शो-मैन और शो-बिजनेस / राजकपूर सृजन प्रक्रिया / जयप्रकाश चौकसे
जयप्रकाश चौकसे
राजकपूर का फिल्मों की भव्यता देखकर उन्हें शो-मैन की उपाधि से पुकारा जाने लगा, जो सरासर उनके साथ अन्याय है। उनकी फिल्मों का केन्द्रीय विचार सदैव महान रहा, क्योंकि उन्होंने हमेशा आम आदमी के दुःख-दर्द की बातों को महत्त्व दिया है। उन्होंने तकनीक अथवा भव्यता को फिल्म पर हावी नहीं होने दिया। राजकपूर को शो-मैन कहकर हम उनकी निर्देशकीय क्षमता का मल्य कम करते हैं।
एक बार राजकपूर से पूछा गया कि उन्हें महानतम शो-मैन क्यों कहा जाता है। राजकपूर का उत्तर था, 'मैं खुद भी यह समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि मुझे शो-मैन क्यों कहते हैं। दरअसल यह शब्द सबसे पहली बार अमेरिकन फिल्म निर्माता सीसिल बी. डिमिल के लिए प्रयुक्त किया गया था। उनके साथ यह शब्द इसलिए जोड़ा गया कि उन्होंने जो भी फिल्में बनाई, चाहे वे सिनेमा के गूँगे युग की 'किंग ऑफ किंग्स' हो या क्राइस्ट के जीवन के बारे में हो, उनकी प्रत्येक फिल्म भव्यता के साथ बड़े पैमाने पर बनाई जाती थी। आम फिल्मकार उतने बड़े पैमाने पर फिल्म बनाने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। उन्हें शो-मैन कहा जाने लगा। उनकी फिल्म के विषय भी 'एपिक' दर्जे के हुआ करते थे। जैसे उनकी अन्तिम फिल्म का नाम धा-'द ग्रेटेस्ट शो ऑन अर्थ'। 'मेरी फिल्मों का कैनवास भी' बड़ा होता है। जब मैंने आवारा बनाई, तो सिर्फ एक गाने के लिए विशाल हवेली का सेट लगाया और स्वप्न दृश्य के लिए भव्य सेट लगाया था। लोगों ने मुझे शो-मैन के विशेषण से पुकारना आरम्भ कर दिया। धीरे-धीरे सभी लोग शो-मैन कहने लगे परन्तु महानतम शो-मैन सीसिल बी. डिमिल ही थे।'
फिल्म समालोचक हेमचन्द्र पहारे को यह कतई पसन्द नहीं कि राजकपूर को महज शो-मैन माना जाए। उनका विचार है कि 'दहेज' के बाद में बनी फिल्मों (नवरंग, झनक झनक पायल बाजे, गीत गाया पत्थरों ने) के कारण शान्ताराम को शो-मैन कहना उचित है। पहारे का यह भी मानना है कि जिस निर्माता-निर्देशक की फिल्मों में सिर्फ भव्यता हो उन्हें शो-मैन कहा जाता है। राजकपूर की फिल्मों में आम आदमी के दुःख-दर्द की बात है। राजकपूर की फिल्मों में केन्द्रीय विचार बहुत महान होता था और उन्होंने कभी तकनीक या भव्यता को अपनी कथा पर हावी नहीं होने दिया। इसलिए शो-मैन कहकर हम राजकपूर की निर्देशन क्षमता का मूल्य कम आँकते हैं।
