अन्तराल / नदी के द्वीप / अज्ञेय

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रेखा द्वारा चन्द्रमाधव को :

प्रिय चन्द्र,

तुम्हारा पत्र मिला है। सोचती तो हूँ कि चलो, हो ही आऊँ कुछ दिन पहाड़ पर, मगर कुछ निश्चय नहीं कर पाती हूँ। यों अभी सोचने और निश्चय करने के लिए काफ़ी समय भी तो है।

पर तुम्हारे मित्र को मैं क्यों लिखूँ? और मेरी बात का उन पर क्या असर होगा? उनकी बातचीत और सम्पर्क से मैं बहुत प्रभावित हुई हूँ निस्सन्देह, और लखनऊ से प्रतापगढ़ की यात्रा तो एक 'रेवेलेशन' ही था मानो-तुम जानते हो, रेलगाड़ी में बिलकुल अज़नबी से कभी-कभी ऐसा निकट सम्पर्क हो जाता है जिसे साधारण सामाजिक जीवन में प्राप्त करते बरसों भी लग सकते हैं; समाज में आदमी अपने सब छद्य, कवच, अस्त्र-शस्त्र जो धारण किये रहता है और सब ओर से चौकस रहता है, रेल में वह उन्हें उतार कर सहज स्वाभाविक मानव प्राणी हो जाता है...लेकिन यह मैं अपनी बात कहती हूँ; डा. भुवन स्वयं असम्पृक्त और दूर हैं और वह जो तय करेंगे अपने मन से ठीक-बेठीक और सुविधा विचार कर ही करेंगे। फिर भी, तुम ने कहा है, इसलिए यह पत्र साथ में है, तुम्हीं अपने पत्र के साथ उन्हें भेज देना!

इस बार लखनऊ का प्रवास सुखद रहा। इसके लिए तुम्हारी बहुत कृतज्ञ हूँ। सचमुच, चन्द्र, मेरे लिए तुम जो कुछ करते रहे हो, जब सोचती हूँ तो गड़ जाती हूँ-कितने अपात्र को तुमने अपनी करुणा दी है। यों मैं तुम से बड़ी हूँ, पर...लेकिन जो नहीं कह सकूँगी, उसे कहने का यत्न नहीं करूँगी। पर मैं सच तुम्हारी ऋणी हूँ।

आशा है तुम प्रसन्न हो, और यथावत् काफ़ी हाउस जाते हो। दो-एक प्याले काफ़ी के मेरी ओर से भी पी लेना-पर काफ़ी अधिक मत पिया करो!

तुम्हारी

रेखा ---

इसके साथ का पत्र, रेखा द्वारा भुवन के नाम :

प्रिय भुवन जी,

यह पत्र लिख तो रही हूँ चन्द्र के आग्रह से, पर इससे आपको एक बार फिर सच्चे मन से धन्यवाद देने का जो अवसर मिला है उसका अभिनन्दन करती हूँ। आपका परिचय मेरे इधर के धुँधले वर्षों में एक प्रखर ज्योति-किरण-सा है; मैं तो किसी हद तक कर्मवादी हूँ और सोचती हूँ कि मेरा इस बार का लखनऊ जाना और आपसे भेंट होना और आप के साथ प्रतापगढ़ तक लौटना 'लिखा हुआ' था। यों तो मानव-जीवन एक अकारण, अनिर्दिष्ट, आकारहीन गतिमयता-सा लगता है; पर मेरा ख़याल है, बीच-बीच में विधि मानवों के जीवन में थोड़ा-सा हस्तक्षेप ज़रूर करती है-एक-एक गोट को उठा कर एक-एक दिशा दे देती है...इस सबको वैज्ञानिक थ्योरी मान कर इसका खण्डन-मण्डन न करें-मैं अपनी भावना की बात कहती हूँ।

चन्द्र का पहाड़ चलने का आग्रह है। मैंने अभी कुछ निश्चय नहीं किया; मेरी कठिनाइयाँ तो आप देखेंगे ही। चन्द्र का विचार था कि आप भी चलें, क्या ऐसा हो सकेगा? बल्कि आप भी चलें, और अपने परिचित और किसी को भी साथ लें-पुरुष, स्त्री, परिवार, जो आप चाहें और जिनका साथ आप को प्रीतिकर रहे। 'चलें' तो मैं कह गयी, पर अपने जाने का निश्चय तभी करूँगी जब आप का पक्का पता आ जाये।

मेरा पता ऊपर दिया है। आप उत्तर चाहें मुझे दें, चाहे चन्द्रमाधव को ही सीधे दे दें।

विनीत

रेखा

(यह पत्र चन्द्रमाधव के पत्र के साथ भुवन को मिला तो उसके हाशिये पर जगह-जगह चन्द्र के नोट थे। 'ज्योति-किरण' वाली बात के बराबर लिखा था : “मेरी बधाई स्वीकार करो, दोस्त!” 'विधि के हस्तक्षेप' वाली के बराबर लिखा था : “अब निस्तार नहीं है-विधि ने जो दिशा दे दी वह तो पकड़नी ही होगी!” अन्त में लिखा था : “न, तुम उत्तर सीधे ही देना-तुम्हारी गति उसी दिशा में है।”)

भुवन द्वारा रेखा को :

प्रिय रेखा जी,

आपके पत्र के लिए कृतज्ञ हूँ, यद्यपि उसके साथ ही अपनी अकिंचनता का बोध बड़े ज़ोर से हो आया। आप अगर कर्मवादी हैं तो धन्यवाद देने का प्रश्न यों भी नहीं उठना चाहिए; फिर मैं तो किसी तरह अधिकारी नहीं हूँ। बल्कि मुझसे कूप-मण्डूक को जब-तब कोई बाहर का प्रकाश दिखा दे, तो मुझे कृतज्ञ होना चाहिए-भले ही उस प्रकाश से चौंध भी लगे!

पहाड़ की बात चन्द्र ने भी लिखी है। निमन्त्रण के लिए मैं आप दोनों का आभारी हूँ। और जा सकता तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होती; पर अभी कुछ ठीक नहीं कह सकता। इसकी बहुत काफ़ी सम्भावना है कि ग्रीष्मावकाश में मुझे एक वैज्ञानिक मण्डल के साथ, या उसकी ओर से कहीं जाना पड़े। बहुत सम्भव है कि पहाड़ ही जाना पड़े, क्योंकि कॉस्मिक रश्मियों के सम्बन्ध का काम है और उसके लिए मापक यन्त्रों को पहाड़ी ऊँचाइयों पर या जल की गहराई में ले जाना होगा। यदि ऐसा हुआ, तो सम्भव है, कुछ दिन के लिए मैं कहीं पहाड़ पर आप लोगों को मिल जाऊँ। नहीं तो फिर किसी सुअवसर की प्रतीक्षा करनी होगी। पर कुल्लू कदाचित् न हो सके-उधर जोज़ी-ला पर एक दूसरा दल जाएगा यह निश्चित है। मैं या तो भूमध्य रेखा की ओर लंका में कहीं जाऊँगा या किसी निर्जन पहाड़ी झील पर-शायद कश्मीर में। कुछ निश्चय होते ही सूचित करूँगा।

आशा है आप प्रसन्न हैं।

आप का

भुवन ---

भुवन द्वारा चन्द्रमाधव को :

प्रिय चन्द्र,

तुम्हारा पत्र और उसके साथ रेखा देवी का पत्र और उस पर तुम्हारी बदतमीज़ियाँ सब मिलीं। रेखा जी को मैंने उत्तर तभी दे दिया था। लिख दिया था कि मेरे जा सकने का कोई ठीक नहीं है, क्योंकि मैं शायद काम से कहीं जाऊँ। तुम्हें चिट्ठी लिखने में इसीलिए देर की कि कुछ पक्का पता लग जाये। अब यह तय है कि मैं कश्मीर जाऊँगा; पहलगाँव से ऊपर तुलियन झील है, वहाँ पर। मैं कॉस्मिक रेज़ पर कुछ काम करता रहा हूँ, तुम जानते हो, उसी सिलसिले में कुछ नये मेज़रमेन्ट लेने होंगे अन्यत्र लिए गये मेज़रमेन्ट की चेकिंग के लिए। एक टोली रोहतांग के पार जोज़ी-ला जा रही है ऊँचाइयों पर माप लेने के लिए; मैं तुलियन झील में पानी की गहराई में माप लूँगा।

इसलिए कुल्लू का तो कोई सवाल नहीं है। अधिक-से-अधिक एक बात हो सकती है। अगर तुम लोग कश्मीर जाओ, तो मैं चार-छः दिन शायद कहीं मिल सकता हूँ। यहाँ से कुछ यन्त्र वग़ैरह साथ लेकर चलूँगा; दिल्ली से उन्हें बुक कर देना होगा और उनके पहुँचने में कुछ दिन लगेंगे ही। यह समय या तो दिल्ली में बिता सकता हूँ, या फिर आगे कहीं जा सकता हूँ। तुम लोग जैसा प्रोग्राम बनाओगे, मुझे सूचना देना।

रेखा जी को अलग पत्र नहीं लिख रहा हूँ। मैंने कहा था कि पक्का होते ही सूचना दूँगा, पर तुम्हीं लिख देना; फिर जैसा तय होगा मुझे बता देना।

और क्या हाल-चाल हैं? लखनऊ अभी कायम है या कि तुमने उलट दिया अपनी अखबारनवीसी से?

