आई.ए.एस. में बैठूँगा।”

“वो क्या है?”

“आपको यही तो मालूम नहीं। मैं जो चाहता हूँ, करने दो।”

“कहा न, पैसे नहीं हैं। मुझे सबको देखना है, सिर्फ तू ही नहीं है घर में।”

“इस वक्त तो मेरे भविष्य का सवाल है।”

“कमाओ, खाओ, खिलाओ और फिर चाहे जो करो।” जैसे सूत्र-वाक्य बोल दिया था जगतनारायण ने।

“आप जब खिला नहीं सकते, पढ़ा नहीं सकते, तो पैदा क्यों किया?” शिवा चीख पड़ा। जगतनारायण को शिवा से यह उम्मीद नहीं थी। उसने सुन रखा था कि नई पौध बड़ी मुँहज़ोर और बदतमीज़ हो गई है। समाज में दूसरे महाशय अक्सर उससे यही रोना रोते, पर उसका अपना बेटा भी ऐसी बात करेगा...जगतनारायण सुन्न हो गया।

शकुन्तला ने ही बीच-बचाव किया-”पढ़ने दो न!”

जगतनारायण ने पैंतरा बदला-”मेरा मन नहीं करता, मेरा बेटा पढ़े, कहीं बड़ा अफसर बने...पर क्या करूँ, क्या करूँ, हालात ने मेरे हाथ इतने बाँध रखे हैं कि बस...काश! मेरी नौकरी होती...हरामज़ादे रामस्वरूप ने मुझे उजाड़ दिया। दिल का रोग दे दिया...सिवाय मरने के कोई रास्ता नहीं छोड़ा।” कहते हुए जगतनारायण की आँखों में पानी छलकने लगा।

शिवा पसीज गया। बोला-”अच्छा! ठीक है, जैसा आप कहते हैं, वैसे ही सही।”

जगतनारायण के चेहरे पर एक खामोश उदासी थी।

नौकरी मिलना कौन-सा आसान था। शिवा को उसके चाचा विजयनारायण ने अपने यहाँ काम दे दिया। जगतनारायण को यह अच्छा तो नहीं लगा। वह अपने भाई रूपनारायण का हाल देख चुका था, पर क्या करता! एक महीना बमुश्किल निकला। शिवा पर कोताही और चोरी का इल्ज़ाम लगाकर निकाल दिया गया। शिवा बड़ा आहत हुआ। सोचा, आखिर है तो सौतेला चाचा ही ना! फिर भी चोरी का इल्ज़ाम लगाने की ज़रूरत क्या थी! वैसे ही कह देता तो शिवा वहाँ चिपका थोड़े ही रहता। दिमाग़ के घोड़े उसने दूर-दूर दौड़ाए, कुछ समझ नहीं सका। जगतनारायण भी रोष से भरा था-”मैं उसका कभी मुँह भी नहीं देखूँ। हमारा बेटा जो भी हो, चोरी नहीं कर सकता।” शिवा ने खाना खाया और वेलफेयर सेंटर में चला गया। वहाँ उसकी मुलाकात हांडा और चावला से हो गई। कई दिनों बाद मिले थे। उनसे बातें करके मन हलका हुआ। रात शिवा बिजली के खंभे के नीचे ही चारपाई डालकर जम गया। कॉलिज में दाखिला उसने भले ही नहीं लिया, पर पढ़ने का शौक बदस्तूर जारी था। कभी-कभी कुछ लिखने का भी। बड़ी देर तक रात को पढ़ता रहा। सोया तो उसके दिमाग़ में कुछ कौंधा-‘हाँ, हो न हो यही वजह रही होगी।’ स्मृति की रील उसकी बंद आँखों में घूमने लगी। महीना पहले ही जब वह काम पर लगा तो विजयनारायण ने बुलाकर कहा-”बेटा! काम मन लगाकर करना। तुम तो अपने हो, बाकी सब वर्कर्स पर भी नज़र रखना और दिनेश की कोई बात हो तो उसे नहीं, मुझे बताना।”