राजकपूर की जागते रहो की कहानी एक बहुमन्जिला इमारत में घटित होती है। इसलिए उन्होंने भव्य सैट लगाया। इमारत के एक्सटेरियर का भी भव्य सैट लगाया क्योंकि उसमें नायक पाइप पकड़कर लटका है और लोग पत्थर मार रहे हैं। एक पत्थर क्राइस्ट की छवि पर लगता है और पूरा दृश्य करुण कविता में बदल जाता है। स्वयं जनता जो चोर को दंड दे रही है, नोटों की बारिश में खो जाती है, तब यही दृश्य सामाजिक व्यंग्य हो जाता है। इस पूरे प्रकरण में सैट की विशालता महत्त्वपूर्ण नहीं है, वह विचार महत्त्वपूर्ण है, जो निर्देशक प्रस्तुत कर रहा है। राजकपूर शो-मैन नहीं, निर्देशक हैं। 'आवारा' में स्वप्न दृश्य का भव्य सैट महत्त्वपूर्ण नहीं है, वरन नायक का अन्तर्द्वन्द्व एवं आर्तनाद महत्त्वपूर्ण है। प्रेमरोग में बड़े राजा ठाकुर की हवेली महत्त्वपूर्ण नहीं है, मनोरमा की त्रासदी दर्शक की आँखें नम करती है।
राजकपूर ने अपना फिल्मी जीवन तीसरे नम्बर के सहायक के रूप में शुरू किया था और सरदार चन्दूलाल शाह की रणजीत मूव्हीटोन में तरक्की कर वे दो सौ रुपये माहवार वेतन पाते थे। केदार शर्मा ने जब उन्हें 'नीलकमल' में नायक की भूमिका दी तब भी उन दृश्यों में वे सहायक निर्देशक रहते थे जिनमें बतौर नायक उनका काम नहीं था। जब पृथ्वी थियेटर में नौकरी की तब रमेश सहगल का वहाँ दबदबा था। उस जमाने में मेहबूब खान, वी. शान्ताराम, कारदार, एस. मुखर्जी और सरदार चन्दूलाल शाह जैसे दिग्गज लोग मौजूद थे। सबसे नीचे की पायदान से अपनी कम्पनी शुरू करनेवाले राजकपूर के दिल में यह तमन्ना थी कि वह भी फिल्म जगत में अपना स्थान बनाएँ। राजकपूर ने कहानी और संगीत को प्राथमिकता दी, परन्तु हर अवसर पर वे भव्य सैट लगाने से नहीं चूके, क्योंकि मुकाबला महान और स्थापित लोगों से था। दरअसल उनके सारे भव्य सेट उनकी महत्वाकांक्षा के प्रतीक थे। कम उम्र में ही राजकपूर ने यह भी सीख लिया था कि सैट का पूरा इस्तेमाल कैसे किया जाता है। उन्होंने यह भी जान लिया था कि लगाया हुआ धन पर्दे पर नजर आना चाहिए। सैट की भव्यता के कारण कोई पात्र बौना नहीं होना चाहिए। सजावट की चकाचौंध से किसी पात्र की आँखें नीचे नहीं होने देना है। 'आवारा' में जेल का गलियारा लम्बा लगाया गया ताकि जज रघुनाथ के प्रवेश के पहले उनकी विशाल छाया उस गलियारे में नजर आए। लम्बा गलियारा भव्यता के लिए नहीं लगाया गया है। जोकर में भारतीय सर्कस के साथ रूसी सर्कस भी जोड़ा गया, क्योंकि विदेशी नायिका का चरित्र स्थापित करना था। रूसी सर्कस के करतब की खातिर जोकर के आँसू व्यर्थ नहीं गए। राजकपूर को अपनी प्राथमिकता का अहसास हमेशा रहा।
राजकपूर जितने अच्छे फिल्मकार थे, उतने ही बढ़िया मेजमान भी थे और उनके सैट्स की तरह उनकी पार्टियाँ भी भव्य होती थीं। अपने बच्चों की शादियाँ भी उन्होंने बड़ी शान-शौकत से की, परन्तु इसके पीछे भी जिन्दगी को भरपूर जीने की लालसा थी। इन सब कारणों से अखबारवालों ने उन्हें शो-मैन कहना शुरू किया और यह गलत विशेषण उनके नाम के साथ सदैव के लिए चस्पा हो गया।