तुम्हारा

भुवन --

भुवन द्वारा गौरा को :

प्रिय गौरा,

यह बिना तुम्हारी ओर से प्रेरणा या 'कोंच' के लिखा गया पत्र पाकर तुम्हें अचम्भा होगा। होगा न? पर कोई कोयला इतना काला नहीं होता कि सुलग कर राख न हो सके! मुझे भी दैवी अनुकम्पा कभी छू जाती है और नेक काम कर बैठता हूँ।

ग्रीष्मावकाश में, शायद, तुमसे भेंट न हो सके। मैं काम से कश्मीर जा रहा हूँ। कॉस्मिक रश्मियों की तलाश में। कभी सोचता हूँ, इन रश्मियों को हम ठीक समझ सकें; विश्व में बिखरी हुई इस मुक्त शक्ति को काम में ला सकें, तो मानव का कितना बड़ा कल्याण उसके द्वारा हो सकेगा-सच ही 'शिव' सर्वत्र फैला हुआ, घट-घट व्यापी और अन्तर्यामी है, उसे पहचान सकने, उससे सम्पृक्त हो सकने की ही बात है...फिर ध्यान आता है, आज जो इतनी तत्परता कॉस्मिक रश्मियों की खोज में दिखायी जा रही है, वह क्या उनकी कल्याणकारी सम्भावनाओं के लिए? या कि ध्वंस के रथ-चक्र में एक और अरा लगा देने के लिए, जिससे उसकी गति और तीव्र हो सके? लेकिन उस डर से विज्ञान को रुकना नहीं होगा : वैज्ञानिक को तथ्य की शोध भी करनी होगी और विवेक को भी जगाना होगा...

कुछ दिन पहले लखनऊ गया था। चन्द्रमाधव अच्छी तरह है; काफ़ी और शहर का स्कैंडल-राजनैतिक-सामाजिक-उसका मुख्य खाद्य है। और वह इस पर पनप भी रहा है। उसके यहाँ एक और रिमार्केबल व्यक्ति से परिचय हुआ-एक श्रीमती रेखा देवी से। तुम उन्हें देखती तो अवश्य प्रभावित होती-एक स्वाधीन व्यक्ति जिसका व्यक्तित्व प्रतिभा के सहज तेज से नहीं, दुःख की आँच से निखरा है। दुःख तोड़ता भी है पर जब नहीं तोड़ता या तोड़ पाता, तब व्यक्ति को मुक्त करता है। ऐसा ही कुछ मुझे उनमें लगा। हम लोगों की कई तरह की बहस हुई-सत्य पर, मानवता पर, काफ़ी पीने पर! एक गाना भी उनसे सुना-बांग्ला का-गला बहुत अच्छा है पर गाने की बात पर न जाने किस रागात्मक गाँठ का बोझ है। जो अच्छा गा सकता है, वह क्यों नहीं गाते समय सब राग-विराग से मुक्त हो? संगीत को तो गायक को ही नहीं, श्रोता को भी राग-मुक्त कर देना चाहिए। परिणाम यही निकलता है कि संगीत से उनका कलाकार का सम्बन्ध नहीं है, भावुक का है। पर तर्कवाद को यहाँ तक क्यों ले जाया जाये? उनकी आवाज़ बहुत अच्छी थी, और उसमें 'सोज़' था।

तुम क्या कर रही हो-कब इधर आती हो? कश्मीर से लौट कर तो शायद भेंट होगी ही। आगे क्या करने का विचार है? लिखना! और क्या जाने, दैव-कृपा फिर मुझे छू जाए और मैं फिर पत्र लिख दूँ।

तुम्हारा स्नेही

भुवन ---

चन्द्र द्वारा रेखा को :

प्रिय रेखा जी,

भुवन का पत्र आया है। कुल्लू तो वह नहीं जा सकेगा-कश्मीर जा रहा है कुछ रिसर्च के सिलसिले में-पर उसने लिखा है कि अगर हम लोग कश्मीर में कहीं मिल सकें तो वह कुछ दिन हमारे साथ रहना चाहेगा। क्यों न वैसा ही प्रोग्राम बनाया जाये? कश्मीर चलें; वहीं भुवन साथ हो लेगा और वहाँ से फिर उसे आगे जहाँ जाना होगा चला जाएगा। आप चाहे वहीं रह जाइएगा चाहे लौट आइएगा। यह भी हो सकता है कि हम सब दिल्ली मिलें और वहीं से साथ चलें। मैंने छुट्टी ले ली है, अब आप अगर न चलेंगी तो मुझे बहुत-बहुत सख्त सदमा पहुँचेगा।

मेरे ख़याल में सबसे अच्छा होगा कि हम लोग मिलकर कुछ पक्का प्रोग्राम बना लें, और भुवन को सूचना दे दें। उसने भी यही लिखा है। आप एक-आध दिन फिर लखनऊ आ जाइये न-या मुझे लिखें, मैं प्रतापगढ़ आ जाऊँ? दो घंटे का तो रास्ता है।

प्रतीक्षा में,

आपका

चन्द्र ---

पुनः चन्द्र द्वारा रेखा को :

रेखा,

तुम (हाँ, मैं जानता हूँ तुम इस सम्बोधन से चौंकोगी; यद्यपि तुम मुझे तुम कह सकती हो, पचासों औरत-आदमी एक दूसरे को तुम कहते हैं और कोई नहीं चौंकता; पर तुम्हारा चौंकना ठीक भी है क्योंकि मैं हज़ारों की तरह तुम्हें तुम नहीं कह रहा हूँ, वैसे कह रहा हूँ जैसे एक एक को कहता है) तुम यहाँ आओगी, दिन-भर के लिए और रात की गाड़ी से वापस चली जाओगी। ठीक है, इतना ही सही। यह भी हो सकता है कि इतना भी तुम इसलिए कर रही हो कि भुवन के पास जाने की बात है, नहीं तो न आती। वह भी सही। यह होता ही है कि स्त्रियाँ जहाँ उदासीनता देखती हैं, वहाँ आकृष्ट होती हैं। पर रेखा, तुम नहीं जानती कि मैंने कितनी बार तुम्हें बुलाना चाहा है, 'तुम' कह कर ही नहीं, 'तू' कह कर-कुछ न कह कर केवल आँखों से, मन से, हृदय की धड़कन से, अपने समूचे अस्तित्व से! के तुम अगर डेस्टिनी को मानती हो तो कहूँ कि जब से तुम्हें देखा है; तब से यह जानता रहा हूँ कि डेस्टिनी ने मुझे तुम्हारे साथ बाँधा है, और मैं चाहूँ न चाहूँ इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है कि मैं तुम्हारी ओर बढ़ता जाऊँ, तुम दूर जाओ तो तुम्हारे पीछे जाऊँ पृथ्वी के परले छोर तक भी! और आज तीन वर्षों से यह बात मैं तुमसे कहना चाहता हूँ, एक-आध दफ़े मैंने ठान कर प्रयत्न भी किया है पर तुम टाल गयी हो। पर आज मैंने निश्चय किया है कि मैं कहूँगा ही, किसी तरह नहीं रुकूँगा।

उस दिन जब मैंने अपने जीवन की, अपने विवाह की कहानी तुम्हें सुनायी थी, तब तुमने पूछा था कि यह सब क्यों मैं तुम्हें बता रहा हूँ। उस दिन भी मैंने चाहा था कि पूरी बात तुम से कह दूँ। फिर बड़े दिनों में भी-पर तब भी तुम और-और बातें करके टाल गयी थीं। पिछली बार भुवन के कारण कोई मौका ही नहीं मिला। पर एक तरह से मैं उससे खुश ही हूँ। क्योंकि उस बार मुझे और भी स्पष्ट दीख गया कि तुम्हारे बिना मेरी गति नहीं है। यह भी तब मैंने अनुभव किया-तुम चाहे इसे न मानो-कि तुम्हारे अधूरेपन को मैं ही पूरा कर सकता हूँ, मैं ही, और कोई नहीं, कोई नहीं! तुम अधूरेपन से भी इनकार करोगी, तुम भविष्य से भी इनकार करती हो-तुमने अपने को बचाये रखने के लिए बहुत-सी बोगस थ्योरियाँ गढ़ रखी हैं जिन्हें तुम भी नहीं मानती हो, मैं जानता हूँ! और भुवन से तुम्हारे व्यवहार में यह मुझे स्पष्ट दीखा कि तुम्हारी सब थ्योरियाँ केवल एक रक्षा कवच हैं, ताबीज़ की तरह तुमने उन्हें बाँध रखा है क्योंकि तुम्हारी सारी प्रवृत्तियाँ उनके विरुद्ध हैं और तुम स्वयं अपनी प्रवृत्तियों से डरती हो। क्यों डरती हो? जो सहज प्रवृत्तियाँ हैं; वे कल्याणकारी हैं। और तुम्हारी प्रवृत्तियाँ और मेरी प्रवृत्तियाँ समानान्तर हैं, रेखा! भुवन दूसरी दुनिया का आदमी है। हो सकता है कि मुझ से ऊँचा, अच्छी दुनिया का ही हो, पर वह दूसरी दुनिया है, दूसरा स्तर है, और वह स्तर हमारे-तुम्हारे स्तर को कहीं नहीं काटता। क्यों तुम और अपनी प्रतारणा करती हो-क्या तुम्हारे जीवन में पहले ही यथेष्ट प्रतारणा नहीं रही?