दिनेश विजयनारायण का सबसे बड़ा बेटा था। शिवा का समकक्ष। उसने भी इसी साल हायर सेकेंडरी का इम्तिहान दिया था। हुआ तो वह फेल था, पर घरवालों ने उसे फर्स्ट डिविज़न में पास घोषित किया था। दिनेश का रोल नंबर उन्होंने कभी भी किसी को नहीं बताया। दिनेश ऩालायक है, यह तो सब जानते थे, कहता कोई नहीं था। जैसे-तैसे शिवा ने पता लगा ही लिया था कि वह फेल है। वह मन ही मन हँसा, पर खामोश रहा। विजयनारायण अक्सर इस बात से पीड़ित रहता कि-”देखो मेरे यहाँ सारी सुविधाएँ हैं, फिर भी बच्चे पढ़ते नहीं और जगतनारायण के बच्चे एक से एक बढ़कर...शिवा को ही देख लो।”

शिवा ने नौकरी लगते ही अंदर-बाहर झाँकना शुरू किया। उसने दिनेश को जुआ खेलते देखा था। उसे चाचा की बात याद थी। उसने शाम को उन्हीं से कहा-”चाचा जी! दिनेश जुआ खेलता है, देख लीजिए।”

“अच्छा-अच्छा।” विजयनारायण ने कहा।

सिलसिला चलता रहा। शिवा हरिश्चंद्र की औलाद बनता रहा और एक ही महीने बाद नौकरी से निकाल दिया गया, वह भी चोरी के इल्ज़ाम में। शिवा को अब सारी बात समझते देर नहीं लगी। उसने मन ही मन सोचा-‘अब तो कुछ करके ही दिखाना पड़ेगा।’

शिवा ने कई तरह के कामों के बारे में सोचा। अन्ततः उसने सुबह-सवेरे गलियों में डबलरोटी बेचने का फैसला लिया। कर्मपुरा में जब चावला ने उसे पहली बार देखा तो उसे थोड़ी हैरत हुई। फिर कहा-”कोई भी काम छोटा नहीं है।” भाटिया तो शिवा से नाराज़ ही हुआ। हांडा ने शिवा का हौसला बढ़ाया। काम चलने लगा। रोज़ घर में तीन-चार रुपए मुनाफे के देता। साथ ही डबलरोटी, बंद और मक्खन मुफ्त आने लगे। इतना ही तो पर्याप्त नहीं था। नौकरी भी खोजता रहा।

एक दिन अचानक उसकी भेंट सियाराम से हो गई। सियाराम शिवा का दूर का चाचा था। उसकी उम्र जगतनारायण की उम्र के ही आसपास थी। हालचाल पूछने के बाद बात नौकरी की आई तो सियाराम ने कहा-”कल मेरे दफ्तर में आना।” सियाराम भी बँटवारे के समय दिल्ली में ही आ बसा था। वह मैट्रिक पास था। मैट्रिक पास का अर्थ होता था। सियाराम की अंग्रेज़ी में ड्राफ्टिंग बहुत अच्छी थी। साथ ही उसने एकाउंट्स का काम भी सीख लिया था। वह जिस भी जगह काम करता, उसकी पूछ होती। वह भी काम बदलता-बदलता पिंगले एजेन्सीज़ के साथ आ जुड़ा। पिंगले एजेन्सीज़ चप्पलों का व्यापार करती थी। हवाई चप्पलों के बाज़ार में तो उनकी अच्छी-खासी धाक थी। सियाराम ने उसी फर्म के दफ्तर का पता दिया था। दफ्तर लाजपत मार्केट में था। अगले ही दिन शिवा चाँदनी चौक जा पहुँचा। मोती सिनेमा पार करता हुआ वह लाजपत मार्केट में दाखिल हुआ। दफ्तर ढूँढ़ने में उसे दिक्कत नहीं हुई। वहीं सियाराम ने उसकी मुलाकात इन्द्रप्रस्थ फाइनेंस कम्पनी के मालिक से करवा दी। उन्हें पढ़े-लिखे युवा लड़के की ज़रूरत थी। साइकिल भी शिवा के पास थी, सौ रुपए महीने की नौकरी मिल गई। शिवा के लिए फाइनेंस का धंधा एकदम नया था। कई तरह की चिटें, उनके ग्रुप्स, डिविडेंड, कानूनी काग़ज़ात-उसने देखे, समझे। उसका काम था नए सदस्य बनाना, पुरानों से चिटों की किस्तें वसूलना और उसका हिसाब-किताब रखना। शिवा ने चुस्ती-फुर्ती से सब काम सीख लिया। तीन महीने बाद ही उसे पच्चीस रुपए की तरक्की मिल गई और नए सदस्य बनाने पर कमीशन अलग।

