अनहद नाद / भाग-25 / प्रताप सहगल
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शिवा ने रानो के साथ उसके पिता के व्यवहार की बात अनूपलाल के सामने रखी तो उसने अपने अनुभव से ही कहा-”वह तुझे प्यार करती है। इस उम्र का प्यार बड़ा मायावी होता है। इस मायाजाल से मुक्ति नहीं। इसमें यह भी पता नहीं चलता कि हम दैहिक स्तर पर जी रहे हैं या मानसिक स्तर पर।” क्षण-भर खामोश रहने के बाद अनूपलाल ने फिर कहा-” मुझे तो यह सारा खेल शरीर का लगता है। प्यार नाम की चीज़ शायद 50-60 साल की उम्र के बाद पैदा होती होगी, वो भी एक-दूसरे से लंबे संबंध के बाद पैदा होती होगी, वो भी एक-दूसरे से लंबे संबंध के बाद...जब तक वह तुमसे नहीं मिलती, तुम खत लिखकर अपनी पीड़ा उस तक पहुँचा दो।” शिवा ने वैसा ही किया।
धीरे-धीरे रानो पर पड़े हुए बंधन ढीले हुए। उसका स्कूल आना-जाना शुरू हुआ, लेकिन किरण को कहा गया कि वह रानो पर निगरानी रखे। रानो के पिता का अनुमान यहाँ ग़लत निकला। दोनों बहनों में गँठबंधन हो गया। निगरानी रखने के बजाय किरण रानो की मदद करने लगी। शिवा और रानो के बीच प्रेम-पत्रों का सिलसिला निर्बाध चलने लगा।
अक्सर आदमी खुद को जितना होशियार समझता है, उतना होता नहीं। रानो का पिता भी कोई अपवाद नहीं था। उसकी नाक के नीचे ही सारा खेल चलता रहा। शिवा और रानो की मुलाकातें कभी नई दिल्ली स्टेशन के प्रतीक्षागृह में, तो कभी राजघाट पर किसी पेड़ के नीचे होने लगीं। इसी बीच रानो के इम्तिहान हो गए। शिवा के इम्तिहान एक महीना बाद हुए। इम्तिहानों के बाद दोनों बहनों का घर से निकलना मुश्किल हो गया। रानो सिलाई-कढ़ाई सीखने के बहाने घर से बाहर आने लगी। उसका सिलाई-कढ़ाई सीखना उसके पिता को भी अच्छा लगा। वह जल्दी से जल्दी उसकी शादी कर देना चाहता था। बिना माँ की लड़की को सँभालना कितना मुश्किल होता है इसका एहसास उसे जल्दी ही हो गया था।
अनूपलाल कॉलिज के इम्तिहान खत्म होते ही अक्सर दिल्ली से कहीं बाहर चला जाता था। इस साल संस्कृत का पर्चा उसी ने बनाया था, इसलिए बाहर जाना मुश्किल हो रहा था। पर्चे मूल्यांकन के लिए आए तो उसने शिवा को भी साथ लगा लिया। संस्कृत में अंक लगभग गणित की तरह से मिलते हैं। शिवा वैसे होशियार था, इसलिए उसने पर्चों का मूल्यांकन करना आधा घंटे में ही सीख लिया। अनूपलाल ने जब उसके मूल्यांकन की परख की तो वह आश्वस्त हो गया। उसने घर की चाबी शिवा को देते हुए कहा-”जब भी वक्त मिले, यहीं आकर पेपर चैक कर देना, हम दो-चार दिन मसूरी होकर आते हैं।”
शिवा दफ्तर से लौटते हुए वहीं चला आता और दो-तीन घंटे पेपर चैक करके ही घर लौटता।
खाली घर। अकेला घर। उसका मन हुआ रानो को वहीं बुला ले, पर शाम को रानो का घर से निकलना लगभग असंभव था। शिवा ने पत्र लिखकर रानो को मिलने के लिए कहा। तब तक रानो के पिता के मन में संशय की छाप काफी धूमिल हो चुकी थी, इसलिए रानो ने किरण को विश्वास में लेकर योजना बना ली और एक दिन शाम को निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच गई। शिवा ने दरवाज़ा उढ़का रखा था। रानो के अंदर प्रवेश करते ही वह बाहर आ गया और दरवाजे़ पर ताला लगाकर खुद पिछवाड़े से प्रवेश कर गया। अब वे दोनों मानो एक अभेद्य दुर्ग में सुरक्षित थे।
कमरे में छोटा-सा आकाश था और उसमें रस से भरे बादल तैर रहे थे। शिवा ने रानो का हाथ पकड़ा-”इतना ठंडा!”