रेखा, तुम बार-बार कह देती हो कि तुम मुझसे बड़ी हो, पर यह भी एक कवच है तुम्हारा। उम्र में भी तुम मुझसे दो-तीन बरस छोटी तो हो ही; वैसे भी किस बात में बड़ी हो? यों मैं तुम्हारा सम्मान करता हूँ, सदा करूँगा, तुम्हारे पैर चूमूँगा, यह बात दूसरी है; पर कौन-सा अनुभव तुम्हें इतनी दूर ऊपर उठा ले जाता है? मैं बच्चा नहीं हूँ, रेखा, दो बच्चों का पिता हूँ : क्लेश तुम ने भोगा है अवश्य, पर मैं उससे अछूता होऊँ यह नहीं है। और विवाह के बाद मैं यूरोप घूमा हूँ-युद्ध के आसन्न संकट से निराश, नीति-हीन प्रतिमान-हीन यूरोप-और उसमें जो अनुभव मैंने पाये हैं वे-क्षमा करना-एक विवाह और एक विच्छेद से कहीं अधिक तीखे, कटु और पका देने वाले हैं...तभी तो, लौटकर फिर मैं गृहस्थी में खप न सका; घर गया, कुछ रहा; हाँ, पत्नी के साथ सोया भी और उससे एक बच्चा भी पैदा किया; पर इन सब अनुभवों ने उस गर्म कड़ाहे को और तपाया ही, उस तेल को और तपाया ही जिसमें जलकर मैं आज वह बना हूँ जो मैं हूँ। तुमने एक बार कहा था कि तुम्हारे आसपास दुर्भाग्य का एक मण्डल है, पर मैं देखता हूँ, जानता हूँ, अनुभव करता हूँ कि तुम मेरी आत्मा के घावों की मरहम हो, तुम्हारा साया मेरे लिए राहत है, और-यदि तुम वह मुझे दे सको तो-तुम्हारा प्यार मेरे लिए जन्नत है...मैं बड़ा लालची रहा हूँ, जीवन से मैंने बहुत माँगा है, छोटी चीज़ कभी नहीं माँगी, बड़ी से बड़ी माँगता आया हूँ, मैं सच कहता हूँ कि इससे आगे मेरी और कोई माँग नहीं है, न होगी-यह मेरी सारी चाहनाओं, कल्पनाओं, वासनाओं, आकांक्षाओं की अन्तिम सीमा है, मेरे अरमानों की इति, मेरी थकी प्यासी आत्मा की अन्तिम मंजिल। रेखा, तुममें असीम करुणा है-तुम तत्काल प्यार नहीं दे सकती तो करुणा ही दो, मुक्त करुणा, फिर उसी में से प्यार उपजेगा।

मैं लालची हूँ, मैं स्वार्थी भी हूँ। पर इतना स्वार्थी नहीं, रेखा, कि इस बात को मैंने तुम्हारी ओर से न सोचा हो। तुम अकेली हो, मुक्त हो, नौकरियाँ करती हो। पर कहाँ तक? किसलिए? मुक्ति आज नारी चाहती है, चलो ठीक है, यद्यपि आज मुक्त कोई नहीं है और है तो इस महायुद्ध के बाद शायद वह भी न रहेगा-पर नौकरी तो कोई नहीं चाहता? मुक्ति के लिए नौकरी, नौकरी के लिए मुक्ति, दोहरा धोखा है। सिक्योरिटी हर कोई चाहता है, और उसीमें मुक्ति है। पुरुष के लिए भी, और स्त्री के लिए और भी अधिक।

इन बातों की यहाँ क्या रेलेवेंस है? बताता हूँ। हेमेन्द्र (हम दोनों के बीच कभी उसका नाम नहीं लिया गया है, आज ले रहा हूँ, लाचारी है) मलय में जिसके साथ रहता है उसके या और किसी के साथ शीघ्र ही शादी करना चाहेगा-या न चाह कर भी करेगा क्योंकि इसके बग़ैर उसका वहाँ अधिक दिन रहना सम्भव नहीं होगा-जंग दोनों को अलग कर देगा और हेमेन्द्र को यहाँ ला फेंकेगा या जेल में डाल देगा। और इसके लिए वह तुम्हें डाइवोर्स करेगा ही। उसके लिए सबसे आसान तरीका यह होगा कि धर्म-परिवर्तन कर के डाइवोर्स माँगे-तुम न धर्म-परिवर्तन करोगी, न उसके पास जाओगी, बस। तुम डाइवोर्स माँगती तो वह न देता-और शादी के लिए माँगती तो और भी नहीं, तुम्हें वह गुलाम रखकर सताना ही चाहता-पर अपनी सुविधा के लिए वह सब करेगा।

और मैं? तुम्हारा सिविल विवाह था, तुम्हारी बात और है। मेरी स्थिति दूसरी है। पर मैं अपने विवाह को विवाह कभी नहीं मान सका हूँ-ऐसा विवाह सन्तान को जायज़ करने की रस्म से अधिक कुछ नहीं है, न हो सकता है। मैं अलग हूँ, अपने को अलग और मुक्त मानता हूँ, और मेरा परिवार भी मुझसे न कुछ चाहता है, न कुछ अपेक्षा रखता है सिवाय खर्चे के जो मैं भेजता हूँ और भेजता रहूँगा। सच रेखा, मुझे कभी उस बेचारी स्त्री पर बड़ी दया आती है। बल्कि उसका किसी से प्रेम हो, वह किसी से शादी करना चाहे, तो मैं कभी बाधा न दूँ बल्कि भरसक मदद करूँ-ख़ुद जाकर कन्यादान कर आऊँ-जो कुमारी नहीं है उसे कन्या कहना असम्मत तो नहीं है न?

रेखा भविष्य है, होता है, तुम मानो! पर तुम्हारे बिना मेरा भविष्य नहीं है, यह मैं क्षण-क्षण अनुभव करता हूँ। मैं चाहता हूँ, किसी तरह अपनी सुलगती भावना की तपी हुई सलाख से यह बात तुम्हारी चेतना पर दाग दूँ, कि तुम्हारी और मेरी गति, हमारी नियति एक है, कि तुम मेरी हो, रेखा, मेरी, मेरी जान, आत्मा, मेरी डेस्टिनी, मेरा सब कुछ-कि मुझसे मिले बिना तुम नहीं रह सकोगी, नहीं रह सकोगी; तुम्हें मेरे पास आना ही होगा, मुझसे मिलना ही होगा, एक होना ही होगा।

तुम्हारा अभिन्न और तुम से दूर

रेखा द्वारा चन्द्रमाधव को :

प्रिय चन्द्र,

तुम्हारा पत्र मिला है। सोचती तो हूँ कि चलो, हो ही आऊँ कुछ दिन पहाड़ पर, मगर कुछ निश्चय नहीं कर पाती हूँ। यों अभी सोचने और निश्चय करने के लिए काफ़ी समय भी तो है।

पर तुम्हारे मित्र को मैं क्यों लिखूँ? और मेरी बात का उन पर क्या असर होगा? उनकी बातचीत और सम्पर्क से मैं बहुत प्रभावित हुई हूँ निस्सन्देह, और लखनऊ से प्रतापगढ़ की यात्रा तो एक 'रेवेलेशन' ही था मानो-तुम जानते हो, रेलगाड़ी में बिलकुल अज़नबी से कभी-कभी ऐसा निकट सम्पर्क हो जाता है जिसे साधारण सामाजिक जीवन में प्राप्त करते बरसों भी लग सकते हैं; समाज में आदमी अपने सब छद्य, कवच, अस्त्र-शस्त्र जो धारण किये रहता है और सब ओर से चौकस रहता है, रेल में वह उन्हें उतार कर सहज स्वाभाविक मानव प्राणी हो जाता है...लेकिन यह मैं अपनी बात कहती हूँ; डा. भुवन स्वयं असम्पृक्त और दूर हैं और वह जो तय करेंगे अपने मन से ठीक-बेठीक और सुविधा विचार कर ही करेंगे। फिर भी, तुम ने कहा है, इसलिए यह पत्र साथ में है, तुम्हीं अपने पत्र के साथ उन्हें भेज देना!

इस बार लखनऊ का प्रवास सुखद रहा। इसके लिए तुम्हारी बहुत कृतज्ञ हूँ। सचमुच, चन्द्र, मेरे लिए तुम जो कुछ करते रहे हो, जब सोचती हूँ तो गड़ जाती हूँ-कितने अपात्र को तुमने अपनी करुणा दी है। यों मैं तुम से बड़ी हूँ, पर...लेकिन जो नहीं कह सकूँगी, उसे कहने का यत्न नहीं करूँगी। पर मैं सच तुम्हारी ऋणी हूँ।

आशा है तुम प्रसन्न हो, और यथावत् काफ़ी हाउस जाते हो। दो-एक प्याले काफ़ी के मेरी ओर से भी पी लेना-पर काफ़ी अधिक मत पिया करो!

