अन्तर्राष्ट्रीय पहचान / राजकपूर सृजन प्रक्रिया / जयप्रकाश चौकसे

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अन्तर्राष्ट्रीय पहचान
जयप्रकाश चौकसे

दूसरे विश्व युद्ध की त्रासदी में डूबे सोवियत संघ के लाखों लोगों ने राजकपूर की फिल्म आवारा को आनन्द के प्रतीक के रूप में लिया। आवारा का फटेहाल नायक हमेशा हँसता-हँसाता है। युद्ध की विभीषिका में जले रूस पर आवारा ने मरहम का काम किया। राजकपूर की फिल्मों में सार्वकालिकता तथा सार्वभौमिकता के तत्व रहे हैं, जो उन्हें सरहदों के पार ले जाकर अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करते हैं।

ख्वाजा अहमद अब्बास ने निकिता खुश्चेव से रूस में राजकपूर की अपार लोकप्रियता के कारण पूछे थे। निकिता खुश्चेव का विचार था कि रूस के लोगों ने दूसरे विश्वयुद्ध में अनेक कष्ट सहे और युद्ध की बहुत कीमत चुकाई। देश जबरदस्त गरीबी और आर्थिक संकटों से गुजर रहा था। रूस के सभी स्टूडियो युद्ध से सम्बन्धित फिल्में बना रहे थे। इस वातावरण में राजकपूर की 'आवारा' आनन्द के प्रतीक के रूप में आई जिसका फटेहाल नायक हमेशा हँसता-हँसाता है और प्रेम के गीत गाता है। जख्मों से भरा सीना है, परन्तु हँसती है ये मेरी मस्त नजर 'आवारा' आनन्द और प्रेम की लहर की तरह पूरे रूस पर छा गई। युद्ध की विभीषिका में जले हुए देश के जख्मों पर आवारा मरहम सिद्ध हुई। 'आवारा' मानवता का आशावादी दस्तावेज कहलाई ।

यह सच है कि भारत में राजकपूर की लोकप्रियता का कारण था उसका आम आदमी में रागात्मक तादात्म्य स्थापित होना। राजकपूर को भारतीय सभ्यता, संस्कृति और संगीत का अद्भुत ज्ञान था। वह रस के महत्त्व को समझते थे। इस ज्ञान के कारण ही राजकपूर सामूहिक अवचेतना में पैठने की कला जान गए थे। राजकपूर की स्वाभाविकता और मन के भीतर के बच्चे को हर उम्र में सही-सलामत रखने की योग्यता के कारण आम दर्शक से उनका अनाम रिश्ता विकसित हुआ। ये सारी चीजें जो भारतीय सन्दर्भ में सटीक थीं, क्या विदेशी दर्शकों को भी पसन्द आई? रूस के विषय में निकिता खुश्चेव का अवलोकन सही हो सकता है, परन्तु गल्फ के मुल्कों में राजकपूर की अपार लोकप्रियता का क्या कारण हो सकता है? अफगानिस्तान, चीन, मॉरिशस और लेटिन अमेरिका के लोगों को भी राजकपूर की फिल्मों में कोई चीज बहुत पसन्द आई होगी। अमेरिका के फिल्म उद्योग ने राजकपूर के कार्य पर अपनी पसन्दगी की मोहर 1986 में लगाई जब वहाँ के अनेक शहरों में राजकपूर की फिल्में दिखाई गईं और आर. के. 'रिट्रास्पेक्टिव' आयोजित किया गया। क्या राजकपूर का गीत-संगीत उन्हें दसों दिशाओं में लोकप्रिय कर गया? राजकपूर की फिल्मों में सार्वकालिकता और सार्वभौमिकता के कौन से तत्व थे। आवारा, श्री 420 और जोकर क्लासिक फिल्में होने की परीक्षा में पास हो चुकी हैं, क्योंकि निर्माण के इतने वर्षों बाद भी उनमें पहले जैसी ताजगी है। वे आज भी आधुनिक हैं और सौ साल बाद भी वक्त की धूल उन पर नहीं जमेगी, क्योंकि पिछले पचास सालों में उनका कुछ नहीं बिगड़ा। दरअसल आवारा, श्री 420 और जोकर मनुष्य की कमजोरी के महाकाव्य हैं। इनके पूर्व के महाकाव्य बड़े लोगों की जीवन गाथाएँ हैं। सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी, योद्धा और वीर पुरुषों के जीवन के महाकाव्य बहुत रचे गए, लेकिन राजकपूर की इन तीन फिल्मों के नायक आम आदमी हैं और बड़े कमजोर से लोग हैं। जेब काटते हैं, चोरी करते हैं और 'शान्ति से गुजारा हो सके' जैसी मामूली महत्त्वाकांक्षा इनके दिल में है। ये नायक नियति की जेब से अपने लिए मुट्ठी भर प्यार चुराना चाहते हैं। इस प्यार के सहारे जिन्दगी गुजार देना चाहते हैं। नन्ही-सी महत्त्वाकांक्षा और प्यार के लिए अदनी-सी जेबकटी ही राजकपूर की फिल्मों को सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता प्रदान करती हैं। बीसवीं सदी में साधारण जीवन जितना कठिन हो गया है उतना ही राजकपूर की फिल्मों का महत्त्व बढ़ गया है। राजकपूर ने कलयुग में अदने इन्सान पर सेल्युलाइड के महाकाव्य लिखे हैं। शम्मीकपूर ने राजेश खन्ना को नायक लेकर एक फिल्म बनाई थी (बंडलबाज), जिसमें शम्मी बोतल में बन्द जिन्न हैं। फिल्म के एक भाग में उसकी दैवी शक्ति समाप्त हो जाती हैं और उसे साधारण इन्सान की तरह जीना पड़ता है। वहाँ एक संवाद है, 'मामूली इन्सान बनकर जीना कितना कठिन है यह मुझे आज मालूम पड़ा।' राजकपूर की फिल्मों के नायक ऐसे ही मामूली इन्सान हैं पर उनके पास अभूतपूर्व सपने देखने की दैवी ताकत है। राजकपूर के पास सपने देखने की ताकत थी और उनके पात्रों के पास भी सपने देखने का माद्दा है। दुनियाभर के गरीब लोग जीवन के कड़वे यथार्थ के बीच मोहक सपने देखते हैं। राजकपूर की फिल्में उन्हें दिलासा देती रही हैं कि सपने देखना गलत नहीं हैं। गरीब होना गुनाह नहीं है और इस असमान समाज में थोड़ा-सा चोर होना अपराध नहीं है। दुनियाभर के दर्शकों को राजकपूर के नायक के साथ यह 'आइडेंटिफिकेशन' मिला।