रानो बस देखती रही। शिवा ने अपने हाथों से बारी-बारी से उसके दोनों हाथों को दबाया, रगड़ा और थोड़ी ही देर में चिंगारियाँ निकलने लगीं। शिवा ने पलंग पर लेटते हुए रानो को अपने ऊपर खींच लिया। सदियों से रुके हुए आवेग के साथ उसने रानो को चूमा। रानो की पलकें बंद थीं। शिवा के हाथों में पुरुषोचित खुलापन था। उसने फिर पूछा-”आज भी ब्रा नहीं पहनी।” रानो ने आज भी कोई जवाब नहीं दिया। शिवा ने झट से सिरहाने के नीचे रखे एक लिफाफे को उठाया और उसमें से एक ब्रा निकालकर हवा में लहराते हुए कहा-”यह तोहफा मेरी तरफ से” और उसने अपने हाथों से रानो को ब्रा पहना दी।
रानो बोली-”अब समझे?”
“क्या?”
“बुद्धू!”
“कैसे?”
“मैंने सोच रखा था, पहली बार ब्रा पहनूँगी तो तुम्हारे हाथों से।”
“और उतारोगी तो...” शिवा ने शरारत-भरे अंदाज़ में पूछा।
“वो भी तुम्हारे हाथों से।”
रानो के जिस्म पर सिर्फ ब्रा थी और शिवा के जिस्म पर कुछ भी नहीं। दोनों जिस्मों की ऊष्मा-किरणें एक-दूसरे से टकरा रही थीं। शिवा ने इतने उन्मुक्त भाव से देह को पहली बार देखा था। उसे सुमन का ध्यान आया ज़रूर। उसे लगा, वह मात्र एक छद्म था।
“कहाँ खो गए?” रानो ने पूछा और बिस्तर पर लेट गई।
शिवा ने ब्रा का व्यवधान भी हटा दिया और दोनों समातंर होकर लेट गए।
रानो और शिवा। शिवा और रानो। द्वैत से अद्वैत की ओर जा रहे थे। शिवा को जाने क्या सूझा। पूछ ही बैठा, “सेक्स?” ऐसे में भला यह भी पूछने की बात होती है क्या? पर शिवा था ही ऐसा। कहीं उसमें आत्मविश्वास की कमी थी या भलमनसाहत। या वह रानो की ओर से पूरी तरह से आश्वस्त हो जाना चाहता था। रानो ने उसकी बात का जवाब धीरे से पलकें बंद करके दे दिया।
उसके बाद वे दोनों अनहद नाद में डूब गए।
शिवा अक्सर अपनी बात किसी न किसी से बाँट लेता था। कभी अनूपलाल से, कभी गोपाल से, कभी हरीश से। इस बार उसने किसी से भी कुछ नहीं कहा। रानो के साथ गुज़ारी उस शाम से उसे जिस ब्रह्मानंद की प्राप्ति हुई थी, वह उसमें कई दिन डूबा रहा। जब भी अकेला होता एक अपरिभाषित रस को फुहारों में भीगता रहता। अचानक वह खुद को ज़्यादा बड़ा-बड़ा अनुभव करने लगा था।
रानो ने हायर सेकेंडरी पास कर ली और शिवा ने बी.ए.।
शिवा जीवन को पहले से ज़्यादा गंभीरता से लेने लगा था। स्वप्नों की जगह व्यावहारिकता अधिक आने लगी। उसे लगता, उसके साथ पूरा परिवार बँधा हुआ है और रानो? रानो के साथ वह इतना आल्हादित रहता है कि उसे हर वक्त अपने करीब देखना चाहता था।
