अनहद नाद / भाग-24 / प्रताप सहगल
गोपाल और शेफाली के लिए शिवा जैसे अपरिहार्य बन गया। जहाँ भी जाते, शिवा को साथ ही रखते।
शेफाली शिवा के कॉलिज के करीब ही नबी करीम में रहती थी। साथ उसकी माँ और छोटा भाई था। घर का खर्चा शेफाली की नौकरी से ही चलता था। संभवतः इसलिए घर में उसी का हुक्म ज़्यादा चलता। शेफाली की माँ पढ़ी-लिखी नहीं थी, पर अपने अनुभव के आधार पर उसका कहना था कि गोपाल और शेफाली की शादी कभी भी कामयाब नहीं हो सकती। प्रेम की डोर में गाँठ आ जाए तो कभी न कभी रड़केगा ज़रूर। शेफाली अपनी माँ की बात से सहमत नहीं थी। शिवा भी सोचता था कि प्रेम है तो गाँठ कैसी? है भी तो क्या? प्रेम में व्यक्ति क्या-क्या नज़रअंदाज़ नहीं करता। वह खुद भी तो सुमन को हर हालत में स्वीकार करने के लिए तैयार था। इसी बिन्दु पर शिवा गोपाल के साथ समानता का बिन्दु खोजता था। वह नहीं समझ पा रहा था कि यह कोरी भावुकता है या आदर्शवादिता या फिर ऊपरी तौर पर दिखने वाली आदर्शवादिता के पीछे कहीं दया भाव छिपा है। दया कब आत्मदया में बदल जाती है, इसका पता आदमी को अक्सर नहीं लगता। इसी प्रक्रिया में ही वह आत्मपीड़न से परपीड़न की खोह में प्रवेश कर जाता है। शिवा फिलहाल आत्मविश्लेषण करने की स्थिति में नहीं था। अभी तो मात्र आदर्श और कुछ कर गुज़रने की ही इच्छा मन में रहती थी।
गोपाल का परिवार काफी बड़ा था। ग़रीब भी। उसे लगता था कि शेफाली विवाह के बाद उसका साथ नहीं दे पायेगी। विवाह के बाद टूटने से बेहतर है कि विवाह न करना। शेफाली थी कि हरदम डोली सजा के तैयार बैठी रहती थी। गोपाल की आशंका शिवा ने शेफाली के सामने रखी थी। शेफाली ने जवाब दिया-”चाहे गोपाल मुझसे एक दिन के लिए ही शादी कर ले, फिर छोड़ भी दे तो मुझे दुःख नहीं होगा, लेकिन मेरी शादी होगी तो गोपाल से वरना नहीं होगी...।” शिवा भी शेफाली की इस बात से काफी प्रभावित हुआ। युवा अवस्था की नितांत अव्यावहारिकता भी सच लगती है और कष्टदायक यथार्थ भी कहीं ढँका रह जाता है। कॉलिज से लौटते हुए गोपाल और शिवा अक्सर शेफाली के घर से होते हुए जाते। थोड़ी देर रुकते। एक दिन गोपाल और शेफाली दूसरे कमरे में बैठ बतिया रहे थे कि एक अल्हड़-सी लड़की ने प्रवेश किया। “दीदी कहाँ हैं?” आते ही उसने पूछा।
शेफाली की माँ ने कहा, “है, है...” शिवा ने उस लड़की को थोड़ा ग़ौर से देखा। नैन-नक्श तीखे। रंग साफ। आँखें बड़ी-बड़ी। उसने स्कूल की ड्रेस पहली हुई थी। बोली-”आपका नाम शिवा है न?”
“हाँ, कैसे पहचाना?”
“दीदी ने बताया था, आप दीदी के भाई हैं न?”
“हाँ, पर...”
“आपसे मिलने का बड़ा मन था। आज तो जीजाजी से भी मिलूँगी। कई बार आई, पर आप लोग मिले नहीं...दीदी...!” वहीं से उसने पुकारा। शेफाली और गोपाल उसी कमरे में आ गए। वह लड़की भागकर बाहर गई और गुलाब जामुन ले आई। शेफाली ने परिचय करवाया-”यही है शिवा और यह तेरे जीजाजी...इसका नाम है रानो, हायर सेकेंडरी कर रही है, फाइलन ईयर...”
