रेखा / नदी के द्वीप / अज्ञेय

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रेखा स्टेशन पर गाड़ी रुकते-न-रुकते उतर पड़ी, पर प्लेटफ़ार्म की पटरी से पैर छूते ही मानो उसके भीतर की स्फूर्ति सुन्न हो गयी; उसने एक बार नज़र उठाकर इधर-उधर देखा भी नहीं कि कोई उसे लेने आया है या नहीं। यन्त्रवत् उसने सामान उतरवाया, कुली के सिर-कन्धे उठवाया, कुली के प्रश्न 'बाहर, बीवी जी?' के उत्तर में अस्पष्ट 'हाँ' कहा, और फिर कुली की गति में मन्त्रबद्ध-सी खिंची चल पड़ने को थी कि पास ही भुवन के स्वर ने कहा, “नमस्कार, रेखा जी!”

तब वह चौंकी नहीं। एक धुन्ध-सी मानो कट गयी; मानो वह जानती थी कि भुवन आएगा ही; वह मुड़ी तो एक खुला आलोक उसके चेहरे पर दमक रहा था : “नमस्कार भुवन जी; मैंने तो समझा कि आप नहीं आएँगे।”

“आप बड़ी जल्दी उतर पड़ीं-मैं तो डिब्बों की ओर ही देखता रहा। अच्छी तो हैं? देखने से तो पहले से अच्छी ही मालूम होती हैं-”

रेखा ने किंचित् विनोदी दृष्टि से उसे सिर से पैर तक देखकर कहा, “और आप-पहले से भी अधिक व्यस्त और अन्तर्मुखी-”

“नहीं तो-ये तो मेरी छुट्टियाँ हैं।”

“हाँ, काम से नहीं, काम के लिए! पर अच्छा है-काम में ही मुक्ति दीख सके, कितना बड़ा सौभाग्य होता है!”

कुली ने पूछा, “जी, चलूँ?”

“हाँ चलो, बाहर ले चलो,” भुवन ने कहा। “चलिए, रेखा जी-”

“हाँ। सुनिए, मैं वाई. डब्ल्यू. में ठहरूँगी-मैंने पहले सूचना दे रखी है। आत्म-निर्भर अर्थात् नौकरी करने वाली स्त्रियाँ वहाँ रह सकती हैं-”

“ठीक है, वहीं सही। मैं तो कालेज में ठहरा हूँ, एक प्रोफ़ेसर के साथ।”

“रहेंगे?”

“यही चार-छः दिन रहूँगा। यहाँ से सामान भेजकर फिर कश्मीर जाऊँगा।”

“हाँ-चन्द्रमाधव ने लिखा था-” कहकर रेखा सहसा चुप हो गयी। एक बोझल मौन उनके बीच में आकर जम गया।

ताँगे पर सवार होकर रेखा ने फिर पूछा, “भुवन जी, एक स्वार्थ की बात कहूँ?”

“क्या-”

“मैं दो-चार दिन यहाँ रुक जाऊँ, तो आप अपना कुछ समय मुझे देंगे? दिल्ली में मेरे परिचित तो बहुत हैं, पर वह खुशी की बात अधिक है या डर की, नहीं जानती!”

“मुझे तो यहाँ कोई काम नहीं है; दो-एक व्यक्तियों से ही मिलता-जुलता हूँ; मेरे पास बहुत समय है।”

“उबाऊँगी नहीं, यह वचन देती हूँ।” रेखा हँस दी। “ऊब आने से पहले ही हट जाऊँगी-मुझे और कुछ तो नहीं आता पर ऊब के पूर्व-लक्षण खूब पहचानती हूँ। कहूँ कि मेरे जीवन का मुख्य पाठ यही रहा है-ऊब की सात सीढ़ियाँ!”

“वह खतरा मुझे नहीं है, मैं ही उबा सकता हूँ; क्योंकि मेरे पास कहने को बहुत कम है; अधिक बात जिस विषय की कर सकता हूँ वह स्वयं उबानेवाला है-विज्ञान!”

“भुवन जी, आप अपने बारे में बात करते हैं-करते रहे हैं?”

“नहीं तो-या बहुत कम। वह भी कोई विषय है?”

“तो ठीक है; कहना चाहिए कि वह नया विषय है-मेरे लिए तो है ही, आपके लिए भी है!” रेखा की आँखें हँसी से चमक उठी। “और मैं वायदा करती हूँ, इस विषय से नहीं उबूँगी-आप ही जब छोड़ें तो छोड़ें। बल्कि मैं फिर-फिर लौट आऊँ तो आप बुरा तो न मानेंगे?”

भुवन ने थोड़ा-सा सकुचाते हुए, यद्यपि कुछ तोष भी पाकर, कहा, “न-नहीं तो; पर मैं फिर आपको वार्न करता हूँ, वह विषय बड़ा नीरस है, और कहीं पहुँचाता नहीं।”

“मैं तो पहले ही बता चुकी हूँ कि कहीं पहुँचने का लोभ ही मुझे नहीं है-ऐसी यात्रा पर हूँ जो कहीं पहुँचती ही नहीं, अन्तहीन है, यही क्या कहीं पहुँच जाना नहीं है?”

“यह भी एक दृष्टिकोण हो तो सकता है-” कह कर भुवन निरुत्तर-सा कुछ सोचने लग गया।

कश्मीरी गेट में वाई. डब्ल्यू. में सामान उतार कर दुमंजिले पर पहुँचाया गया; भुवन को 'लाउंज' में बिठा कर रेखा ने कहा, “आप ज़रा बैठिए, मैं अभी आती हूँ” और सामान के साथ अपने कमरे की ओर चली गयी।

जब तक वह मुँह-हाथ धोकर लौट कर आये, तब तक मन बहलाने के लिए भुवन कुछ ढूँढ़ने लगा-इसलिए भी कि जब-तब कोई स्त्री आती और लाउंज में उसे देख कर लौट जाती; कोई कौतूहल से उसे घूर कर, कोई सकपका कर-और वह खाली बैठने के संकोच से मुक्त होना चाहता था। पर कुछ भी उसे नहीं मिला। एक ताक में कुछ पत्र रखे हुए थे, उसने निकाले। 'लेडीज़ होम जर्नल', 'वोग' 'वुमन एण्ड होम'-कहीं उसका मन रमा नहीं। वह सब पुनः वहीं रखने को था कि ताक के भीतर एक छोटे आकार का पत्र उसे दीखा, उसने खींच कर निकाला : 'मेन ओनली'। उसने मुस्करा कर उसे वहीं रखकर ऊपर सब दूसरे पत्र लाद दिये।

वह सोचने लगा, पुरुषों के लिए जो पत्र होते हैं, उनका क्षेत्र तो इतना संकुचित नहीं होता-स्त्रियों के पत्र क्यों ऐसे होते हैं? पर पुरुषों के पत्र वास्तव में केवल उनके नहीं होते, सबके होते हैं, और स्त्रियों के केवल 'स्त्रियोपयोगी'...लेकिन क्या स्त्री के लिए बस यही बातें उपयोगी हैं-'हाउ टु विन ए मैन'-'हाउ टु होल्ड ए मैन'-'फीड द ब्रूट'-'द वे टु ए मैन्स हार्ट-थ्रू हिज़ बेली'-आदमी को फाँसो कैसे, वश में कैसे रखो, रिझाओ कैसे-मानो सम्मोहन-वशीकरण के तन्त्र-मन्त्र के युग से हम अभी कुछ भी आगे नहीं गये। और स्वयं स्त्री केवल यह नहीं चाहती, इसका प्रमाण वह नीचे छिपा हुआ 'मेन ओनली' है; हो सकता है कि उसमें केवल यह कौतूहल हो कि पुरुष क्या पढ़ते हैं, कैसे मज़ाक आपस में या स्त्रियों के बारे में करते हैं-वैसा ही कौतूहल, जैसा बहुत-से पुरुषों को स्त्रियों के बारे में हुआ करता है जिसके कारण वह स्त्रियों के जमाव की बातें किवाड़-दरारों में कान लगा कर सुना करते हैं!

एक काल्पनिक समस्या उसके सामने आयी। अगर ये सब पत्र-पत्रिकाएँ बिछी हों, और कोई देखने वाला न हो तो अकेली स्त्री कौन-सा पत्र उठायेगी? क्या किसी का चेहरा देखकर तय किया जा सकता है? कौतुकवश उसने सोचा, अच्छा अब जो स्त्री लाउंज में आएगी उसे देखकर अनुमान लगाऊँगा कि वह 'बोग' पढ़ेगी कि 'लेडीज़ होम' कि 'मेन ओनली'-

धत्! पहली स्त्री जो आयी वह रेखा थी। भुवन ने तुरन्त अपना खेल बन्द कर दिया। रेखा ने पूछा, “मैंने बहुत देर कर दी न? आप इतनी देर क्या करते रहे? यहाँ आपके पढ़ने लायक भी तो कुछ नहीं है-”

भुवन ने पूछा, “रेखा जी, ये जो इतने जर्नल यहाँ हैं, इनमें आप को कौन-सा पसन्द है?”

“कौन-से? अरे ये! ये तो मैंने कभी देखे नहीं। कभी बुनाई वग़ैरह के डिज़ाइन के लिए कोई देखा हो, पर इन्हें पढूँ, ऐसी हालत तो कभी नहीं हुई।”

“यही मैं सोच रहा था-कि इन्हें कौन पढ़ता होगा। और सबके नीचे मैंने देखा, 'मेन ओनली' दबा पड़ा है।”

रेखा हँस पड़ी। “हाँ! वह तो स्वाभाविक है। स्त्रियों की दिलचस्पी किस चीज़ में है? इन 'मेन ओनली'। यह यहाँ का स्थायी मज़ाक है।”

एक कुरसी खींच कर वह बैठ गयी। “अच्छा, अब बताइये, यहाँ क्या-क्या किया जाएगा-आपका क्या प्रोग्राम है?”

“आप ही प्रोग्राम बनाइये-”

तय हुआ कि उस दिन रेखा आराम करेगी, तीसरे पहर अगर भुवन आ जाये तो वह घूमने चलेगी-अगर भुवन को अवकाश है। लेकिन अभी तत्काल चलकर काफ़ी तो पी ही जाये।

दोनों नीचे उतरे। भुवन ने देखा, रेखा ने कपड़े बदल लिए थे। गाड़ी में वह रंगीन साड़ी पहने थी, अब फिर सफ़ेद रेशम पहन लिया था-भुवन को ध्यान आया कि रेखा को उसने रंगीन साड़ी कम ही पहने देखा है, पर सफ़ेद पहने तो कभी देखा ही नहीं, सफ़ेद वह पहनती है तो रेशम, जो वास्तव में सफ़ेद नहीं होता, उसमें हाथी दाँत की-सी, या मोतिये के फूल-सी, या पिसे चन्दन-सी एक हल्की आभा होती है...यों तो शुभ्र श्वेत भी ऐसा होता है कि पहननेवाले को दूर अलग ले जाता है, पर यह रेशमी सफ़ेद तो और भी दूर ले जाता है, दूर ही नहीं, एक ऊँचाई पर भी; रेखा मानो उसके साथ चलती हुई भी एक अलग मर्यादा से घिरी हुई चल रही है।

रेखा ने कहा, “क्या सोच रहे हैं, भुवन जी?”

“ऊँ-कुछ नहीं। आपकी बात सोच रहा था-नहीं, कुछ सोच नहीं रहा था, केवल आपको देख रहा था-”

“देखिए आप को काम्प्लिमेंट देना भी नहीं आता न? कितने अच्छे हैं आप, जिसके साथ सतर्क नहीं रहना पड़ता!”

अबकी बार भुवन हँस दिया। पर क्यों, यह वह स्वयं नहीं जान पाया।

काफ़ी पीते-पीते रेखा ने पूछा, “भुवन जी, आपने पहाड़ जाने के लिए और किसी को आमन्त्रित नहीं किया?”

“नहीं तो। फिर मेरा जाना ही तो नहीं हुआ-”

“अच्छा, आप जहाँ रिसर्च के लिए जाना चाहते हैं वहाँ मैं आ जाऊँ तो आप के काम का बहुत हर्ज होगा?”

भुवन ने चौंक कर कहा, “वह तो एकदम बियाबान जंगल है रेखा जी। वहाँ”

“फिर भी-फ़र्ज कीजिए-”

“नहीं-आप ही हर्ज करना न चाहें तो-खास नहीं होगा-इतना ही कि आपकी असुविधा का ध्यान हमेशा रहेगा-”

“और काम में बाधक होगा!” रेखा हँस दी। “ठीक है, मैं तो यों ही कह रही थी।”

वापस पहुँच कर रेखा ने नीचे ही कहा, “जीना चढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है-मैं यहीं से विदा लेती हूँ। मैं यही रहूँगी-आप तीसरे पहर जब भी आयें। मैं तैयार मिलूँगी।”

× × ×

कुदसिया बाग़ में उन दिनों फूल लगभग नहीं होते-कोई फूल ही उन दिनों में नहीं होता सिवा वैजयन्ती के, जो चटक रंगीन चूनर ओढ़े बीबी शटल्लो बनी धूप में खड़ी रहती है। लेकिन खण्डहर पर चढ़ी हुई 'बेगमबैरिया' लता की छाँह सुहावनी थी-फूल इसमें भी कई तेज़ रंगों के भी होते हैं, पर इसकी लम्बी पतली बाँहों में, हवा में झूमते गुच्छा-गुच्छा फूलों में एक अल्हड़पन होता है जो वैजयन्ती के भूनिष्ठ आत्म-सन्तोष से सर्वथा भिन्न होता है...और फिर इस विशेष लता के फूल भी तेज़ रंग के नहीं थे, एक धूमिल गुलाबी रंग ही उनमें था जो पत्तियों के गहरे हरे रंग की उदासी कुछ कम कर देता था, बस।

भुवन नीचे घास पर कोहनी टेके बैठा बेंच पर बैठी रेखा को देख रहा था। रेखा पहले बेंच पर बैठ गयी थी; जब भुवन नीचे बैठा तो वह भी उतरने लगी पर भुवन ने कहा, “नहीं-नहीं, आप वहीं रहिए; इस बैकग्राउंड पर आपकी साड़ी बहुत सुन्दर दीखती है।” रेखा ने एक फीके कोकनी रंग की साड़ी पहन रखी थी, बेगमबैरिया के फूल उसका सन्तुलन कर रहे थे, मानो एक ही गीत दो स्वरों में गाया जा रहा हो, रेखा का मन्द, अन्तर्मुख और गहराई खोजता हुआ, लता का तार, बहिर्निवेदित और उड़ना चाहनेवाला...