तुम्हारी

रेखा

इसके साथ का पत्र, रेखा द्वारा भुवन के नाम :

प्रिय भुवन जी,

यह पत्र लिख तो रही हूँ चन्द्र के आग्रह से, पर इससे आपको एक बार फिर सच्चे मन से धन्यवाद देने का जो अवसर मिला है उसका अभिनन्दन करती हूँ। आपका परिचय मेरे इधर के धुँधले वर्षों में एक प्रखर ज्योति-किरण-सा है; मैं तो किसी हद तक कर्मवादी हूँ और सोचती हूँ कि मेरा इस बार का लखनऊ जाना और आपसे भेंट होना और आप के साथ प्रतापगढ़ तक लौटना 'लिखा हुआ' था। यों तो मानव-जीवन एक अकारण, अनिर्दिष्ट, आकारहीन गतिमयता-सा लगता है; पर मेरा ख़याल है, बीच-बीच में विधि मानवों के जीवन में थोड़ा-सा हस्तक्षेप ज़रूर करती है-एक-एक गोट को उठा कर एक-एक दिशा दे देती है...इस सबको वैज्ञानिक थ्योरी मान कर इसका खण्डन-मण्डन न करें-मैं अपनी भावना की बात कहती हूँ।

चन्द्र का पहाड़ चलने का आग्रह है। मैंने अभी कुछ निश्चय नहीं किया; मेरी कठिनाइयाँ तो आप देखेंगे ही। चन्द्र का विचार था कि आप भी चलें, क्या ऐसा हो सकेगा? बल्कि आप भी चलें, और अपने परिचित और किसी को भी साथ लें-पुरुष, स्त्री, परिवार, जो आप चाहें और जिनका साथ आप को प्रीतिकर रहे। 'चलें' तो मैं कह गयी, पर अपने जाने का निश्चय तभी करूँगी जब आप का पक्का पता आ जाये।

मेरा पता ऊपर दिया है। आप उत्तर चाहें मुझे दें, चाहे चन्द्रमाधव को ही सीधे दे दें।

विनीत

रेखा

(यह पत्र चन्द्रमाधव के पत्र के साथ भुवन को मिला तो उसके हाशिये पर जगह-जगह चन्द्र के नोट थे। 'ज्योति-किरण' वाली बात के बराबर लिखा था : “मेरी बधाई स्वीकार करो, दोस्त!” 'विधि के हस्तक्षेप' वाली के बराबर लिखा था : “अब निस्तार नहीं है-विधि ने जो दिशा दे दी वह तो पकड़नी ही होगी!” अन्त में लिखा था : “न, तुम उत्तर सीधे ही देना-तुम्हारी गति उसी दिशा में है।”)

भुवन द्वारा रेखा को :

प्रिय रेखा जी,

आपके पत्र के लिए कृतज्ञ हूँ, यद्यपि उसके साथ ही अपनी अकिंचनता का बोध बड़े ज़ोर से हो आया। आप अगर कर्मवादी हैं तो धन्यवाद देने का प्रश्न यों भी नहीं उठना चाहिए; फिर मैं तो किसी तरह अधिकारी नहीं हूँ। बल्कि मुझसे कूप-मण्डूक को जब-तब कोई बाहर का प्रकाश दिखा दे, तो मुझे कृतज्ञ होना चाहिए-भले ही उस प्रकाश से चौंध भी लगे!

पहाड़ की बात चन्द्र ने भी लिखी है। निमन्त्रण के लिए मैं आप दोनों का आभारी हूँ। और जा सकता तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होती; पर अभी कुछ ठीक नहीं कह सकता। इसकी बहुत काफ़ी सम्भावना है कि ग्रीष्मावकाश में मुझे एक वैज्ञानिक मण्डल के साथ, या उसकी ओर से कहीं जाना पड़े। बहुत सम्भव है कि पहाड़ ही जाना पड़े, क्योंकि कॉस्मिक रश्मियों के सम्बन्ध का काम है और उसके लिए मापक यन्त्रों को पहाड़ी ऊँचाइयों पर या जल की गहराई में ले जाना होगा। यदि ऐसा हुआ, तो सम्भव है, कुछ दिन के लिए मैं कहीं पहाड़ पर आप लोगों को मिल जाऊँ। नहीं तो फिर किसी सुअवसर की प्रतीक्षा करनी होगी। पर कुल्लू कदाचित् न हो सके-उधर जोज़ी-ला पर एक दूसरा दल जाएगा यह निश्चित है। मैं या तो भूमध्य रेखा की ओर लंका में कहीं जाऊँगा या किसी निर्जन पहाड़ी झील पर-शायद कश्मीर में। कुछ निश्चय होते ही सूचित करूँगा।

आशा है आप प्रसन्न हैं।

आप का

भुवन

भुवन द्वारा चन्द्रमाधव को :

प्रिय चन्द्र,

तुम्हारा पत्र और उसके साथ रेखा देवी का पत्र और उस पर तुम्हारी बदतमीज़ियाँ सब मिलीं। रेखा जी को मैंने उत्तर तभी दे दिया था। लिख दिया था कि मेरे जा सकने का कोई ठीक नहीं है, क्योंकि मैं शायद काम से कहीं जाऊँ। तुम्हें चिट्ठी लिखने में इसीलिए देर की कि कुछ पक्का पता लग जाये। अब यह तय है कि मैं कश्मीर जाऊँगा; पहलगाँव से ऊपर तुलियन झील है, वहाँ पर। मैं कॉस्मिक रेज़ पर कुछ काम करता रहा हूँ, तुम जानते हो, उसी सिलसिले में कुछ नये मेज़रमेन्ट लेने होंगे अन्यत्र लिए गये मेज़रमेन्ट की चेकिंग के लिए। एक टोली रोहतांग के पार जोज़ी-ला जा रही है ऊँचाइयों पर माप लेने के लिए; मैं तुलियन झील में पानी की गहराई में माप लूँगा।

इसलिए कुल्लू का तो कोई सवाल नहीं है। अधिक-से-अधिक एक बात हो सकती है। अगर तुम लोग कश्मीर जाओ, तो मैं चार-छः दिन शायद कहीं मिल सकता हूँ। यहाँ से कुछ यन्त्र वग़ैरह साथ लेकर चलूँगा; दिल्ली से उन्हें बुक कर देना होगा और उनके पहुँचने में कुछ दिन लगेंगे ही। यह समय या तो दिल्ली में बिता सकता हूँ, या फिर आगे कहीं जा सकता हूँ। तुम लोग जैसा प्रोग्राम बनाओगे, मुझे सूचना देना।

रेखा जी को अलग पत्र नहीं लिख रहा हूँ। मैंने कहा था कि पक्का होते ही सूचना दूँगा, पर तुम्हीं लिख देना; फिर जैसा तय होगा मुझे बता देना।

और क्या हाल-चाल हैं? लखनऊ अभी कायम है या कि तुमने उलट दिया अपनी अखबारनवीसी से?

तुम्हारा

भुवन

भुवन द्वारा गौरा को :

प्रिय गौरा,

यह बिना तुम्हारी ओर से प्रेरणा या 'कोंच' के लिखा गया पत्र पाकर तुम्हें अचम्भा होगा। होगा न? पर कोई कोयला इतना काला नहीं होता कि सुलग कर राख न हो सके! मुझे भी दैवी अनुकम्पा कभी छू जाती है और नेक काम कर बैठता हूँ।

ग्रीष्मावकाश में, शायद, तुमसे भेंट न हो सके। मैं काम से कश्मीर जा रहा हूँ। कॉस्मिक रश्मियों की तलाश में। कभी सोचता हूँ, इन रश्मियों को हम ठीक समझ सकें; विश्व में बिखरी हुई इस मुक्त शक्ति को काम में ला सकें, तो मानव का कितना बड़ा कल्याण उसके द्वारा हो सकेगा-सच ही 'शिव' सर्वत्र फैला हुआ, घट-घट व्यापी और अन्तर्यामी है, उसे पहचान सकने, उससे सम्पृक्त हो सकने की ही बात है...फिर ध्यान आता है, आज जो इतनी तत्परता कॉस्मिक रश्मियों की खोज में दिखायी जा रही है, वह क्या उनकी कल्याणकारी सम्भावनाओं के लिए? या कि ध्वंस के रथ-चक्र में एक और अरा लगा देने के लिए, जिससे उसकी गति और तीव्र हो सके? लेकिन उस डर से विज्ञान को रुकना नहीं होगा : वैज्ञानिक को तथ्य की शोध भी करनी होगी और विवेक को भी जगाना होगा...

कुछ दिन पहले लखनऊ गया था। चन्द्रमाधव अच्छी तरह है; काफ़ी और शहर का स्कैंडल-राजनैतिक-सामाजिक-उसका मुख्य खाद्य है। और वह इस पर पनप भी रहा है। उसके यहाँ एक और रिमार्केबल व्यक्ति से परिचय हुआ-एक श्रीमती रेखा देवी से। तुम उन्हें देखती तो अवश्य प्रभावित होती-एक स्वाधीन व्यक्ति जिसका व्यक्तित्व प्रतिभा के सहज तेज से नहीं, दुःख की आँच से निखरा है। दुःख तोड़ता भी है पर जब नहीं तोड़ता या तोड़ पाता, तब व्यक्ति को मुक्त करता है। ऐसा ही कुछ मुझे उनमें लगा। हम लोगों की कई तरह की बहस हुई-सत्य पर, मानवता पर, काफ़ी पीने पर! एक गाना भी उनसे सुना-बांग्ला का-गला बहुत अच्छा है पर गाने की बात पर न जाने किस रागात्मक गाँठ का बोझ है। जो अच्छा गा सकता है, वह क्यों नहीं गाते समय सब राग-विराग से मुक्त हो? संगीत को तो गायक को ही नहीं, श्रोता को भी राग-मुक्त कर देना चाहिए। परिणाम यही निकलता है कि संगीत से उनका कलाकार का सम्बन्ध नहीं है, भावुक का है। पर तर्कवाद को यहाँ तक क्यों ले जाया जाये? उनकी आवाज़ बहुत अच्छी थी, और उसमें 'सोज़' था।

तुम क्या कर रही हो-कब इधर आती हो? कश्मीर से लौट कर तो शायद भेंट होगी ही। आगे क्या करने का विचार है? लिखना! और क्या जाने, दैव-कृपा फिर मुझे छू जाए और मैं फिर पत्र लिख दूँ।

तुम्हारा स्नेही

भुवन

चन्द्र द्वारा रेखा को :

