एक असल पठान / राजकपूर सृजन प्रक्रिया / जयप्रकाश चौकसे
जयप्रकाश चौकसे
राजकपूर एक असल पठान थे। अपनी पसन्दों पर वे बेहिसाब पैसा खर्च करते थे। यदि अड़ जाते थे, तो उनसे कानी कौड़ी लेना भी सम्भव नहीं था। आधी से अधिक उम्र वे किराए के मकान में रहे। पाँच सितारा होटल के तीन हजार रुपए रोजाना के कमरे में वे ठहरते थे, मगर चना-मुरमुरा बाहर से मँगाकर खाते थे। उन्हें दावत देने का बहुत शौक था। वे दावतों में जीवन खोजते थे और जीवन में दावत देने का बहाना।
कपूर परिवार गाँव समुन्दरी पोस्ट पेशावर (पाकिस्तान) का रहनेवाला है। पृथ्वीराज के पिता बसेसरनाथ पुलिस महकमे में काम करते थे। उनका व्यक्तित्व पेशावरी पठान का व्यक्तित्व था। उनके पास एक सफेद घोड़ी थी, जो अंग्रेज अफसर को पसन्द आ गई, परन्तु बसेसरनाथ ने घोड़ी देने से इनकार कर दिया, क्योंकि उनके लिए यह आत्मसम्मान का सवाल था। अफसर आज घोड़ी माँग रहा है, कल कुछ और माँगेगा। उस दिन से आज तक किसी कपूर ने अपनी सफेद घोड़ी (आत्मसम्मान) कभी नहीं बेची। बसेसरनाथ मनमौजी और प्रेमी जीव थे। उन्होंने अपने घर में एक सुरंग खुदवाई थी, जो उनकी प्रेमिका के घर तक जाती थी। एक असल पठान के पास प्रेम और युद्ध के लिए एक जैसा जोश, हौसला और माद्दा होता है। पठान का व्यक्तित्व युद्ध और प्रेम के विरोधाभासी लगनेवाले ताने-बाने से बना होता है। पठान के सुदृढ़ सीने के पीछे अत्यन्त कोमल दिल धड़कता है। युद्ध की अभ्यस्त उसकी मजबूत बाँहें औरत के आलिंगन के लिए हमेशा बेकरार होती हैं। वह खून की नदी बहा सकता है, परन्तु स्त्री के आँसू नहीं देख सकता। पठान हिन्दू हो या मुसलमान, वह अपने कौल (वचन) के लिए जीता-मरता है। पृथ्वीराज का नाटक 'पठान' इस कौम की प्रतिनिधि रचना है।
राजकपूर भी असल पठान थे। 'बीवी ओ बीवी' में संजीव कुमार ने काम किया था और थोड़े से पैसे लिए थे। बची हुई रकम आवश्यकता पड़ने पर लेने की बात उन्होंने राजकपूर से कह दी थी। कुछ सालों बाद उनकी मृत्यु हो गई। राजकपूर ने संजीव कुमार की भाभी को आदरपूर्वक घर बुलाया और हिसाब चुकता किया। संजीव का पैसा तो बहुत से निर्माताओं के पास बाकी था। राजकपूर ने 'राम तेरी गंगा मैली' में कुंज मौसा का रोल संजीव को देना चाहा था, परन्तु संजीव को ऑपरेशन के लिए अमेरिका जाना था, इसलिए इनकार कर दिया।
राजकपूर अपनी मनपसन्द बात के लिए बेहिसाब पैसा खर्च करने को तैयार हो जाते थे, परन्तु अगर अड़ जाते थे तो उनसे कानी कौड़ी भी लेना सम्भव नहीं था। राजकपूर अपनी फिल्म के कलाकारों को ज्यादा पैसा नहीं देते थे, परन्तु तकनीशियन को मुँह-माँगे पैसे देते थे। राजकपूर ने अधिकांश उम्र किराए के मकान में काटी और उन्हें इसका कोई रंज भी नहीं था। 'प्रेमरोग' के दरमियान ही उन्होंने अपनी पत्नी के आग्रह पर मकान बनाना स्वीकार किया। जो आदमी 1950 में आवारा के स्वप्न दृश्य पर लाखों रुपए खर्च कर सकता था, वह उसी समय मकान भी बना सकता था। राजकपूर एक सपने पर लाखों रुपए लगा सकते थे, परन्तु मकान जैसी ठोस आवश्यकता की तरफ उनका ध्यान ही नहीं गया। राजकपूर की आँखें ताउम्र सपने ही देखती रहीं। उन आँखें में अजीब-सा रंग शायद सपनों ने ही भर दिया था।