“मेरा भी फाइनल ईयर है, बी.ए. का।”
शिवा से नहीं रहा गया। रानो ने सभी के सामने गुलाब जामुन परोस दिए और ग़ौर से गोपाल को देखने लगी। क्षण-भर बाद बोली-”दीदी आपको बहुत चाहती है। आप जल्दी से शादी कर लो।” गोपाल के लिए यह अप्रत्याशित था। वह हलका-सा मुस्करा दिया। गोपाल को जब भी कोई जवाब नहीं सूझता था, तो वह मुस्करा देता था। मुस्कराहट में उसके होंठ दोनों दिशाओं में फैल जाते थे। हलकी कटावदार मूँछों में भी वैसा ही फैलाव आ जाता था। शिवा गोपाल की मुस्कराहट से अक्सर उसकी संभावित प्रतिक्रिया का अनुमान लगा लेता था। इस मुस्कराहट से उसे लगा कि गोपाल असमंजस में है, पर कहीं मन में तुष्टि का भाव भी है।
रानो ने गोपाल के हाथ को पकड़ते हुए कहा-”जीजाजी, जवाब दो न!”
शिवा को लगा जैसे यह सब शेफाली के द्वारा कहलवाया जा रहा है। गोपाल ‘हाँ’ कहकर खामोश हो गया। शिवा गोपाल को कुछ फँसा हुआ-सा महसूस कर रहा था। उसी ने कहा-”चलें?”
गोपाल बिना कुछ कहे खड़ा हो गया। शेफाली स्नेह-भरी भेदक दृष्टि से उसे देखती रही। शिवा भी खड़ा हो गया। उसने रानो पर फिर एक नज़र डाली। उसे उसकी अल्हड़ता और सुंदरता भा गई।
बाहर आकर दोनों दोस्तों ने अपनी-अपनी साइकिलें सँभालीं और चल दिए।
गोपाल का घर पहले था। वहीं दोनों रुके। गोपाल ने कहा-”तू बता यह सब क्या है?”
“महसूस मुझे भी हो रहा है।”
“इस नाटक की ज़रूरत क्या है?”
“है तो नहीं।”
“शेफाली की ऐसी-ऐसी हरकतों से ही मुझे चिढ़ होती है। दफ्तर में भी कभी किसी से कुछ कहलवा देगी, कभी किसी से कुछ। प्यार कोई कहलवाने से होता है...”
“शेफाली के मन में आशंका है न! शायद वह बार-बार खुद को आश्वस्त कर लेना चाहती है।”
“चल छोड़, अब एक बात मैं तुमसे करना चाहता हूँ।”
शिवा प्रश्नसूचक दृष्टि से गोपाल को देखने लगा।
“रानो है न, कैसी लगी?” गोपाल ने पूछा।
“मतलब?”
“देख यार! सुमन से तो तेरा संबंध कब का खत्म हो चुका और वैसे भी जिन राहों पर वह जा चुकी है वहाँ से लौटने वाली नहीं और ना ही वह किसी भी तरह से तुम्हारे काबिल है। इसलिए पूछा रहा हूँ।”
“ठीक है, मगर मैंने उसे इस नज़र से देखा नहीं।”
“झूठ और मुझसे...तुमसे पूछ रहा हूँ तो कोई वहज होगी?”
“क्या?”