प्रिय रेखा जी,

भुवन का पत्र आया है। कुल्लू तो वह नहीं जा सकेगा-कश्मीर जा रहा है कुछ रिसर्च के सिलसिले में-पर उसने लिखा है कि अगर हम लोग कश्मीर में कहीं मिल सकें तो वह कुछ दिन हमारे साथ रहना चाहेगा। क्यों न वैसा ही प्रोग्राम बनाया जाये? कश्मीर चलें; वहीं भुवन साथ हो लेगा और वहाँ से फिर उसे आगे जहाँ जाना होगा चला जाएगा। आप चाहे वहीं रह जाइएगा चाहे लौट आइएगा। यह भी हो सकता है कि हम सब दिल्ली मिलें और वहीं से साथ चलें। मैंने छुट्टी ले ली है, अब आप अगर न चलेंगी तो मुझे बहुत-बहुत सख्त सदमा पहुँचेगा।

मेरे ख़याल में सबसे अच्छा होगा कि हम लोग मिलकर कुछ पक्का प्रोग्राम बना लें, और भुवन को सूचना दे दें। उसने भी यही लिखा है। आप एक-आध दिन फिर लखनऊ आ जाइये न-या मुझे लिखें, मैं प्रतापगढ़ आ जाऊँ? दो घंटे का तो रास्ता है।

प्रतीक्षा में,

आपका

चन्द्र

पुनः चन्द्र द्वारा रेखा को :

रेखा,

तुम (हाँ, मैं जानता हूँ तुम इस सम्बोधन से चौंकोगी; यद्यपि तुम मुझे तुम कह सकती हो, पचासों औरत-आदमी एक दूसरे को तुम कहते हैं और कोई नहीं चौंकता; पर तुम्हारा चौंकना ठीक भी है क्योंकि मैं हज़ारों की तरह तुम्हें तुम नहीं कह रहा हूँ, वैसे कह रहा हूँ जैसे एक एक को कहता है) तुम यहाँ आओगी, दिन-भर के लिए और रात की गाड़ी से वापस चली जाओगी। ठीक है, इतना ही सही। यह भी हो सकता है कि इतना भी तुम इसलिए कर रही हो कि भुवन के पास जाने की बात है, नहीं तो न आती। वह भी सही। यह होता ही है कि स्त्रियाँ जहाँ उदासीनता देखती हैं, वहाँ आकृष्ट होती हैं। पर रेखा, तुम नहीं जानती कि मैंने कितनी बार तुम्हें बुलाना चाहा है, 'तुम' कह कर ही नहीं, 'तू' कह कर-कुछ न कह कर केवल आँखों से, मन से, हृदय की धड़कन से, अपने समूचे अस्तित्व से! के तुम अगर डेस्टिनी को मानती हो तो कहूँ कि जब से तुम्हें देखा है; तब से यह जानता रहा हूँ कि डेस्टिनी ने मुझे तुम्हारे साथ बाँधा है, और मैं चाहूँ न चाहूँ इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है कि मैं तुम्हारी ओर बढ़ता जाऊँ, तुम दूर जाओ तो तुम्हारे पीछे जाऊँ पृथ्वी के परले छोर तक भी! और आज तीन वर्षों से यह बात मैं तुमसे कहना चाहता हूँ, एक-आध दफ़े मैंने ठान कर प्रयत्न भी किया है पर तुम टाल गयी हो। पर आज मैंने निश्चय किया है कि मैं कहूँगा ही, किसी तरह नहीं रुकूँगा।

उस दिन जब मैंने अपने जीवन की, अपने विवाह की कहानी तुम्हें सुनायी थी, तब तुमने पूछा था कि यह सब क्यों मैं तुम्हें बता रहा हूँ। उस दिन भी मैंने चाहा था कि पूरी बात तुम से कह दूँ। फिर बड़े दिनों में भी-पर तब भी तुम और-और बातें करके टाल गयी थीं। पिछली बार भुवन के कारण कोई मौका ही नहीं मिला। पर एक तरह से मैं उससे खुश ही हूँ। क्योंकि उस बार मुझे और भी स्पष्ट दीख गया कि तुम्हारे बिना मेरी गति नहीं है। यह भी तब मैंने अनुभव किया-तुम चाहे इसे न मानो-कि तुम्हारे अधूरेपन को मैं ही पूरा कर सकता हूँ, मैं ही, और कोई नहीं, कोई नहीं! तुम अधूरेपन से भी इनकार करोगी, तुम भविष्य से भी इनकार करती हो-तुमने अपने को बचाये रखने के लिए बहुत-सी बोगस थ्योरियाँ गढ़ रखी हैं जिन्हें तुम भी नहीं मानती हो, मैं जानता हूँ! और भुवन से तुम्हारे व्यवहार में यह मुझे स्पष्ट दीखा कि तुम्हारी सब थ्योरियाँ केवल एक रक्षा कवच हैं, ताबीज़ की तरह तुमने उन्हें बाँध रखा है क्योंकि तुम्हारी सारी प्रवृत्तियाँ उनके विरुद्ध हैं और तुम स्वयं अपनी प्रवृत्तियों से डरती हो। क्यों डरती हो? जो सहज प्रवृत्तियाँ हैं; वे कल्याणकारी हैं। और तुम्हारी प्रवृत्तियाँ और मेरी प्रवृत्तियाँ समानान्तर हैं, रेखा! भुवन दूसरी दुनिया का आदमी है। हो सकता है कि मुझ से ऊँचा, अच्छी दुनिया का ही हो, पर वह दूसरी दुनिया है, दूसरा स्तर है, और वह स्तर हमारे-तुम्हारे स्तर को कहीं नहीं काटता। क्यों तुम और अपनी प्रतारणा करती हो-क्या तुम्हारे जीवन में पहले ही यथेष्ट प्रतारणा नहीं रही?

रेखा, तुम बार-बार कह देती हो कि तुम मुझसे बड़ी हो, पर यह भी एक कवच है तुम्हारा। उम्र में भी तुम मुझसे दो-तीन बरस छोटी तो हो ही; वैसे भी किस बात में बड़ी हो? यों मैं तुम्हारा सम्मान करता हूँ, सदा करूँगा, तुम्हारे पैर चूमूँगा, यह बात दूसरी है; पर कौन-सा अनुभव तुम्हें इतनी दूर ऊपर उठा ले जाता है? मैं बच्चा नहीं हूँ, रेखा, दो बच्चों का पिता हूँ : क्लेश तुम ने भोगा है अवश्य, पर मैं उससे अछूता होऊँ यह नहीं है। और विवाह के बाद मैं यूरोप घूमा हूँ-युद्ध के आसन्न संकट से निराश, नीति-हीन प्रतिमान-हीन यूरोप-और उसमें जो अनुभव मैंने पाये हैं वे-क्षमा करना-एक विवाह और एक विच्छेद से कहीं अधिक तीखे, कटु और पका देने वाले हैं...तभी तो, लौटकर फिर मैं गृहस्थी में खप न सका; घर गया, कुछ रहा; हाँ, पत्नी के साथ सोया भी और उससे एक बच्चा भी पैदा किया; पर इन सब अनुभवों ने उस गर्म कड़ाहे को और तपाया ही, उस तेल को और तपाया ही जिसमें जलकर मैं आज वह बना हूँ जो मैं हूँ। तुमने एक बार कहा था कि तुम्हारे आसपास दुर्भाग्य का एक मण्डल है, पर मैं देखता हूँ, जानता हूँ, अनुभव करता हूँ कि तुम मेरी आत्मा के घावों की मरहम हो, तुम्हारा साया मेरे लिए राहत है, और-यदि तुम वह मुझे दे सको तो-तुम्हारा प्यार मेरे लिए जन्नत है...मैं बड़ा लालची रहा हूँ, जीवन से मैंने बहुत माँगा है, छोटी चीज़ कभी नहीं माँगी, बड़ी से बड़ी माँगता आया हूँ, मैं सच कहता हूँ कि इससे आगे मेरी और कोई माँग नहीं है, न होगी-यह मेरी सारी चाहनाओं, कल्पनाओं, वासनाओं, आकांक्षाओं की अन्तिम सीमा है, मेरे अरमानों की इति, मेरी थकी प्यासी आत्मा की अन्तिम मंजिल। रेखा, तुममें असीम करुणा है-तुम तत्काल प्यार नहीं दे सकती तो करुणा ही दो, मुक्त करुणा, फिर उसी में से प्यार उपजेगा।

मैं लालची हूँ, मैं स्वार्थी भी हूँ। पर इतना स्वार्थी नहीं, रेखा, कि इस बात को मैंने तुम्हारी ओर से न सोचा हो। तुम अकेली हो, मुक्त हो, नौकरियाँ करती हो। पर कहाँ तक? किसलिए? मुक्ति आज नारी चाहती है, चलो ठीक है, यद्यपि आज मुक्त कोई नहीं है और है तो इस महायुद्ध के बाद शायद वह भी न रहेगा-पर नौकरी तो कोई नहीं चाहता? मुक्ति के लिए नौकरी, नौकरी के लिए मुक्ति, दोहरा धोखा है। सिक्योरिटी हर कोई चाहता है, और उसीमें मुक्ति है। पुरुष के लिए भी, और स्त्री के लिए और भी अधिक।

इन बातों की यहाँ क्या रेलेवेंस है? बताता हूँ। हेमेन्द्र (हम दोनों के बीच कभी उसका नाम नहीं लिया गया है, आज ले रहा हूँ, लाचारी है) मलय में जिसके साथ रहता है उसके या और किसी के साथ शीघ्र ही शादी करना चाहेगा-या न चाह कर भी करेगा क्योंकि इसके बग़ैर उसका वहाँ अधिक दिन रहना सम्भव नहीं होगा-जंग दोनों को अलग कर देगा और हेमेन्द्र को यहाँ ला फेंकेगा या जेल में डाल देगा। और इसके लिए वह तुम्हें डाइवोर्स करेगा ही। उसके लिए सबसे आसान तरीका यह होगा कि धर्म-परिवर्तन कर के डाइवोर्स माँगे-तुम न धर्म-परिवर्तन करोगी, न उसके पास जाओगी, बस। तुम डाइवोर्स माँगती तो वह न देता-और शादी के लिए माँगती तो और भी नहीं, तुम्हें वह गुलाम रखकर सताना ही चाहता-पर अपनी सुविधा के लिए वह सब करेगा।

और मैं? तुम्हारा सिविल विवाह था, तुम्हारी बात और है। मेरी स्थिति दूसरी है। पर मैं अपने विवाह को विवाह कभी नहीं मान सका हूँ-ऐसा विवाह सन्तान को जायज़ करने की रस्म से अधिक कुछ नहीं है, न हो सकता है। मैं अलग हूँ, अपने को अलग और मुक्त मानता हूँ, और मेरा परिवार भी मुझसे न कुछ चाहता है, न कुछ अपेक्षा रखता है सिवाय खर्चे के जो मैं भेजता हूँ और भेजता रहूँगा। सच रेखा, मुझे कभी उस बेचारी स्त्री पर बड़ी दया आती है। बल्कि उसका किसी से प्रेम हो, वह किसी से शादी करना चाहे, तो मैं कभी बाधा न दूँ बल्कि भरसक मदद करूँ-ख़ुद जाकर कन्यादान कर आऊँ-जो कुमारी नहीं है उसे कन्या कहना असम्मत तो नहीं है न?