शिवा के प्रयासों से गोपाल और शेफाली फिर एक-दूसरे के करीब आ गए। उनकी शादी तय हो गई। शेफाली बहुत खुश थी, शिवा खुश था, लेकिन गोपाल अभी भी आशंकित था। वह फिर भी कैसे तैयार हो गया! उसमें कोई वैशिष्ट्य-भाव जाग गया था या कि आर्थिक लाभ होने की संभावनाएँ थीं, कहा नहीं जा सकता। गोपाल और शेफाली के विवाह में शिवा ही सबसे ज़्यादा सक्रिय था। कार्ड पसंद करेगा तो शिवा, छपवाएगा तो शिवा, बैंड बुक करवाएगा तो शिवा, मेहँदी लाएगा तो शिवा। यूँ शेफाली का एक छोटा भाई और दो-एक मौसेरे भाई भी थे, लेकिन राखीबंद भाई शिवा सबसे महत्वपूर्ण था। वैसे भी शिवा की आदत थी कि जिस काम में जुटो तो जान लड़ा दो, वरना काम को हाथ भी न लगाओ। शादी के माहौल में शिवा और रानो का मिलना मुक्त रूप से होने लगा। रानो के पिता ने भी शिवा को देखा।
शेफाली और गोपाल के शुरू के चंद दिन तो ठीक से गुज़रे। शेफाली के सामने जब यथार्थ आया तो वह उससे दो-दो हाथ नहीं कर सकी। कुछ ही दिनों में तानाकशी होने लगे। गोपाल शेफाली पर बेबुनियाद शक भी करने लगा। इसी बीच गोपाल की मुलाकात साहिल से भी हो गई थी। साहिल को भी शिवा और कमला के संबंधों के बारे में शक हो चुका था। उसने अपनी बात गोपाल के सामने रखी। गोपाल को भी लगने लगा कि हो न हो भाई-बहन के धर्मबंद रिश्ते की आड़ में शिवा और शेफाली का दूसरा ही चक्कर चल रहा हो। गोपाल और साहिल के बीच यह एक सामान्य बिन्दु उभरा और वे शिवा से बदला लेने की योजनाएँ बनाने लगे।
कमला के साथ तो शिवा का दैहिक संबंध था, लेकिन शेफाली के साथ तो उसका यह रिश्ता नहीं था। ऐसा नहीं कि शिवा के मन में शेफाली को लेकर कभी कोई विकार आया ही न हो, लेकिन उसने उसे हमेशा दबा दिया और भाई-बहन के संबंध की मर्यादा में ही रहा।
शेफाली और गोपाल के बीच बढ़ते तनाव को शिवा ने अपने ढंग से कम करने की बहुत कोशिश की। तनाव तो कम नहीं हुआ, गोपाल और शिवा के बीच तनाव ज़रूर बढ गया। धीरे-धीरे शिवा गोपाल से कट गया, साहिल से कट गया, शेफाली से संपर्क सिर्फ फोन का ही रह गया। वह भी कभी-कभी। इसी संपर्क से उसे पता चला कि रानो की शादी कहीं और तय कर दी गई है। शिवा खामोश रहा। रानो से संपर्क करने का उसके पास कोई रास्ता नहीं था। उसे ही एक दिन रानो का फोन आया-”शिवा, मैं तुमसे मिलना चाहती हूँ।”
“शादी मुबारक हो।”
“यही सब तो तुम्हें बताना चाहती हूँ।”
“किसलिए?”
“मैं तुम्हीं से प्यार करती हूँ।”
“ठीक है।”
“कब मिल सकते हो?”
“कल इतवार है, दोपहर दो बजे ‘निहाल’ में ही मिलना।”
रानो थोड़ा अव्यवस्थित हो गई-”निहाल में?”
“हाँ, पहली बार वहीं मिले थे, आखिरी बार भी वहीं मिलते हैं।” कहकर शिवा ने फोन काट दिया। अगले रोज़ शिवा दो के बजाय ढाई बजे निहाल रेस्तराँ में पहुँचा। रानो इन्तज़ार कर रही थी। उसने उसे केबिन में चलने का इशारा किया और वे दोनों केबिन में बंद हो गए।
“तुमने अपने माता-पिता को भेजा क्यों नहीं?”
“मैं अभी शादी नहीं कर सकता रानो!”
“क्यों?”