राजकपूर को सोना-चाँदी, हीरे-जवाहरात, बँगला-गाड़ी इत्यादि का कोई शौक नहीं था, परन्तु रिश्ते बनाना और उन्हें निभाना उन्हें बहुत पसन्द था। मनुष्य के प्रति उनका असीमित रुझान था, क्योंकि मनुष्य ही उनकी फिल्मों का विषय था। सागर के गीतकार विठ्ठलभाई पटेल से उनकी मित्रता रही है और विठ्ठलभाई की पुत्री के विवाह का निमन्त्रण मिला, तो सब काम छोड़कर तबियत की फिक्र किए बिना सागर रवाना हो गए। रेल से बीना तक गए और फिर कार से सागर। दूसरे दिन भोपाल से बम्बई हवाई यात्रा का टिकट था। स्वागत समारोह के पश्चात कार द्वारा सागर से भोपाल आना था। दिनभर विठ्ठलभाई के यहाँ परम्परागत शाकाहारी खाना खाया और शराब से परहेज रखा। मुझसे कहा कि भोपाल में पाए अच्छे बनते हैं। किसी को फोन कर दो। हम लोग सागर से निकले और आधे सफर के बाद राजकपूर ने कार रुकवा दी। सड़क के किनारे दरी बिछाई और शराब का दौर प्रारम्भ किया। थोड़ी ही देर में आने-जानेवाले ट्रक ड्राइवर रुक गए। महफिल जम गई। चाँद तारों के तले रात ये गाती चले। थोड़ी ही देर में सागर से बम्बई के दूसरे मेहमान भी आ गए-सुभाष घई, जी.एन. शाह, सोहनलाल कँवर आदि। शराब और संगीत का दौर चलता रहा। राजकपूर ने राहगीरों के साथ दोस्ती कर ली। कुछ उनकी सुनी, कुछ अपनी सुनाई। हम लोग सुबह चार बजे रैमसन होटल भोपाल पहुँचे। राजकपूर ने खाने के लिए पाए माँगे। होटल मैनेजर ने बताया कि रशीद खान पाए (एक नॉन वेजीटेरियन पकवान) लाए थे और दो बजे तक राह देखते रहे, फिर डिब्बा लेकर चले गए। मुझे रशीद खान का घर नहीं मालूम था। बेचारे मैनेजर ने बहुत से पकवान रखे, किन्तु राजकपूर ने खाना नहीं खाया। पठान पाए के लिए पाएबन्द रहा। सुबह सात बजे की फ्लाइट से हम लोग बम्बई आ गए। शाम को राजकपूर ने मुझे उनके घर बुलाया और पाए खिलाए। उनकी आँखों में बच्चों-सी चमक थी। इसके कुछ साल बाद हम लोग हैदराबाद फिल्म फेस्टिवल (1986) गए। एक रात बारह बजे राजकपूर ने मुझे फोन किया। एक सँकरी-सी गली में छोटी-सी दुकान पर रात दो बजे पाए खाए गए। यही उन्होंने दिल्ली में भी किया। इस तरह की बातें वे इतना रस लेकर करते थे कि लगता था बचपन लौट आया है। रणधीरकपूर ने बताया कि जिस तरह उन्हें भारत के कई नगरों में खाने की छोटी दुकानों की जानकारी है, जहाँ असल माल मिलता है, उसी तरह विदेशों में खाने-पीने के अनेक ठिए उन्हें मालूम थे। पठान असल माल के लिए कहीं भी जा सकता था।