रेखा भविष्य है, होता है, तुम मानो! पर तुम्हारे बिना मेरा भविष्य नहीं है, यह मैं क्षण-क्षण अनुभव करता हूँ। मैं चाहता हूँ, किसी तरह अपनी सुलगती भावना की तपी हुई सलाख से यह बात तुम्हारी चेतना पर दाग दूँ, कि तुम्हारी और मेरी गति, हमारी नियति एक है, कि तुम मेरी हो, रेखा, मेरी, मेरी जान, आत्मा, मेरी डेस्टिनी, मेरा सब कुछ-कि मुझसे मिले बिना तुम नहीं रह सकोगी, नहीं रह सकोगी; तुम्हें मेरे पास आना ही होगा, मुझसे मिलना ही होगा, एक होना ही होगा।

तुम्हारा अभिन्न और तुम से दूर

च.

पुनश्च :

यह पत्र शायद प्रतापगढ़ भेजना ठीक न होगा। तुम आओगी, तो यहीं तुम्हें दूँगा। तुम दोपहर को पहुँचोगी, स्टेशन से ही सीधे काफ़ी हाउस चलेंगे, वहाँ से पुरानी रेज़िडेंसी; उसके खण्डहरों में एकान्त में बैठ कर ही तुमसे बात करूँगा-वहीं यह पत्र तुम्हें दूँगा, वहीं पढ़वाऊँगा...मैं देखना चाहता हूँ इसे पढ़ते हुए तुम्हारे चेहरे की एक-एक सूक्ष्म-से-सूक्ष्म गति-क्योंकि उसमें मेरा भाग्य लिखा होगा...रेखा, अभी तक मैं भी खण्डहर हूँ। तुम भी खण्डहर हो; पर वहाँ से हम खण्डहर नहीं, एक नयी, सुन्दर, सम्पूर्ण, जगमगाती इमारत निर्माण करके निकलेंगे ऐसा मन कहता है...

चन्द्रमाधव द्वारा गौरा को :

प्रिय गौरा जी,

बहुत दिनों से आपने मुझे याद नहीं किया। मैंने पिछले महीने जो पत्र लिखा था, उसकी पहुँच भी आपने न दी। फिर भी संगीत के तरन्नुम में हम बेसुरे लोगों को बिलकुल भूल न गयी होंगी ऐसी आशा करता हूँ।

पर आज कोई बेसुरा तर्क भी मैं छेड़ने नहीं जा रहा हूँ; मैंने निश्चय किया है कि अब अपनी बात नहीं किया करूँगा, हर किसी से उसके प्रिय विषय की चर्चा किया करूँगा। समझ लीजिए कि यही मेरी साधना होगी-देखिए, मैं भी साधना-धर्म को मान गया, और यह आप की व्यक्तिगत विजय है।

भुवन जी यहाँ आये थे, यह मैंने आपको पिछले पत्र में लिखा था। रेखा देवी के विषय में भी लिखा था। वह वास्तव में बड़ी प्रभावशालिनी महिला हैं, नहीं तो भुवन सरीखा आदमी अपनी यात्रा का प्रोग्राम किसी के साथ के लिए बदल दे, यह क्या सम्भव है?

रेखा जी अभी हाल में फिर यहाँ आयी थीं। इधर भुवन से उनका कुछ पत्र-व्यवहार भी हुआ था; उन्होंने भुवन को पहाड़ चलने के लिए निमन्त्रित किया था। पहले मेरे भी साथ चलने की बात थी, पर अब प्रोग्राम कुछ बदल गया है भुवन जी रिसर्च के लिए कश्मीर जा रहे हैं न, मैं तो वहाँ न जा सकूँगा, पर रेखा जी कदाचित् कश्मीर ही जाएँगी। इधर वह कोई नौकरी नहीं कर रही हैं, इसीलिए पूरी छुट्टी है।

मैं सोचता हूँ मैं भी जा सकता। डा. भुवन जैसे लगन वाले वैज्ञानिक के साथ पहाड़ में कहीं कुछ दिन रह सकता, तो कुछ सीख ही लेता। वह हैं भौतिक विज्ञान के माहिर, पर और कितना कुछ जानते हैं...एक मैं हूँ कि स्वयं अपने विषय का ऊपरी ज्ञान रखता हूँ-पर जर्नलिज़्म की यही तो मार है; कहीं गहरे नहीं जाने देता, सब कुछ का ज्ञान होना चाहिए, पर उथला ज्ञान, कहीं भी गहरे गये कि दूसरे जर्नलिस्ट सन्देह से देखने लगते हैं, यह कौन उज़बक हमारे बीच में आ गया...

भुवन के गुणों से मैं क्रमशः अधिकाधिक प्रभावित होता जाता हूँ। पर सबसे बड़ा गुण उनका यह मानता हूँ कि उनके द्वारा मेरा आपसे परिचय हुआ। है स्वार्थ-दृष्टि, पर मेरे लिए तो यही गुण सबसे अधिक सुखद सिद्ध हुआ न!

यह पत्र न मालूम आपको समय पर मिलेगा या नहीं, आप कदाचित् दक्षिण से चल देने वाली हों। पर वहाँ न भी मिला तो आशा है रिडायरेक्ट तो हो ही जाएगा। दिल्ली पहुँचें तो मुझे सूचित कीजिएगा। मैं कुछ दिन के लिए वहाँ जाने की सोच रहा हूँ। छुट्टी पहाड़ जाने के लिए ली थी, पर भुवन दा का साथ तो हुआ नहीं, अब यह सोचता हूँ कि दिल्ली होकर मसूरी ही कुछ दिन रह आऊँ। आपका क्या मसूरी जाने का विचार नहीं है! आपके पिताजी तो जाएँगे-बल्कि वहीं होंगे?

आपका स्नेही

चन्द्रमाधव

चन्द्र द्वारा भुवन को :

भाई भुवन,

रेखा जी दो-चार दिन पहले यहाँ आयी थीं। मेरा पहाड़ जाना तो न हो सकेगा। मेरा साथ उन्हें अभीष्ट भी नहीं है। वह तुम्हारे साथ ही जाना चाहती हैं। खुशकिस्मत हो, दोस्त! बुद्धू हो तो क्या हुआ।

कभी जब पहाड़ से उतरोगे, तो मुझे भी याद कर लेना। मैं वही का वही हूँ, चन्द्रमाधव, जर्नलिस्ट, तुम्हारा अनुगत और प्रशंसक, और अब तुम्हारे तेज से अभिभूत।

चन्द्र

रेखा द्वारा भुवन को :

प्रिय भुवन जी,

आपके पिछले पत्र के बाद आशा की थी कि कुछ निश्चय होने पर आप फिर लिखेंगे। आपका कोई पत्र नहीं आया। हाँ, चन्द्रमाधव जी की ओर से सूचना मिली थी कि उनको आपका पत्र आया है, जिसमें आप ने कश्मीर की बात लिखी थी। वहीं का प्रोग्राम बताने के लिए उन्होंने मुझे लखनऊ बुलाया भी था, और मैं एक दिन दुपहर को जाकर रात की उसी गाड़ी से लौट आयी थी जिससे हम लोगों ने साथ यात्रा की थी।

भुवन जी, पहाड़ जाने के सारे प्रोग्राम को रद्द समझें। वह प्रोग्राम चन्द्रमाधव जी की प्रेरणा से बना था, उन्हीं के साथ हम लोगों के जाने की बात थी और इसी के लिए मैंने भी आपसे अनुरोध किया था; पर अब मैं उनके साथ न जा सकूँगी-न अकेले, न पार्टी में-इसलिए जाने की बात छोड़ देनी चाहिए। हाँ, आप अगर और लोगों को साथ लेकर जाने वाले हों तो मैं चल सकूँगी और आपका साथ पाकर प्रसन्न हूँगी-हाँ, आप मेरा साथ चाहें तब।

आपको व्यर्थ ही इतना कष्ट देने के लिए क्षमा चाहती हूँ।

आप की

रेखा

(आगे नया पन्ना जोड़ कर :)