रेखा को एक आदत थी-सहसा, मानो अनजाने, उसका हाथ उठता और कनपटी के पास मानो कुछ खोजने लगता, फिर बालों की किसी छूटी हुई लट-कभी-कभी काल्पनिक ही लट!-को कानों के पीछे डालता हुआ धीरे-धीरे लौट आता। सारी क्रिया एक बड़े कोमल और आयासहीन ढंग से दुहरायी जाती थी। चलते हुए भी दो-चार बार भुवन ने लक्ष्य किया था, बाग़ में आने से पहले वे जमुना के किनारे-किनारे थोड़ा भटके थे और थोड़ी देर घाट की सीढ़ी पर पानी के निकट बैठे थे तब भी-तब बल्कि हाथ पानी में डुला कर रेखा ने कनपटियाँ भिगो ली थी...वह मुद्रा बड़ी आकर्षक थी; रेखा की उँगलियाँ वैसी तो नहीं थी जिन्हें सुन्दरता का आदर्श माना जाता है-उनके जोड़ उभरे हुए थे और रूप-तत्त्व की अपेक्षा मनस्तत्त्व की ओर ही इंगित करते थे-पर वे थीं पतली और व्यंजना-पटु-संवेदनशील उँगलियाँ। अभी बैठे-बैठे उसका हाथ फिर उठा तो भुवन ने पूछा, “आप थक तो नहीं गयीं? हम लोग काफ़ी भटके-”

“नहीं-मुझे तो पता ही नहीं लगा-”

“और रेत में भी चले-उससे बड़ी थकान होती है।”

“नहीं, मैं अभी और चल सकती हूँ। पर यहाँ बैठना भी बहुत मधुर है।”

भुवन हँस दिया। फिर एक लम्बा मौन रहा। दोनों आकाश को देखते रहे। मई का दिल्ली का आकाश-उसकी नीलिमा सभ्यता की भाप से मुरझा कर फीक़ी पड़ जाती है, और आकाश सभ्यता की तरह अपने ही रंग का ओप अपने पर नहीं चढ़ाता! पर प्रकृति के विभिन्न भावों की झाँई उसे नाना रंग दे जाती है : इस समय उसके आगे ताँबे के रंग का एक झीना-सा जाल था, जो धीरे-धीरे धुँधला पड़ रहा था।

रेखा ने कहा, “शहरों का आकाश भी क्या चरित्रहीन आकाश होता है-फिर गर्मियों में! यों मैं साँझ को घनी होते देखते घंटों बैठी रह सकती हूँ-पर गर्मियों में शहर में लगता है सबसे अच्छी दोपहर है-साँय-साँय सन्नाटा, धूप ऐसी कि चौंधिया दे, पर उस की चिलक ही जैसे दृश्य को माँज जाती है; सभ्यता के भीतर से मानव हृदय की स्तब्ध धड़कन तब सुनी जा सकती है...”

भुवन कुछ नहीं बोला। रेखा का स्वर उसे अच्छा लग रहा था, उसकी गति मानो लययुक्त थी, एक भावाक्रान्त उतार-चढ़ाव मानो अलग से कहता था, “बात के अर्थ से अलग और भी अर्थ है मुझमें, अकथित, अकथ्य अभिप्राय, ज़रा कान देकर सुनो...”

रेखा ने ही फिर कहा, “यों तो पहाड़ पर, या सागर के किनारे ही आकाश देखना चाहिए, पर देहातों में और खास कर आख़िरी बरसात में-तब आकाश बोलता है, गाता है-कैसे-कैसे अर्थ-भरे गाने...शहर का आकाश-शहर का सूर्यास्त-जैसे ड्राइंग-रूम की बातचीत, सब कोई बोल रहे हैं लेकिन सब कोई जैसे छिपे हुए, जैसे अनुपस्थित, केवल स्वरों के रेकार्ड, केवल यन्त्र-लिखित उत्साह और आवेश!”

भुवन ने धीरे-से कहा, “रेखा जी, आपका इस वक्त का आविष्ट स्वर मुझे तो अनुपस्थित नहीं लग रहा है-”

“मैं!” रेखा कुछ रुक गयी। फिर मुस्करा कर बोली, “भुवन जी, आप चाहें तो मैं भी ड्राइंग-रूम वाली बातों का कल खोल दे सकती हूँ-आप नहीं जानते कि मेरे पास कितनी बड़ी टंकी उस बँधे पानी की जमा है! लेकिन आपका समय मैंने माँगा था, तो उसके लिए नहीं।” वह फिर गम्भीर हो गयी। “असल में मेरे भी दो पहलू हैं-एक चरित्रवान्, प्रकृत, मुक्त; एक सभ्य और चरित्रहीन-”

“रेखा जी, यों पहलू तो हर किसी के चरित्र में होते हैं, पर चरित्र को इस तरह डिब्बों में बाँटना तो बड़ा ख़तरनाक है-व्यक्ति को एक और सम्पूर्ण होना चाहिए-यह विभाजन तो ह्रास की भूमिका है।”

“है। मैं जानती हूँ। और सभ्यता जो ह्रासोन्मुख हो जाती है वह किसलिए? कि समर्थ प्रकृत चरित्र सभ्यता के पोसे हुए पालतू चरित्र के नीचे दब जाता है-व्यक्ति चरित्रहीन हो जाता है। तब वह सृजन नहीं करता, अलंकरण करता है। नये बीज की दुर्निवार शक्ति से जमीन फोड़ कर नये अंकुर नहीं फेंकता, पल्लवित नहीं होता; झरे फूल चुनता है, मालाएँ गूँथता है, मालाओं से मूर्तियाँ सजाता है। जब मूर्ति पर मालाएँ सूख जाती हैं। तब हमें ध्यान होता है कि सभ्यता तो मर चली-पर वास्तव में मरना तो वहाँ आरम्भ हुआ है जहाँ हमने झरे फूल का सौन्दर्य देखना शुरू किया-डाल से टूटे फूल का!”

रूपक को अपने सामने मूर्त करते हुए भुवन ने कहा, “उस समय भी हम वृक्ष की ओर वापस जा सकते हैं-अंकुर की ओर-”

“हाँ, अगर वह हमारी उपेक्षा से सूख न गया हो। पर आज के हम सभ्य लोग अभी उतने अभागे नहीं है : अभी हम में झरे फूल भी हैं, जो आदृत हैं और गहरी जड़ें भी हैं जो नये अंकुर फेंकेंगी लेकिन जिनकी कद्र नहीं है। यही मैं कह रही थी-दो पहलुओं की बात-”

वह चुप हो गयी। फिर एक मौन छा गया। अब तक थोड़ी-थोड़ी हवा चल रही थी, वह भी बन्द हो गयी।

भुवन ने कहा, “उमस हो रही है। थोड़ा टहला जाये?”

“चलिए।”

दोनों बाग़ में इधर-उधर टहलने लगे। खण्डहर और लता के कुंज के दूसरी ओर हरियाली में जहाँ-तहाँ बच्चों के दल खेल रहे थे; अब तक सब आयाओं द्वारा किलकते-फुदकते अज-शावकों की तरह घेरे जाकर अपने-अपने बाड़ों की ओर ले जाये जा चुके थे; एक दम तोड़ता हुआ-सा अँधेरा छा गया था।

रेखा ने सहसा कहा, “भुवनजी, मैं आपको अपने प्रकृत, स्वस्थ, मुक्त पहलू से ही जानना चाहती हूँ-उसी के सम्पर्क में आप को रखना चाहती हूँ। पर उसके लिए ईमानदारी का तकाज़ा है कि दूसरा पहलू आपसे छिपाऊँ नहीं।”

बात भुवन की संवेदना को छू गयी, पर उसे समझ नहीं आया कि क्या कहे। उसका हाथ तनिक-सा रेखा की ओर बढ़ा और रह गया। वह कहने को हुआ, “थैंक यू, रेखा जी', पर बात कुछ ओछी लगी। फिर उसने कहा, “रेखा जी, मैंने अपने बारे में इतनी गहराई से कभी नहीं सोचा, पर अगर मुझमें भी ऐसा विघटन है-होगा ही-तो मैं भी यत्न करूँगा कि-”

“नहीं, आप में वैसा नहीं है। आपको-शायद विज्ञान ने बचा लिया। या-” रेखा हँस पड़ी, “कहूँ कि आप अभी उतने सभ्य नहीं हुए!”

भुवन भी हँस दिया।

“लेकिन-मैं आपको देर तो नहीं कर दे रही हूँ? आपके मेज़बान-”

“शाम के भोजन का बन्धन मैं नहीं पालता, वह प्रतीक्षा नहीं करेंगे। पर आप को भी तो लौटना होगा-आपकी तो शायद हाज़री लगेगी-”

“आज देर से आने की छूट है-सप्ताह में दो दिन होती है।”

“लेकिन कुछ खायेंगी तो?”

“मैं तो केवल काफ़ी पीती हूँ-मैंने कहा न, बहुत सभ्य हूँ! पर आप-”

“मैं भी काफ़ी ही पिऊँगा-”

“नहीं, आपको कुछ खाना होगा। चलिए-”

तय हुआ कि टहलते हुए परले फाटक से निकल कर कश्मीरी दरवाज़े के अन्दर जाकर कुछ खाया-पिया जाये, और दोनों धीरे-धीरे उधर बढ़ने लगे।

कार्लटन में सन्नाटा था। शाम को उधर खाने कौन आता है? पीने आते हैं कुछ लोग, पर उनका समय निकल गया-नौ बजे तक कौन ठहरता है...पर खाने को मामूली कुछ मिल जाएगा-सैंडविच, कटलेट, वग़ैरह।

“सभ्य जीवन बड़ा भारी वेटिंग-रूम है मानो” रेखा बोली “और होटल वग़ैरह भी सब वक्त काटने के-बीच का एक रिक्त भरने के साधन हैं। लेकिन वेटिंग किसके लिए-रिक्त किसके और किसके बीच? कोई नहीं जानता। इधर-उधर फिर रिक्त है।”

“दो रिक्तों के बीच का रिक्त भरने के लिए रिक्त-तो फिर रेखा जी, ये पार्टिशन क्यों करती हैं, सारा ही तो एक रिक्त हुआ! सभ्यता की आपकी परिभाषा बड़ी डरावनी है। और उसे भरने के लिए भी रिक्त-विज्ञान तो सिर पीट लेगा जो मानता है कि प्रकृति भरणधर्मा है-रिक्त नहीं सहती।”

“प्रकृति न? लेकिन सभ्यता नहीं। आप देखते नहीं कि सभ्यता किस दर्प से कहती है कि प्रकृति असभ्य है? क्योंकि सभ्यता अप्राकृतिक है।”

दोनों फिर कुदसिया बाग़ लौट गये। अब एक और भी गहरा मौन वहाँ पर था, और उसने जैसे दोनों को बाँध दिया। कई फेरे दोनों ने चुपचाप लगा लिए; सहसा दूर कहीं दस का गजर हुआ।

“रेखा जी, ऐसी बात कहना है तो शील के विरुद्ध शायद; लेकिन मैं कई बार सोचता हूँ आपको गृहस्थी में सुखी होना चाहिए था-या यह कहूँ कि आपके साथी को; ऐसा क्या हुआ कि-”

रेखा रुक गयी। अँधेरे में एक-दूसरे का चेहरा साफ़ नहीं दीखता था, पर रेखा के साँवले चेहरे में उसकी आँखों के कोये स्पष्ट झलक गये; उसने स्थिर दृष्टि से भुवन को देखते हुए कहा, “पर वह सब तो आप को चन्द्रमाधव ने-आपको मालूम ही होगा-”

“यह तो नहीं कह सकता कि नहीं बताया-या कि स्वयं मैंने ही नहीं पूछा,” भुवन ने चन्द्रमाधव पर दोष न मढ़ने की नीयत से कहा, “पर यों तो कोई कारण होता ही है-लेकिन उसमें आन्तरिक कारणत्व न हो तो प्रश्न उठता ही है कि क्या कोई एडजस्टमेन्ट नहीं हो सकता था? क्योंकि बाहरी सब कारणों पर व्यक्ति विजय पा सकता है-क्योंकि वह मशीन से अधिक एडैप्टेबल है, लचकीला है।”

“आप ठीक कहते हैं। हर घटना की एक आन्तरिक संगति होती है-हर दुर्घटना की भी। लेकिन क्या आप सचमुच वह सब सुनना चाहते हैं?”

“अगर आपको कहने में क्लेश या संकोच न हो तो-हाँ।” भुवन ने हिचकते कोमल स्वर में कहा।

पास की बेंच पर रेखा बैठ गयी।

“संकोच होता भी है, नहीं भी होता। कहते हैं न कि अच्छा स्वप्न कह देने से उसकी सम्भावना कम हो जाती है, उसी तरह बुरा सपना कहने से उसका भी बोझ हल्का हो जाता है। मैं जब भी अपनी बात कहती हूँ या कहने का संकल्प करती हूँ तो उसकी छाया की एक परत कम हो जाती है, सोचती हूँ कि कह-कह कर ही उसे कह डाला जा सकता है-उससे मुक्त हुआ जा सकता है-पर कहने का निश्चय करना ही बड़ा कठिन होता है क्योंकि-” रेखा ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

“मैं समझता हूँ”, भुवन ने कहा, “आग्रह नहीं करूँगा। आप-”

“नहीं, आपसे शायद कह सकूँगी-कहना चाहूँगी।”

थोड़ी दूर पर पद-चाप सुनायी दी-धीमी, फिर सहसा स्पष्ट-घास पर से सड़क पर। ठेठ खड़ी बोली के स्वर ने कहा, “बाबूजी, यहाँ नहीं बैठ सकते।”

“क्यों?”

“बाबू जी, दस बजे के बाद इद्र बैट्ठणे का हुकुम नहीं है-अब तो साड्ढे दस हो लिए-”

“अच्छा, अच्छा जाते हैं।”

चौकीदार बग़ल से लाठी टेककर कुछ दूर पर खड़ा हो गया।

रेखा उठ खड़ी हुई। “चलिए।”

कुदसिया बाग़ के दो खण्ड हैं, बीच में अलीपुर रोड़ पड़ती है। दोनों निकल कर दूसरे खण्ड में चले गये। सागू के पेड़ों के चिकने सफेद तने मानो किसी बड़े मण्डप के स्तम्भ थे, जिसमें रातरानी की दिग्विमूढ़ गन्ध भटक रही थी। मुख्य वीथी से हट कर दोनों घास की छहेल पटरी पर टहलने लगे। लेकिन मूड कुछ बदल गया था।

रेखा ने पूछा, “बैठेंगे?”

“बेंचें उधर हैं-बुत के पास।” भुवन के कहा; इसमें इनकार भी नहीं था, कोई अनुकूलता भी नहीं थी।

खड़ी बोली की व्यापकता प्रमाणित करता हुआ एक स्वर यहाँ भी नेपथ्य में से बोला, “कौन है?”

“हम है-टहलने आये हैं,” भुवन ने चिकने स्वर में उत्तर दिया।

खड़ा स्वर कुछ कम खड़ा हुआ : “बाबू जी, अब बड़ी देर हो गयी; दस बजे बाग़ बन्द हो जाता है।”

रेखा ने कहा, “द हाउंड्स आफ़ हेवन आर एवरी हेयर!”

(स्वर्ग के शिकारी कुत्ते सर्वत्र हैं।)

स्त्री-स्वर सुनकर नेपथ्य की वाणी कुछ और भी नरम पड़ कर बोली, “बाबू जी, इतनी रात को इधर नहीं घूमते; ज़माना ठीक नहीं है। बड़े चोर बदमास फिरे हैं”

दूर पर चौकीदार की छायाकृति दीख गयी। भुवन ने कहा, “अच्छा भइया, जाते हैं। आजकल तो यही वक़्त होता है घूमने का-इतनी गर्मी होती है-”

चौकीदार ने कहा, “सो तो ठीक है बाबू जी, मगर-” उसके स्वर में कुछ नरमाई भी थी, कुछ दूरी भी, मानो कह रहा हो, “हाँ, आप सदाशय हैं, माना; पर बच्चे हैं, घर जाइये-”

फाटक के बाहर लैम्प के खम्भे के नीचे आकर दोनों ठिठक गये। सहसा एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्करा दिये। रेखा ने कहा, “प्लोमर की एक कविता है जिसमें पार्क में घूमने वाले दो जन खदेड़े जाते हैं-आपने पढ़ी हैं?”

“नहीं-मैंने प्लोमर का सिर्फ़ नाम पढ़ा है-”

“मुझे याद नहीं है, लेकिन उसमें सिपाही कहता है : “आउटलाज़ हू आउटरेज बाईलॉज़ आर द डेविल1!' और कविता का अन्त है : 'एण्ड दस वी कीप आवर सिटीज़ क्लीन!”

1 जो अवैध लोग उपनियमों की मर्यादा तोड़ते हैं बड़े दुष्ट हैं।

2 और इस प्रकार हम अपने शहरों को स्वच्छ रखते हैं।

“हूँ।”

दोनों कश्मीरी दरवाज़े की ओर बढ़ रहे थे। दरवाज़ा वास्तव में दो दरवाज़े हैं, एक आने का मार्ग है, एक जाने का, दोनों सड़कों के बीच में घास की एक लम्बी पटरी है, रास्ते के मोड़ के साथ मुड़ती चली गयी है।

भुवन ने हँस कर कहा, “यहीं बैठना चाहिए। यहाँ से तो कोई नहीं उठाएगा।”

रेखा ने कहा, “अजब बात है कि शहर में अगर कोई प्राइवेट स्थान है तो पब्लिक सड़क के बीचोंबीच।”

भुवन ने साभिप्राय कहा, “प्राइवेट फेसेज़ इन पब्लिक प्लेसेज़,*-” रेखा बैठ गयी। भुवन ने कहा, “सचमुच?”