“नहीं चाहता कि सारी उम्र क्लर्क बना रहूँ और तुम्हें भी कोई सुख न दे सकूँ।”
“सुख सुविधाओं में नहीं है।”
“सब कहने की बातें हैं।” उसके सामने शेफाली और गोपाल घूम गए। बोला-”देख लो अपनी दीदी को, हर हालत में साथ निभाने का बड़ा दंभ भरती थी। दो दिन भी तो हकीकत का सामना नहीं कर सकी। बस, कहना आसान है, करना बहुत मुश्किल और मैं तुम्हें किसी भी मुश्किल में नहीं डालना चाहता।”
रानो शिवा के करीब आ गई। उसने शिवा का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा-”और जो सारी उम्र के लिए मुश्किल में डाल रहे हो।”
“अरे, औरतों के शॉक-ऐब्जार्वर बहुत स्ट्राँग होते हैं। थोड़े दिनों में सब भूल जाओगी।”
“नामुमकिन। तुम्हें भूलना नामुमकिन। तुम्हीं मेरा पहला और आखिरी प्यार हो।” कहते हुए उसने शिवा के गले में बाँहें डाल दीं और हलके से उसे चूम लिया।
“तुम्हें डर नहीं लगता?” शिवा ने रानो से पूछा।
“लगता है, पर तुम्हें मैं छोड़ नहीं सकती।” कहते हुए उसने शिवा पर चुंबनों की बौछार कर दी। शिवा रानो के उन्नत स्तनों को सहलाने लगा-”आज तो ब्रा पहनकर आई हो।”
“तुमने ही तो पहनाई थी पहली बार ...यह लो...” कहते हुए उसने ब्रा को अपने स्तनों से ऊपर धकेल दिया। वह भूल चुकी थी कि उसकी सगाई किसी और के साथ हो चुकी है। दोनों के यौवन का ताप सामाजिकता को लाँघ रहा था। वे सामाजिक मर्यादा के द्वार तोड़कर वैयक्तिक मर्यादा के द्वार में प्रवेश कर चुके थे। ताप का ज्वार उतरने के बाद शिवा ने अपनी जेब से एक पैकेट निकालकर रानो के सामने रख दिया।
“क्या है?” पूछा रानो ने।
“यह वे सभी प्रेम-पत्र हैं, जो तुमने मुझे आज तक लिखे हैं। मैं सोच रहा था, तुम मुझे प्रेम-पत्र लौटाने के लिए कहोगी, इसलिए लेता आया।”
रानो ने पैकेट उठाकर खोला। अपने प्रेम-पत्रों को खोला, बंद किया और फिर पैकेट बनाकर शिवा को सौंपने हुए कहा-”मुझे खुद से एकदम अगल कर देना चाहते हो?”
इस सवाल का शिवा के पास कोई जवाब नहीं था। उसने रानो को चूम लिया।
“मुझे समझ में नहीं आ रहा कि पापा को मेरी शादी की इतनी उतावली क्यों हो गई। मैंने कहा भी कि शिवा एम.ए. करना चाहता है, करने दो, मैं भी बी.ए. कर लूँगी। पता नहीं...कहाँ से वह जाति का चक्कर ले आए, फिर अपनी मजबूरी, किरण का सवाल...मैं कुछ नहीं कह सकी...तुम भी तो अपनी ज़िद पर अड़े हो...पढ़ाई बाद में भी तो जारी रह सकती है।”
शिवा ने कोई जवाब नहीं दिया।
अगले इतवार शिवा और रानो फिर मिले। उससे अगले इतवार ही तो रानो की शादी थी। आज वे “निहाल’ में नहीं गए। शिवा का कहना था कि अब वेटर वहाँ घूरने लगे हैं। शिवा ने अपने किसी दोस्त का घर तय कर रखा था। उसे वहीं ले गया।
कमरे में बंद होते ही रानो शिवा से लिपट गई। शिवा ने उसे आराम से बिस्तर पर बिठाया। रानो अर्थभरी नज़रों से शिवा की ओर देखने लगी। रानो से अंततः नहीं रहा गया तो उसने शिवा से कह दिया-”मैं एक बार फिर तुम्हें समूचा पाना चाहती हूँ।” और एक बार फिर रानो ने शिवा को समूचा हासिल किया।
शिवा ने रानो के साथ अपने संबंधों के ग्राफ को जब अनूपलाल के सामने रखा तो उसने छूटते ही कहा-”मूल्य कितनी तेज़ी से बदल रहे हैं, यह तो सच है। सोचने की बात यह है कि रानो आज की पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रही है या कि यह एक आइसोलेटिड केस है?”