कुछ साल पहले राजकपूर की छोटी बेटी रीमा, न्यूयार्क में 'रेम्बो' फिल्म देखने के लिए टिकट खिड़की के सामने लम्बी कतार में खड़ी थी। सिनेमा के एक कर्मचारी ने उससे पूछा कि क्या वह राजकपूर की बेटी है। रीमा की शक्ल पिता से काफी मिलती है। उस कर्मचारी ने डॉलर का टिकट और पॉपकार्न अपनी तरफ से रीमा को उपहार में दिए और राजकपूर को सलाम कहा। उसने बताया कि वह अफगानिस्तान का रहनेवाला है और न्यूयॉर्क में नौकरी करता है। उसने अपने वतन में राजकपूर की फिल्में देखी हैं और वह उनका अनन्य भक्त हैं। संगम ने ईरान के बड़े शहरों में आय के रिकार्ड कायम किए थे। हिन्दुजा के मूल व्यावसायिक संस्थान का नाम आज भी संगम इंटरनेशनल हैं, क्योंकि हिन्दूजा, 'संगम' के वितरक थे, ओवरसीज सर्किट के लिए। हिन्दुजा की विशाल अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारी सफलता में 'संगम' का बहुत हाथ है, क्योंकि इससे उन्हें न केवल धन मिला वरन् महत्त्वपूर्ण लोगों से परिचय भी प्राप्त हुआ। बाद की सफलता उनकी अपनी होशियारी का परिणाम है। आज भी हिन्दुजा घराना राजकपूर की बहुत इज्जत करता है।

राजकपूर की फिल्मों के संगीत में आधारतत्व के रूप में शुद्ध भारतीय 'मेलोडी' रही है, परन्तु वाद्ययन्त्रों का नियोजन एवं मुखड़े और अन्तरे के बीच इंटरल्यूड पाश्चात्य क्लासिकल शैली के रहे हैं। इस कारण विदेशी दर्शकों को उनका संगीत अटपटा नहीं लगा। गीतों के छायांकन में भावना की तीव्रता के कारण भाषा विदेशी दर्शकों के लिए बाधा नहीं बनी, बल्कि गीतों की वजह से उन्हें कहानी समझने में आसानी हुई और वैसे भी प्रेम की भाषा अन्तर्राष्ट्रीय होती है।

राजकपूर की फिल्मों की तकनीकी गुणवत्ता भी लगभग अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की ही रही है। श्याम-श्वेत फिल्मों में प्रकाश व्यवस्था में राजकपूर और राधू करमरकर ने गहरा प्रभाव उत्पन्न किया। कैमरे की भाषा भी भावों को अभिव्यक्त करने में सहायक सिद्ध हुई। 'जागते रहो' का नायक केवल अन्त में एक संवाद कहता है। पूरी फिल्म में राजकपूर का कैमरा ही बोलता है। 'संगम' और 'जोकर' की दृश्यावली सम्प्रेषण के मामले में संवाद की मोहताज नहीं है।

ट्रेज्यो-कॉमेडी साहित्य की बहुत कठिन विधा है इसे साधना अर्थात् रस्सी पर चलना है। जरा कदम लड़खड़ाए कि असफलता की निर्मम धरती पर चारों खाने चित्त। ट्रेज्यो कॉमेडी में हल्का-सा उजाला होता है और हल्का-सा अँधेरा अर्थात् अलसभोर के समय की तरह। दुःख और सुख इसमें गले लगते नजर आते हैं। आँसू और मुस्कान एक साथ। राजकपूर की फिल्में ट्रेज्यो-कॉमेडी वर्ग की हैं और यह विधा पश्चिम के दर्शकों के लिए नई नहीं है। चार्ली चैपलिन उन्हें इस विधा से परिचित करा चुके थे। राजकपूर पर चैपलिन का प्रभाव स्पष्ट है। सारी दुनिया के दर्शक ट्रेज्यो-कॉमेडी के सुरमई उजाले और चम्पई अँधेरे को पसन्द करते हैं। राजकपूर के नायक इस कदर मानवीय और पहचाने से लगते हैं, कि जब उनकी फिल्म पर्दे पर चलती है, तो पर्दा आईना बन जाता है और हर दर्शक उसमें अपनी छवि देखता है।

सिनेमा भौगोलिक और भाषाई सरहदों को नहीं मानता। विज्ञान की शताब्दी के आम आदमी की भाषा है सिनेमा। यह आधुनिक फोक-लोर का माध्यम है। राजकपूर इस माध्यम का अन्तर्राष्ट्रीय गीतकार है।