“और नहीं तो खदेड़े जाने की कड़वाहट मिटाने के लिए।”

  • टी. एस. एलियट की एक पंक्ति का अंश : सार्वजनिक स्थलों में निजी चेहरे (निजी स्थलों में सार्वजनिक चेहरों से कहीं अधिक अच्छे होते हैं)।

भुवन ने बैठते हुए कहा, “इसे ठीक ही कहते हैं 'सड़क का द्वीप'-दोनों ओर बहते जन-प्रवाह में निश्चलता का एक द्वीप-”

“हैं न? मेरे साथ कुछ ही दिन में आप सर्वत्र द्वीप देखने लगेंगे-हमीं द्वीप हैं, मानवता के सागर में व्यक्तित्व के छोटे-छोटे द्वीप; और प्रत्येक क्षण एक द्वीप है-खासकर व्यक्ति और व्यक्ति के सम्पर्क का, कांटैक्ट का प्रत्येक क्षण-अपरिचय के महासागर में एक छोटा किन्तु कितना मूल्यवान द्वीप!” रेखा ने आँखें भुवन की ओर उठायीं; भुवन से उसकी आँखें मिली तो उनमें कुछ प्रबल, कुछ तेजस्वी और संकल्प-भरा था जिसने भुवन की दृष्टि को कई क्षण तक बाँधे रखा। फिर उसने आँखें झुका लीं, और उसका हाथ उसी परिचित मुद्रा में उसकी कनपटी की ओर उठ गया।

न जाने क्यों भुवन के मन में विचार उठा, “हाँ; मैं तुम्हें पहचानता हूँ, रेखा; लेकिन-तुम मुझसे क्या चाहती हो?' पर तत्क्षण ही विलीन हो गया, इतनी जल्दी कि वह उसे ठीक से पकड़ भी न पाया।

“चलें?” रेखा ने कहा, और साथ ही उठ खड़ी हुई। उसके बाद कोई कुछ नहीं बोला; रेखा जब वाई. डब्ल्यू. के फाटक पर पहुँची और अन्दर प्रविष्ट हो गयी तभी उसने कहा, “नमस्कार, भुवन जी।” और उसने जल्दी से कहा, “नमस्कार!”

× × ×

पब्लिक स्थलों पर प्राइवेट चेहरा रखा जा सकता है ज़रूर, और प्रीतिकर भी होता है, पर उसे देखने के लिए पब्लिक स्थलों से खदेड़ा जाना कोई पसन्द नहीं करता।

जन्तर-मन्तर में इधर-उधर भटकते, इमारतों के बीच में से कई प्रकार की आकृतियाँ बनाते और सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते रेखा और भुवन बीच में आकर रुक गये थे, सूर्य डूब गया था और मैले लाल आकाश का रंग नीचे पानी में और भी मैला होकर प्रतिबिम्बित हो रहा था।

“ऊपर चलेंगी?”

“हाँ।”

दोनों सीढ़ियाँ चढ़ गये। ऊपर हवा थी। पास-पास खड़े होकर दोनों पश्चिमी क्षितिज को देखते रहे।

सहसा रेखा ने कहा, “चलिए अब।”

भुवन ने कुछ विस्मय से उसकी ओर देखा-इतनी जल्दी क्यों?

“यहाँ भी तो बन्द होने का समय होता होगा-यहाँ भी-”

भुवन समझ गया। उसने कहा, “नहीं, यहाँ सूचना की घंटी बजती है-”

लेकिन उससे क्या? जाने का निर्देश जाने का निर्देश है, घंटी का हो, खड़ी बोली का हो! उससे पहले ही...

रेखा ने क्षीणतर आग्रह से कहा, “चलिए।”

“अच्छा तनिक और रुक जाइये, सान्ध्य तारा देखकर चलेंगे-”

रेखा ने सहसा बड़े तीखे काँपते स्वर में कहा, “चलिए-चलिए!” भुवन ने चौंक कर देखा, उसका स्वर ही नहीं, वह स्वयं भी काँप रही है। लड़खड़ाती-सी उसने भुवन का हाथ पकड़ा और किसी तरह जल्दी-जल्दी, कुछ उस पर झुकती हुई, कुछ उसे खींचती हुई नीचे उतर गयी।

नीचे पहुँच कर भी वह काँप रही थी। भुवन ने चिन्तित, आग्रहयुक्त स्वर में पूछा, “क्या बात है, रेखा जी-तबियत तो ठीक है न-या कि सीढ़ियाँ चढ़ने से”

सहसा अपने में सिमट कर रेखा ने कहा, “नहीं, नहीं, कुछ नहीं; आप मुझे थोड़ी देर छोड़ जाइये-”

भुवन ने अनिच्छा से कहा, “लेकिन-”

“मैं ठीक हूँ।”

भुवन खड़ा रहा।

“चले जाइये!” कहकर रेखा नीचे चौंतरे पर बैठ गयी। दोनों हाथ उठाकर उसने माथा पकड़ लिया, आँखें बन्द कर ली।

भुवन कुछ परे हट कर अनिश्चित-सा खड़ा रहा।

थोड़ी देर में रेखा ने सिर उठाया, उसकी आँखें सूनी थी। भुवन को वहाँ देखकर पहले बहुत ही छोटे निमिष के लिए सूनी ही रहीं, फिर सहसा उस पर केन्द्रित हो आयीं। उसने जल्दी-जल्दी कहा, “अच्छा लीजिए, सुनिए, सुन लीजिए-हेमेन्द्र-हेमेन्द्र का नाम आप जानते हैं न, मेरा पति-अपने एक युवा बन्धु को लेकर यहाँ आया था-यहाँ तारे को देखकर दोनों ने वफ़ा की कसमें खायी थीं-हेमेन्द्र ने मुझे बताया था-”

भुवन स्तब्ध रह गया। उसकी समझ में कुछ न आया। फिर रोशनी एक बड़ी पैनी कटार-सी उसे भेद गयी : वह सब समझ गया; उसने चाहा कि रेखा को कन्धे से लगा कर धीरे-धीरे थपथपा दे...पर वह अपने स्थान से हिल भी नहीं सका, वहीं खड़े-खड़े उसने पूछा, “तो-तो आप ने विवाह क्यों किया था-” पूछना वह यह चाहता था कि 'हेमेन्द्र ने आपसे विवाह क्यों किया था?' पर प्रश्न को इस रूप में वह न रख सका।

“क्योंकि-मेरा चेहरा उस मित्र से मिलता था!” रेखा का स्वर एक अजीब पतली अवश चीख-सा हो गया था।

भुवन जहाँ था, वहीं बैठ गया। थोड़ी देर स्तब्ध बैठा रहा, निर्निमेष आँखों से, भरे हुए पानी में, बुझे हुए आकाश का प्रतिबिम्ब देखता। फिर वह धीरे-धीरे उठा, रेखा के पास जाकर उसने बिना कुछ कहे रेखा की बाँह पकड़ी, मृदु किन्तु दृढ़ हाथ से उसे उठा कर खड़ा किया, और बाँह पर सहारा देता हुआ फाटक की ओर ले चला। दो-तीन कदम चलते-चलते रेखा का शरीर सहसा कड़ा पड़ गया-उसने बाँह छुड़ा ली और कहा, “मैं ठीक हूँ, भुवन जी!” उसका स्वर भी अपने सहज स्तर पर आ गया था, यद्यपि अब भी आविष्ट था।

फाटक के पास उसके रुककर कहा, “भुवन जी, मैं क्षमा चाहती हूँ।”

भुवन ने कहा, “नहीं, रेखा जी, दोष मेरा है, मैं दुराग्रह-”

रेखा ने धीरे-से उसके हाथ पर हाथ रख कर उसे चुप करा दिया, मानो कह रही हो, “रहने दीजिए, मैं जानती हूँ कि दोष किस का था।”

फिर उसने कहा “मैं बिल्कुल ठीक हूँ। आप अब कुछ पूछना चाहें तो पूछ लीजिए। मैं अभी बता सकती हूँ। फिर शायद-न सकूँ। या सकूँ तो भी ये बातें बार-बार याद करने की नहीं हैं, आप मानेंगे-”

“नहीं रेखा जी, मुझे कुछ पूछना नहीं है।” भुवन ने गम्भीर होकर कहा। “एक बार भी याद दिलाने का कारण बना, इसी की मुझे बहुत ग्लानि है। आप और कुछ न बताइये, न याद कीजिए।”

कोई बीस मिनट बाद, दोनों कनाट प्लेस में बैठे धीरे-धीरे काफ़ी पी रहे थे। रेखा की दृष्टि अब भी खोयी हुई थी। भुवन पर एक अजीब जुगुप्सा-मिश्रित संकोच छाया हुआ था। रेखा को देखते हुए एक प्रश्न बार-बार उसके मन में उभर आता था जिससे वह लज्जित हो जाता था; जिसे दबा देने की चेष्टाओं की असफलता, गहरी आत्म-ग्लानि उसमें भर रही थी...हेमेन्द्र ने कब, कैसी स्थिति में उसे वह बात बतायी होगी?...

वह साहस करके पूछ ही डालता, तो रेखा उस समय शायद बता भी देती। क्योंकि उसकी खोयी हुई दृष्टि उसी स्थिति को देख रही थी, उसी ग्लानि को मन-ही-मन दुहरा रही थी...

देर रात को हेमेन्द्र कहीं बाहर से आया था। रेखा का शरीर अलसा गया था, आँखें थकी थी; पर वह पलंग के पास की छोटी लैम्प जलाये पढ़ रही थी। लैम्प पर हरे काँच की छतरी थी, उससे छन कर आये हुए प्रकाश में रेखा का साँवला चेहरा अतिरिक्त पीला दीख रहा था; बाकी कमरे में बहुत धुँधला प्रकाश था।

हेमेन्द्र के लौटने पर उससे किसी प्रकार का दुलार या स्नेह-सम्बोधन पाने की आशा उसने न जाने कब से छोड़ दी थी; वैसा कुछ उनके बीच में नहीं था-उनके निजी जीवन में नहीं, यों समाज में जो रूप था-पब्लिक चेहरा!-वह दूसरा था। इसलिए वह उसके लिए तैयार नहीं थी जो हुआ : हेमेन्द्र ने पीछे से आकर बड़े उतावलेपन से और बड़ी कड़ी पकड़ से उसके दोनों कन्धे पकड़े, उसे उठाते और उसके कन्धे के ऊपर से अपना मुँह उसके मुँह की ओर बढ़ाते हुए कहा, “मेरी जान-मेरी जान-”

किताब रेखा के हाथ से छूट गयी, सारा कमरा एक बार थोड़ा डोल गया। सहसा घूमकर, विमूढ़ किन्तु सायास कोमल रखे गये स्वर में उसने कहा, “हेमेन्द्र-”

हेमेन्द्र को जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो, वह सहसा रेखा के कन्धे छोड़कर कर पीछे हट गया, फिर उसने कमरे की मुख्य बत्ती जला दी। थोड़ी देर अजनबी दृष्टि से रेखा को देखता रहा; रेखा की परिचित किंचित् विद्रूप-भरी मुस्कराहट उसके चेहरे पर आ गयी। बोला, “हलो, रेखा, सॉरी आइ' म सो लेट-” और पलंग के पास खूँटी की ओर बढ़ गया।

ऐसा तो रोज होता था। पर आज रेखा यह स्वीकार न कर सकी थी। अभी क्षणभर पहले की घटना मानो असंख्य तपे हुए सुओं से उसे छेद रही थी-उसे समझना होगा, समझना होगा...

रेखा ने हाथ का काफ़ी का प्याला रख दिया कि हाथों का काँपना न दीखे; फिर ज़ोर से सिर हिलाया कि यह विचार, यह दृश्य उसकी आँखों के आगे से हट जाये-पर नहीं...

उसने भी जाकर हेमेन्द्र के कन्धे पकड़ लिए थे और पूछा था, “हेमेन्द्र, तुम्हें बताना होगा, इसका अर्थ क्या है?”

“और न बताऊँ तो?” वह विद्रूप की रेखा और स्पष्ट हो आयी थी। फिर सहसा उसने बहुत रूखे पड़कर, रेखा को धक्का देकर पलंग पर बिठाते हुए कहा था, “लेकिन नहीं, बता ही दूँ-रोज़-रोज़ की झिक-झिक से पिंड छुटे-पाप कटे! तो सुनो, मैं तुमसे प्रेम नहीं करता, न करता था। न करूँगा!”

“यह तो बताने की शायद ज़रूरत नहीं है। पर तब मुझसे विवाह क्यों किया था-”

“यह भी जानना चाहती हो! अच्छा। यह भी जानोगी। अब सब जानोगी तुम!”

रेखा जैसे खड़ी होने को हो गयी-फिर बैठ गयी।

भुवन ने कहा, “रेखा जी, स्वस्थ होइये। चलिए, मैं आपको टैक्सी में पहुँचा आऊँ-”

रेखा पत्थर हो गयी। “नहीं। मैं ठीक हूँ। पर इस समय आपको यहाँ बिठाना शायद अन्याय है। आप मुझे यहीं छोड़ जाइये, मैं पीछे चली आऊँगी।”

“यह तो नहीं हो सकता रेखा जी, चाहे आप की अवज्ञा ही करनी पड़े। पर आपको एकान्त की ज़रूरत है, यह तो समझ रहा हूँ। तो चलिए, मैं आपको टैक्सी में बिठा देता हूँ, साथ नहीं जाऊँगा।”

रेखा कुछ नहीं बोली।

भुवन ने बिल चुकाया और दोनों बाहर आये। रेखा टैक्सी में बैठ गयी, तो भुवन ने मौन नमस्कार किया। तब रेखा ने बड़े आयास से एक फीकी मुस्कान चेहरे पर लाकर कहा, “लेकिन भुवन जी, दिस इज़ नाट द एण्ड, आइ होप! कल मैं फिर तीसरे पहर तैयार मिलूँगी।”

भुवन ने फिर चिन्तित स्वर में पूछा था, “आर यू श्योर यू आर आल राइट? या मैं चलूँ-”

“नहीं, भुवन जी! ड्राइवर, चलो, कश्मीरी गेट।”

गाड़ी जब सरकी तो रेखा ने फिर भुवन की ओर उन्मुख होकर कहा, “गाड ब्लेस यू।”

भुवन तनिक विस्मित हुआ, पर तुरन्त सँभल कर बोला, “एण्ड यू।”

टैक्सी चल दी। तब रेखा पीछे ऐसी गिरी मानो अब नहीं उठेगी, नहीं उठेगी; चारों ओर से अतल दूरी से असंख्य काले और उजले तारे उसकी ओर बढ़े चले आ रहे हैं, शून्य का अतल गर्त सिमट कर छोटा हुआ आ रहा है और उसे ऐसे जकड़ लेगा जैसे लोहे का सन्दूक-और उसी के अन्दर वह घुट जाएगी, नहीं रहेगी, न कुछ हो जाएगी...स्मरण के टापू...आह, विस्मृति का महामरुस्थल, आह...

× × ×

“क्यों आप ढूँढ़ रहे हैं न कि कल वाली रेखा कहाँ गयी?”