“इंडिविजुअल। इंडिविजुअल को हम मास में कैसे बदल सकते हैं।” शिवा ने कहा।
“इंडिविजुअल भी कहीं नहीं न कहीं मास का हिस्सा तो होता ही है।”
“तो फिर सामाजिक नैतिकता और वैयक्तिक नैतिकता क्या है?” शिवा ने पूछा।
“फर्क है तो है। वैयक्तिक नैतिकता जीते हुए सामाजिक हस्तक्षेप तो करती ही है, दोनों को एकदम काटकर अलग-अलग देखना मुश्किल है।”
शिवा थोड़ी देर खामोश रहने के बाद बोला-”आपको नहीं लगता कि राम हमारी सामाजिक नैतिकता और कृष्ण हमारी वैयक्तिक नैतिकता के ही प्रतीक हैं।”
“गुड...गुड...हैं...हैं, लेकिन कृष्ण सामाजिक भी हैं।” अनूपलाल ने कहा।
“पर वैयक्तिक पक्ष ज़्यादा प्रबल है। कवियों ने उसी का ज़्यादा वर्णन किया है।”
“वो मानसिकता कवियों की है।”
“लेकिन उन्होंने कृष्ण पर उसे आरोपति क्यों किया, राम पर क्यों नहीं?”
“हाँ, यह बात तो है...इट मेक्स ऑल सार्ट्स ऑफ थिंग्स टू मेक दि वर्ल्ड।”
“यह तो सरलीकरण हो गया।” शिवा ने कहा।
“तो तुम खुद को कहाँ रखते हो?” अनूपलाल ने पूछा।
“बात मेरी नहीं, बात तो रानो की है...क्या उसे हम द्रौपदी का प्रतिनिधि मानें?”
“द्रौपदी को तो सामाजिक स्वीकृति थी, पर तुम्हारे संबंधों को समाज स्वीकार करेगा क्या?”
“यही तो अजब तमाशा है हमारे समाज का। श्रुतियों, स्मृतियों और पुराणों के नाम पर तो बहुत कुछ ऊलजलूल भी स्वीकार कर लेता है, स्वीकार ही नहीं करता, उसका यशोगान भी करता है और वही मूल्य कोई वर्तमान में जीना चाहे तो उसे लांछित और अपमानित करता है...वाह रे समाज!” कहते हुए शिवा ने लंबी साँस छोड़ी।
“तुम परेशान क्यों होते हो। मुझे यह सारी समस्या रानो की लगती है। तुम उसकी कमज़ारी बन चुके हो। उधर घर में कोई खासी दिक्कत है, जिसके चलते वह तुम्हारा इंतज़ार नहीं कर सकती। साहिर याद आता है। उसी ने कहा है न ‘वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन, उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।”
शिवा को यह बात अपनी मनःस्थिति पर बड़ी सटीक लगी और वह रानो के साथ गुज़ारी और भोगी हुई स्थितियों में खो गया।
रानो की शादी हो गई। शिवा खुद को छूँछा महसूस करने लगा। उसने सोचा, जीवन सिर्फ लड़कियों के लिए ही तो नहीं है। उसे तो जीवन में बेहतर काम करने हैं। समाज में इतना पाखंड व्याप्त है। उसके खिलाफ लड़ना है। अंधविश्वासों को ध्वस्त करना है और स्वयं उसे कुछ बनना है। उसने एम.ए. में प्रवेश ले लिया। उसके सामने किताबों की बड़ी दुनिया खुलने लगी। साहित्य के विभिन्न आयाम वह पहचानने लगा। वह शिक्षकों से कम, किताबों से अधिक प्रभावित होता। उसे लगता कि शिक्षकों के पास जीवनानुभव बहुत ही कम है। केवल किताबी ज्ञान से तीसरी आँख नहीं खुलती। इसीलिए उसे अनूपलाल अच्छा लगता था। उसने अनूपलाल से संपर्क बनाए रखा। एक दिन वे दोनों मोटर-साइकिल पर सवार सब्ज़ी लेने जा रहे थे। वे दोनों मोटर-साइकिल पर भी कुछ न कुछ चर्चा करते रहते। इन चर्चाओं के केन्द्र में किसी नारी की देहयष्टि से लेकर दर्शन और विज्ञान तक रहते। जब शिवा कॉलिज में था तो वे दोनों शाम को अक्सर साथ देखे जा सकते थे। अनूपलाल को सप्ताह में दो-एक बार पीने का शौक था। शिवा जब बी.