अनहद नाद / भाग-23 / प्रताप सहगल

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इस बार भारतीय फौजें आगे बढ़ रही थीं, उधर पाकिस्तान को संभवतः चीन का आश्वासन था कि समय पर वह हस्तक्षेप करेगा। इधर अमरीका एवं रूस अपने-अपने कारणों से चिन्तित थे। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति एवं कूटनीति को तो शिवा नहीं समझता था, पर इतना ज़रूर समझता था कि अपने देश की रक्षा के लिए कुछ भी किया जा सकता है। प्रधानमंत्री ने देश के लोगों का आह्वाहन किया कि वे रक्षा-कोष में खुलकर धन दें। लोगों ने धन दिया। महिलाओं ने अपने ज़ेवर तक उतारकर दिए। उन्होंने आह्वाहन किया कि अन्न बचाने के लिए सभी देशवासी सोमवार को व्रत करें। सचमुच अधिकांश देशवासियों ने इस आह्वान को स्वीकार किया। शिवा भी उनमें से एक था। ‘62 में उसने चीनी हमले के खिलाफ गीत लिखे थे, अब उसने कुछ गीत पाकिस्तान के खिलाफ लिखे। शिवा की मानसिकता में हलका-सा परिवर्तन भी आया। जहाँ उसने हमले के खिलाफ गीत लिखे वहीं उसने एक गीत युद्ध के विरोध में भी लिखा। उसकी बड़ी इच्छा थी कि उसका गीत भी वैसे ही गाया जाए, जैसे लता ने प्रदीप का गीत गाया था। ‘ए मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुर्बानी’ पर जब कुछ दिन बाद उसने डॉ. राम मनोहर लोहिया का भाषण सुना तो वह थोड़ा विचलित हो गया था। लता को यह गीत सुनने के बाद नेहरू की आँखों में सचमुच पानी था, तो इस पर फब्ती कसते हुए अपने एक भाषण में लोहिया ने कहा था कि रोते सिर्फ दो ही तरह के लोग हैं- या तो वे, जिन्हें कुछ छल करना होता है, या फिर वे, जिनके दिल कमज़ोर होते हैं और दोनों ही स्थितियों में ऐसा व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री होने के काबिल नहीं है। शिवा को लोहिया का यह तर्क पसन्द आया था। सामाजिक असमानता एवं मज़दूरों, किसानों का शोषण एवं आन्दोलन को लेकर कही गई बातों ने भी शिवा पर असर डाला था, फिर भी शिवा के मन का कोई एक कोना ऐसा था, जो अपनी व्यापक पहचान की माँग करता था।

शिवा का गीत लता ने तो नहीं गाया, न किसी और ने। अलबत्ता स्थानीय कवि-मंचों पर पढ़कर उसने ज़रूर कुछ वाहवाही लूटी। ‘कम टुगैदर’ के माध्यम से भी शिवा ने धन एकत्र किया और सभी लोग मिलकर प्रधानमंत्री को दे आए। छोटे-से कद के बड़े प्रधानमंत्री के रूप में लालबहादुर शास्त्री ने शिवा को प्रभावित किया।

थोड़े ही दिनों में युद्ध-विराम हो गया। पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खाँ से बातचीत के लिए लालबहादुर शास्त्री ताशकंद पहुँचे। समझौता तो हुआ, लेकिन यह लड़ाई लालबहादुर शास्त्री को खा गई। सारा देश स्तब्ध था। शिवा भी।

कई बार ऐसा संयोग होता कि व्यक्ति के साथ एक आपदा से घिरने लगता है। राशनैल किस्म का आदमी होगा तो वह आपदाओं के पीछे तर्क खोज लेगा और उसी के अनुरूप आपदाओं का निवारण भी करेगा, लेकिन अधिकतर मनुष्य राशनैल नहीं होते। वे या तो भगवान भरोसे होते हैं या भाग्य के। भगवान और भाग्य के आगे हथियार डालकर वे अंध-अवस्थाओं की गुफा में प्रवेश कर जाते हैं। शिवा अंध-अवस्थाओं की गुफा में प्रवेश करने वाला युवक नहीं था। पर कई बार उसके पास अपने सामने आई आपदाओं का कोई तर्क भी समझ में नहीं आता था। भाग्य एवं पुरुषार्थ के दो अतिवादी ध्रुवों के बीच वह झूलता रहता और अन्ततः संघर्ष की राह ही चुनता।