परम्परा के प्रति राजकपूर को मोह था। उन्होंने अपने लिए कुछ जीवन मूल्य भी निर्धारित किए थे। उनके शो बिजनेस परम्परागत तरीके से ही किए गए। अधिकांश वितरक पुराने ही रहे। राजकपूर ने अपने वितरकों को परिवार के सदस्य की तरह ही प्रेम दिया। भारत के अधिकांश निर्माताओं ने अपनी फिल्में पहले से तय किए दामों से अधिक में बेचीं। प्रदर्शन के समय वितरक मजबूर होता है, क्योंकि उसने सिनेमावालों से अग्रिम राशि ली होती है और प्रदर्शन की तिथि घोषित कर दी गई है। मजबूर वितरक से निर्माता ज्यादा पैसे वसूल करता है। राजकपूर ने अपने जीवन में कभी तयशुदा कीमत से एक रुपया ज्यादा नहीं लिया और उनकी हर फिल्म में बजट से अधिक खर्च हुआ। उन्हें अपने काम पर विश्वास रहा और वितरकों ने भी उन्हें काफी 'ओवर फ्लो' दिया। संगम की कीमत आठ लाख रुपए प्रति क्षेत्र थी।
परन्तु राजकपूर ने विदेश में शूटिंग के लिए भारत सरकार से विदेशी मुद्रा की आज्ञा ली थी। इसलिए प्रदर्शन के चार महीने पहले ही राजकपूर ने वितरकों से दो लाख प्रति क्षेत्र कीमत बढ़ाने की प्रार्थना की। सोचने के लिए उन्हें महीनों का समय भी दिया। यह एक ही अवसर था जब मूल्य बढ़ाया गया था। आर.के. ने शो-बिजनेस में स्वस्थ परम्पराएँ डालीं और उनका निर्वाह भी किया। 'बीवी ओ बीवी' के घाटे की रकम को प्रेमरोग में कीमत घटाकर राजकपूर ने वितरकों के नुकसान की भरपाई की यद्यपि अनुबन्ध में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। राजकपूर ने पैसे के लालच में कभी वितरक नहीं बदले। जब मैंने उन्हें 'प्रेमरोग' के लिए अग्रिम राशि दी तब उन्होंने उस समय तक मेरा पैसा स्वीकार नहीं किया जब तक कि उनके पुराने वितरक ने स्पष्ट मना नहीं कर दिया। भारती फिल्म्स् इन्दौर को उन्होंने पत्र लिखे, फोन किए और जब वहाँ से निश्चित रूप से सौदा नहीं हो पाने की बात सामने आई, तब उन्होंने मेरे साथ अनुबन्ध किया।
आम तौर पर निर्माता प्रदर्शन के थोड़े से दिन पहले वितरक को फिल्म दिखाते हैं। राजकपूर अपने वितरकों को निर्माण के दौरान ही कई बार फिल्म दिखाते थे, क्योंकि उनका विश्वास था कि निर्माता और वितरक भागीदार हैं। जो माल करोड़ों के सामने जानेवाला है, उसे उन वितरकों से छुपाकर क्यों रखें। हर महत्त्वपूर्ण मोड़ पर उन्हें विश्वास में लें। इस तरह से राजकपूर को विभिन्न क्षेत्रों से आए वितरकों की प्रतिक्रिया भी मालूम पड़ जाती थी। वह करते मन की थे परन्तु सुनते सबकी थे। हर वितरक से उनके परिवार की कुशल मंगल पूछते थे और उनके क्षेत्रों की सामाजिक और राजनीतिक घटनाओं की जानकारी भी लेते थे। आम आदमी से सम्पर्क का कोई भी सूत्र राजकपूर कभी नहीं छोड़ते थे।
राजकपूर का कलाकार राजकपूर के व्यापार पर हमेशा हावी रहा है। हँसी-मजाक के मूड में राजकपूर कहते थे, विस्की में सोडा नहीं, प्यार में सौदा नहीं, लेकिन व्यापार में राजकपूर ने लिहाज बहुत रखा। जहाँ भी वे ठगे गए, आँखें खुली रखकर ठगे गए।