पिंगले एजेन्सीज़ के मालिक का नाम दयाराम था। उसे सभी ‘बाऊजी’ कहकर ही बुलाते थे। बाऊजी ने शिवा को काम करते देखा और अपने दफ्तर में काम दे दिया। इस तरह शिवा चिटफंड कम्पनी के एजेन्ट से दफ्तर का बाबू बन गया। जगतनारायण के लिए यह बड़ी बात थी। हालाँकि जगतनारायण शिवा को सरकारी दफ्तर का बाबू देखना चाहता था, फिलहाल इसी स्थिति में उसे संतोष करना पड़ा। शिवा बाबू हुआ तो वह डबलरोटी बेचने का धंधा छोड़ना चाहता था। जगतनारायण का विचार इससे अलग था-”सुबह दो घंटे का काम ही तो है।” यह कहते हुए वह भूल जाता कि सुबह दो-तीन घंटे सामान बेचने के लिए शाम दो-तीन घंटे सामान इकट्ठा भी करना पड़ता था। इस पर सुबह-शाम साइकिल चलाओ। जगतनारायण का तर्क था-”यही तो दिन हैं, काम करने के, जवानी में जिसने काम नहीं किया, बुढ़ापे में क्या खाक करेगा।” जगतनारायण खुद ढलती उम्र में भी काम में लगा रहता था। शिवा मान गया। अब उसकी दिनचर्या यूँ तय हुई। सुबह पाँच बजे उठना। साढ़े पाँच से साढ़े सात तक डबलरोटी बेचना। नाश्ता। आठ से नौ टाइप सीखना। नौ बजे दफ्तर के लिए रवाना होना। साढ़े नौ से शाम छह बजे तक दफ्तर में खटना। शाम छुट्टी के बाद अगले दिन के लिए सामान इकट्ठा करना। घर आकर वह खाना खाते ही टूटने लगता। फिर भी कोई किताब लेकर बैठ जाता और पढ़ते-पढ़ते सो जाता। उसका साहिल से मिलना बहुत कम हो गया। सुमन को देखे हफ्ते गुज़र जाते। वेलफेयर सेंटर महीनों बाद जा पाता।

दो साल यही सिलसिला चलता रहा। शिवा भमीरी की तरह घूमता रहा। इसी बीच सरकारी क्लर्की के लिए निकली जगह के लिए केंद्रीय संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा उसने दे डाली। अच्छा रैंक लेकर पास भी हो गया। दयाराम शिवा से काफी प्रभावित था। वह उसे जल्दी ही तरक्की देता रहा। उसी ने एक दिन शिवा को बुलाकर कहा-”काका, तूने एकाउंट्स तो सीख ही लिया है-अंग्रेज़ी भी तेरी अच्छी है-बातें भी तू ठीक कर लेता है, आगे पढ़ता क्यों नहीं। शिवा ने बड़ी मुश्किल से अपने आँसुओं को रोका। यह उससे किसी ने नहीं कहा था। इतने प्यार से। इतने अपनेपन के साथ। उसने तो सुन रखा था, मालिक लोग कामगरों का सिर्फ खून चूसते हैं। उसके पिता ने भी कभी नहीं कहा कि आगे पढ़ ले। हाँ, हांडा ने ज़रूर दो-एक बार कहा था। फिर उसे सीसराम की याद आई। “हिन्दी में एम.ए. ज़रूर करना” पर अचानक उसकी अंग्रेज़ी कैसे अच्छी हो गई! यह शायद सियाराम के साथ काम करने का असर था। वैसे भी शिवा जब खाली होता तो फर्म की चिट्ठी-पत्री की फाइल लेकर बैठ जाता। शायद इसी से उसे भी ड्राफ्टिंग का कुछ-कुछ शौक होने लगा था। दो-एक बार उसने अपनी तरफ से पत्रों के मसौदे तैयार करके दिए भी। सियाराम ने तारीफ की थी। उन्होंने ही ‘बाऊजी’ को दिखाकर कहा होगा-”लड़का अच्छा है।” उसकी दफ्तर में जगदीश नाम का भी एक लड़का था। लंबा, सुन्दर, ग्राहक को पटाने में बहुत होशियार। पर कभी-कभी पटाने में की गई पत्तेबाज़ी में वह खुद भी फँसता और दूसरों को भी एम्बैरेस कर देता। इससे फर्म के नाम पर भी आँच आती, तब बाऊजी उसे डाँटते भी और समझाते भी। बाऊजी का ऐसा व्यवहार क्यों था। यह भेद बहुत बाद में खुला जब शिवा को किसी माध्यम से पता लगा कि दयाराम ने खुद जीवन में बहुत संघर्ष किया है। वह शत-प्रतिशत सैल्फमेड आदमी है और उसे ऐसे लोग बहुत अच्छे लगते हैं, जो सैल्फमेड होते हैं या फिर कुछ बनने के लिए संघर्ष कर रहे होते हैं।