भुवन अवाक् रेखा का मुँह ताक रहा था। उस पर कहीं कोई व्यथा की, चिन्ता की रेखा नहीं थी, जागर की छाया नहीं थी। रेखा ने फिर वही सादी रेशमी साड़ी पहन रखी थी, लेकिन आज बिना किनारे की नहीं, प्योंड़ी के-से मटीले पीले रंग के चौड़े पाड़ वाली, जिसका पीलापन उसके साँवले रंग को एक सुनहली दमक दे रहा था। हाँ, माथे और कनपटियों पर आज उसने कोलोन-जल लगा रखा था, नींबू के फूलों की-सी हल्की महक उससे आ रही थी।

भुवन जैसे पकड़ा जाकर मुस्करा दिया।

“लेकिन अचम्भे की कोई बात नहीं है। मैं क्षण-से-क्षण तक जीती हूँ न, इसलिए कुछ भी अपनी छाप मुझ पर नहीं छोड़ जाता। मैं जैसे हर क्षण अपने को पुनः जिला लेती हूँ।

“तुमने एक ही बार वेदना में मुझे जना था, माँ,

   पर मैं बार -बार अपने को जनता हूँ
   और मरता हूँ
   पुनः जनता हूँ और पुनः मरता हूँ
   और फिर जनता हूँ ,
   क्योंकि वेदना में मैं अपनी ही माँ हूँ। “ *

( * अर्न्स्ट टॉलर)

भुवन ने कहा, “आप अपने को ऐसे पुनः जिला लेती हैं, यही शायद मुझे आपकी सबसे पहली स्मृति है।”

रेखा ने सचेत होकर पूछा, “कैसे?”

भुवन ने लखनऊ की पार्टीवाली बात बता दी, जब उसने रेखा को सहसा विश्राम करते हुए देखा था। फिर कहा, “लेकिन तब उसका पूरा अभिप्राय नहीं समझ सका था'; अब समझता हूँ।”

रेखा ने विषय बदलते हुए कहा, “आपके जाने का कुछ निश्चय हुआ?”

“नहीं, अभी दो-चार दिन तो और हैं ही; फिर कश्मीर जाऊँगा। फिर वहाँ भी शायद दो-चार दिन रुकना पड़े।”

“मैं सोचती हूँ, मैं कल नैनीताल चली जाऊँ?”

“क्यों?”

“यहाँ अधिक रहूँगी, तो कदाचित् आपके काम में बाधक हूँगी-अब भी नहीं हूँ, यह मानना मुश्किल है। आप पता ही नहीं लगने देते-”

“यह बात बिलकुल नहीं है रेखा जी; मैं बिलकुल खाली हूँ। मित्र भी विशेषज्ञ नहीं हैं। प्रोफ़ेसर-समाज में तो ठहरा ही हूँ; परिचित और हैं, उनसे कभी मिल लेता हूँ-”

“कौन?”

“मेरी एक छात्रा थी-गौरा, उसके पिता।”

“छात्रा थी-आपको अभी पढ़ाते कितने वर्ष हुए हैं?”

“मैंने उसे सात-आठ बरस पढ़ाया था-मैट्रिक में। अब तो वह बी.ए. भी दो बरस हुए कर चुकी-अब मद्रास में है।”

“ओह।”

थोड़ी देर मौन रहा। फिर रेखा ने कहा, “कल रातवाली गाड़ी से चली जाऊँगी।” फिर कुछ नटखट भाव से : “लेकिन वहाँ मन न लगा तो कश्मीर आ जाऊँगी, कहे देती हूँ! आप भी खदेड़ देंगे यह कह कर कि हुकुम नहीं है?”

भुवन ने हँसकर कहा, “मैं क्या करूँगा, यह बताने का भी हुकुम नहीं है! लेकिन-” वह कुछ रुका, “आपकी गाड़ी कितने बजे जाती है?”

“नौ बजे शायद।”

“ओह।” भुवन कुछ सोच रहा है, देखकर रेखा ने पूछा, “क्यों, क्या बात है?”

“कुछ नहीं, कल मैं उधर भोजन करनेवाला था। पर कोई बात नहीं-मैं छुट्टी ले लूँगा-”

“नहीं, वैसा न कीजिए। मैं स्वयं स्टेशन पहुँच जाऊँगी-”

अन्त में यह निश्चय हुआ कि भुवन पहले आकर सात ही बजे रेखा को लेकर स्टेशन के वेटिंग-रूम में बिठा देगा; फिर जाकर गाड़ी के समय आ जाएगा और रेखा को गाड़ी पर सवार करा देगा। रेखा ने मान लिया। बोली, “स्टेशन तो मैं खुद भी आ सकती हूँ। पर विदा करने आप आवेंगे तो मुझे अच्छा लगेगा।”

थोड़ी देर बाद भुवन ने पूछा, “यह तो कल का तय हुआ। और अब?”

“न-नहीं। हाँ, कुछ स्पेशल हो और आपकी इच्छा हो तो चलिए।”

“नहीं। तब नहीं। चलिए, नदी पर चलें-”

“पानी तो कुछ है नहीं-”

“पार बालू पर-टापू में या परले किनारे पर-काश कि दिल्ली में समुद्र होता।”

“सच, तब यहाँ इतनी क्षुद्रता का राज न होता शायद-कुछ तो सागर की महत्ता का प्रभाव पड़ता-”

“धन्य है आपका आशावाद! आप का ख़याल है बम्बई में कम क्षुद्रता है! कुछ कम होगी तो इसलिए कि शासन का केन्द्र दिल्ली है। शासन वहाँ ले जाइये तो”

“आप ठीक कहती हैं शायद। पर इस समय मैंने वैज्ञानिक बुद्धि को छुट्टी दे रखी है। अच्छी कल्पना में क्या हर्ज है?”

“तो और चलिए देखिए, मैं इसी को सागर का किनारा मान लेती हूँ; और रेत का टापू कोई सागर-द्वीप हो जाएगा जिस पर हम तूफान में बह कर आ लगे हैं-दो अजनबी जिन्हें साथ रहना है-कम-से-कम कुछ देर!”

“एक मिस राबिनसन क्रूसो, और उनका अनुगत मैन फ़्राइडे!”

“हाँ। और वहाँ पर किसी राक्षस के पदचिह्न मिले तो?”

“परवाह नहीं, मैन फ्राइडे जादू जानता है।”

नाव में उन्होंने नदी की इधर की शाखा पार की। नाव वाले ने पूछा, “यहीं ठहरूँ?”

“चाहे ठहरो चाहे डेढ़-दो घंटे में आ जाना।” भुवन ने लापरवाही से कहा।

“अच्छा, नहीं तो आप रुक्का दे देना।”

“अच्छा!”

सूखी स्वच्छ रेत पर आकर भुवन ने एक बार चारों ओर देखा, फिर ऊपर। फिर वह कहने को हुआ, “तारे कितने हैं-” पर “ता”-कह कर रुक गया; तारों की ओर रेखा का ध्यान न खींचना होगा!

रेखा ने कहा, “रुक क्यों गये?”

“कुछ नहीं, यों ही-”

“कहिए न?”

“नहीं।”

रेखा ने कहा, “आप तारों के बारे में कुछ कहने जा रहे थे-”

भुवन ने सकपका कर स्वीकार कर लिया।

“तो रुक क्यों गये?”

भुवन चुपचाप उसकी ओर देखने लगा।

“ओ-मैं समझ गयी। तारों से मैं नहीं डरती, भुवन जी, कभी नहीं डरी। और मैंने कहा था न, जो दुःस्वप्न कह लूँगी, उससे मुक्त हो जाऊँगी? अभी तक कह नहीं पायी थी, यही उसकी ताकत थी। अब-अब नहीं! आप कहिए तो तारे गिन डालूँ आकाश के?”

“न! गिनने से कम हो जाते हैं! और तारा एक भी कम करना कोई क्यों चाहेगा? न जाने कौन तारा किसका है?”

“और जो टूटते हैं सो?”

“फिर विज्ञान? टूटकर एक के दो बनते हैं। या बीस। तारे कभी कम हुए हैं आकाश में?”

रेखा इस नये भुवन को देखने लगी। फिर उसने कहा, “अच्छा, मैन फ़्राइडे, तुम्हारा तारा कौन-सा है?”

भुवन का वह मूड बहुत छोटे क्षण के लिए लड़खड़ा गया...न जाने क्यों उसे गौरा का वह पत्र याद आया जिसमें गौरा ने उसे बुलाया था-'मैं अँधेरे में डूबना नहीं चाहती, नहीं चाहती!' इण्टर के समय गौरा को उसने ब्राउनिंग की कुछ कविताएँ पढ़ायी थीं; पाठ्य कविताओं से आगे वे दोनों कुछ कविताएँ और भी पढ़ गये थे जिनमें एक का शीर्षक था “मेरा तारा”...लेकिन एक बहुत छोटे क्षण के लिए ही, फिर उसने कहा, “लो, क्या गलती हुई मुझसे-मैं तो उस पर लेबल लगाना ही भूल गया। अब क्या होगा, मिस राबिनसन? इतने बड़े आकाश में कैसे उसे ढूँढूँगा?” उसने ऐसा दयनीय चेहरा बनाया कि रेखा को हँसी आ गयी।

उसने दिलासे के स्वर में कहा, “कोई बात नहीं फ़्राइडे, तारा खुद तुम्हें ढूँढ़ लेगा।”

भुवन बालू में बैठ गया। बोला, “अच्छा, तारों की चिन्ता छोड़ें। इस टापू में ही रहना है, तो घर-वर बनाना चाहिए। रेखा जी, आपको बालू के घर बनाने आते हैं?”

रेखा ने सहसा कहा, “भुवन जी, और मैंने ज़िन्दगी-भर किया क्या है?”

भुवन ने तर्जनी से उसे धमकाते हुए कहा, “बिग्यान को माना है। बांगाली हिन्दी आप समझता हाय?”

“खूब समझती हूँ। पर सूखी रेत के घर तो मैं भी नहीं बना सकती। पानी लाऊँ?”

“कैसे? चलनी कहाँ है?”

आँचल भिगो कर-”

“कोई ज़रूरत नहीं है। मैन फ्राइडे कुआँ खोदकर पानी पीता है। देखिए, मैं यहीं से गीली रेत निकालता हूँ।”

भुवन ने दोनों हाथों से रेत हटाना शुरू किया। रेखा भी बालू में बैठ गयी, ऐसी जगह जहाँ से वह भुवन को और उसकी हरकतों को भी देख सके, और पुल तथा किनारे की बत्तियों को भी। जब-तब आती-जाती मोटरों की मुड़ती हुई आलोक-शिरा एक उछटते हुए प्रकाश में दोनों को चमका जाती, फिर अँधेरा हो जाता।

भुवन ने कहा, “यह देखो गीली रेत। और खोदूँ-कुआँ बन जाएगा; और ज़्यादा खोदूँगा तो अतलान्त सागर निकल आएगा-और ज़्यादा तो धरती के उस पार निकल आएँगे। उस पार के आकाश में क्या तारे हैं, देखोगी? पर पैरों के नीचे तारे निकालने अच्छा नहीं, रौंदे जाएँगे। ज़रूरत भी नहीं है-गीली रेत ही तो चाहिए।”

वह पैर पर बालू थोप कर घर बनाने लगा। पैर निकाल कर गुफा का मुँह काट कर सीधा किया, फिर ऊपर न जाने क्या बनाया, फिर सामने जगह समान की, चारों ओर मेंड़ बनायी, सीढ़ियाँ, फिर एक ओर को दूसरा घर, फिर सड़क...साथ-साथ धीरे-धीरे बोलता जाता : “यह घर बन गया-यह आँगन-यहाँ बगीचा लगेगा-ढूँढ़कर आर्किड लाकर लगाने होंगे-यह चार दिवारी है-यहाँ फ्राइडे रहेगा-यहाँ...”

रेखा मुग्ध दृष्टि से उसे देख रही थी। सचमुच इस भुवन को उसने देखा नहीं था, जाना नहीं था, अनुमान से भी नहीं। वैज्ञानिक डाक्टर भुवन के अन्दर एक गम्भीर संवेदनाशील और खरा मानव छिपा है, यह तो उसने जाना था, लेकिन उस निश्छल ऋजुता के नीचे इतना भोला, इतना कौतुक-प्रिय शिशु-हृदय भी है, यह उसकी सजग दृष्टि भी न देख पायी थी...उसे अपना बचपन याद आया-कलकत्ते के उस घिरे हुए हरे-भरे उद्यान में खेलते हुए उसने माता-पिता का स्नेह पाया था, अगाध-स्नेह और उस निधि के लिए वह चिर-कृतज्ञ है, लेकिन जिस तरह उस स्नेह का स्थान कुछ और नहीं ले सकता, उसी तरह वह अपार स्नेह भी एक समयवस बालक के कौतुक-भरे सख्य का स्थान नहीं ले सकता...बड़ों के स्नेह से घिरी हुई वह अकेली ही रह गयी थी-और उस अकेलेपन ने उसे पकाकर स्वयं भी 'बड़ा' बना दिया था : एक ओर वह पाती थी कि उसके कौतुक-जगत् के बीच में एक दीवार है, दूसरी ओर वह देखती थी कि स्वयं उसके स्नेह-सम्पृक्त परिपक्व रूप, और उसके कौतुक-वेष्टित शिशु-रूप के बीच में भी एक दीवार खड़ी थी...न सही अधिक कुछ, न सही प्यार; यह यन्त्रणा और ग्लानि और अपमान ही सही जो उसने पाया; पर बचपन में अगर उसे दो-एक वर्ष ही ऐसा कोई बाल-साथी मिल गया होता-तो कम-से-कम आज उसके पीछे ऐसा कुछ होता जिसमें वह सम्पूर्णता देख सकती, अपने जीवन की निष्पत्ति देख सकती...एक भाई आया था, पर तब वह आठ वर्ष की हो चुकी थी, भाई छः वर्ष का हुआ तब तक तो वह यों भी वह कौतुक-युग पार कर चुकी थी और उसके बाद के स्वप्न दूसरे थे-कितने भिन्न! और फिर तीन वर्ष बाद भाई मर गया था-माता-पिता के दिल टूट गये थे, और उसके स्वप्नों की दूसरी खेप भी नष्ट हो गयी थी...

और भुवन-वह डाक्टरेट कर चुका है, वैज्ञानिक रिसर्च में नाम पा रहा है, वय में उससे बड़ा है, और यहाँ बैठकर बालू के घर बना रहा है और मुग्ध हो सकता है...ईर्ष्या का कोई सवाल नहीं है-ईर्ष्या क्या होगी-पर क्यों उसे उस सुरक्षा और स्नेह में भी वह सम्पूर्णता, वह मुक्ति नहीं मिली-क्यों, क्यों, क्यों...

भुवन ने अपने काम में लगे-लगे ही पूछा, “मिस राबिनसन-रेखा जी, कलकत्ते में आप बचपन में जहाँ रहीं, वहाँ बालू थी? लेकिन वहाँ तो नदी के किनारे कीचड़ होता है-”

क्यों उसके विचार रेखा के विचारों के समान्तर चल रहे हैं जब वह खेल में डूबा है, क्यों वह छूता है उस दुखते स्थल को जिसे रेखा छिपा लेना चाहती है- सब की दृष्टि से, सबसे अधिक इस भुवन की दृष्टि से जो इतना भोला है, जो केवल खुली हँसी है, जाड़ों की धूप की तरह खिली हुई हँसी-नहीं, वह अपनी परछाईं नहीं पड़ने देगी यहाँ पर, वह चली जाएगी-

उसने मुँह ऊपर कर लिया कि आँखों में उमड़ते आँसू बाहर न बह आयें।

भुवन कहता गया, “नहीं, कलकत्ता अच्छा नहीं है। इस बालू के टापू के मुकाबले में कोई जगह अच्छी नहीं है। लीजिए आपका घर तैयार हो गया!”