पाकिस्तान का हमला हुआ तो उसे लगा था कि आपदा सिर्फ व्यक्ति पर ही नहीं, देश पर भी आती है और जब थोड़े ही वक्त के बाद बिहार को भयंकर बाढ़ ने अपनी चपेट में ले लिया तो उसे यह लगा कि एक के बाद एक आपदा देश पर भी आती है। अपनी व्यक्तिगत आपदाओं से तो वह स्वयं लड़ सकता था लेकिन राष्ट्र पर आर्इ आपदाओं के लिए वह क्या करे। ‘कम टुगैदर’ के साथ मिलकर काम करने का थोड़ा-सा अनुभव उसके पास था। उसी से प्रेरित होकर शिवा ने तुरत-फुरत बाढ़ पीड़ित सहायता समिति कॉलिज में ही बना डाली। अखबारों की कतरनों, कुछ चित्रों, कविताओं एवं कुछ नारों की सहायता से एक प्रदर्शनी भी आयोजित की। कॉलिज के छात्रों एवं प्राध्यापकों से कुछ आर्थिक मदद भी प्राप्त की। जब यह अपर्याप्त लगा तो दफ्तर से छुट्टियाँ लेकर शिवा अपने कुछ साथियों साहित फ्राशखाना, बाज़ार सीताराम और चितली कबर की गलियों में घुस गया। एक सप्ताह के अभियान के बाद सहायता समिति ने कुछ पुराने कपड़े और बर्तन तथा कुछ पैसा इकट्ठा करके डॉ. धनुर्धर के सामने रख दिया। डॉ. धनुर्धर शिवा की संगठन-शक्ति से बहुत प्रभावित हुए। इस सारे काम में छात्र-संघ की भूमिका नगण्य रही, क्योंकि छात्र-संग के अध्यक्ष का मानना था कि यह कार्य या तो सरकार करे या फिर स्वयं-सेवी संस्थाएँ। छात्र-संघों की भूमिका तो छात्र-हितों तक ही रहनी चाहिए, पर जब छात्र-संघ अध्यक्ष ने इस अभियान को देखा तो तुरंत प्रस्ताव किया, यह सारा सामान वह स्वयं पटना जाकर दे आयेगा। बाढ़-सहायता समिति में राजनीति ने प्रवेश किया। शिवा ने इसका विरोध किया और अन्ततः यह तय हुआ कि सारा सामान एवं धन प्रधानमंत्री सहायता कोष में दे दिया जाए।

शिवा अपनी इस सफलता से प्रसन्न था। तभी रामचन्द्र कश्यप ने टिप्पणी की : “हमारा अगला अध्यक्ष शिवा होगा।” रामचन्द्र कश्यप भी कॉलिज में छात्र-नेता था। उसे अपने दफ्तर में भी राजनीति का अनुभव था। वहाँ वह कामगार यूनियन का सचिव था। कॉलिज में वह कई अन्य छात्रों की तरह से इसलिए बी.ए. करने चला आया था कि बिना बी.ए. की डिग्री के अगली प्रोमोशन संभव नहीं थी। शिवा ने जब रामचन्द्र कश्यप की टिप्पणी सुनी तो वह थोड़ा-सा चकराया। फिर वह खुद ही अपना विश्लेषण करने लगा, कि क्या सचमुच वह यह सब इसलिए कर रहा था कि उसे अन्ततः राजनीति में प्रवेश करना है? कॉलिज का छात्र-संघ तो बहुत छोटी चीज़ है। उसे तो भारत का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति होना है? किशोरावस्था में पाला हुआ दिवास्वप्न क्या सचमुच एक महत्वकांक्षा में बदलने लगा था या कि वह मात्र एक भ्रम था? सरकारी नौकरी करते हुए वह राजनीति में प्रवेश करने की सोच भी कैसे सकता है। पिता से जब भी कभी राजनीति की बात हुई थी उन्होंने हमेशा यही कहा था कि राजनीति में प्रवेश करने की सोच भी कैसे सकता है। पिता से जब भी कभी राजनीति की बात हुई थी उन्होंने हमेशा यही कहा था कि राजनीति वे कर सकते हैं, जिनके घरों में खाने को पर्याप्त हो। शिवा ने राजनेता के रूप को देखा था, शास्त्री को देखा था। नेहरू को छोड़ दें तो कोई भी संपन्न परिवार से नहीं था। तो फिर वह भी क्यों नहीं राजनीति में जा सकता।