भुवन जी, चन्द्रमाधव जी आप के मित्र हैं और उनका आपका परिचय बहुत पुराना है। ऐसे में मैं कोई कटुता लाना नहीं चाहती, और जिस स्थिति में फँस गयी हूँ उसके कारण लज्जा और संकोच के मारे गड़ी जा रही हूँ। फिर भी मैंने जो लिखा कि चन्द्रमाधव जी के साथ कहीं न जा सकूँगी उसके स्पष्टीकरण में कुछ तो कहना ही होगा। चन्द्रमाधव जी ने मुझे लखनऊ बुलाया था, मैं दोपहर को पहुँची तो पहले हम लोग काफ़ी हाउस गये। वहाँ आपके विषय में बातें होती रही, मैंने लक्ष्य किया कि उनकी बातों में बार-बार एक छिपी ईर्ष्या व्यक्त हो उठती है जिसका कारण न समझ सकी। फिर उन्होंने कहा, “यहाँ से रेज़िडेंसी चला जाये।” बाहर आँधी के आसार थे-आजकल धूल के कैसे झक्कड़ आते हैं, आप तो जानते हैं-मैंने आपत्ति की तो बोले, “रेखा जी, तुम ज़रा-सी आँधी से डरती हो?” वह मुझे सदा आप कहते हैं, आप और तुम की खिचड़ी कुछ अद्भुत लगी पर शायद दिल्ली का मुहावरा है इसलिए मैंने ध्यान न दिया, यह भी न लक्ष्य किया कि उनका स्वर आविष्ट है-बाद में यह भी याद आया।

हम लोग रेज़िडेंसी पहुँचे तो बड़े ज़ोर की आँधी आयी। वह ज़ोर से हँसे और बोले, “ठीक है, बिल्कुल मौजूँ है।” तब मैंने सँभल कर वापस चलने को कहा, पर उन्होंने कहा, “यहाँ तक आयी हो तो मेरी बात सुनकर जाओ।”

भुवन जी, आप समझदार हैं और मैं स्त्री हूँ। पूरी बात कहने की आवश्यकता भी नहीं है और उसमें व्यर्थ सब को ग्लानि ही होगी; आपको इस कीचड़ में खींचना भी न चाहिए। संक्षेप में कहूँ कि चन्द्रमाधव ने अपना प्रेम निवेदन किया-जबानी भी और एक लिखा हुआ पत्र देकर भी। पत्र मैंने वहाँ नहीं पढ़ा, उनकी बातों से ही स्तब्ध और अवाक् हो गयी क्योंकि मैं उन्हें अपना हितैषी, मित्र और सहायक मानती थी-उस नाते उनकी बहुत कृतज्ञ भी हूँ-यह नहीं जानती थी कि उनके हृदय में कैसे भाव भरे हैं। मैं वहाँ से तत्काल एक शब्द भी कहे बिना लौट आयी; वह वहीं रहे-पीछे मैंने सुना कि रो रहे हैं पर मैं रुकी नहीं-फिर ताँगा पाकर मैं सीधी स्टेशन पहुँची, काफ़ी पीने बैठी तो ध्यान आया कि उनका पत्र मेरे हाथ में है। वह मैंने नहीं पढ़ा। फिर वेटिंग रूम में बैठी रही, रात की गाड़ी से लौट आयी।

प्लेटफ़ार्म पर चन्द्रमाधव जी थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि चिट्ठी का उत्तर क्या उन्हें दूँगी? मैंने कहा कि अपनी समझ से उत्तर तो मैं दे आयी जब चली आयी। तब उन्होंने अपना पत्र वापस माँगा। मैंने दे दिया।

भुवन जी, मैं बहुत ही लज्जित हूँ सारी घटना से, पर समझ में नहीं आता कि क्यों मेरे साथ ऐसी बात होती है-सिवा इसके कि फिर नियति की बात कहूँ! मेरे साथ दुर्भाग्य का एक मण्डल चलता है-जो छूता नहीं, ग्रसता है...क्या आप मुझे क्षमा दे सकेंगे?

रेखा

रेखा द्वारा भुवन के नाम :

प्रिय भुवन जी,

परसों एक पत्र भेज चुकी हूँ। आज फिर कष्ट दे रही हूँ। साथ में चन्द्रमाधव जी का पत्र है जो मुझे अभी इसी डाक से मिला है। पत्र अपनी बात स्वयं कहता है।

आपसे अनुरोध करती हूँ कि मेरे कारण आप उनके प्रति अपने मन में मैल न आने दें। मैत्री दुर्लभ चीज़ है, और मेरी लिखी बातों की उनके जीवन में कोई अहमियत होगी ऐसा नहीं है, वह शीघ्र ही भूल जाएँगे। इसीलिए यह भी प्रार्थना करती हूँ कि आप उन्हें न जतावें कि मैंने यह सब आपको लिखा है : मैं नहीं चाहती कि यह जानकर उन्हें और ग्लानि हो और आपके उनके बीच में सदा के लिए ग्लानि की दरार पड़ जाये।

आपकी चिट्ठी की बाट देखती रहूँगी। अब बल्कि सोचती हूँ, कुछ दिन आपके निकट इसीलिए रह सकूँ कि जानूँ, आपने मुझे क्षमा कर दिया है, नहीं तो एक गहरा परिताप मुझे सालता रहेगा।

आपकी

रेखा

इसके साथ का पत्र, चन्द्रमाधव की ओर से रेखा को :

रेखा,

मैंने अपनी ही मूर्खता और अपटुता से तुम्हें खो ही दिया, तो अब तुम से यही प्रार्थना करता हूँ कि अब मुझसे कोई सम्पर्क न रखना; मेरा मुँह न देखना, न अपना मुँह मुझे दिखाना। लखनऊ आना बेशक; जहाँ तुम्हारी इच्छा हो आना-जाना, पर कभी मुझसे अचानक मुठभेड़ हो ही जाये तो मुझे पहचानना मत, बुलाना-बोलना मत-कहीं रहो, खुश रहो : पर मेरे जीवन से निकल जाओ, बस!

यह नहीं कि मैं तुम्हें चाहता नहीं, या कि उस पत्र में लिखी बातें सच नहीं हैं। पर-बस! और कुछ लिखने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है।

तुम्हारा अभागा

चन्द्र


पुनश्च :

यह पत्र शायद प्रतापगढ़ भेजना ठीक न होगा। तुम आओगी, तो यहीं तुम्हें दूँगा। तुम दोपहर को पहुँचोगी, स्टेशन से ही सीधे काफ़ी हाउस चलेंगे, वहाँ से पुरानी रेज़िडेंसी; उसके खण्डहरों में एकान्त में बैठ कर ही तुमसे बात करूँगा-वहीं यह पत्र तुम्हें दूँगा, वहीं पढ़वाऊँगा...मैं देखना चाहता हूँ इसे पढ़ते हुए तुम्हारे चेहरे की एक-एक सूक्ष्म-से-सूक्ष्म गति-क्योंकि उसमें मेरा भाग्य लिखा होगा...रेखा, अभी तक मैं भी खण्डहर हूँ। तुम भी खण्डहर हो; पर वहाँ से हम खण्डहर नहीं, एक नयी, सुन्दर, सम्पूर्ण, जगमगाती इमारत निर्माण करके निकलेंगे ऐसा मन कहता है...

चन्द्रमाधव द्वारा गौरा को :

प्रिय गौरा जी,

बहुत दिनों से आपने मुझे याद नहीं किया। मैंने पिछले महीने जो पत्र लिखा था, उसकी पहुँच भी आपने न दी। फिर भी संगीत के तरन्नुम में हम बेसुरे लोगों को बिलकुल भूल न गयी होंगी ऐसी आशा करता हूँ।

पर आज कोई बेसुरा तर्क भी मैं छेड़ने नहीं जा रहा हूँ; मैंने निश्चय किया है कि अब अपनी बात नहीं किया करूँगा, हर किसी से उसके प्रिय विषय की चर्चा किया करूँगा। समझ लीजिए कि यही मेरी साधना होगी-देखिए, मैं भी साधना-धर्म को मान गया, और यह आप की व्यक्तिगत विजय है।

भुवन जी यहाँ आये थे, यह मैंने आपको पिछले पत्र में लिखा था। रेखा देवी के विषय में भी लिखा था। वह वास्तव में बड़ी प्रभावशालिनी महिला हैं, नहीं तो भुवन सरीखा आदमी अपनी यात्रा का प्रोग्राम किसी के साथ के लिए बदल दे, यह क्या सम्भव है?

रेखा जी अभी हाल में फिर यहाँ आयी थीं। इधर भुवन से उनका कुछ पत्र-व्यवहार भी हुआ था; उन्होंने भुवन को पहाड़ चलने के लिए निमन्त्रित किया था। पहले मेरे भी साथ चलने की बात थी, पर अब प्रोग्राम कुछ बदल गया है भुवन जी रिसर्च के लिए कश्मीर जा रहे हैं न, मैं तो वहाँ न जा सकूँगा, पर रेखा जी कदाचित् कश्मीर ही जाएँगी। इधर वह कोई नौकरी नहीं कर रही हैं, इसीलिए पूरी छुट्टी है।

मैं सोचता हूँ मैं भी जा सकता। डा. भुवन जैसे लगन वाले वैज्ञानिक के साथ पहाड़ में कहीं कुछ दिन रह सकता, तो कुछ सीख ही लेता। वह हैं भौतिक विज्ञान के माहिर, पर और कितना कुछ जानते हैं...एक मैं हूँ कि स्वयं अपने विषय का ऊपरी ज्ञान रखता हूँ-पर जर्नलिज़्म की यही तो मार है; कहीं गहरे नहीं जाने देता, सब कुछ का ज्ञान होना चाहिए, पर उथला ज्ञान, कहीं भी गहरे गये कि दूसरे जर्नलिस्ट सन्देह से देखने लगते हैं, यह कौन उज़बक हमारे बीच में आ गया...