अब की बार भी उत्तर न पाकर भुवन ने विस्मय से उधर देखा। रेखा आकाश की ओर मुँह उठाये निर्निमेष बैठी थी, खेल से बहुत दूर। अचकचा कर भुवन खड़ा हुआ; मोटर की मुड़ती रोशनी के पलातक आलोक में उसने सहसा चौंक कर और लजा कर देखा, रेखा की आँखों में आँसू हैं। उसके हाथ अनैच्छिक गति से रेखा के आँसू पोंछने को हुए, पर फिर उसे ध्यान हुआ कि बालू से सने हैं, और वे अनिश्चित से अध-बीच रुक गये। सहसा किंकर्तव्यविमूढ़ करुणा में भरा हुआ वह झुका और रेखा की गीली पलकें उसने चूम ली।

तभी वह कुछ बोल सका। “रोती हो? बालू के घरों वाले रोया नहीं करते”

“नहीं भुवन, ये दुःख के आँसू नहीं हैं-” कहती-कहती भी रेखा आँसू झटक कर खड़ी हो गयी। बोली, “आप ही से छिपाना चाहती हूँ, आप ही को-” फिर जल्दी से विषय बदलने के लिए उसने कहा, “नहीं, कलकत्ते में बालू नहीं थी। वहाँ मैं मिस राबिनसन नहीं थी, राजकुमारी थी, जादू के उद्यान में रहती थी, बड़ा हरा-भरा-बालू तो क्या, मिट्टी भी कहीं नहीं दीखती थी।”

भुवन ने भी हल्का स्तर स्वीकार करते हुए कहा, “ओ, तब तो आप इस ग़रीब बालू के घर का सौन्दर्य क्या देखेंगी!”

“उलटे अधिक समझती हूँ, भुवन जी!” रेखा हँसी, पर हँसी के नीचे गम्भीरता थी।

“तो अब चला जाये?”

“चलिए।”

भुवन चलने को हुआ तो रेखा ने पूछा, “इस बालू के घर को गिरायेंगे नहीं?”

“क्यों?”

“क्योंकि वास्तव में गिर नहीं सकता। उसकी छाप अतलान्त तक जो है। ऊपर से मिटा देना चाहिए, नहीं तो उसका जादू दूसरे जान जायेंगे।”

भुवन ने उसे परचाते हुए कहा, “हाँ, यह तो है।” और पैर की गति से घर-बग़ीचा सब मटियामेट कर दिया। फिर कुछ आगे बढ़कर उसने नाव वाले को आवाज़ दी : “नाववाले!”

किनारे पर लगकर उसने कहा, “और इस प्रकार क्रूसो सभ्यता को लौट आया।”

रेखा ने कहा, “अगर क्रूसो कभी लौटते हैं तो।”

× × ×

लेकिन भुवन ने कुछ अधिक बारीक हिसाब लगाया था। रेखा को स्टेशन तो उसने सात से पहले पहुँचा दिया; पर नयी दिल्ली जाकर लौटने में उसे अधिक देर लगी यद्यपि खाना भी उसने लगभग नहीं खाया, छूकर छोड़ दिया। स्टेशन पहुँचा तो नौ में दो मिनट थे। उसने सोचा कि रेखा शायद प्लेटफ़ार्म पर चली गयी हो; पहले सीधा उधर गया, फिर हड़बड़ा कर वेंटिंग-रूम आया-रेखा उद्विग्न-सी बाहर खड़ी राह देख रही थी। उसने कहा-”मैं पहले उधर गया था-देर हो गयी-चलिए-आप प्लेटफ़ार्म पर क्यों न-”

“मैं बाकायदा बिदा किये बिना नहीं जाऊँगी, क्या आप नहीं जानते थे? गाड़ी में बैठ जाती और आप न आते तो-”

उसकी बात में उलाहना नहीं था, केवल सच की सीधी उक्ति थी।

गाड़ी की सीटी सुनायी दी। भुवन ने कहा, “गाड़ी तो अब-”

“जाने दीजिए। नहीं मिलेगी। मैं घबड़ायी हुई नहीं दौडूँगी।” सहसा वह हँस दी, जिससे तनाव एकाएक शिथिल हो गया।

भुवन ने कहा, “अब?”

“वापस वाई. डब्ल्यू तो मैं नहीं जाऊँगी। अगली गाड़ी कब जाती है?”

“पता करें। मेरे खयाल में तो रात में और नहीं जाती, तड़के शायद-”

“वही सही, रात वेंटिग रूम में काट दूँगी। आप जाइये; पर सबेरे कैसे आएँगे-या मत आइएगा, अभी थोड़ी देर में चले जाइएगा, बस।”

भुवन ने कहा, “इस परम्परा का निर्वाह तो तब होगा जब रात-भर यहीं बातें की जायें, और तड़के गाड़ी पकड़ी जाये। एक प्रमाद जब हो जाये, तब यही उसका उपाय होता है।”

“सच?” रेखा का चेहरा खिल आया। “मैं राज़ी हूँ। पर चलिए, पहले आपको कुछ खिला दूँ। मैं खिलाऊँगी-स्टेशनों पर मेरा राज है।”

“लेकिन मैं तो खा आया।”

“ग़लत बात है। खाकर आते, तो या तो पहुँचते नहीं, या पहले आते। ठीक वक़्त पर आये तो मतलब है कि खाना सामने छोड़ आये हैं।”

“यह तर्क मेरी समझ में नहीं आया-”

“न आये। यह स्त्री-तर्क है। इसके आगे विज्ञान नहीं चलता। चलिए। रास्ते में गाड़ी का पता भी करते चलेंगे। और टिकट वापस करके नया लेना होगा।”

गाड़ी सुबह साढ़े चार बजे जाती थी। टिकट भुवन ने वापस कर दिया; नया टिकट रात बारह के बाद मिलेगा-नयी तारीख हो जाने पर, क्योंकि रेखा इण्टर का सफ़र करती थी, सेकेण्ड होता तो तभी मिल जाता।

कुछ खाकर और काफ़ी पीकर दोनों रिफ्रेशमेन्ट रूम से निकले तो रेखा ने कहा, “मुझे जनाने वेटिंग रूम में जाने को मत कहिएगा। और जहाँ कहें-प्लेटफ़ार्म पर घूमने को, बेंच कर बैठने को, आगे बजरी पर बैठने को, पुल पर चढ़कर रेलिंग से झाँकने को-जो कहेंगे सब करूँगी!”

भुवन ने कहा, “टहलेंगे।”

पुल से पार एक अपेक्षाकृत सूने प्लेटफ़ार्म पर दोनों टहलने लगे। अभी डेढ़ घंटे बाद टिकट मिलेगा; गाड़ी तीन बजे प्लेटफ़ार्म पर आ लगेगी, तब उसमें बैठा जा सकता है।

प्लेटफ़ार्मों पर भटकते, कभी बेंच पर बैठते, कभी छती हुई पटरी से आगे बढ़कर बजरी पर चलकर तारे और कभी पुल पर खड़े-खड़े सिगनलों की लाल बत्तियाँ देखते, इंजिनों का स्वर सुनते और उनके धुएँ की गुँजलकों को आँखों से सुलझाते हुए दोनों ने चार घंटे तक क्या बातें की, इसका सिलसिलेवार ब्यौरा देना कठिन है। सिलसिला उसमें अधिक था भी नहीं, भले ही उस समय उन दोनों को यही दीखा हो कि प्रत्येक बात एक से एक अनिवार्यतः निकलती और सुसंगत गति से चलती गयी है। साढ़े बारह के लगभग भुवन जाकर नया टिकट ले आया और अपने लिए नया प्लेटफ़ार्म। तीन बजे जब गाड़ी आ लगी, तब वह कुली ढूँढ़ कर लाया, रेखा से बोला, “अब तो वेटिंग-रूम में जाएँगी या अब भी मैं ही सामान उठवा कर लाऊँगा?” फिर दोनों गाड़ी पर चले गये।

जनाने डिब्बे में पहिले ही से कई सवारियाँ थी-बच्चे-कच्चे लिए औरतें। सामान उसमें एक तरफ़ रखवा रेखा बाहर निकल आयी; बोली, “चलिए कहीं और बैठें-फिर यहाँ आ जाऊँगी।”

साधारण इण्टरों में एक खाली था। दोनों उसमें जा बैठे, बातें फिर होने लगी। भुवन ने कश्मीर के अपने प्लान बताये-कब जाएगा, कहाँ रहेगा, क्या करेगा-तुलियन झील पर कैसे दिन काटेगा, वग़ैरह। रेखा ने पूछा, “वहाँ बालू होगी?”

“बालू? क्यों?”

रेखा हँस दी। “घरौंदे बनाने के लिए-”

भुवन भी हँस दिया। फिर उसने पूछा, “नैनीताल में क्या करेंगी आप दिन-भर?”

“झील की ओर ताका करूँगी। कागज़ की नावें चलाया करूँगी-नहीं, कागज़ की भी नहीं, सपनों की। काल्पनिक यात्राएँ करूँगी। आपको क्या मालूम है, मध्य-वर्ग की बेकार औरत कितनी लम्बी लड़ी गूँथ सकती है सपनों की!”

चार बजे उस डिब्बे में भी दो-चार व्यक्ति आ गये। रेखा ने कहा, “फिर थोड़ा टहला जाये?”

“चलिए-”

दोनों फिर प्लेटफ़ार्म पर टहलने लगे। लेकिन भीड़ होने लगी थी। भुवन ने कहा, “आपको एक बार अपने सामान की फ़िक्र करनी चाहिए।”

जनाने डिब्बे में भीड़ भर गयी थी। रेखा ने अपना सामान देख-देखकर, अपना अधिकार स्थापित कर देने के लिए सीट पर थोड़ी जगह करायी और वहाँ पर बैठ गयी। भुवन बाहर खिड़की पर खड़ा हो गया!

भीतर बड़ी किटकिट थी। बात करना असम्भव था। रेखा ने अपना पर्स खोलकर उसमें से छोटी-सी कापी निकाली और पेंसिल से उसमें कुछ लिखने लगी।

भुवन ने पूछा, “क्या लिख रही हैं?”

रेखा ने हँस कर सिर हिला दिया।

थोड़ी देर बाद उसने कापी भुवन की ओर बढ़ायी। उसमें लिखा था, “उस डिब्बे में बैठकर थोड़ी देर के लिए मैं अपने को यह मना सकी थी कि हम साथ ही इस गाड़ी में यात्रा कर रहे हैं। पर अब-अब लगता है कि आप मुझे विदा कर चुके और उपचार बाकी है।”

भुवन ने कुछ न कह कर कापी लौटा दी।

रेखा ने फिर लिखा : “अगले स्टेशन पर आप प्रतापगढ़ से आगे बात चलाने आवेंगे?”

अब की बार भुवन ने कहा, “ज़रा पेंसिल दीजिए।” और लिखा : “आप ही ने तो कहा था, 'अब अगले स्टेशन पर न आना।”

सहसा रेखा ने कहा, “सुनिए, आप मुझे छोड़ने क्या दो-चार स्टेशन भी न चलेंगे? हापुड़ से लौट आइएगा-”

भुवन सिर्फ हँस दिया, कुछ बोला नहीं।

रेखा के चेहरे पर एक हल्की-सी उदासी खेल गयी। कापी में उसने लिखा, “नहीं, मेरी ज़्यादती है।”

भुवन ने फिर कापी ले ली। ज़ेब से कलम निकाल कर सुस्पष्ट अक्षरों में लिखा, 'अकेले हैं न, तभी लीक पकड़ कर चलते हैं।' फिर तनिक रुककर उस पर दुहरे उद्धरण-चिह्न लगा दिये “-”

रेखा ने कापी देखी तो अचकचा कर बोल उठी, “यह-यह आपसे किसने कहा?”

भुवन हँसने लगा। फिर उसने लिखा, “मैंने कहा था न, मैन फ्राइडे जादू जानता है?”

रेखा ने कापी ले ली, और अपलक दृष्टि से भुवन को देखने लगी। फिर उसकी आँखें कुछ विकेन्द्रित हो गयीं, जैसे उसके विचार कहीं दूर चले गये हों।

भुवन ने कहा, “मैं अभी आया-” और ओझल हो गया।

प्लेटफ़ार्म पर चहल-पहल सहसा बढ़ गयी, जैसा गाड़ी चलने का समय हो जाने पर होता है। रेखा कापी में लिखने लगी-”ठीक गाड़ी के जाने के समय आप कहाँ चले गये? मैं गाड़ी चलने से पहले ही मानो खो गयी हूँ। इन स्त्रियों की बातें सुनती हूँ, और अनुभव करती हूँ कि मैं गृहस्थिन तो पहले ही नहीं थी, अब शायद स्त्री भी नहीं रही-कितनी दूर, कितनी दूर हैं मुझ से ये बातें। एक तीन बच्चों की माँ है, एक पाँच की। एक के 'वह' लाम पर गये हैं। वहाँ से चाँदी के लच्छे न जाने कैसे भिजवाये थे-चाँदी के मगर फ़िरोज़े जड़े। दूसरी के 'वह'...”

गार्ड ने सीटी दी। रेखा ने हड़बड़ा कर इधर-उधर देखा, फिर घसीट कर कापी में लिखा “कहाँ चले गये तुम, भुवन-गाड़ी चलने वाली है-क्या अन्त में बिना विदा के ही मुझे जाना होगा?” कापी उसने बन्द की और खड़ी होकर दरवाज़े की ओर बढ़ी, बाहर झुकी-

सामने भुवन खड़ा मुस्करा रहा था।

“बड़े नालायक हैं आप!” रेखा सहसा कह गयी। “मुझे यों डराना अच्छा लगा है?”

भुवन ने कहा, “अभी तो बहुत टाइम है। डरा मैं नहीं गार्ड रहा है। आप बेशक बाहर चली आइये-”

रेखा उतर आयी और गाड़ी से कुछ हटकर भुवन के बग़ल खड़ी हो गयी। भुवन मुस्कराता ही जा रहा था। रेखा उसकी ओर देखने लगी : हाँ, यही अच्छा है, इसी प्रकार मुस्कराते हुए ही हट जाना चाहिए, वह भी मुस्करायेगी-एक मिनट की तो बात होती है, ज़रा से धीरज की, ज़रा मज़बूत नर्ब्ज़ की-बाद में चाहे जो हो...

भुवन ने सहसा जेब में से कुछ निकाला, अंगूठे और उँगली से मसल कर उसकी गोली बनायी और ठोकर मारकर फुटबाल की तरह उछाल दी। रेखा ने कहा, “क्या था?”

गार्ड ने और गाड़ी ने एक साथ सीटी दी।

भुवन ने कहा, “मेरा प्लेटफ़ार्म टिकट।”

रेखा भौंचक उसे देखने लगी। भुवन बोला, “क्यों, यह गाड़ी भी छोड़नी है क्या? मैं चल रहा हूँ साथ-हापुड़ नहीं, मुरादाबाद।”

उसके साथ ही लपक कर रेखा अगले इण्टर की ओर बढ़ी-कितना अच्छा था उसके साथ कदम मिलाकर लपकना! उसे सवार करा कर भुवन भी उछल कर चलती गाड़ी में सवार हो गया।

रेखा बैठ गयी; जगह कम थी, भुवन खड़ा रहा। रेखा ने एक बार बेबस उसकी ओर देखा, फिर कापी निकाल कर लिखा, “भीड़ है, नहीं तो मैं इस वक़्त गाना गाकर सुना देती।”

भुवन उसकी ओर मुस्करा दिया। फिर कापी लेकर लिख दिया, “भीड़ की सजा मुझे मिलेगी?”