“उसका शेफाली से गहरा प्यार है। शेफाली भी उसे छोटी बहन मानती है, और वह तुझे भी अच्छी तरह से जानती है...शेफाली की भी इच्छा है कि तुममें और रानों में संबंध बढ़े...।”
शिवा खामोश रहा।
“जब भी हम दोनों अलग होते हैं, तुम्हारी बात करते हैं। मैं जानता हूँ, तुम सुमन को भूले नहीं। तुम्हारे मन में कहीं गहरी पीड़ा है, पर तुम कभी भी कुछ कहोगे नहीं। तुम्हें एक अच्छे साथी की ज़रूरत है और आज जब मैंने रानो को देखा न, तो तुम्हें और रानो को लेकर मेरी आँखों में एक सपना तैर गया...एक बात और भी...।” शिवा खामोशी से सुन रहा था। सुनता रहा। “आती बार जब रानो ने मेरे हाथों को पकड़ा न शिवा, तो मैंने एक खास किस्म की तपिश उसके हाथों में महसूस की। मुझे लगा कि उसे एक पुरुष की ज़रूरत है...मालूम नहीं उसके मन में क्या है...वह मुझे किस निगाह से देखती है, लेकिन वह तुम्हारे बारे में भी सब जानती है।...इससे पहले कि उसके हाथों की तपिश कोई और राह खोजे, तुम उसे थाम लो...।”
शिवा खामोश ही रहा और गोपाल के हाथों के स्नेह से दबाकर घर की ओर चल दिया।
‘आज गोपाल की बातों ने मुझे थोड़ा हैरान किया। मेरे प्रति उसका स्नेह-भाव तो ठीक है। उसका मेरे बारे में मित्रवत् सोचना भी ठीक है, लेकिन वह प्रेम-प्रस्ताव कैसा था? यह उसकी सोच थी, शेफाली की थी या रानो की? रानो की थी तो खुद भी तो मुझसे बात कर सकती थी, लिख सकती थी। शेफाली की कोशिश है कि मेरे और रानो के बीच प्रेम-संसार पनपे तो क्यों? क्या वह स्वयं पर किसी ओढ़े गए ऋण से मुक्त तो नहीं होना चाहती? मैंने तो उसे कभी यह महसूस नहीं करवाया कि मैंने उसके लिए बहुत कुछ किया है और मुझे उसका प्रतिदान चाहिए। कहीं गोपाल के मन में भी ऐसा ही कुछ भाव तो नहीं है? रानो के हाथों की तपिश वह मेरे हाथ में ही क्यों देना चाहता है!
‘और मैं! मैं क्या हूँ? मेरे आदर्श कहाँ है? जो मैं हासिल करना चाहता हूँ उस दिशा में कितना बढ़ा हूँ? कहाँ हैं पाखंड और ढोंग-मुक्त समाज के मेरे सपने? ईश्वर की खोज का क्या हुआ? क्या हुआ सत्य की खोज का? मैं तो नचिकेता था! नचिकेता ही बने रहना चाहता था, पर हुआ क्या? सुमन भले ही अँधेरी खोहों में घुस गई हो, लेकिन उसे वहाँ से निकालना ही तो मेरा लक्ष्य है। उसे अपने साथ लाना है, पर वो है कहाँ? महीनों से दिखी ही नहीं और इस बीच कमला! कमला के साथ मेरा कौन-सा प्रेम-संबंध था? था क्या? नहीं मालूम। औरत की देह का आकर्षण बड़ा मायावी है। मायावी ही नहीं मारक है। देह ही माध्यम है। देह ही साधन है, देह से ही प्राप्त होता है सत्य, आनंद, विचार, दर्शन, कला। अंततः देह ही में तो सब स्थित है। मस्तिष्क, हृदय, मन देह से बाहर हैं क्या? और आत्मा? यह भला क्या है? आत्मा का अस्तित्व है कहाँ? और परमात्मा? कहाँ है? आत्मा नहीं है, परमात्मा नहीं है तो फिर मैं क्या हूँ? इसी प्रश्न के जवाब की खोज के लिए ही तो मिला है जीवन, उसका जवाब खोज रहा हूँ क्या? क्या इस प्रश्न का जवाब सुमन है? या कमला? नहीं तो क्या इस सवाल के जवाब की संभावना है रानो! अरे शिवा, तुम क्या समझते हो स्वयं को। नारी के सौंदर्य के सामने विश्वमित्र डिग गये, अरस्तू डिग गए और तुम! हाँ, मैं भी डिगता हूँ। पर मुझमें और विश्वामित्र में, मुझमें और अरस्तू में समानता कहाँ है? विश्वमित्र ने कुछ हासिल किया था...अरस्तू ने कुछ हासिल किया था, तब डिगे और मैं...हा! हा! हा! यानी कुछ हासिल करो, फिर डिगो...