शिवा ने जवाब दिया-”बाऊजी, पढ़ना तो चाहता हूँ, पर...”

“पर क्या?”

“सारा दिन तो दफ्तर में ही निकलता है।”

“शाम को पढ़ो।”

शिवा को मालूम था कि दिल्ली में कुछ ईवनिंग कॉलिज़ भी हैं, जहाँ काम-काज करने वाले लोग अपनी पढ़ाई जारी रख सकते हैं।

ऐसा ही एक दिल्ली कॉलिज था। अजमेरी गेट पर। शिवा को मालूम था कि वहाँ कक्षाएँ पौने छः बजे से शुरू हो जाती थीं और वह छः बजे तक तो दफ्तर में ही रहता था। काम ज़्यादा हुआ तो देर तक भी रुकना पड़ता। उसने कहा-”बाऊजी, कॉलिज तो पौने छः शुरू होता है।”

“तू दाखिला तो ले, इसी साल। दफ्तर से तेरी साढ़े पाँच बजे छुट्टी। पन्द्रह मिनट में अजमेरी गेट पहुँच सकता है।”

शिवा गदगद भाव से दयाराम की तरफ देखता रहा। उसने फिर कहा-”और तू ड्राफ्टिंग पर ही ज़्यादा ज़ोर दे। मेरे से भी डिक्टेशन ले लिया कर। जगदीश को कुछ मत कहना अभी।” सब जानते थे, जगदीश को खुद पढ़ने का शौक तो है नहीं, पर वह दूसरों के बनते किसी भी काम में टाँग ज़रूर अड़ाएगा।

शिवा ने सारी बात सियाराम को बताई। “ऐसा मौका फिर कहाँ मिलेगा।” सियाराम ने छूटते ही कहा और मोती सिनेमा के फ्री पास उसके सामने रखते हुए कहा-”चल पिक्चर देखते हैं।”

“घर...?”

“तुझे कई बार देर भी तो हो जाती है न!”

सियाराम शिवा को अपना सगा भतीजा ही मानता था। शिवा कई बार सियाराम और विजयनारायण की तुलना करने बैठ जाता और आदमी के मन की परतों को खोलने की कोशिश करने लगता। सोचता, आदमी अंदर से इतना तिलिस्मी क्यों होता है? अपनों के लिए संकीर्ण, दूसरों के लिए उदार। अपनों का दुश्मन। औरों के लिए दोस्त। सोचने लगा कि आदमी की इस वृत्ति को मनोविज्ञान में क्या कहते होंगे!

घर में शिवा ने आगे पढ़ने की बात की। विरोध तो हुआ, पर दबे स्तर में। अब वह कमाऊ पूत था और कमाऊ पूत का विरोध करना ज़रा मुश्किल होता है। शिवा ने दबाव डाला। जगतनारायण ने हामी भर दी। प्रश्न यह था कि पढ़ने के लिए पैसों की व्यवस्था कहाँ से होगी? कई विकल्प खोजे गए। अन्ततः बात शकुन्तला के दो कंगनों पर आकर टिकी। शकुन्तला के पास सोना था ही कितना जो मुसीबत की घड़ी में काम आने वाले कंगन उतार देती। वैसे भी उसे गहनों से मोह तो था ही। पर जगतनारायण के इस तर्क ने कि ‘शिवा पढ़ जाएगा तो तेरी दोनों बाँहें सोने के कंगनों से भर देगा।’ शकुन्तला को पिघला दिया।