रेखा फिर असहाय-सी उसकी ओर देखने लगी। फिर उसने घूमकर खिड़की से मुँह बाहर निकाला और धीरे-धीरे गाने लगी। भुवन दरवाज़े पर था ही, दरवाज़ा खोल कर खड़ा हो गया। सरसराती हवा के साथ गाने के स्वर उसके कानों को छूने लगे :

महाराज , ए कि साजे एले मम हृदय-पुर माझे।

   चरण तले कोटि शशि -सूर्य मरे लाजे।
   महाराज , ए कि साजे-
   गर्व सब टूटिया
   मूर्छि पड़े लूटिया
   सकल मम देह -मन वीणा सम बाजे।
   महाराज ए कि साजे -

(महाराज , यह किस सज्जा में मेरे हृदय-पुर में आये? कोटि शशि-सूर्य लज्जित होकर पैरों में लोट रहे हैं। मेरा गर्व टूटकर मूर्छित पड़ा है, मेरा देह-मन वीणा की तरह बज रहा है। -रवीन्द्रनाथ ठाकुर)

जमुना के पुल की गड़गड़ाहट में आगे गान खो गया। पुल जब पार हुआ, तब रेखा चुप हो गयी थी, क्षितिज में कुछ हलकापन दीखने लगा था।

× × ×

तल्ली-ताल में मोटर से उतर कर भुवन ने एक नज़र नैनीताल की झील को देखा-तीसरे पहर की धूप एक तरफ़ की पहाड़ी पर ऊँचे पर थी, झील घनी छाँह में थी और आकाश ऐसा दूर था मानो किसी गहरी तलहटी में से ऊपर देख रहे हों-तो उसने जाना कि यहाँ तक आने का निश्चय तभी हो गया था जब उसने मुरादाबाद का टिकट लिया था। मुरादाबाद में जब रेखा ने पूछा था, “सुनिए, आप सचमुच यहाँ से लौट जाएँगे?-अब मुझे पहुँचा ही आइये न?” तब जैसे यह प्रश्न उसके मन में पहले पूछा जा चुका हो, ऐसे ही बिना अचम्भे के उसने कहा था, “हो तो सकता है-”

और रेखा ने चिढ़ाया था, “तो मैन फ्राइडे अभी से सकने की बातें सोचने लगा जादू भूल कर?”

“भई, अभी दिन-दुपहर है, जादू का वक़्त अभी कहाँ हुआ है?”

मुरादाबाद से वे बरेली होकर नहीं गये थे : रामपुर गये थे और वहाँ से मोटर में काठगोदाम होते हुए नैनीताल-तीसरे पहर ही यहाँ पहुँच गये थे। रास्ते में रेखा धीरे-धीरे न जाने क्या गुनगुनाती आयी थी, बोली बहुत कम थी; एक अलौकिक दीप्ति उसके अलस शान्त चेहरे पर थी : बीच-बीच में वह आँखें बन्द कर लेती और भुवन समझता कि सो गयी है, पर सहसा उसकी पलकें उस अनायास भाव से खुल जाती जिससे स्वस्थ शिशु की आँखें खुलती हैं और वह फिर कुछ गुनगुना उठती...भुवन ने कहा था, “थोड़ा ऊँघ लीजिए, रात भर जागी हैं-” तो सहसा सजग होकर बोली थी, “अभी? ऊँघने के लिए तो सारा जीवन पड़ा है, थोड़ा-सा जाग ही ली तो क्या हुआ!” और एक कोमल मुस्कान से खिलकर उसे निहारने लगी थी। फिर भुवन ऊँघ गया था...

होटल साफ़-सुथरा था, पर लोग काफी थे। मैंनेजर से भुवन ने पूछा कि ठहरने की जगह मिल सकेगी? तो उसने तपाक से उत्तर दिया : “जी हाँ, डबल-रूम-कितने दिन के लिए?” और रजिस्टर की ओर हाथ बढ़ाते हुए, “किस नाम से”

क्षण-भर के लिए वह झिझक गया। मैनेजर के प्रश्न के साथ ही सभ्यता की जो समस्याएँ सहसा उसकी नज़र के आगे कौंध गयीं, उन पर उसने आते हुए विचार नहीं किया था। सँभलकर बोला, “अभी हमने निश्चय नहीं किया है कि यहीं ठहरेंगे या और आगे जाएँगे : ज़रा चाय-वाय पी लें तब तक सोचते हैं-”

“जी हाँ, अभी लीजिए”, कह कर मैनेजर ने आवाज़ दी, “बाय!”

'बाय' आया तो उससे कहा, “साहब का आर्डर ले लो-चाय केक-पेस्ट्री वग़ैरह जो चाहें-”

रेखा कुछ पीछे थी। भुवन ने कहा : “आप ज़रा यहीं बैठिए, मैं अभी आया-सामान-”

पर रेखा साथ बाहर की ओर चली। बोली, “क्या बात है, भुवन?”

“कुछ नहीं।” भुवन क्षण भर रुक गया। फिर बोला, “मैं यहाँ नहीं ठहरूँगा-नैनीताल में ही नहीं।”

रेखा उसे देखती रही। उसका चेहरा उतर गया। “अभी वापस जाओगे?”

“यहाँ तो नहीं रहूँगा। या तो आगे चलें-”

“चलो-”

“अच्छा, मैं आता हूँ-”

“लेकिन जा कहाँ रहे हो? बताओ तो-”

“भई, कुछ सामान-वामान तो मुझे चाहिए, आ तो गया-”

“मेरे पास सभी कुछ फ़ालतू है, बिस्तरा, कम्बल-”

भुवन ने एक मुदित-सी खीझ के साथ कहा, “अच्छा, एक टूथ-ब्रश तो ले आऊँ!”

रेखा हँस पड़ी। फिर बोली, “मैं भी साथ चलूँ?”

“नहीं, मैंने चाय का आर्डर दिया है, मैं अभी लौट कर आया।”

रेखा मान गयी। भुवन चलने लगा तो बोली, “पर हम यहाँ ठहर नहीं रहे हैं, यह उदास जगह है। आगे कहीं भी चलो-मुझे छोड़ आना होगा।”

भुवन चला गया। रेखा भीतर बैठकर कापी में कुछ लिखने लगी। उसे नहीं मालूम हुआ कि भुवन कब लौटा; सहसा उसका स्वर सुन कर चौंकी। भुवन मैंनेजर से कह रहा था : “हम लोग आगे जा रहे हैं सात-ताल, अभी चले जाएँगे चाय के बाद-आपका शुक्रिया।”

“दैट्स आल राइट, सर! चाय आ गयी है।”

दोनों ने एक साथ ही प्रश्न किये :

“ले आये टूथ-ब्रश?”

“क्या लिख रही हैं-कविता?”

रेखा ने पहले उत्तर दिया : “हाँ समझ लो।”

भुवन ने नकल लगाते हुए कहा, “और मैं भी, हाँ, समझ लो।” फिर कहा, “अच्छा, जल्दी से चाय पी लीजिए-आगे जाना है तुरन्त।”

“कहाँ?”

“आगे। इंटु द ब्लू। क्रूसोलैण्ड। चाय का मज़ा क्यों बिगाड़ती हैं-पी लीजिए और चलिए।”

रेखा मुस्करा दी। चाय से उठकर वे बाहर आये तो भुवन ने कहा, “आपके बक्स-वक्स में कहीं जगह हो तो यह पैकेट उसमें रख दीजिए-”

रेखा ने दुष्टता से कहा, “इतना बड़ा टूथ ब्रश। जरा मैं देखूँ-” और भुवन के रोकते न रोकते उसने पैकेट खोल कर झांका ही तो।

दो कमीजे॓ं, एक फ्लैनल की पैंट, एक पाजामा, एक-आध और छोटी चीजें, और, हाँ, एक टूथ-ब्रश भी।

रेखा ने कहा, “हाँ, है तो सही टूथ-ब्रश। पर यह सब रेडी-मेड क्या ले आये आप-”

“तो आप का क्या ख़याल था, आपका फ़ालतू कम्बल लपेटे घूमूँगा?” भुवन हँस पड़ा, और अपने पतले कुरते की ओर देखने लगा।

रेखा ने गम्भीर होकर माफ़ी माँगी। सहसा उसे ध्यान हुआ, भुवन को यों खींच लाने में भावुकता का कितना बड़ा प्रमाद उसने किया है।

भुवन ने उसकी बात काटकर कहा, “जल्दी कीजिए रेखा जी, सामान उठवाना है।”

रेखा सामान रख रही थी तो उसने पूछा, “दस-बारह-पन्द्रह मील चल सकती हैं? वैसे मोटर भी जाती है, पर आगे भी कुछ चलना पड़ेगा-”

“ज़रूर चल सकती हूँ। पैदल ही चलूँगी। लेकिन कहाँ जाएँगे? सात-ताल?”

“नहीं।” भुवन फिर मुस्करा दिया। “क्रूसोलैण्ड-मैंने कहा न? बताने से जादू चला जाता है।”

भुवन कुली साथ ले आया था। सामान उठवाया और बोला, “चलो, हम लोग आते हैं। डाक बंगले पर जाकर बैठना।”

कुली चल पड़े।

“कहाँ के डाक बंगले-यह बता दिया है?”

“वह सब मैं ठीक कर आया हूँ-आप किसी उपाय से पहले नहीं जानने पाएँगी!” रास्ता उतार का था। दोनों बड़ी तेज़ी से उतरने लगे।

भुवन ने कहा, “अगर तेज़ चलने की बात न होती, तो मैं आपसे गाने का अनुरोध करता।”

रेखा ने रुकते-रुकते शब्दों में कहा, “नहीं-इस वक़्त-हवा को ही गाने दीजिए।”

लेकिन दो-तीन मील जाकर जब वे एक खुली जगह सामने का दृश्य देखने के लिए रुके, तब रेखा सहसा खुले गले से किसी भटियाली पद के बीच में से ही गा उठी :

ओ ये केड़े आमाय निये जाय रे,

   जाय रे कोन चूलाय रे!
   आमार मन भूलाय रे!
   ग्राम छाड़ा ओई राङामाटीर पथ-

(रांगामाटी का गाँव से हटा हुआ पथ मुझे खींच कर ले जाता है न जाने किधर।)


बस, यही अढ़ाई पंक्ति, और फिर मुक्त भाव से आगे को दौड़ पड़ी। पीछे-पीछे भुवन भी दौड़ने लगा।

भुवाली से एक-डेढ़ मील आगे रेखा ने सहसा भुवन का हाथ पकड़ कर कहा, “वह देखो सामने-क्या वहीं हम जा रहे हैं!”

दिन ढलने लगा था। आकाश के विस्तार में एक हल्की-सी धुन्ध छाने लगी थी; अभी थोड़ी देर में इसी धुन्ध में साँझ का ताम्र-लोहित रंग बस जाएगा...आस-पास की पहाड़ियाँ नैनीताल की तरह तंग नहीं थीं, एक के बाद एक तीन-चार खुले स्तर थे मानो पुरानी सूखी झीलों के थाल हों, और आस-पास पहाड़ियाँ क्रमशः नीचे होती गयी थीं। और धुन्ध के बीच में, जैसे किसी जौहरी ने सँभाल कर रूई के गोले पर कोई मूल्यवान रत्न रखा हो, एक झील चमक रही थी...

“मुझे क्या मालूम है? हो सकता है। पर वह शायद भीमताल है। तब सात-ताल दाहिने को होगा।”

“वहाँ क्या सचमुच सात-ताल हैं?”

“ज़रूर हैं, लेकिन जादू के बग़ैर नहीं दीखते। यों शायद तीन हैं-बल्कि अढ़ाई-” रेखा ने फिर पूछना चाहा, “क्या हम वहाँ जा रहे हैं?” पर रुक गयी।

दिन छिपते-छिपते दोनों भीमताल पहुँच गये। कुली भुवाली में ही पीछे रह गये थे। झील के पास ही डाकबंगला था; भुवन ने वहाँ जाकर चौकीदार से कहा कि कुली आवें तो उन्हें कह दे कि वह आगे चला गया है और कुली जल्दी आवें, फिर कुछ और पूछताछ भी करा ली और रेखा के पास लौट आया।

“क्या यहीं रुक रहे हैं हम?”

“नहीं, बस तीन मील और जाना है। थक तो नहीं गयी?”

“इर्रेलेवेंट बातें मत कीजिए,” रेखा ने उत्तर दिया और भुवन ने देखा, उसके चेहरे पर यद्यपि श्रम के लक्षण स्पष्ट हैं, पर उसकी एड़ी की गति में सहसा नयी लचक आ गयी है...

रात हो गयी थी। सप्तमी-अष्टमी का चाँद था। पथ बराबर हल्की उतराई का ही था। एक छोटे-से गाँव के पास से वे गुज़रे। भुवन ने कहा, “अब मील-भर और होना चाहिए-”

“अब भी नाम नहीं बताओगे जगह का?”

“नाम? नाम में क्या है? हमारा ही क्या नाम है? वहाँ एक तिलिस्मी झील है, और उसके नौ अलग-अलग कक्ष हैं, सब कभी एक साथ नहीं दीखते। रोज़ एक देखना होता है-”

“ओः, पूरा नाइन डेज़ वण्डर।” रेखा ने चिढ़ाया।

“हाँ, वही सही। लेकिन चार दिन की चाँदनी कहते हैं, तो मेरे वण्डर में दो पूरी चाँदनियाँ समा गयीं और फिर भी कुछ बाकी रह गया-समझीं?”

“तुम और तुम्हारा अरिथमेटिक!”

पहाड़ी के मोड़ पर सहसा घने पेड़ों के झुरमुट की ओट में पानी की चमक। भुवन ने कहा, “थके राही, वह देखो मंजिल। इस झील का नाम है नौकुछिया-ताल।”

थके तुम-और तुम्हारा दुश्मन। लेकिन सचमुच यही नाम है?”

“हाँ।”

बड़ा साफ़-सुथरा कमरा। बड़ी टेबल लैम्प। बिजली के लैम्प में और रहस्य में वैर है, लेकिन तेल के लैम्प-आओ, रहस्य के सौन्दर्य, सौन्दर्य के रहस्य, इस छोटे से आलोक-वृत्त को घेर लो!

सामान न जाने कब आएगा। गर्म पानी से दोनों ने मुँह-हाथ-पैर धोये; एक लम्बी आराम-कुरसी भुवन ने खिड़की के पास खींच ली, जहाँ से झील और चाँद भी दीखता था, पैरों के लिए एक तिपाई रखी; फिर रेखा से कहा, “यहाँ बैठ जाओ।”

रेखा ने एक बार उसके चेहरे की ओर देखा, फिर उस आज्ञापने के स्वर का प्रतिवाद करने की उसकी इच्छा दब गयी। वह आराम से लेट गयी। भुवन खिड़की के चौखटे पर आधा बैठ गया।

“और एक कुरसी खींच लो न?”

“खींच लूँगा पीछे।”

रेखा ने कुछ अलसाये स्वर से कहा, “फ्राइडे, तुम नहीं गा सकते? वह एक जादू बाकी है अभी-फिर मैं मान लूँगी कि कामिल जादूगर हो।”

भुवन ने कहा, “अच्छा गाता हूँ।” उठकर बरामदे में गया, धीरे-धीरे टहलने लगा।

उसकी गुनगुनाहट भीतर पहुँची तो रेखा का और भी अलसाया स्वर आया : “बाहर क्या प्रैक्टिस करने गये हो?”

भुवन ने उत्तर नहीं दिया। थोड़ी देर बाद भीतर गया तो देखा, रेखा वहीं कुरसी पर सो गयी है। वह दबे पाँव बाहर लौट आया। बरामदे के खम्भे के साथ पीठ टेक कर नीचे बैठ गया और चाँद देखने लगा। सहसा न जाने क्यों उदास विचार उसके मन में उमड़ने लगे-क्या थकान के कारण? वह फिर धीरे-धीरे गुनगुनाने लगा।

...मेरे मायालोक की विभूति बिखर जायगी!

   किरण मर जायगी!
   लाल हो के झलकेगा भोर का आलोक-
   उर का रहस्य ओठ सकेंगे न रोक।
   प्यार की नीहार बूँद मूक झर जायगी!
   इसी बीच किरण मर जायगी!
   ओप देगा व्योम श्लथ कुहासे का जाल,
   कड़ी-कड़ी छिन्न होगी तारकों की माल।
   मेरे मायालोक की विभूति बिखर जायगी-
   इसी बीच किरण मर जायगी!