राजकपूर की कुछ आदतें बड़ी विचित्र थीं। मसलन वे पाँच सितारा होटल के सबसे महँगे कमरे में ठहरते थे, परन्तु नमकीन और चने आदि चीजें विश्वा मामा बाजार से खरीदकर लाते थे। राजकपूर को यह पसन्द नहीं था कि इन छोटी चीजों के महँगे दाम होटल को दिए जाएँ। पाँच सितारा होटल में खाली गिलास के भी पैसे लगते हैं, क्योंकि वे गरम पानी से साफ कर लाए जाते हैं। राजकपूर तीन हजार रुपए रोज का कमरा लेते थे, परन्तु उन्हें खाली गिलास के तीस रुपए देना पसन्द नहीं था। दुनिया के किसी भी शहर में वह ठहरे, परन्तु खाने-पीने की साधारण चीजें हमेशा छोटे ठिओं से खरीदी जाती थीं। उनके अनन्य सखा विश्वा मेहरा यह काम करते थे। इस काम के लिए टैक्सी पर सौ रुपए खर्च हो जाएँ, कोई बात नहीं। चेम्बूर के घर में उन्होंने मुर्गियाँ पाली थीं, जिन्हें वे नियम से दाना खिलाते थे। इन मुर्गियों के अंडे भी वही खाते थे और अन्य मेहमानों के लिए बाजार से खरीदे गए अंडे मँगाए जाते थे। यात्रा पर भी वे अपने अंडे साथ ले जाते थे।
यह सच है कि राजकपूर को खाने का बहुत शौक था, परन्तु इससे ज्यादा शौक उन्हें मेहमानों को खिलाने का था। उनका आग्रह था कि टेबल पर अनेक डिश रखी जाएँ। वे स्वयं बहुत कम खाना खाते थे। खाने के मामले में राजकपूर पेटु नहीं थे। उन्हें चटोरे भी नहीं कहा जा सकता, परन्तु वे चटखारे लेकर खानेवाले जीव थे। बड़ा आनन्द लेकर भोजन करते थे। यह सच है कि बचपन से ही उन्हें खाने का बड़ा शौक था। जीवन के प्रति उनकी असीम जिजीविषा का प्रतीक है। उनके दिल में जीवन के प्रति इतना जोश और आनन्द भरा था कि वह उनकी हर अदा से प्रकट होता था।
राजकपूर की दावतें बहुत प्रसिद्ध रही हैं। दावत देने का यह शौक भी जीवन और उसके आनन्द के प्रति उनके आग्रह का प्रतीक था। उनके घर मेहमान आएँ और आनन्दित हों-इसे देखकर ही वे खुश हो जाते थे। उनकी दावतों में शराब की नदियाँ बहती थीं और नशे की हालत में लोगों के असली चेहरे नजर आते थे। हर दावत में राजकपूर दूर बैठकर तमाशा देखते थे। मनुष्य के व्यवहार को देखने की उन्हें बहुत ललक थी। इन दावतों में उन्होंने अपने आपको मनुष्य के व्यवहार का न्यायाधीश कभी नहीं समझा। शराब के नशे में बहके हुए किसी मेहमान को कटघरे में खड़ा नहीं किया-उस पर कोई सामाजिक मुकदमा कायम नहीं किया। उनका रवैया यह होता था कि रात गई, बात गई। उनकी दावतों में नृत्य के लिए लकड़ी का विशेष फर्श बना था। शराब, संगीत, नृत्य और ठहाकों में रात गुजर जाती थी। अलसभोर में सबके जाने के बाद वे दार्शनिक की निगाहों से उल्टे-सीधे पड़े हुए गिलास, प्लेटों को देखते थे। मेला उठ गया, रह गई खाली-खाली कुर्सियाँ और इनको निहारता हुआ अनन्त जोकर। दावत के पहले घंटे का राजकपूर और दावत के बाद के राजकपूर में रात और दिन का फर्क होता था। शुरू में वे दावत का एक हिस्सा होते थे और बाद में पर्यवेक्षक। खुद ही तमाशा थे और तमाशबीन भी। ठहाके से आँसू बहाने तक का सफर एक ही शॉट में पूरा करनेवाले अभिनेता राजकपूर दावतों में जीवन ढूँढ़ते थे और जीवन में दावत देने का बहाना।