छात्र-संघ के अगले वर्ष के चुनाव में शिवा को ही अध्यक्ष-पद के लिए उम्मीदवार बनाए जाने की योजना बनने लगी। रामचन्द्र कश्यप के प्रयास से ही मौजूदा छात्र-संघ का विरोधी दल शिवा के साथ हो गया। समय आया। शिवा का अध्यक्ष बनना निश्चित था, लेकिन नामांकन के अन्तिम दिन ही रामचन्द्र कश्यप ने शिवा को कॉलिज के एक कोने में ले जाकर कहा-”शिवा, हालात थोड़े बदल गए हैं, इसलिए अपना पर्चा भरने से पहले एक बार फिर सोच लो।”

“अब सोचना क्या?”

“इसलिए कि हम दोनों खड़े होंगे तो हमारे वोट बँटेंगे और इसका लाभ हमारे विरोधी को मिलेगा।”

“क्या मतलब है तुम्हारा?” शिवा थोड़े गुस्से से बोला।

“मतलब साफ है। मैंने चुनावा लड़ने का फैसला कर लिया है और तुम्हें मेरा साथ देना होगा।” शिवा समझ नहीं पा रहा था कि कश्यप यह उलटी कलाबाज़ी क्यों खा रहा है। कल तक तो वह ही शिवा को जितवाने की कसमें खा रहा था। इस अचानक परिवर्तन का कारण क्या है, यह बात उसमें रामचन्द्र कश्यप से पूछ ही ली।

“मेरी इज़्ज़त का सवाल है...दफ्तर में भी।”

“पर तुम तो सरकारी नौकर हो।”

“यह कॉलिज का चुनाव है। इस पर कोई बंधन नहीं। शिवा! प्लीज़। मान जाओ और मेरा साथ दो। मेरा वायदा है कि अध्यक्ष बनने के बाद तुम जो भी कहोगे, वही होगा।”

“मैं अकेला नहीं हूँ। सब लोग हैं मेरे साथ।”

“बहुमत मेरे साथ है शिवा! मैंने एक-एक करके सबसे बात कर ली है।”

शिवा के लिए यह पहली बार राजनीति चेहरे को देखना था। राजनीति पैंतरे के रू-ब-रू होना था। उसने मन ही मन सोचा कि आज नामांकन का अन्तिम दिन है। कुल दो घंटे शेष हैं। उसका नामांकन भी तैयार है। इधर रामचन्द्र कश्यप ने भी अपना नामांकन-पत्र दिखा दिया। उस पर सचमुच उन्हीं छात्रों के हस्थाक्षर थे, जो कल तक शिवा का साथ देने की कसमें खा रहे थे।

शिवा के सामने अब प्रश्न सिद्धान्त का था। अगर उसने आज सिद्धान्त से समझौता कर लिया तो जीवन में कभी भी सिद्धान्तों के लिए लड़ नहीं सकेगा। पर व्यावहारिकता भी तो कोई चीज़ नहीं है। उसका दूसरा कोना बोला। रामचन्द्र कश्यप भी तो अपना है। अपना है तो धोखा क्यों दिया? अरे, धोखा अपनों से ही मिलता है। अनजान से तो धोखा मिल ही नहीं सकता। क्या करे शिवा! सिद्धान्त और व्यावहारिकता के बीच शिवा पेंडुलम की तरह बड़ी देर तक झूलता रहा। अन्ततः कहा-”मैं चुनाव लडूँगा, तुम भी लड़ो, फैसला वहीं होगा।” कश्यप को शिवा से शायद इस जवाब की उम्मीद नहीं थी। अब वह थोड़ा धमकाने की मुद्रा में आ गया तो शिवा और मज़बूत हो गया। कश्यप को अपनी पकड़ ढीली होती लगी, बोला-”चलो पर्चा दोनों भर देते हैं। नाम वापस लेने के लिए दो दिन हैं। और सोच लो।”