पर यह सचमुच डिगना है क्या? सुमन के साथ एक बार का संसर्ग! क्या वह डिगना था? नहीं, वह तो आत्मोपलब्धि थी। खुद को पहचान दी थी मैंने और कमला! हाँ कमला!! वो प्रस्ताव तो कमला का ही था। यह डिगना नहीं तो क्या है? यह आदर्शों के साथ समझौता नहीं तो क्या है? यह एक मित्र के साथ विश्वासघात नहीं तो क्या है? पर अब तो मैं कई दिन से कमला के पास नहीं गया। एक शून्य-सा भर गया है मेरे जीवन में...शायद उसी शून्य को भरेगी रानो! यही तो महसूस किया होगा गोपाल ने।
एक शून्य को भरने की महत्वकांक्षा बहुत बड़े-बड़े आदर्शों से महत्वपूर्ण है। मेरे व्यक्तित्व का एक सिरा है जो मुझे योग की ओर ले जाता है, दूसरा भोग की ओर। अतृप्त जीवन लेकर कैसा योग! बिना भोग के योग असंभव है। मैं क्या करूँ! रानो है तो अच्छी, अल्हड़-सी, प्यारी-सी...क्यों न उसे ही अपने जीवनसाथी के रूप में चुनूँ। सुमन को ही जब मेरी ज़रूरत नहीं, तो मैं ही क्यों उसके पीछे मारा-मारा फिरूँ।’
“सो जा, देर हो गई है।” पिता की आवाज़ थी। शिवा ने अपनी डायरी बन्द की और लेट गया। जो भी उसने अपनी डायरी में लिखा, उसमें उसकी उलझन थी। उससे मुक्त होने की लालसा भी। द्वंद्व था। तो द्वंद्व से बाहर निकलने की छटपटाहट भी। उसकी सोच बदल रही थी। इस बदलाव के पीछे अनूपलाल का बड़ा हाथ था।
शिवा और अनूपलाल के बीच अब तक जो बहसें हुई थीं, उसके निष्कर्ष निकले थे कि जीवन जीने के लिए मिला है, इसे भरपूर जिओ। सत्य खोजो। सत्य की खोज किताबों से नहीं, जीवनानुभवों से होती है। अनुभव हासिल करने के लिए व्यक्ति को जीवन-संग्राम में उतरना ही पड़ता है। कोई भी अनुभव अन्तिम नहीं, कोई भी सत्य आत्यन्तिक नहीं। कोई भी व्यक्ति अपरिहार्य नहीं और कोई भी स्थिति मात्र वही नहीं, जो दिखती है। संबंधों में ऊष्मा आती है, तनाव भी। संबंधों की भी अपनी उम्र होती है। कोई कब तक एक ही संबंध को पाले रख सकता है। यह व्यक्ति विशेष की क्षमता पर निर्भर है। जो प्राप्य है, उसे छोड़ो मत। जो अप्राप्य लगता है, वह भी प्राप्त हो सकता है। उसके लिए कोशिश करनी चाहिए। जो मिला है, उसे भोगो, जो नहीं मिला, उसके लिए रोओ मत। जो स्थितियों को, संबंधों और अनुभवों को भोगना जानता है, वह रोता नहीं। उसका पिछला पाँव ठोस ज़मीन पर होता है, तो अगला हवा को चीरता नाल की तरह से वर्तमान में ठुकने को तैयार। जो है नहीं, हो भी सकता है। संभावना के लिए स्थान हमेशा रहता है।
अपनी बहसों में वे दोनों व्यक्ति और व्यक्ति के संबंधों, व्यक्ति और समाज के संबंधों तथा व्यक्ति और विश्व के संबंधों को लेकर कई-कई निष्कर्ष निकालते, पर हर बार बहस लगभग इसी बात पर खत्म होती कि वस्तुतः निष्कर्ष निकालना ही एक बेतुका काम है। जो आज का सच है, वह कल का नहीं होता। एक निष्कर्ष एक व्यक्ति के लिए औषध हो सकता है तो दूसरे के लिए विष। मूल्य-व्यवस्था दी हुई नहीं, बनाई हुई है। अदृश्य सत्य की खोज में वे दोनों उलझे रहते।