भुवन के गुणों से मैं क्रमशः अधिकाधिक प्रभावित होता जाता हूँ। पर सबसे बड़ा गुण उनका यह मानता हूँ कि उनके द्वारा मेरा आपसे परिचय हुआ। है स्वार्थ-दृष्टि, पर मेरे लिए तो यही गुण सबसे अधिक सुखद सिद्ध हुआ न!

यह पत्र न मालूम आपको समय पर मिलेगा या नहीं, आप कदाचित् दक्षिण से चल देने वाली हों। पर वहाँ न भी मिला तो आशा है रिडायरेक्ट तो हो ही जाएगा। दिल्ली पहुँचें तो मुझे सूचित कीजिएगा। मैं कुछ दिन के लिए वहाँ जाने की सोच रहा हूँ। छुट्टी पहाड़ जाने के लिए ली थी, पर भुवन दा का साथ तो हुआ नहीं, अब यह सोचता हूँ कि दिल्ली होकर मसूरी ही कुछ दिन रह आऊँ। आपका क्या मसूरी जाने का विचार नहीं है! आपके पिताजी तो जाएँगे-बल्कि वहीं होंगे?

आपका स्नेही

चन्द्रमाधव ---


चन्द्र द्वारा भुवन को :

भाई भुवन,

रेखा जी दो-चार दिन पहले यहाँ आयी थीं। मेरा पहाड़ जाना तो न हो सकेगा। मेरा साथ उन्हें अभीष्ट भी नहीं है। वह तुम्हारे साथ ही जाना चाहती हैं। खुशकिस्मत हो, दोस्त! बुद्धू हो तो क्या हुआ।

कभी जब पहाड़ से उतरोगे, तो मुझे भी याद कर लेना। मैं वही का वही हूँ, चन्द्रमाधव, जर्नलिस्ट, तुम्हारा अनुगत और प्रशंसक, और अब तुम्हारे तेज से अभिभूत।

चन्द्र

रेखा द्वारा भुवन को :

प्रिय भुवन जी,

आपके पिछले पत्र के बाद आशा की थी कि कुछ निश्चय होने पर आप फिर लिखेंगे। आपका कोई पत्र नहीं आया। हाँ, चन्द्रमाधव जी की ओर से सूचना मिली थी कि उनको आपका पत्र आया है, जिसमें आप ने कश्मीर की बात लिखी थी। वहीं का प्रोग्राम बताने के लिए उन्होंने मुझे लखनऊ बुलाया भी था, और मैं एक दिन दुपहर को जाकर रात की उसी गाड़ी से लौट आयी थी जिससे हम लोगों ने साथ यात्रा की थी।

भुवन जी, पहाड़ जाने के सारे प्रोग्राम को रद्द समझें। वह प्रोग्राम चन्द्रमाधव जी की प्रेरणा से बना था, उन्हीं के साथ हम लोगों के जाने की बात थी और इसी के लिए मैंने भी आपसे अनुरोध किया था; पर अब मैं उनके साथ न जा सकूँगी-न अकेले, न पार्टी में-इसलिए जाने की बात छोड़ देनी चाहिए। हाँ, आप अगर और लोगों को साथ लेकर जाने वाले हों तो मैं चल सकूँगी और आपका साथ पाकर प्रसन्न हूँगी-हाँ, आप मेरा साथ चाहें तब।

आपको व्यर्थ ही इतना कष्ट देने के लिए क्षमा चाहती हूँ।

आप की

रेखा

(आगे नया पन्ना जोड़ कर :)

भुवन जी, चन्द्रमाधव जी आप के मित्र हैं और उनका आपका परिचय बहुत पुराना है। ऐसे में मैं कोई कटुता लाना नहीं चाहती, और जिस स्थिति में फँस गयी हूँ उसके कारण लज्जा और संकोच के मारे गड़ी जा रही हूँ। फिर भी मैंने जो लिखा कि चन्द्रमाधव जी के साथ कहीं न जा सकूँगी उसके स्पष्टीकरण में कुछ तो कहना ही होगा। चन्द्रमाधव जी ने मुझे लखनऊ बुलाया था, मैं दोपहर को पहुँची तो पहले हम लोग काफ़ी हाउस गये। वहाँ आपके विषय में बातें होती रही, मैंने लक्ष्य किया कि उनकी बातों में बार-बार एक छिपी ईर्ष्या व्यक्त हो उठती है जिसका कारण न समझ सकी। फिर उन्होंने कहा, “यहाँ से रेज़िडेंसी चला जाये।” बाहर आँधी के आसार थे-आजकल धूल के कैसे झक्कड़ आते हैं, आप तो जानते हैं-मैंने आपत्ति की तो बोले, “रेखा जी, तुम ज़रा-सी आँधी से डरती हो?” वह मुझे सदा आप कहते हैं, आप और तुम की खिचड़ी कुछ अद्भुत लगी पर शायद दिल्ली का मुहावरा है इसलिए मैंने ध्यान न दिया, यह भी न लक्ष्य किया कि उनका स्वर आविष्ट है-बाद में यह भी याद आया।

हम लोग रेज़िडेंसी पहुँचे तो बड़े ज़ोर की आँधी आयी। वह ज़ोर से हँसे और बोले, “ठीक है, बिल्कुल मौजूँ है।” तब मैंने सँभल कर वापस चलने को कहा, पर उन्होंने कहा, “यहाँ तक आयी हो तो मेरी बात सुनकर जाओ।”

भुवन जी, आप समझदार हैं और मैं स्त्री हूँ। पूरी बात कहने की आवश्यकता भी नहीं है और उसमें व्यर्थ सब को ग्लानि ही होगी; आपको इस कीचड़ में खींचना भी न चाहिए। संक्षेप में कहूँ कि चन्द्रमाधव ने अपना प्रेम निवेदन किया-जबानी भी और एक लिखा हुआ पत्र देकर भी। पत्र मैंने वहाँ नहीं पढ़ा, उनकी बातों से ही स्तब्ध और अवाक् हो गयी क्योंकि मैं उन्हें अपना हितैषी, मित्र और सहायक मानती थी-उस नाते उनकी बहुत कृतज्ञ भी हूँ-यह नहीं जानती थी कि उनके हृदय में कैसे भाव भरे हैं। मैं वहाँ से तत्काल एक शब्द भी कहे बिना लौट आयी; वह वहीं रहे-पीछे मैंने सुना कि रो रहे हैं पर मैं रुकी नहीं-फिर ताँगा पाकर मैं सीधी स्टेशन पहुँची, काफ़ी पीने बैठी तो ध्यान आया कि उनका पत्र मेरे हाथ में है। वह मैंने नहीं पढ़ा। फिर वेटिंग रूम में बैठी रही, रात की गाड़ी से लौट आयी।

प्लेटफ़ार्म पर चन्द्रमाधव जी थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि चिट्ठी का उत्तर क्या उन्हें दूँगी? मैंने कहा कि अपनी समझ से उत्तर तो मैं दे आयी जब चली आयी। तब उन्होंने अपना पत्र वापस माँगा। मैंने दे दिया।

भुवन जी, मैं बहुत ही लज्जित हूँ सारी घटना से, पर समझ में नहीं आता कि क्यों मेरे साथ ऐसी बात होती है-सिवा इसके कि फिर नियति की बात कहूँ! मेरे साथ दुर्भाग्य का एक मण्डल चलता है-जो छूता नहीं, ग्रसता है...क्या आप मुझे क्षमा दे सकेंगे?

रेखा ---

रेखा द्वारा भुवन के नाम :

प्रिय भुवन जी,

परसों एक पत्र भेज चुकी हूँ। आज फिर कष्ट दे रही हूँ। साथ में चन्द्रमाधव जी का पत्र है जो मुझे अभी इसी डाक से मिला है। पत्र अपनी बात स्वयं कहता है।

आपसे अनुरोध करती हूँ कि मेरे कारण आप उनके प्रति अपने मन में मैल न आने दें। मैत्री दुर्लभ चीज़ है, और मेरी लिखी बातों की उनके जीवन में कोई अहमियत होगी ऐसा नहीं है, वह शीघ्र ही भूल जाएँगे। इसीलिए यह भी प्रार्थना करती हूँ कि आप उन्हें न जतावें कि मैंने यह सब आपको लिखा है : मैं नहीं चाहती कि यह जानकर उन्हें और ग्लानि हो और आपके उनके बीच में सदा के लिए ग्लानि की दरार पड़ जाये।

आपकी चिट्ठी की बाट देखती रहूँगी। अब बल्कि सोचती हूँ, कुछ दिन आपके निकट इसीलिए रह सकूँ कि जानूँ, आपने मुझे क्षमा कर दिया है, नहीं तो एक गहरा परिताप मुझे सालता रहेगा।

आपकी

रेखा ---

इसके साथ का पत्र, चन्द्रमाधव की ओर से रेखा को :

रेखा,

मैंने अपनी ही मूर्खता और अपटुता से तुम्हें खो ही दिया, तो अब तुम से यही प्रार्थना करता हूँ कि अब मुझसे कोई सम्पर्क न रखना; मेरा मुँह न देखना, न अपना मुँह मुझे दिखाना। लखनऊ आना बेशक; जहाँ तुम्हारी इच्छा हो आना-जाना, पर कभी मुझसे अचानक मुठभेड़ हो ही जाये तो मुझे पहचानना मत, बुलाना-बोलना मत-कहीं रहो, खुश रहो : पर मेरे जीवन से निकल जाओ, बस!

यह नहीं कि मैं तुम्हें चाहता नहीं, या कि उस पत्र में लिखी बातें सच नहीं हैं। पर-बस! और कुछ लिखने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है।

तुम्हारा अभागा

चन्द्र