अब तक शिवा मन ही मन तय कर चुका था कि चाहे जो हो, वह चुनाव ज़रूर लड़ेगा।

शिवा और रामचन्द्र कश्यप की संगठित छात्र-शक्ति दो दलों में बँट गई। किसके साथ कितने छात्र हैं, कुछ भी स्पष्ट नहीं हो रहा था। तीसरा उम्मीदवार मदन पहवा था। शोर-शराबा, नारेबाज़ी, आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच चुनाव हुआ। शिवा और रामचन्द्र कश्यप चुनाव हार गए। पाहवा अध्यक्ष बना।

हारने के बावजूद शिवा को आत्मसंतोष था कि उसने सिद्धांत से समझौता नहीं किया। यहीं पर उसे राजनीति का पहला सबक मिला कि राजनीति में किसी पर भी विश्वास मत करो।

चुनाव में गोपाल ने शिवा का साथ सबसे ज़्यादा दिया, इसलिए शिवा के मन में गोपाल के लिए एक खास जगह बन गई और वे दोनों पहले से कहीं ज़्यादा एक-दूसरे के करीब आ गये।

डॉ. धनुर्धर ने शिवा को अपने दफ्तर में बुलाकर बंगाली लहज़े में कहा-”तुम हारता तुमको बुरा लगता, मुझको बुरा नहीं मानता। तुम हारता, अच्छा होता, अब पढ़ाई में मन लगाता। पॉलिटिक्स इज़ अ गेम ऑव बगर्स। अन्डरस्टैन्ड?” शिवा को सान्त्वना मिली। उसे लगा, जैसे वह कुछ वक्त के लिए भटक गया था। पढ़ाई पूरी नहीं होगी, अंक अच्छे नहीं आएँगे तो कोई नहीं पूछेगा। यों वह छात्र-संघ की कार्य-समिति का सदस्य अब भी था, लेकिन ज़्यादा वक्त वह किताबों को ही देता। बहुत ही जल्दी वह अनूपलाल और गोपाल के बीच सिमट गया।

शिवा दफ्तर अक्सर वक्त पर ही पहुँचता। शेष सभी लेट-लतीफ। सेक्शन में दो महिलाएँ भी थीं। वे दोनों ही सबसे लेट पहुँचतीं। सेक्शन ऑफिसर चक्रवर्ती रोज़ कह तो देता, पर वह किसी का भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता था। शिवा को लालच था कि वह ऑफिस जल्दी पहुँचकर कुछ पढ़ लेगा।

अपनी आदत के खिलाफ उस दिन शिवा दफ्तर देर से पहुँचा। अभी सीट पर बैठा ही नहीं था कि चक्रवर्ती ने कहा-”मि. साहनी, देयर वाज़ अ कॉल फॉर यू।”

“कौन था?”

“था नहीं, थी...सम गर्ल...शेफाली...”

शिवा के लिए यह नाम एकदम नया था। उसने आश्चर्य प्रकट करते हुए ही कहा-”शेफाली!”

“यस, थ्री टाइम्स...व्हाट हैपन्ड टू यू टुडे?”

“नथिंग सर...लेट जस्ट बाई चांस।”