राजकपूर ने बाइस वर्ष की आयु में अपनी पहली फिल्म शुरू की थी। पृथ्वी थियेटर के साथ नागपुर गए थे, जहाँ अपनी कम्पनी खोलने का विचार मन में आया। उनके पास पैसा नहीं था। उद्योग में कोई नाम नहीं था। कोई दफ्तर नहीं था। इन्दरराज आनन्द से आग की कहानी लिखवाई और काम शुरू कर दिया। अभिनय से जो पैसे मिलते थे, उससे शूटिंग करते थे। अपनी पत्नी कृष्णा के गहने बेचकर उन्होंने नरगिस की माँ को पैसे दिए। शादी के छह महीने बाद पत्नी से गहने माँगना हिम्मत का काम था और पत्नी का गहने देना त्याग का काम था। पृथ्वीराज के पुराने सेवक ने भी 'आग' में पैसे लगाए थे। निर्माण व्यवस्था के सारे काम सखा विश्वा मेहरा ने सँभाले। आर. के. के प्रारम्भिक दिनों में विश्वा मेहरा (मामाजी) प्रॉडक्शन कंट्रोलर भी थे, अकाउंटेंट भी मैनेजर भी, कलाकार भी और वक्त पड़ने पर चपरासी भी। सखा जो ठहरे।
आग के निर्माण काल में राजकपूर के भीतर बैठा हुआ पठान जागा। उसने फिल्म निर्माण को एक युद्ध माना और पूरी शक्ति से संघर्ष किया। उद्योग के स्थापित लोग नौजवानों की इस टीम पर हँसते थे और जब उनको मालूम पड़ा कि तीन नायिकाओं के बीच एक हीरो-वह भी शब्दशः मुँह जला, तो उन्हें विश्वास हो गया कि पृथ्वीराज का बेटा बाप के पैसे फूँक रहा है। 'आग' के निर्माण में राजकपूर ने पृथ्वीराज से कोई सहायता नहीं ली थी। अधबनी फिल्म के डिब्बे लिए दफ्तर-दर-दफ्तर घूमना पड़ता था। इस कठिन दौर में राजकपूर ने हिम्मत नहीं हारी और हर मुश्किल का सामना किया। बम्बई के वितरक बाबू भाई मेहता, जयसिंह फिल्म्स, राजकपूर के पहले वितरक थे और उन्हें राजकपूर पर पूरा भरोसा था।
राजकपूर के लिए प्रत्येक फिल्म युद्ध और प्रेम की तरह थी और उन्होंने एक योद्धा की तरह काम भी किया। जितनी मुसीबतें 'आग' में आई थीं, उतनी ही मुसीबत 'बॉबी' में भी आई, क्योंकि जोकर की असफलता के बाद राजकपूर के विरुद्ध जबर्दस्त प्रचार हो रहा था। उनकी पिछली सफलताओं ने उद्योग में कई दुश्मन पैदा किए थे और जोकर ने पहली बार शत्रुओं को अवसर दिया। सभी को लगा कि यह पठान अब अपनी सफेद घोड़ी जरूर बेचेगा। दुर्भाग्य का वह ऐसा दौर था कि पापा पृथ्वीराज नहीं रहे और पन्द्रह दिन के भीतर ही माँ का स्वर्गवास हो गया। पुत्र की पहली फिल्म 'आज, कल और आज' भी असफल हो गई। शैलेन्द्र और जयकिशन की भी मृत्यु हो गई। विपत्तियों के पहाड़ के बीच राजकपूर का पठान अपराजेय योद्धा रूप ही था, जिसने न केवल उन्हें जीवित रखा, बल्कि बॉबी जैसी शुद्ध किशोर प्रेमकथा की प्रेरणा भी दी। जब राजकपूर की जीवन राह आँसुओं से भरी थी, तब राजकपूर ने 'बॉबी' जैसी आनन्दमयी फिल्म की कल्पना की। उद्योग के लोगों ने फिर मखौल उड़ाया कि नया लड़का, नई लड़की और बरसों से मार्केट के बाहर का अधेड़ प्रेमनाथ को लेकर राजकपूर कौन-सा तीर मार लेंगे। प्रथम वितरक बाबू भाई मेहता भी नहीं रहे और दिल्ली के वितरक ने भी इनकार कर दिया। अचरज की बात यह है कि राजकपूर ने नए सितारोंवाली फिल्म का निर्माण आर. के. की परम्परागत भव्य शैली में किया और अपार सफलता हासिल की।