इन्हीं बहसों के चलते ही शिवा ने अनूपलाल से रानो का ज़िक्र किया। इसी के साथ ही उसने सुमन एवं कमला के साथ अपने रिश्तों का खुलासा भी कर दिया। अनूपलाल के सामने शिवा का एक अलग रूप खुला। अनूपलाल ने शिवा की सारी बात सुनने के बाद कहा-”मुझे नहीं लगता कि इस मामले में तुम्हें किसी की सलाह की ज़रूरत है। जो ठीक लगे, करो। जो किया है उस पर पश्चाताप करने का कोई अर्थ नहीं। जब किया, तब वही संभव था, अब भी वही करोगे, जो संभव होगा।” शिवा ने इस बात का अर्थ लिया, ‘रानो और उसके बीच प्रेम-संबंध बनना है तो बनेगा ही। सुमन या कमला के साथ बनकर खत्म हो चुके रिश्तों का इससे क्या संबंध।’ संभवतः यही सोच शिवा के पक्ष में थी। अगले ही रोज़ शिवा ने गोपाल और शेफाली की बातों के संदर्भ में रानो को पत्र लिखकर उसकी राय जाननी चाही। इसे प्रेम-प्रस्ताव तो नहीं कहा जा सकता था, न यह प्रेम-पत्र था। हाँ, रानो के प्रति शिवा ने अपनी पसंदगी का इज़हार ज़रूर किया था। रानो ने जवाब दिया। वह सचमुच प्रेम-पत्र था। दो पत्रों में ‘आदरणीय’, ‘प्रातःस्मरणीय’ की प्रक्रिया पूरी होने के बाद शिवा रानो के लिए ‘प्रिय शिवा’ और ‘मेरे आराध्य’ हो गया।
शिवा के ज़हन में न चाहते हुए भी सुमन कौंधती रहती थी। उसने अपनी यह समस्या रानो के सामने भी रख दी। रानो ने अतीत भूल जाने की सलाह दी। काग़ज़ों में अंकित प्रेम दोनों की शिराओं में उतरने लगा। आँखों और हाथों की भाषा से प्रेम की अभिव्यक्ति होने लगी।
यूँ तो गोपाल और शिवा शेफाली के घर साथ-साथ ही जाते थे, लेकिन उस रोज़ शिवा अकेला ही था। शेफाली के घर पहुँचा। शेफाली भी घर पर नहीं थी। शेफाली की माँ मिली। बोली-”बैठ, क्या खाएगा?”
“कुछ नहीं।”
“शेफाली को अचानक बाहर जाना पड़ा है। बड़ी बहन के यहाँ। कल आ जाएगी। चाय पीकर जाना।”
शेफाली की माँ चाय बनाने रसोई में चली गई। शिवा की आँखें दरवाज़े पर लगी थीं। रानो आई और मुस्कराहट बिखेरती हुई शिवा के पास ही कुर्सी पर बैठ गई। शिवा ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। रानो का हाथ सचमुच तप रहा था। शिवा ने धीरे से पूछा-”मेरे साथ घूमने चलोगी?” “कब?”
“अभी।”
“हाँ।”
“ठीक है। तुम गली के मोड़ तक चलो, मैं आता हूँ।” आदत थी या आलस, रानो अभी भी स्कूल की ही ड्रेस में थी। वैसे ही उठकर बाहर आ गई। शिवा रसोई तक गया और यह कहकर बाहर चला आया-”माँ जी! चाय फिर, अभी मुझे जाना है, जल्दी और ज़रूरी।”
इससे पहले कि शेफाली की माँ कुछ कहती, वह कमरे से बाहर निकल आया।
गली के मोड़ पर रानो खड़ी थी। शिवा ने उसे साइकिल पर बिठाया और अनिर्दिष्ट-सा चल दिया। कहाँ जाये? रात का वक्त है, इस वक्त रानो को कहाँ ले जाये? उसे एकदम निहाल रेस्तराँ का ध्यान आया। शीला सिनेमा के साथ ही सटा हुआ निहाल रेस्तराँ। रेस्तराँ बहुत बड़ा नहीं था, था साफ-सुथरा। उसमें तीन-चार केबिन भी बने हुए थे, यह शिवा को पता था। उसने साइकिल वहीं खड़ी की और रेस्तराँ में घुस गए। कुछ लोग मौजूद थे। दो केबिनों के पर्दे गिरे हुए थे। दो खाली थे। शिवा ने बहादुरी के साथ केबिन में प्रवेश किया। पीछे रानो ने। दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने बैठ गए। बीच में मेज़ थी। वेटर आया, पानी रखा, ऑर्डर लिया और केबिन का पर्दा गिरा गया।
केबिन में बंद शिवा और रानो के बीच एक मेज़ का फासला था। दोनों को ही यह समझ नहीं आ रहा था कि बात कहाँ से शुरू करें। रानो के हाथ मेज़ पर रखी ऐश-ट्रे से खेलने लगे। शिवा ने अपने हाथों से उस खेल को रोकते हुए कहा-”कितना अच्छा लग रहा है न!”
“हाँ।” रानो ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से शिवा को देखते हुए जवाब दिया।
शिवा को रानो की आँखें पहले से भी ज़्यादा खूबसूरत लगीं। रानो के हाथ तपने लगे थे। शिवा के हाथों का दबाव बढ़ने लगा।
“तुम्हारी आँखें बहुत सुंदर हैं रानो!”