कहते हुए शिवा ने हाज़िरी रजिस्टर पर अपने दस्तखत किए और सीट में जा धँसा। फाइलों का ढेर मेज़ पर था। उन्हें निपटाया और जहाँ पहुँचानी थीं, पहुँचाया। सर उठाकर घड़ी पर नज़र डाली। सोचने लगा, यह शेफाली कौन है? कहीं सुमन ने ही शेफाली बनकर फोन तो नहीं किया? इससे पहले तो कभी उसने फोन किया नहीं। कमला से तो अभी मिलकर आ ही रहा है। सोचा, चाय पीने चलूँ, पर फोन फिर आया तो? एक अचीन्ही-सी शक्ल उसके ज़हन में लटक गई। उसे लगा कि कोई नया चक्कर तो शुरू होने वाला नहीं है। किताब उठाकर पढ़ने की कोशिश की। मन बार-बार उचट जाता। उसकी उधेड़बुन जाने कहाँ तक जाती कि चक्रवर्ती की आवाज़ सुनाई दी-”मि. साहनी, कॉल फॉर यू...सेम गर्ल।” शिवा झट से उठकर फोन तक पहुँचा। “हेलो!” उधर से आवाज़ आई, “मैं शेफाली बोल रही हूँ, आप मुझे नहीं जानते...मैंने पहले भी फोन किया था...एनीवे...आपसे कुछ बात कर सकती हूँ?” आवाज़ में औपचारिकता तो थी, लेकिन कहीं उसके पीछे छिपी आत्मीयता का पुट भी ज़रूर था। इतनी मधुर आवाज़ शिवा ने इससे पहले कभी भी फोन पर नहीं सुनी थी। “मैं डी.सी.एम. केमिकल्स में काम करती हूँ।...”

“आपको मेरा नंबर कहाँ से मिला?” शिवा अपनी उत्सुकता रोक नहीं सका।

“वेयर देयर इज़ विल, देयर इज़ वे...आप गोपाल को जानते हैं न!”

“हाँ, वो भी तो इसी कंपनी में है।”

“कितना?” शेफाली ने अपनी बात जारी रखी।

शिवा के मन में प्रश्न उठा कि बीच में गोपाल कहाँ से आ गया-”कितना...माने?”

“मेरा मतलब दोस्ती गहरी है न?”

“काफी।”

“तभी तो आपसे बात करना चाहती हूँ...यू आर जस्ट लाइक माई ब्रदर।”

“व्हाट डू यू मीन!” शिवा को सचमुच अपेक्षा नहीं थी कि पहली ही फोन-कॉल में कोई अपरिचित लड़की औपचारिकता की सीमाओं को इस कद्र जल्दी से तोड़ने की कोशिश करेगी।

“आपसे मेरा मिलना बहुत ज़रूरी है। कब आ सकते हैं?”

“अपना नम्बर दीजिए...बताता हूँ।” शेफाली ने अपना फोन नंबर दिया। यही नंबर तो गोपाल का भी था। शिवा ने फोन काट दिया। चाय के लिए कैन्टीन में चला गया। गोपाल और शेफाली के संबंधों के बारे में सोचने लगा। गोपाल ने तो कभी भी शेफाली का ज़िक्र नहीं किया था। फिर?

कमरे में लौटकर गोपाल को फोन मिलाया-”यह शेफाली कौन है?”

“लैट अस टॉक समथिंग एल्स।”

“उसका फोन आया था मुझे।”

“शाम को बात करते हैं।” कहकर गोपाल ने फोन काट दिया।

कॉलिज खत्म होने के बाद घर लौटते हुए शिवा ने गोपाल से पूछा-”शेफाली का क्या चक्कर है?”

“उसने तुम्हें फोन किया है, वही समझा देगी।

“वह तो समझाना ही चाहती है, पर तुम बताओ न!”

“यूँ समझो कि हम एक ही दफ्तर में काम करते हैं।”

“उसे मेरा फोन नंबर कहाँ से मिला?”

“वह रिसेप्शनिस्ट है और मेरा हर फोन ओवर हियर करती है...”

शिवा की एक जिज्ञासा शांत हुई, पर वह शेफाली को मिलने से पहले गोपाल से जान लेना चाहता था कि उनके संबंध क्या हैं। “वैसे तो तुम मुझे अपना दोस्त कहते हो, यह बात आज तक छिपाकर रखी।”

“बताने लायक कुछ भी नहीं है।”

शिवा ने उस दिन और बाद में भी काफी कोशिश की कि वह शेफाली और गोपाल के संबंधों के बारे में जाने, लेकिन वह जितना कुरेदता, गोपाल उतना ही बड़ा रहस्यलोक खड़ा कर देता।