चारों ओर पैरों की चाप और लालटेन की रोशनी से वह चौंक कर जागा। हाथ की घड़ी देखी-ग्यारह बजे थे। कुली आ गये थे। उसने कहा, “शोर मत मचाओ!” सामान उतरवा कर पैसे देकर उन्हें विदा किया। फिर भीतर जाकर देखा, रेखा गहरी नींद में सो रही थी। भुवन ने सामान बाहर ही रहने दिया, बिस्तर खोला, एक कम्बल निकाल कर, अन्दर चादर जोड़कर, दबे पाँव भीतर गया और धीरे से रेखा को उढ़ा दिया। वह नहीं जागी। तब वह बाहर आया, और जमीन पर बिछे बिस्तर पर ही स्वयं लेट गया, एक कम्बल खींच कर अपने पैरों पर उसने ढक लिया।

झील इस समय सुन्दर है-आसपास घने पेड़ों के झुरमुट हैं यद्यपि झील नैनीताल की तरह दो पहाड़ों के बीच में भिंची हुई नहीं है, खुली है-दिन में भी क्या वह उतनी ही सुन्दर होगी-जितनी उसने सुना है, जितनी अब है? दिन...'मेरे मायालोक की विभूति...!' दिन अपनी चिन्ता स्वयं करेगा। एक बार उसने चाहा, उठकर फिर रेखा को देख आये, पर शरीर ने कोई प्रोत्साहन न दिया। ठीक है, दिन की बात दिन में-अभी तारे हैं-कितने तारे-क्या सचमुच हर किसी का एक-एक अपना तारा होता है? केवल कल्पना। पर सुन्दर कल्पना। क्यों? क्या यह कल्पना और भी सुन्दर नहीं है कि सब तारे सब के होते हैं? हाँ, सदैव तो वही। पर एक क्षण होता है-एक द्वीप का क्षण-नहीं, क्षण का द्वीप-नहीं, उस क्षण में तारों का एक द्वीप-न...

× × ×

सुन्दर रंग-बिना आलोक के रंग-लेकिन बिना आलोक के रंग हो कैसे सकते हैं?-नहीं, बिना रंग का आलोक, तीक्ष्ण आलोक :

भुवन उठकर बैठ गया। सूर्य निकल आया था। लपक कर वह भीतर गया-कुरसी पर रेखा नहीं थी। तो वह पहले उठ गयी-उसने भी भुवन को न उठाया होगा-उसे पहले जागना चाहिए था।

वह बाहर आया। देखा, सूटकेस खुला है। उसकी कमीज़, पैंट, तौलिया और अन्य आवश्यक सामान बाहर एक ओर को रखा है। और वह सोता ही रहा।

भीतर जाकर मुँह-हाथ धोने की उसकी इच्छा न हुई। उसने तौलिये में सब सामान डाला और नीचे झील की ओर चला।

सामने जहाँ धूप पड़ रही थी, वहाँ पेड़ों पर जहाँ-तहाँ बड़े-बड़े लाल गुच्छे चमक रहे थे। भुवन ने पहचाना-बुरूस के फूल। मुँह-हाथ धोकर वह तोड़कर लाएगा...

बिना शीशे के हजामत बनाना ऐसा कठिन नहीं था। आँख बन्द कर लेने से अपना चेहरा देखने में मदद मिलती है। प्रक्षालन करके उसने कपड़े बदले, उतरे कपड़े तौलिये में लपेट कर वहीं रख दिये और लम्बे कदम फेंकता हुआ बुरूस के गुच्छे की ओर चला।

दो बड़े-बड़े गुच्छे उसने तोड़े। फिर दोनों को देखकर एक वापस पेड़ में अटका कर रख दिया, एक ले लिया।

जहाँ तौलिया छोड़ गया था, उधर वह लौट रहा था कि दूर, कुछ ऊपर से उसे रेखा का स्वर सुनाई पड़ा। रेखा गा रही थी। भुवन ठिठक कर सुनने लगा; कभी स्वर उस तक पहुँचते, कभी हवा उन्हें उड़ा ले जाती :

“ऊषा एशे...कल-कण्ठ-स्वरा!

   ...मिलन हबे बले आलोय आकाश भरा!
   चलछे भेसे मिलन -आशा-तरी अनादि स्रोत बये,
   कत कालेर कुसुम उठे भरि छेये ...
   तोमाय आमाय -”

(उषा आकर कलकण्ठ-स्वर से कहती है, तुम्हारा-मेरा मिलन होगा, इसीलिए आकाश आलोक से भरा है। मिलन-आशा की तरी अनादि स्रोत में बही चली जा रही है, न जाने कब के कुसुम खिल कर छा गये हैं। -रवीन्द्रनाथ ठाकुर)

हवा उठी, गान खो गया; फिर स्वर आये मगर अस्पष्ट : भुवन जल्दी से उधर को बढ़ने लगा जिधर से गान आ रहा था।

कुछ ऊँचे पर, सूर्य को सामने किये, मुँह कुछ ऊँचा उठाये रेखा एक पत्थर पर बैठी थी। भुवन एक ओर से आ रहा था, उसने देखा कि रेखा की आँखें बन्द हैं, मानो प्रभात के सूर्य को अपना चेहरा वह सौंप रही हो। पक्के पीले रंग की साड़ी उसने पहन रखी थी, जिसे सूर्य ने और सुनहला चमका दिया था...वह कुछ हट कर पीछे हो गया और दबे-पाँव बढ़ने लगा। रेखा अब भी गा रही थी, लेकिन शब्दों के बिना, केवल स्वर; कभी गुनगुना देती और कभी ज़ोर से। बिल्कुल पास जाकर उसने धीरे से हाथ बढ़ाकर रेखा की कबरी छुई; वह तनिक-सा चौंकी पर फिर पूर्ववत् हो गयी, घूमी नहीं, गाना बन्द कर दिया। भुवन ने हाथ का बुरूस का गुच्छा उसकी कबरी में खोंस दिया-वह इतना बड़ा था कि आधी कबरी को और कान तक बालों को ढक रहा था : उसे ठीक से अटकाने के लिए भुवन कुछ आगे झुका कि एक-आध काँटा खींच कर कबरी कुछ ढीली करे : सहसा रेखा ने दोनों बाहें उठा कर उसका सिर घेर लिया, कन्धे के ऊपर से उसे निकट खींच कर उसका मुँह चूम लिया-बड़े हलके स्पर्श से लेकिन ओठों पर भर-पूर।

भुवन भी कुछ चौंक गया, वह भी चौंक कर छिटक कर खड़ी हो गयी, दोनों ने स्थिर और जैसे असम्पृक्त दृष्टि से एक दूसरे को देखा, फिर एक साथ ही दोनों ने हाथ बढ़ाकर एक दूसरे को खींच लिया, प्रगाढ़ आलिंगन में ले लिया और चूम लिया-एक सुलगता हुआ, सम्मोहन, अस्तित्व-निरपेक्ष, तदाकार चुम्बन।

× × ×

“तुम फिर कुछ लिखती रही हो?”

“हाँ-”

“क्या?”

“कुछ नहीं। मेरी डायरी है।”

भुवन ने आगे नहीं पूछा। बोला, “अच्छा, अब तो गाना गाओगी?”

“न। तुम्हारी बारी है गाने की।”

“मैं। श्रेष्ठ गायक हूँ। मेरा गाना स्वरातीत है। दिन भर तो गाता रहा, तुमने सुना नहीं?”

“थोड़ा और श्रेष्ठ हो जाओ, तो मेरा सुनना भी सुन सको।”

तीसरे पहर रेखा ने कपड़े बदल लिए थे। वह फिर सफ़ेद पहनने लगी थी, लेकिन भुवन के आग्रह से उसने एक नीली साड़ी और नीला ही ब्लाउज़ पहन लिया था। अब कमरे की व्यवस्था ठीक-ठीक हो गयी थी, सामान लगाकर रख दिया था, खिड़की के पास रेखा का पलंग बिछा था और बरामदे में भुवन का-भुवन ने आग्रह कर के वहाँ लगाया था।

दिन भर वे प्रायः भटकते ही रहे थे-सुबह लौटकर नाश्ता किया था और फिर निकल गये थे, झील का एक चक्कर लगाया था; फिर लौटकर झील पर गये थे, नौ कक्षों में से जो एक सबसे खुला और शैवाल-रहित जान पड़ता था उसमें नहाये थे और फिर भोजन के लिए लौट आये थे। झील पर भुवन ने पूछा था, “तैरना जानती हो?”

“बस डूबने भर को।”

“तब तो बहुत जानती हो। इतना तो मैंने भी नहीं सीखा। कलकत्ते में क्यों नहीं सीखा?”

तब रेखा हँस कर बोली, “जानती हूँ साहब, तैर लेती हूँ। पर इन कपड़ों में नहीं-”

“ओह।” भुवन झेंप गया। “तो लायी क्यों नहीं?”

“मुझे क्या मालूम था-”

“कास्ट्यूम तो नैनीताल में भी मिल जाता-”

“मुझे बताया था? नहीं तो मैं भी टूथ-ब्रुश खरीदने चल देती।”

किनारे पर ही वे नहाये थे। भुवन तैर कर भीतर गया था, रेखा ने भी साड़ी पहने-पहने दो-चार हाथ तैरने का यत्न किया था पर लौट आयी थी।

अपराह्न में वे बुरूसों की छाया में काही-बिछी ठण्डी जगह में बैठे-लेटे रहे थे। फिर लौट कर चाय पी थी; तब रेखा ने कपड़े बदल लिए थे।

“अच्छा, चलो घूमने चलें।”

“चलो। किधर?”

“फिर पहले प्रश्न? सामने-सर्वदा सामने।”

“नहीं, मेरा मतलब था, सात-ताल के जादुई ताल खोजने हैं कि-”

“न। जादुई ताल यह है। नौ तहों का जादू है इस पर!”

वह पहाड़ पर ऊँचे चढ़ने लगे, फिर पहाड़ की उपत्यका के साथ-साथ सममार्ग पर।

दिन ढल आया था। थोड़ी देर में सूर्य पहाड़ी की ओट होकर छिप जाएगा। सहसा भुवन ने कहा, “चलो, सूर्यास्त को पकड़ें।”

दोनों हाथ पकड़े-पकड़े दौड़ने लगे। पहाड़ी के सिरे के पीछे सूर्य छिप रहा होगा-बादल नहीं थे, एक तेजोदीप्त नंगा लाल रवि-बिम्ब ही क्षितिज की ओट हो रहा होगा। अगर वे पहाड़ी के सिरे तक पहले पहुँच जायें तो देख सकेंगे।

दौड़ते-दौड़ते भुवन ने कहा, “दौड़ो, रेखा, हमारी सूरज से होड़ है।”

रेखा और तेज दौड़ने लगी। भुवन के हाथ पर उसकी पकड़ कुछ कड़ी और खींचती-सी हो गयी; भुवन ने लक्ष्य किया कि वह हाँफ रही है और सहसा धीरे हो गया, पर ऐसे नहीं कि रेखा को साफ़ मालूम हो।

पर पहाड़ी के मोड़ तक पहुँचते न पहुँचते सूर्य छिप गया। एक द्रुत हाथ मानो किसी धूसर लेप से सारा आकाश पोत गया; प्रकाश अब भी था, पर मानो किसी स्रोत से उद्भूत नहीं, दिग्भ्रान्त, आकाश मंा खोया-सा।

भुवन ने सहसा रुक कर कहा “हम हार गये।” जहाँ सूर्य डूबा था, वहाँ एक छोटी-सी लाल लीक थी, जैसे किसी ने 'इति शम्' लिख कर उस पर जोर देने को पुष्पिका बना दी हो।

उसकी ओर देखते हुए रेखा ने कहा, “डूबते सूर्य को कौन पकड़ सकता है?”

क्षण भर बाद भुवन के हाथ पर उसकी पकड़ फिर दृढ़ हो आयी। “मगर यह हार नहीं है। रात का अपना सौन्दर्य है। वह समान सौन्दर्य पहचानो, भुवन।”

भुवन घूमा। रेखा का दूसरा हाथ भी उसने पकड़ लिया और संझा के प्रकाश में थोड़ी देर उसका मुँह निहारता रहा। “पहचानता हूँ। तुम्हीं वह सौन्दर्य हो, नीलाम्बरा रात का सौन्दर्य; और तुम्हारे केशों में असंख्य तारे हैं।”

“और तुम-शुक्र तारा।” रेखा ने बहुत धीरे कहा। कोमल आग्रह से उसने हाथों से भुवन को निकट खींच लिया।

जरा परे हट कर भुवन ने मान से कहा, “क्यों, चाँद नहीं?”

“वेन मैन! नहीं, चाँद घटता-बढ़ता है। उसका बहुरूपियापन मुझे नहीं चाहिए। शुक्र, केवल शुक्र!” फिर हल्की-सी उसाँस लेकर, “चाहे कितनी जल्दी अस्त हो जाये!”

भुवन ने हाथों से उसकी आँखों को पकड़ते हुए धीरे-धीरे सिर हिलाया : हुँक्, उदास नहीं होना है! फिर रेखा के माथे की ओर देखते हुए, कविता की पंक्ति उद्धृत की, “एण्ड द स्टार्स इन हर हेयर वेयर सेवन।”

वह लौटने के लिए मुड़ा। बोला, “यहाँ जुगनू होते तो मैं थोड़े से पकड़ कर तुम्हारे बालों में फँसा देता।”

× × ×

किस चीज़ ने उसकी नींद तोड़ दी-चाँद की रोशनी ने, या कि उस पर बादल की छाया ने-

भुवन ने आँखें खोली। नहीं, बादल की छाया नहीं, रेखा की छाया थी।

रेखा उसके सिरहाने बैठी थी, उस पर झुकी हुई उसका चेहरा देख रही थी।

उसने आँखें खोली हैं, यह देखकर रेखा ने अपने दोनों हाथ उसके माथे पर रख दिये।

हाथ बिलकुल ठण्डे थे।

“तुम ठिठुर रही हो, रेखा!” कह कर भुवन उठने को हुआ, पर रेखा ने उसका माथा दबा कर उसे रोक दिया। भुवन ने कुहनी से अपना कम्बल उठाकर सरका कर रेखा के घुटनों पर उढ़ा दिया, फिर उसके दोनों हाथ अपने हाथों में पकड़ कर कम्बल के अन्दर खींच लिए। पूछा “क्या बात है, रेखा?”

रेखा नहीं बोली।

भुवन ने फिर पूछा, “रेखा क्या बात है?”