“और मैं?”
“तुम भी। मन होता है, इन्हीं आँखों की पलकों में बंद हो जाऊँ।”
“वो तो आप हैं।” थोड़ा इठलाकर बोली रानो।
“यह आप...आप कब तक चलता रहेगा?”
रानो ने कोई जवाब नहीं दिया।
शिवा ने कहा-”इधर आओ न, मेरे पास।”
“पास ही तो हूँ।”
“यह मेज़ है न बीच में”
तभी केबिन पर ‘ठक’ की आवाज़ हुई। दोनों सतर्क हो गए। वेटर अंदर आया और दो कोकाकोला तथा बिस्कुट रखकर चला गया। वेटर के बाहर जाते ही रानो उठकर शिवा की ओर आकर उसी सोफे में धँस गई।
“लो।” शिवा ने कोल्ड ड्रिंक रानो के सामने रखते हुए कहा। रानो उसे हाथ में पकड़े हुए शिवा को निर्निमेष देखने लगी। शिवा ने भी रानो की आँखों को देखा और हौले से उन्हें चूमा, उसके हाथों को चूमा और अपने होंठ रानो के होंठों पर रख दिए। रानो ने शिवा को बाँहों में कस लिया और वे पूरे आवेश के साथ एक-दूसरे को चूमने लगे। रानो शिवा की गोद में लुढ़क गई। शिवा रानो के उरोजों से खेलने लगा।
“ब्रा नहीं पहनती?”
रानो ने कोई जवाब नहीं दिया, निढाल-सी शिवा की छाती पर सिर रखे बैठी रही। वह भूल चुकी थी कि यह रात का वक्त है, उसे घर भी लौटना है। वह भूल चुकी थी कि घर पर उसकी खोज शुरू हो गई होगी। वह भूल चुकी थी कि केबिन के बाहर भी दुनिया है। यथार्थ। ठोस। मारक। वह तो शिवा के सान्निध्य को भरपूर जी लेना चाहती थी।
शिवा भी रानो में गर्क हो चुका था। उसके दिमाग़ के पिछवाड़े कहीं सुमन कौंधी, लेकिन दिमाग़ के अगवाड़े हिस्से ने कहा-‘यह होता है सच्चा प्यार...सुमन का प्यार एक फरेब था और कमला...वो तो देह से आगे बढ़ा ही नहीं...रानो ही है मेरा गंतव्य।’ सोचते हुए उसने पूरे आवेग से रानो को फिर चूमा। वे न जाने कब तक एक-दूसरे को यूँ ही चूमते रहते, अगर केबिन पर फिर ‘ठक’ की आवाज़ न होती। आवाज़ होते ही वे व्यवस्थित हो गए। वेटर अंदर आया-”कुछ और?” कहते हुए वेटर ने एक भेदक नज़र रानो और शिवा पर डाली और देखा कि कोल्ड ड्रिंक्स और बिस्कुट वैसे ही पड़े हुए हैं।
“बिल!” शिवा के मुँह से निकला।
थोड़ी देर बाद ही वेटर बिल ले आया। इसी बीच शिवा और रानो ने फिर एक-दूसरे को चूमते हुए अपने प्यार के प्रति आश्वस्ति-भाव जगाया। कोल्ड ड्रिंक के दो-दो घूँट उन्होंने एक-दूसरे को पिलाए और बिल देकर रेस्तराँ से बाहर।
शिवा और रानो अपने-आप को बड़ा हलका महसूस कर रहे थे।
“अब कब मिलोगी?”
“जब तुम कहो।”
रानो के मुँह से पहली बार अपने लिए तुम संबोधन सुनकर शिवा को भला लगा। उसने रानो को साइकिल पर बिठाया और उसे नबी करीम की गली से नुक्कड़ पर छोड़ता हुआ तेज़ रफ्तार से घर की ओर चल दिया।
अगले दिन शिवा दफ्तर थोड़ी देर से पहुँचा। हाज़िरी-रजिस्टर पर दस्तखत करने लगा तो चक्रवर्ती ने कहा-”व्हाई आर यू सो लेट टुडे, आइ हैव ऑलरेडी रिसीव्ड थ्री कॉल्स फॉर यू।”
“एनी मैसेज?”