मानव-स्वभाव में शिवा कोई अपवाद नहीं था। गोपाल जितना टालता, शिवा की जिज्ञासा उतनी ही बढ़ती। एक दिन शिवा शेफाली के ऑफिस जा ही पहुँचा। मुख्य स्वागत-कक्ष से उसे शेफाली के पास जाने का पास बनवाना पड़ा। ऑफिस के अंदर एक छोटे-से प्रकोष्ठ में शेफाली टेलीफोन की लाइनें मिला-काट रही थी। शिवा को देखते ही वह खड़ी हो गई। दोनों ने एक-दूसरे को पहली बार देखा था। शेफाली शिवा की कल्पना से एकदम विपरीत थी। उसने आने से पहले सोचा था कि वह अपनी मधुर आवाज़ की तरह से सुंदर भी होगी। ऐसा नहीं था। छोटे कद की शेफाली के चेहरे पर चेचक के दाग़ थे। नाक भी थोड़ी मोटी और उठी हुई थी। बात करने में अतिरिक्त सतर्कता के साथ-साथ भरपूर शालीनता थी। उसे सुंदर तो नहीं ही कहा जा सकता था, लेकिन फिर भी उसके चेहरे पर एक सलोनापन था, जो चेचक के दागों के बावजूद ओर आकर्षित करता था। शिवा को थोड़ा धक्का ज़रूर लगा। वह बिना बोले पास ही पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया। पी.बी.एक्स. बोर्ड पर लगातार फोन आ रहे थे और वह बड़ी तत्परता से उन्हें यथास्थान मिला रही थी। लगातार बात होना संभव नहीं था। टुकड़ों-टुकड़ों में बातें होती रहीं। शिवा को पता चला कि शेफाली गोपाल को बेहद प्यार करती है और गोपाल भी उससे प्यार करता था, लेकिन किन्हीं कारणों से उनके बीच लंबा, व्यवधान आ गया था और उनके प्रेम-संबंध एक ठंडी शिला में बदल गए थे। उसके जीवन का यह पहला और अन्तिम प्रेम था और वह किसी भी कीमत पर गोपाल को खोना नहीं चाहती थी। उसने यह भी बताया कि गोपाल की सगाई के कहीं चर्चे हैं। इसलिए वह हर संभव कोशिश में थी कि जैसे भी हो गोपाल और उसके बीच आई ठंडी शिला पिघले। वह शिवा और गोपाल के बीच बातें अक्सर ओवर हियर करती थी। इसी से उसे दोनों के बीच गहरी दोस्ती का एहसास हुआ। अब वह शिवा के सहारे गोपाल तक पहुँचना चाहती थी। बातों-बातों में यह बात भी खुली कि उनके बीच फैले ठंडेपन का एक मुख्य कारण गोपाल की शक करने की प्रवृत्ति है। शिवा सब सुनता रहा। उसे मालूम नहीं था कि शेफाली ने अपने तरीके से बिसात बिछा रखी थी। वह बीच-बीच में इतनी भावुक हो उठती कि उसकी आँखों से टप-टप आँसू झरने लगते। शिवा को लगा कि शेफाली सचमुच गोपाल से हद दर्जे तक प्यार करती है। वह अपनी तुलना गोपाल से और शेफाली की तुलना सुमन से करने लगा। उसे हर मामले में गोपाल सौभाग्यशाली लगा। यह सच है कि सुमन सुंदर थी और शेफाली उसकी तुलना में कहीं भी नहीं ठहरती, लेकिन जीवन में सब कुछ शारीरिक सुन्दरता ही थोड़े होती है। सूरत और सीरत में एक का चुनाव करना हो तो वह सीरत को ही चुनेगा। सूरत तो आज है कल नहीं, पर सीरत! हमेशा साथ रहने वाली चीज़ है। काश! उसके जीवन में भी कोई शेफाली आती। नहीं, सुमन ही उसका सच्चा प्यार है। जैसी भी है। आजकल भले ही उनका मिलना-जुलना बन्द हो गया था। अकारण। कहीं उसका तादात्म्य होने लगा। पर नहीं। यहाँ तो गोपाल है जो कन्नी काट रहा है और उधर सुमन है जो दूर भाग रही है। चाय आ गई थी। इसी उधेड़बुन में वह चाय पीने लगा। दोनों के बीच एक खामोशी पसर गई। शेफाली ने ही खामोशी को तोड़ा-”मैंने पहले दिन से ही आपको भाई माना है।” कहते हुए उसने अपने पर्स में मौलिश्री निकाली और शिवा की कलाई की ओर अपना हाथ यह कहते हुए बढ़ाया-”आज मैं अपने इस रिश्ते को एक सामाजिक नाम भी देना चाहती हूँ।” शिवा जो अब तक शेफाली की कहानी सुन-सुनकर द्रवित हो चुका था या कि भावावेश की स्थिति थी, उसने बिना किसी प्रश्न एवं प्रतिरोध के अपनी कलाई शेफाली के सामने कर दी। शेफाली ने मौलिश्री बाँध दी। चीनी खिलाई। दोनों के बीच धर्म के भाई-बहन का रिश्ता कायम हुआ। यूँ शिवा की अपनी बहनें थीं और उसे इस तरह का कोई भावात्मक अभाव नहीं था। वह यह भी मानता था कि अपनी बहन ही बहन होती है, शेष छल, दिखावा या समझौता होता है। मौलिश्री बाँधने के बाद वह सोचने लगा कि आज रक्षाबंधन तो है नहीं, फिर यह...क्या वह भी नेग के तौर पर शेफाली को कुछ दे? सोचता रहा कि ऐसा तो नहीं कि शेफाली की बिसात में वह भी एक मोहरा बनने जा रहा है। गोपाल को उनके संबंधों पर कोई शक या एतराज़ न हो, इसलिए उसने पहले से ही शिवा को भाई बना लिया है। कितनी चतुर होती हैं यह लड़कियाँ। मनचाहा प्राप्त करने के लिए इनके मस्तिष्क के कपाट चारों ओर से खुल जाते हैं। दुविधा में था शिवा। फिर भी उसने उस स्थिति को खामोशी से स्वीकार कर लिया।