कंगन बिके। नई साइकिल आई। किताबों की व्यवस्था और दाखिले के लिए पैसे बचा लिए गए।

जुलाई का महीना आया। शिवा ने दिल्ली ईवनिंग कॉलिज में दाखिला ले लिया। शाम को जल्दी निकल जाता। दो महीने बाद ही उसे गृह मंत्रालय से लोअर डिवीज़न क्लर्क के लिए नियुक्ति-पत्र मिला। गृह मंत्रालय में क्लर्की। जगतनारायण के लिए एक उपलब्धि थी। सरकारी नौकरी का ख्वाब वह बरसों से देखता था। न सही अफसरी, क्लर्की ही सही, है तो सरकारी। धीरे-धीरे अफसर भी बन जाएगा। दयानंद, विवेकानंद और भारत का राष्ट्रपति बनने के सपने पालने वाले शिवा गृह मंत्रालय में क्लर्क होने जा रहा था। उसने नियुक्ति-पत्र समेत दयाराम से मिलना उचित समझा। ज्यों ही वह दयाराम के दफ्तर के दरवाज़ो तक पहुँचा, उसे ज़ोर-ज़ोर से बोलने की आवाज़ सुनाई दी-”तू बेचता क्या है, तुझे आज निकाल दूँगा तो दो पैसे की नौकरी नहीं मिलेगी...यह तो मैं हूँ जो तुझे तीन साल से बर्दाश्त कर रहा हूँ। तू नई चप्पल डिज़ाइन नहीं कर सकता। डिज़ाइन तुझे दिया, तू यह अपर बनवा के लाया! दफा हो जा मेरी नज़रों से।” कहते हुए दयाराम ने चप्पल राधे की ओर उछाल दी। राधे उस कम्पनी में बड़ा कारीगर था और उसे चप्पलों के नए-नए डिज़ाइन बनाने के लिए रखा गया था। राधे हमेशा शेव बढ़ाए रखता। शायद रोज़ नहाता भी नहीं था। हाँ, कपड़े ज़रूर साफ पहनता। दयाराम अक्सर राधे को डाँटता, पर उसका इतना भयंकर रूप शिवा ने पहली बार देखा था। उसका दिल थोड़ा तेज़ी से धड़कने लगा। सोचा कि इस वक्त बाऊजी से मिलना ठीक रहेगा या नहीं। साथ ही दूसरे कोने से जवाब उछला, ‘अरे अब डरना क्या! यह तो तुम्हारी भलमनसी है शिवा, जो उसे पूछ रहे हो, वरना लोग तो चुपके से छोड़कर चले जाते हैं।’ फिर सोचा-‘नहीं-नहीं, दो साल से वह यहाँ काम कर रहा है। उसने दयाराम से बहुत कुछ सीखा है। ठंडे तरीके से तर्क करना है। कब गुस्से में आना है, कब किसे क्या देना है और फिर अच्छी ड्राफ्टिंग के गुण, व्यापार के कुछ नुक्ते। वह उदार भी है।’ शिवा को याद आया कि कैसे उसने चुपके-चुपके फर्म की ही एक पार्टी से मेल-जोल बढ़ा लिया। चप्पलों के सोल के लिए शीट बनाने वाली उसी फर्म से साँठ-गाँठ करके एक पार्टी को माल सप्लाई भी करवा दिया। यह तो वह पार्टी ही बेवकूफ निकली, जो उसने बिल्टी छुड़वाने के बजाय वापस कर दी और वो पिंगले एजेन्सीज़ के पते पर ही। वही बिल्टी दयाराम के हाथ पड़ी और उसने शिवा को आड़े हाथों लिया-”यह क्या चल रहा है शिवा!” शिवा के हाथ में दयाराम ने वह बिल्टी थमा दी। शिवा सकते में आ गया। क्षण-भर बाद सँभला। कहना चाहता था, ‘होना क्या है, काम करने का, आगे बढ़ने का हक तो सभी को है। मैंने भी आगे बढ़ने की कोशिश की है तो कौन-सा गुनाह किया है।’ पर कहा-”ग़लती हो गई बाऊजी।” दयाराम थोड़ी देर सोचता रहा था। फिर बोला-”कोई और होता तो तुम्हें नौकरी से निकाल देता काका। मैं लिबरल आदमी हूँ, पर उसका नाजायज़ फायदा तो न उठाओ। अपना काम करना चाहते हो, करो। कोई बुराई नहीं है। पर इस तरह से भितरघात करना ठीक है क्या? खुद सोचो...तुमने तो ‘सत्यार्थप्रकाश’ और ‘गीता’ भी पढ़ रखी है। लेखक भी हो...सोचो...यह लो, जो चाहे करो, पर छुपकर नहीं।” कहते हुए दयाराम ने बिल्टी शिवा को ही दे दी। शिवा उद्विग्न-सा हो गया। वह आगे बढ़ना चाहता था। तरक्की करना चाहता था। पैसे कमाना चाहता था। घर को और खुद को सँवारना चाहता था। एक सामाजिक हैसियत हासिल करना चाहता था, पर ऐसा करना ठीक था क्या? वाकई यह तो भितरघात ही थी। वह उस फर्म के मालिक को कोसने लगा, जिसने उसे इस तरह से काम शुरू करने की शह दी थी। वह अंदर ही अंदर शर्मिंदा हो रहा था। जाने ही लगा कि दयाराम ने कहा-”अपने चाचा को भेजना।” शिवा और भी परेशान हो उठा। उसने चाचा को भी तो विश्वास में नहीं लिया था। शिवा ने सियाराम के सामने सारी बात खोलकर रख दी। सियाराम ने छूटते ही कहा-”इसमें क्या बुराई है! हर आदमी कभी न कभी, कहीं न कहीं से शुरू तो करता ही है। यह नैतिकता-वैतिकता इन्हीं लोगों की बनाई होती है। अपने गिरेबान में मुँह डाल के तो देखें।” कहते हुए सियाराम दयाराम से मिलने गया था।