“नो मैसेज, बट यू सी, दिस इज़ एन ऑफिशियल फोन, मस्ट बी केअरफुल।”
‘बूढ़ा खूसट!’ शिवा ने मन ही मन कहा। सोचने लगा-हो न हो रानो ने ही फोन किए होंगे। पर रानो तो इस वक्त स्कूल में होगी। तो शेफाली! पर तीन बार किसलिए? इसी उधेड़बुन में पड़ा वह अपनी सीट पर जमने ही लगा था कि टेलीफोन की घंटी फिर बजी, उसकी नज़रें उधर ही उठीं।
थोड़े क्षोभ और तिरस्कार की मुद्रा में चक्रवर्ती ने कहा-”यस, अगेन...।” शिवा ने भी चक्रवर्ती की मुद्रा की अपेक्षा की और चोगा पकड़ लिया। शेफाली थी।
“तुमने बहुत बड़ी गड़बड़ कर दी।”
“हुआ क्या है?”
“कहाँ ले गए थे कल शाम रानो को?”
“पास ही तो गए थे।”
“जानते हो, रात उसे कितनी मार पड़ी है अपने पिता से।”
“क्यों?” शिवा ने थोड़ा घबराते हुए पूछा।
“मुझसे पूछते हो क्यों...तुम्हें उससे अकेले में मिलने का इतना ही मन था तो मुझे कहते, मैं अरेंज कर देती।”
“अब क्या हो सकता है?”
“थोड़ा धीरज से काम लो। रानो अब तुम्हारी ही है, इस बात का मुझे पूरा विश्वास हो गया है।”
“कुछ कहा उसने?” शिवा ने पूछा।
“पिटती रही, पर रोई नहीं, न उसने यह बताया कि वह कहाँ गई थी और किसके साथ थी...करेजिअस गर्ल...मुझे गुस्सा तुम पर आ रहा है।”
शिवा ने देखा, चक्रवर्ती उसी की ओर बार-बार देखकर जा रहा था कि ‘इट्स ऑफिशियल फोन। कट शॉर्ट।’ शिवा ने यही समझते हुए कहा-”अच्छा, शाम को आता हूँ।”
“नहीं, दो-तीन रोज़ बिल्कुल मत आओ...उसका घर से निकलना बंद है। स्कूल भी नहीं, मेरे पास भी नहीं।”
“कैसे मालूम?”
“उसकी छोटी बहन है न किरण, वही आई थी मेरे पास...उसी से सब मालूम हुआ...मैं तो रात से परेशान हूँ।”
“आई एम रिअली सॉरी शेफाली!” चक्रवर्ती घूर रहा था। “अच्छा, मैं तुमसे फिर बात करता हूँ।” कहकर शिवा ने फोन काट दिया। शेफाली की बातें सुनकर वह सचमुच दुखी हो गया। रानो इतना प्यार करती है मुझसे! ऐसा सोचकर उसे अच्छा भी लगा, पर पिटना-पीटना...यह सब क्या है? फाइलों पर उसकी नज़र ज़रूर थी, मन बार-बार रानो की ओर जाता। वह जल्दी से जल्दी रानो से मिलकर उसका दुःख बाँट लेना चाहता था। रानो ही शिवा का हासिल है। उसके मन में रानो के लिए अगाध प्यार उमड़ रहा था।
अनूपलाल और शिवा के बीच अब दोस्ती का रिश्ता भी बन चुका था। दोनों एक-दूसरे को मन की बात कह लेते थे। अनूपलाल को लगता था कि शिवा अपनी उम्र से कहीं ज़्यादा मैच्योर है, इसलिए वह तो शिवा को ‘गुरु’ ही कहने लगा था। शिवा को लगता कि अनूपलाल के पास हर समस्या का तार्किक निदान मौजूद होता है। अनूपलाल में सैन्स ऑफ ह्यूमर बहुत था। अपने पर हँसना उसे आता था। जब भी शिवा उदास होता या उसे कोई बात सताती तो वह उसे अनूपलाल के ही सामने रखता। अनूपलाल भी हलके-फुलके ढंग से स्थिति या समस्या का कई कोणों से विश्लेषण करता। आत्मविश्लेषण की क्षमता अनूपलाल के पास ज़बर्दस्त थी। आत्मविश्लेषण ही नहीं, दूसरे का विश्लेषण भी बड़ी सहानुभूति से कर देता था।