ए. फाइनल में था तो उसने भी अनूपलाल के साथ दो-तीन बार दो-तीन पैग ले लिए थे। उससे पहले जब वह पिंग्ले एजेन्सीज़ में काम करता था तो एक व्यापारी के साथ बीयर पी थी। अनूपलाल का पीने का शौक बढ़ गया था। वह रोज़ पीने लगा था। शिवा कभी-कभी साथ दे देता। अनूपलाल मांसाहारी और शिवा शाकाहारी।
मोटर-साइकिल रोकते हुए अनूपलाल ने शिवा से कहा-”क्या गुरु, तुम तो खाते नहीं, पीते हो, कुछ खाया भी करो।”
“चलो आज खा लेते हैं।” शिवा ने कह दिया।
“क्या...खा लोगे?” अनूपलाल को थोड़ी हैरानी हुई कि समाजी संस्कारों वाले शिवा ने इतने सहज भाव से मांस खाने के लिए हाँ कैसे कह दी। यहाँ तो लोगों को कै आने लगती है। किसी के पेट में बकरी तो किसी के पेट में मुर्गी बोलने लगती है।
शिवा भी सोचने लगा कि वह तो लोगों को मांस आदि छोड़ने के लिए प्रेरित किया करता था। उसके पास तर्क थे यह साबित करने के लिए कि मांस का सेवन मनुष्यों के लिए है ही नहीं। यह अप्राकृतिक है। मांस खाने वाले पशु तो रात को जगते हैं, दिन में सोते हैं। उनके बच्चों की आँखें आठ-दस दिन बाद खुलती हैं। और भी तर्क जो उसने ‘सत्यार्थप्रकाश’ में पढ़े थे, बताता और सामने वाले को निरुत्तर कर देता है। वे मांस खाना छोड़ भले ही न पाते, पर शिवा के तर्कों की धाक ज़रूर मानते। ऐसा संस्कारी जीव शिवा। आज अचानक उसने बड़े सहज भाव से ही हाँ कैसे कर दी।
शायद यही शिवा का चरित्र था। संस्कारों से मुक्ति के लिए संघर्ष। बचपन से यही तो करता आया था वह।
उस रोज़ शिवा ने पहली बार मांस का सेवन किया। उसे अजीब तो लगा, पर बुरा नहीं। रात को आराम से सोया। किसी बकरी ने उसे पेट से आवाज़ नहीं दी। शिवा को बचपन से ही कुछ बातें समझ में नहीं आती थीं। इन्हीं में एक बात ईश्वर के अस्तित्व को लेकर थी। अनूपलाल के साथ हुई बहसों और चावला के साथ हुई मुलाकातों के अनुभवों से शिवा ने यह निष्कर्ष निकाल लिया था कि ईश्वर का कर्ता स्वयं मनुष्य ही है। उसी ने यह ईश्वर नाम का जाल बुना है और उसमें फँसा हुआ है। अब वह सोचने लगा था कि वस्तुतः यह प्रश्न ही निरर्थक है। दुनिया जिस रूप में आपको मिली है, उसे उसी रूप में स्वीकार करने के सिवाय व्यक्ति के पास कोई विकल्प नहीं है। विकल्पहीनता की स्थिति में ज़्यादा से ज़्यादा वह अपनी भूमिका ही अच्छी तरह से निर्वाह कर सकता है। उसके मित्र उसे नास्तिक मानने लगे थे, पर वह स्वयं को एक राशनैल मनुष्य के रूप में ही देखना चाहता था।