शिवा ने कोई बड़ा जीवन-दर्शन अर्जित कर लिया हो, ऐसा तो नहीं था। लेकिन अनूपलाल से हुई बहसों, अपने अनुभवों एवं दोस्तों तथा स्थितियों से हुई टकराहटों से उसने इतना ज़रूर सीख लिया था कि दी गई परिस्थितियों से लड़ना ज़रूरी है और उन्हीं के बीच यथेष्ट किया जा सकता था। भाग्य की अपेक्षा वह पुरुषार्थ में विश्वास करता था। कई बार भाग्य का उपहास करता, पर कई बार भाग्य को लेकर दुविधा जैसी स्थिति में रहता और भाग्य को भी भाग्य के भरोसे ही छोड़ना श्रेयस्कर समझता।

पुरुषार्थ पर विश्वास के कारण ही वह छोटे-छोटे मिशन बनाता रहता। मसलन घर को ग़रीबी से मुक्ति दिलाने का मिशन, सुमन को पटरी पर लाने का मिशन, बाढ़-पीड़ितों की सहायता का मिशन और अब उसके सामने गोपाल और शेफाली को फिर से एक करने का मिशन था।

शेफाली से मिलने के बाद अगली शाम उसके कलाई पर बँधी मौलिश्री गोपाल को दिखाते हुए कहा-”मेरे और शेफाली के बीच अब यह रिश्ता है। अब तो कुछ बोलो।”

गोपाल ने अपनी बातें विस्तार से बताईं, जिनमें एक मुख्य बात शेफाली के सौंदर्य को लेकर थी। आवेश में बोला शिवा-”खूबसूरती की बात करते हो, मेरी तरफ देखो, सुमन है न खूबसूरत...लेकिन सीरत! उसका चाल-चलन...और शेफाली कितनी समर्पित है तुम्हारे लिए...न करो उससे शादी, मिल तो लो।”

उस दिन तो गोपाल तैयार नहीं हुआ, लेकिन अपने मिशन के मुताबिक शिवा धीरे-धीरे उन दोनों को करीब लाने में सफल हो गया। उन दोनों के प्रेम की टूटी हुई डोर फिर जुड़ गई। गाँठ तो बीच में थी, पर अभी रड़क नहीं रही थी, बल्कि यूँ लग रहा था, जैसे सब पूर्ववत् चल रहा हो।