“तुम-हो, तुम सचमुच हो! यू आर रीयल!” रेखा का स्वर इतना धीमा था कि ठीक सुन भी नहीं पड़ता था।

भुवन ने कहा, “आइ'म वेरी रीयल, रेखा। पर ठहरो, पहले तुम्हें कम्बल उढ़ा लूँ-”

एक हाथ में रेखा के दोनों हाथ पकड़े वह उठा, दूसरे हाथ से उसने कम्बल खींच कर रेखा की पीठ भी ढक दी। स्वयं पैर समेट कर बैठा हो गया, कुछ रेखा की ओर को उन्मुख।

रेखा सहसा हाथ छुड़ा कर उससे लिपट गयी। आँखें उसने बन्द कर ली, भुवन के माथे पर अपना माथा टेक दिया। उसके ओंठ न जाने क्या कह रहे थे; आवाज़ उनसे नहीं निकल रही थी।

भुवन कहता गया, “क्या बात है, रेखा; रेखा, क्या बात है-” उसका स्वर क्रमशः धीमा और आविष्ट होता जा रहा था।

रेखा के ओंठ उसके कान के कुछ और निकट सरक आये। पर स्वर उनमें से अब भी नहीं निकला।

पर सहसा भुवन जान गया कि वे शब्दहीन-स्वरहीन ओंठ क्या कह रहे हैं।

“मैं तुम्हारी हूँ, भुवन, मुझे लो।”

× × ×

भुवन वैसा ही स्तब्ध बैठा रहा। न उठा, न हिला; न उसने रेखा को निकट खींचा, न हटाया। रेखा के ओंठ भी निश्चल हो गये, मानो उन्होंने जान लिया कि वे जो कह नहीं सके हैं, वह सुन लिया गया है।

न जाने कितनी देर तक ऐसा रहा। फिर भुवन ने कहा, “रेखा, पैर उठा कर इधर पसार लो-ठिठुर जाएँगे।” लेकिन रेखा के अंग-प्रत्यंग जैसे शिथिल हो गये थे। भुवन ने हाथों में बलात् उसके पैर उठाकर कम्बल के अन्दर कर लिए। रेखा कुछ सीधी होकर बैठ गयी। भुवन ने दोनों बाँहों से उसे कमर से घेर लिया; सिर उठाकर धीरे से रेखा की जाँघ पर रख दिया।

फिर और न जाने कितनी देर तक ऐसा रहा।

सहसा रेखा चौंकी। भुवन का शरीर काँप रहा था। जल्दी से झुककर रेखा ने उसका मुँह देखना चाहा, पर उसने और भी जोर से उसे रेखा की जाँघ में गढ़ा कर अपनी एक बाँह से ढँक लिया।

रेखा बैठी रही, बिलकुल निश्चल। उसकी सब संवेदनाएँ जैसे अत्यन्त सजग हो आयीं, पर साथ ही भीतर कहीं कुछ जड़ होने लगा।

भुवन सिसक रहा था; अब उसकी सिसकी स्पष्ट सुनी जा सकती थी।

रेखा ने फिर उसे सीधा करना चाहा, पर न कर सकी। फिर वह वैसी ही निश्चेष्ट बैठ गयी।

थोड़ी देर बाद भुवन ही सिर उठा कर ज़रा ऊपर को सरका, सिर उसने फिर रेखा की देह पर टेक लिया लेकिन मुँह के आगे से हटा लिया। पर रेखा ने अब उसका चेहरा देखने की चेष्टा नहीं की।

भुवन कुछ असम्बद्ध-सा बड़बड़ाने लगा। पहले ओठों की बिलकुल ही स्वरहीन गति। फिर एक धीमी फुसफुसाहट, कभी कहीं टूटा हुआ स्वर। रेखा एकाग्र होकर सुन भी रही थी और मानो अर्थ तक पहुँचने का यत्न भी नहीं कर रही थी...

लेकिन अर्थ स्वयं धीरे-धीरे अवगत होने लगा।

“यह इनकार नहीं है, रेखा; प्रत्याख्यान नहीं है...यह सब बहुत सुन्दर है, बहुत सुन्दर...वह-वह सौन्दर्य की चरम अनुभूति होती है-होनी चाहिए मैं मानता हूँ...इसीलिए डर लगता है, अगर वह-अगर वैसा न हुआ-जो सुन्दर है उसे मिटाना नहीं चाहिए...तुमने जो दिया है, उसके सौन्दर्य को मैं मिटाना नहीं चाहता, रेखा, जोखिम में नहीं डालना चाहता। वह बहुत सुन्दर है, बहुत सुन्दर...”

और फिर बड़ी-बड़ी सिसकियों ने उसका स्वर तोड़ दिया; अब की बार उसने मुँह नहीं छिपाया, और रेखा वैसे ही बैठी रही, एक हाथ भुवन के कन्धे पर रखे, दूसरा अपनी जाँघ पर उसके चेहरे के नीचे; भुवन का पहला गर्म आँसू इस हाथ पर गिरा तो वह तनिक-सा सिहर गयी, फिर हाथ को उसने अंजुली-सा बना लिया और आँसू उसमें गिरते गये।

जब भुवन का आवेश कुछ कम हुआ तो रेखा ने अपना आँसुओं से भीगा हुआ हाथ खींचा, और भुवन के आँसू अपने केशों में और फिर अपनी छाती पर पोंछ लिए। फिर आँचल खींच कर धीरे से भुवन की आँखें पोंछ दी। जो हाथ कन्धे पर पड़ा था, वह अत्यन्त धीरे-धीरे उसे थपकने लगा।

भुवन धीरे-धीरे शान्त हो गया। एक ऐसी गहरी शिथिलता उसके सारे शरीर पर छा गयी मानो हफ्तों का रोगी हो। रेखा ने उसे धीरे-धीरे और ऊपर की ओर खींचा, उसका सिर अपनी छाती पर टेका, अपने आँचल से ढँक दिया।

एक स्निग्ध, करुण, वात्सल्य भरी गरमी से घिरा हुआ भुवन सो गया। न जाने कब एक बार उसकी नींद की घनता कुछ कम हुई, तो उसके कन्धे पर उस थपकी की वैसी ही सम, कोमल, अभयदा, त्राणमयी, छाप पड़ रही थी। वह फिर खो गया।

× × ×

लेकिन सुबह वह अकेला था। जब उसकी नींद खुली, तो पलकों पर एक भारीपन था, मन पर कुछ ऐसा भाव कि वह नींद में उठकर चला है, और कहीं अपरिचित जगह पर जाकर जाग कर भटक गया, है...फिर सहसा रात की घटना का चित्र स्पष्ट हो गया, उसने जाना कि रेखा जहाँ थी वहाँ नहीं है और वह बहुत गहरी नींद सोया होगा। पर उठकर भीतर जाकर रेखा को देखने का भी साहस उसे न हुआ। वह वहीं से बाहर जाकर सीधे बुरूस के झुरमुट में चला गया।

अनमने-से भाव से उसने बुरूस का बड़ा-सा गुच्छा तोड़ा। फिर सहसा सचेत होकर उसे देखा। नहीं, जीवन में कोई चीज़ दोबारा नहीं होती है। कम-से-कम कोई सुन्दर चीज़ नहीं। जो दोबारा होती है वह सुन्दर नहीं होती। फूल का गुच्छा उसने फेंक दिया। झुरमुट में और गहरा घुसने लगा।

क्या वह लौट कर जाएगा-रेखा के पास जाएगा? उसके सामने होगा?

पुराणों में बहुत कहानियाँ हैं। स्त्री कभी नहीं माँगती; और जब माँगती है-प्रत्याख्याता स्त्री ने कभी पुरुष को क्षमा नहीं किया, सदैव शाप दिया है; और पुराणों में कहीं यह ध्वनि नहीं है कि वह शाप अनुचित है। कहीं बल्कि यह स्पष्ट कहा है कि स्त्री माँगे तो 'न' कहने का अधिकार पुरुष को नहीं है, शील विरुद्ध है-माँग के औचित्य-अनौचित्य से परे...सब पुराणों का रोमांटिसिज़्म है? लेकिन पुराण बिलकुल रोमांटिक नहीं थे-उनकी स्वच्छन्दता प्रकृति की स्वच्छ, स्वस्थ आत्म-निर्भरता की स्वच्छन्दता थी, जिसमें स्त्री भी उतनी ही स्वायत्त है जितना पुरुष; बल्कि अधिक, क्योंकि उस पर प्रकृति का दायित्व है। कहीं भी प्रकृति के शासन में अस्वीकार का अधिकार नर का नहीं है; सर्वत्र मादा निर्णायिका है-क्योंकि वह माँ है...

लेकिन प्रत्याख्यान की बात वह क्यों सोचता है? उसने तो कहा भी है, प्रत्याख्यान वह नहीं है। केवल सुन्दर, सुन्दर से सुन्दरतर वह चाहता है, और लोभ से सुन्दर को जोखिम में नहीं डालना चाहता। इसलिए और भी नहीं, कि रेखा उस जोखिम को समझती नहीं-या हेय मानती है। सहसा रेखा के प्रति एक गहरे कृतज्ञ भाव ने उसे द्रवित कर दिया : कैसे यह स्त्री सब-कुछ इस तरह उत्सर्ग कर दे सकती है, बिना कुछ प्रतिदान माँगे, बिना कोई सुरक्षा चाहे-बल्कि सुरक्षाओं की सब सम्भावनाओं को लात मार कर! क्यों? क्योंकि वह भुवन को प्यार करती है, उसे कुछ देना चाहती है? कुछ नहीं, सब कुछ, अपना आप। कैसी विडम्बना है यह स्त्री की शक्ति की, कि उसका श्रेष्ठ दान है स्वतः अपना लय-अपना विनाश! लेकिन लय के बिना और श्रेष्ठ दान कौन-सा हो सकता है? अहं की पुष्टि के लिए समर्पण नहीं, अहं का ही समर्पण समर्पण है...

झुरमुट में बुरूस का स्थान अब बाँज ने ले लिया था, अधिक घने, ठण्डे और पुष्पविहीन। वह और अन्दर पैठता चला जा रहा था।

और वह?

क्यों वह रेखा की ओर से ही सोच रहा है, क्यों नहीं अपनी ओर से सोचता? वह-वह क्या चाहता है, क्या देना चाहता है, क्या वह रेखा को चाहता है? प्यार करता है? नकारात्मक उत्तर उसके भीतर से नहीं उठता, लेकिन क्यों नहीं सहज स्वीकारी उत्तर आता, क्यों यह स्तब्धता है...

सुन्दर से सुन्दरतर...चरम अनुभूति...

लेकिन तुम में अगर सौन्दर्य की चरम अनुभूति है, भुवन, तो डर कैसा? डर केवल सुन्दर में अविश्वास है।

पर उसकी तसल्ली नहीं हुई। स्वयं उसके भीतर, और गहरे किसी एक स्तर पर एक संघर्ष है, इसका जैसे उसे थोड़ा-थोड़ा भान है; पर किस स्तर पर, यह वह नहीं जान पाता, और उसे कुरेद कर ऊपर भी नहीं ला पाता। मानो प्रयत्न छोड़कर उसका मन रेखा के कहे हुए वाक्यों पर उछटता-सा घूमने लगा : काल का प्रवाह नहीं, क्षण और क्षण और क्षण...क्षण सनातन है...छोटे-छोटे ओएसिस...सम्पृक्त क्षण..नदी के द्वीप...जो काल-परम्परा नहीं मानता, वह वास्तव में कार्य-कारण-परम्परा नहीं मानता, तभी वह परिणामों के प्रति इतनी उपेक्षा रख सकता है-एक तरह से अनुत्तरदायी है...पर इससे क्या? उत्तर माँगनेवाला कोई दूसरा है ही कौन? मैं ही तो मुझ से उत्तर माँग सकता हूँ और अगर मैं अपने सामने अनुत्तरदायी हूँ, तो उसका फल मैं भोगूँगा-यानी अपने अनुत्तरदायित्व का उत्तरदायी मैं हूँ...

क्या यह-परसों और कल और आज-वैसा ही एक द्वीप है-सम्पृक्त क्षणों का द्वीप-काल-प्रवाहिनी में अटका हुआ एक अलग परम्परामुक्त खण्ड-जैसे रेखा कहती है? परसों, कल, आज, फिर महाशून्य-नहीं, आज, फिर दूसरा आज, फिर आज, तब महाशून्य!

सामने एक पेड़ पर सोनगाभा के पौधे लग रहे थे। और पेड़ों पर भी पत्ते लटकते भुवन ने देखे थे, पर इसमें फूल थे। रंग उनमें अधिक नहीं था-चम्पई, भीतर कत्थई और फूल की बावड़ी के बिलकुल बीचोंबीच में गहरा पीला-फिर भी, सोनगाभा...

उसे जमुना के टापू का बालू का घरौंदा याद आ गया, जहाँ आर्किड लगाने की बात उसने कही थी। वह जैसे-जैसे पेड़ पर चढ़ा, कुछ नीचे से ही पौधे समेत फूल उसने नोच लिए और उतर आया। झाड़ पर फूल अलग करता हुआ लौट चला। रेखा बरामदे की सीढ़ियों पर बैठी थी। कुछ लिख रही थी। दूर से भुवन को देख कर कापी उसने बैग में डाल ली, और एकटक उसकी प्रतीक्षा करने लगी।

भुवन गम्भीर चेहरा लिए हुए आया। रेखा से आँखें उसने नहीं मिलायी, यह देख लिया कि उसका चेहरा भी गम्भीर नहीं तो एक बन्द चेहरा तो है ही; भीतर की कोई छाप उस पर नहीं दीख रही।

भुवन ने चुपचाप फूल उसकी गोद में रख दिये। एक लच्छा लेकर उसके बालों में अटका दिया।

“ओः, आर्किड! तब यह बिदा है।”

ऐसा कोई सम्बन्ध भुवन ने नहीं देखा था। पर बोला, “रेखा, आज तो मुझे जाना होगा न।”

“सो-मैं जानती थी।”

भुवन उसके पास सीढ़ी पर बैठ गया।

“रेखा, तुमने मुझे क्षमा कर दिया?”

रेखा का हाथ टटोलता हुआ बढ़ा; भुवन के हाथ पर आकर शिथिल रुक गया।

“किस बात के लिए, भुवन?”

“सब कुछ। तुम जानती तो हो।”

“तुम्हारे क्षमा माँगने की तो कोई बात मुझे नहीं दीखती, भुवन! मैं ही-”

भुवन ने असल बात से कुछ हटते हुए कहा, “और मैं बहुत लज्जित हूँ, रेखा! पुरुष की आँखों में आँसू तो नामर्दी हैं-मैं-तुम क्या सोचती होगी न जाने-”

रेखा के हाथ के दबाव ने उसे चुप करा दिया, पर वह स्वयं कुछ देर तक कुछ नहीं बोली। फिर उसने कहा, “भुवन, मर्द के आँसू मैंने पहले भी देखे हैं। बड़ी व्यथा के आँसू-इसलिए कि उस पुरुष ने मुझे खो दिया है। बड़ी ग्लानि के आँसू-इसलिए कि वह पुरुष मुझे पा लेना चाहता है और पा नहीं सकता। पर तुम्हारे आँसू-किसी पर छाँह करते हुए उसके लिए रोना नामर्दी नहीं है, भुवन...”

धीरे-धीरे उसने अपना हाथ खींच लिया। दोनों चुप, स्तब्ध बैठे रहे।

× × ×

कुछ खाने की इच्छा नहीं थी, पर भुवन ने खोये-से, रेखा को उसे नाश्ता करा लेने दिया। थोड़ी देर खोये-से ही दोनों बरामदे में आकर खड़े रहे, झील को देखते रहे। फिर वह क्षण आ ही गया।

रेखा ने अन्दर से एक पुलिन्दा लाकर देते हुए कहा, “यह लो अपना टूथ-ब्रश।”

भुवन ने कहा, “अच्छा रेखा; अब चलता हूँ।” वह कुछ रुका। “कहना चाहता हूँ मैं-तुम्हारा बहुत कृतज्ञ हूँ, पर शब्द ओछे हैं, नहीं कहूँगा। इतना ही कि-गॉड ब्लेस यू।”

“रुको-” कहकर रेखा भीतर गयी। थोड़ी देर में एक छोटा-सा पैकेट और ले आयी। “यह भी लो-”

“क्या है?”

“जाते हुए रास्ते में देख लेना।”

भुवन ने एक लम्बे क्षण तक रेखा को देखा, आँखों ही आँखों में बिदा माँगी और दी, और चलने को मुड़ा।

“भुवन, यह भी लेते जाओ।”

रेखा ने बालों में से आर्किड निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दिया। बाकी फूल उसने रख लिए थे।

“यह-यह क्यों-”

“मेरी ओर से-इसलिए कि तुम-शायद-फिर न आओ।” रेखा ने जल्दी से मुँह फेर लिया।

भुवन ने सहसा उसकी ओर बढ़कर बायें हाथ के अँगूठे-उँगली के नाखूनों की चुटकी से उसके ब्लाउज़ का गला तनिक-सा उठाया और दाहिना हाथ बढ़ाकर आर्किड के फूलों का लच्छा उसके भीतर डाल दिया। बड़े स्निग्ध स्वर से कहा, “पगली कहीं की!”

फिर बड़ी त्वरा से उसने अपनी पोटली उठायी और बिना लौट कर देखे चला गया।

दो मोड़ पार करके, जैसे कुछ याद कर के वह रुका। छोटा पैकेट उसने खोला।

उसमें रेखा की वह छोटी कापी थी, और वह नीली साड़ी जिसे पहन कर उसने भुवन के साथ सूर्यास्त का पीछा किया था।