दो वर्ष का समय ही क्या होता है। एम.ए. करते हुए शिवा को पता ही न चला। अन्तिम परिणामों में उसने आगे-पीछे सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए और तुर-फुरत उसकी लेक्चरर के रूप में नियुक्ति भी उसी कॉलिज में हो गई, जिसका वह छात्र था। यह उसके लिए उपलब्धि कही जा रही थी। लेकिन शिवा इसे मात्र एक पड़ाव ही मान रहा था। उसकी नियुक्ति को लेकर घर में जश्न चल रहा था। शिवा के कई मित्र उसमें शामिल थे। अनूपलाल उस दिन बहुत खुश था। संयोग से उसने शिवा के जितने अंकों की भविष्यवाणी की थी, उसे उतने ही अंक प्राप्त हुए थे। न एक कम, न एक ज़्यादा। यह बात सचमुच शिवा की समझ से बाहर थी, पर ऐसा हुआ। कुछ जादू होते हैं, कुछ रहस्य होते हैं, पर चमत्कार कुछ नहीं होता। चमत्कार के नाम पर मात्र छलावा होता है, जादू के नाम पर ट्रिक, लेकिन जो समझ से परे हो, वह तब तक रहस्य ही रहता है, जब तक उसका ओर-छोर बुद्धि की पकड़ में न आ जाए। शिवा के लिए अनूपलाल की भविष्यवाणी भी रहस्य ही थी।
शिवा के पिता बहुत खुश थे। माँ खुश थी। भाई-बहन खुश थे। उन्हें लग रहा था, उनके दिन बदलने वाले हैं। वे अब फिर से चैन की ज़िन्दगी जी सकेंगे। पर शिवा! शिवा को लग रहा था कि उसे तो अभी बहुत ज़रूरी काम करने हैं। उसे किशोर वय में सँजोये हुए सपने पूरे करने हैं। उसे तो अभी बहुत दूर जाना है। उसे लग रहा था कि यह तो मात्र एक लांचिंग पैड है, उड़ान तो अभी शेष है। सुमन उसके दिमाग़ में कौंधी और लुप्त हो गई। रानो को उसने बड़े प्यार से याद किया। काश! उसकी शादी न हुई होती तो...! शेफाली और गोपाल अलग-अलग थे। उन्होंने अलग-अलग तरीकों से ही अपनी खुशी ज़ाहिर की।
रात देर तक जश्न चलता रहा। शिवा ने उस दिन काफी पी ली, इतनी कि धीरे-धीरे उसका सोचना अव्यवस्थित हो गया। वह अव्यवस्था में व्यवस्था लाने की कोशिश करने लगा। जितनी कोशिश करता स्मृतियों के धागे उतने ही उलझते जाते। स्मृति-मंथन बेतरतीब तरीके से ही चलता रहा। ऐसे में प्रायः उसे नींद आ जाती थी, लेकिन आज नींद की जगह उसके सामने रह-रहकर सवाल आ रहे थे। क्या यही था उसका गंतव्य? क्या यही था उसका प्राप्य? श्रेय और प्रेय के द्वंद्व में फँसा शिवा सोच रहा था कि क्या उसका प्राप्य मात्र प्रेय है? क्या उसके जीवन का हासिल इतना ही है या कि उसको अभी तय करनी हैं अनेक यात्राएँ और पहुँचना है उस मुकाम पर, जिसके आगे राह नहीं है। कौन-सा मुकाम होगा वह? अध्यात्म? ईश्वर? ईश्वर का ध्यान आते ही वह फिर अपनी ही सोच में उलझ गया। उसे लगा कि उसे इन प्रश्नों पर कोई निर्णयात्मक विचार बनाने से पहले कुछ और अनुभव अर्जित करने होंगे। क्यों न ‘अस्ति-नास्ति’ के विचार को स्थगित करे शिवा। अंतहीन यात्रा से पूर्व उसे कई यात्राएँ करनीं थीं। वह देर रात तक कई यात्राएँ करता रहा...यात्राएँ...और यात्राएँ...उसे लगा, उसके सामने अनेक द्वार खुले हुए हैं और वह किसी में भी प्रवेश कर सकता है...उन द्वारों से झर रही थी एक अनाम रोशनी...बज रहा था एक संगीत...।
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