उनका विचार था कि जिन्हें स्नेह किया है, उन्हें रंगे हाथों पकड़कर, अपनी लज्जा को बढ़ाना है। राजकपूर को व्यापार का ज्ञान अधिक नहीं था और वे अच्छे प्रशासक भी नहीं थे। अपने परम्पराबोध के कारण उन्होंने बहुत पैसा खोया है। जब उन्होंने उद्योग में कदम रखा था, तब स्टूडियो श्रेष्ठता का प्रतीक था। कम उम्र में ही राजकपूर स्टूडियो के मालिक बन गए। छठवें दशक के मध्य में ही बाबूराम इशारा ने सेट लगाने के बदले बंगलों में शूटिंग की परम्परा शुरू की जिसे बढ़ती हुई कीमतों ने बढ़ावा दिया। धीरे-धीरे सभी स्टूडियो घाटे में जाने लगे। पेट्रोल के बढ़ते दामों ने चेम्बूर जाना और महँगा कर दिया। पिछले बीस सालों से आर. के. स्टूडियो घाटे में चल रहा है और फिल्मों के निर्माण से कमाया सारा पैसा स्टूडियो को चलाए रखने के खाते में जा रहा है। राजकपूर की जिद्द रही है कि न स्टाफ के लम्बे-चौड़े काफिले को कम करेंगे और न स्टूडियो बन्द करेंगे। आर. के. में चार साल में एक फिल्म बनती है जिसकी शूटिंग के लिए इनडोर शिफ्ट एक सौ पचास लगती है बाकी समय इक्का-दुक्का बाहरी निर्माताओं की शूटिंग आर. के. में होती है। चार वर्ष में लगभग आठ सौ शिफ्ट काम होना चाहिए तब घाटा नहीं होता। सन् 1986 में राजकपूर ने अपना मूल स्टूडियो अपने पास रखा। 1965 में पड़ोस का जो छोटा स्टूडियो खरीदा था, वह बेच दिया। उनकी मृत्यु के बाद शादीलाल ने खरीदे हुए हिस्से को अपने अधिकार में लिया और गैर जिम्मेदार पत्रकारों ने शोर मचाया कि आर.के. को राजकपूर के पुत्रों ने बेच दिया। मूल स्टूडियो आज भी कायम है। तीनों पुत्र समझदार हैं और आर. के. की परम्परा निभा रहे हैं।
राजकपूर को शायद 1970 में मालूम हुआ कि उनकी श्वेत-श्याम फिल्मों के एक हजार से अधिक प्रिंट अवैध तरीके से देश-विदेश में चल रहे हैं और इसका एक पैसा उन्हें नहीं मिल रहा है। राजकपूर ने 1973 में 'बॉबी' की सफलता के साथ अपनी कम्पनी को प्राइवेट लिमिटेड में बदला। इसके पूर्व कम्पनी राजकपूर की मालिकी हक की कम्पनी थी जिसमें सौ रुपए की कमाई में से नब्बे रुपए से अधिक टैक्स में जाते थे। अगर राजकपूर ने आज के सितारों की तरह टैक्स-योजना बनाई होती, तो करोड़ों की बचत होती। राजकपूर का कलाकार आँकड़ों के लिए कभी वक्त नहीं निकाल पाया। तिजारत के सवाल में बचपन से कमजोर थे। उन्हें लगता था कि ठगने से बेहतर है, ठगे जाना। राजकपूर की निर्माण व्यवस्था में भी राजे-रजवाड़ों का अन्दाज रहा है और सामन्तवादी प्रवृत्तियाँ पनपी हैं। यह हैरानी की बात है कि आम आदमी के चितेरे की नाक के नीचे सामन्तवादी तौर-तरीके पनपे और बहुत नुकसान हुआ। दरअसल राजकपूर व्यक्तिगत जीवन में बहुत सादगी पसन्द आदमी थे। वे सारी उम्र एम्बेसडर कार का ही प्रयोग करते रहे। उन्हें सिर्फ फिल्म पर खर्च करना पसन्द था।
राजकपूर की मृत्यु के बाद शो तो उनके साथ चला गया, अब मुम्बई में रह गया है सिर्फ बिजनेस !