सियाराम की आश्वस्त करने वाली बातों के बावजूद शिवा का दिल धक-धक कर रहा था। थोड़ी देर बाद सियाराम लौटा। उसके चेहरे पर कोई तनाव नहीं दिखा। उसने राहत महसूस की। सियाराम से जो भी बात हुई थी, उसे बताते हुए कहा-”बाऊजी कुछ भी हो, है तो लिबरल आदमी। अब तुम ऐसा-वैसा कुछ मत करना।” शिवा ने और भी राहत महसूस की। उस दिन के बाद दयाराम शिवा पर और भी ज़्यादा ज़िम्मेदारी के काम डालने लगा। कभी-कभी उसे अपने पास बुला लेता और उसके परिवार की बातें करता। कभी-कभी राजनीति भी आ जाती और कभी शिवा के मंसूबे जानने की कोशिश करता।

वह सोच ही रहा था कि एक झटके के साथ दयाराम के कमरे का दरवाज़ा खुला और राधे तेज़ी के साथ बाहर आ निकला। परेशान, बदहाल।

शिवा अंदर दाखिल हुआ। दयाराम बिल्कुल शान्त बैठा था। शायद निर्विकार-”क्या है?”

“जी, आपसे बात करना चाहता था।”

“बैठो, बोलो।” आवाज़ में मिठास थी। शिवा दयाराम की इसी मिठास का कायल था और ऐसे ही मीठा बोलने का अभ्यास भी करता।

“जी यह...।” कहते हुए शिवा ने अपना नियुक्ति-पत्र दयाराम की ओर बढ़ा दिया। दयाराम ने देखा। समझते देर नहीं लगी। “मुबारक दूँ कि नहीं?”

“जी, समझा नहीं।”

“देखो शिवा! मेरे खयाल में यह सरकारी नौकरियाँ आलसी आदमियों के लिए होती हैं। जो ज़िन्दगी में कुछ नहीं कर सकते, वे सरकारी नौकरी करते हैं। चार रुपए, आठ रुपए सालाना तरक्की। दो-तीन डी.ए., बस और फिर यह क्लर्की। इसमें क्या मिलेगा तुम्हें? तुम चुस्त हो, समझदार हो, यहाँ या कहीं भी और बहुत आगे बढ़ सकते हो। अपना काम शुरू करना चाहो तो भी इससे कहीं ज़्यादा कमाओगे। मेरी मानो तो जो भी करना, पर सरकारी क्लर्की कभी मत करना। तुमने यहाँ सौ रुपए से शुरू किया था न। मुश्किल से दो साल ही तो हुए हैं। आज दो सौ पा रहे हो, बोनस भी है। चाय-पानी अलग। वहाँ कितने मिलेंगे?”