अन्य प्राकृतिक भाषाएँ और हिन्दी / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'
मैं पहले लिख आया हूँ, मूल प्राकृत अथवा आर्ष प्राकृत का अन्यतम रूप पाली है, अतएव सबसे प्राचीन अथवा पहली प्राकृत पाली कही जा सकती है। आर्ष प्राकृत में उल्लेख योग्य कोई साहित्य नहीं है, कारण इसका यह है कि आर्ष प्राकृत परिवर्तनशील वैदिक भाषा के उस आदिम रूप का नाम है, जब उसमें देशज शब्दों का मिश्रण आरम्भ हो गया था, उसके शब्द टूटने लग गये थे, और उनका अन्यथा व्यवहार होने लगा था। काल पाकर यह विकृति दृष्टि देने योग्य हो गई, और इतनी बढ़ गई, कि भिन्न रूप में प्रकट हुई। उस समय उसका नाम पाली पड़ा यथासमय यह पाली साहित्य की भाषा भी बनी, और उसका व्याकरण भी तैयार हुआ। कुछ काल तक अनेक विद्वानों का यह विचार था कि गाथा से पाली की उत्पत्तिा हुई और इस गाथा की भाषा ही आर्ष प्राकृत है। परन्तु आजकल यह विचार नहीं माना जाता है। यदि गाथा को वैदिक भाषा और पाली की मधयवर्तिनी मान लें, तो आर्ष प्राकृत में भी साहित्य का अभाव न रह जावेगा, और ऐसी अवस्था में पहली प्राकृत वही होगी,बोल-चाल पर दृष्टि रखकर उसको एक पृथक् भाषा स्वीकार करना पड़ेगा। किन्तु प्राय: विद्वानों ने उसके अन्यतम रूप पाली को ही आदि और सबसे प्राचीन प्राकृत होने का गौरव दिया है, अतएव मैं भी इसको स्वीकार कर लेता हूँ। पाली भाषा का साहित्य बड़ा विस्तृत है। प्राकृत भाषा का पहला व्याकरण पाली में ही है, और वह कात्यायन का बनाया हुआ है। पालिप्रकाशकार कहते हैं-(पृष्ठ 101) कि पाली व्याकरण समूह संस्कृत के आदर्श पर ही रचित है, कात्यायन व्याकरण के अनेक सूत्रा, कातन्त्रा के संस्कृत व्याकरण के सूत्रों के साथ अधिाकतर सम्बन्धा रखते हैं। अनेक सूत्रा उसमें पाणिनि के भी लिये गये हैं। इस दृष्टि से भी पाली भाषा को पहली प्राकृत कहा जा सकता है, क्योंकि वह अधिाकतर संस्कृतानुवर्तिनीहै।
अशोक के जितने स्तम्भ प्राप्त हुए हैं, उनमें से अधिाकांश की भाषा पाली ही है। यद्यपि स्तम्भ के लेखों में कहीं-कहीं भाषा भेद दृष्टिगत होता है, और इसलिए कुछ विद्वानों की सम्मति है कि अशोक के समय में ही पाली भाषा में परिवर्तन होने लग गया था, क्योंकि यह अनुमान किया जाता है कि प्रत्येक स्तम्भ की भाषा उस स्थान की प्रचलित भाषा से सम्बन्धा रखती है। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ता है कि उस समय प्रधानता पाली की ही थी। चाहे वह दो प्रकार की हो, चाहे चार प्रकार की। मैं पहले कह आया हूँ कि पाली का दूसरा नामक मागधी भी है, यद्यपि यह कथन सर्वसम्मत नहीं, फिर भी अधिाकांश भाषा मर्मज्ञ यही स्वीकार करते हैं। अर्ध्दमागधी का नाम ही उसको मागधी का अन्यतम रूप बतलाता है, इसलिए अशोक के जो शिलालेख मागधी अथवा अर्ध्दमागधी में लिखे माने जाते हैं, उनको पालीभाषा का रूपान्तर कहना असंगत न होगा। ऐसी अवस्था में शिलालेखों पर विचार करने से भी पाली को ही पहली प्राकृत मानना पड़ेगा।
पाली के अनन्तर हमारे सामने कुछ ऐसी प्राकृत भाषाएँ आती हैं, जिनका नाम देशपरक है। वे हैं, मागधी,अर्ध्दमागधी, महाराष्ट्री और शौरसेनी, इनको हम दूसरी प्राकृत कह सकते हैं। यदि हम पाली को ही मागधी मान लें तो मागधी के विषय में कुछ लिखना आवश्यक नहीं, क्योंकि पाली को हम पहली प्राकृत कह चुके हैं। किन्तु हमें यह न भूलना चाहिए कि मागधी नाम देशपरक है, मगधा प्रान्त की भाषा का नाम ही मागधी हो सकता है, इसलिए यह स्वीकार करना पड़ेगा कि मागधी की उत्पत्तिा मगधा देश में ही हुई। फिर पाली का नाम मागधी कैसे पड़ा? इसका उत्तार हम बाद को देंगे,इस समय देखना यह है कि पाली और मागधी में कोई अन्तर है या नहीं? पालिप्रकाशकार (प्रवेशिका, पृष्ठ 13, 14) लिखते हैं-
“प्राकृत व्याकरण और संस्कृत के दृश्यकाव्य समूह में मागधी नाम से प्रसिध्द एक प्राकृत भाषा पाई जाती है, आलोच्य पाली से यह भाषा इतनी अधिाक विभिन्न है, कि दोनों की भिन्नता उनके देखते ही प्रकट हो जाती है। पाठकगणों को दोनों मागधी का भेद जानना आवश्यक है, इसलिए उनके विषय में यहाँ कुछ आलोचना की जाती है। आलोचना की सुविधा के लिए हम यहाँ पाली को बौध्द मागधी और दूसरी को प्राकृत मागधी कहेंगे।”
“प्राकृत लक्षणकार चण्ड ने प्राकृत मागधी का इतना ही विशेषत्व दिखलाया है, कि इसमें रकार के स्थान पर लकार और सकार के स्थान पर शकार होता है। जैसे-संस्कृत का निर्झर प्राकृत मागधी में निज्झल होगा, इसी प्रकार माष होगा माश और विलास होगा विलाश। परन्तु बौध्दमागधी में इनका रूप यथाक्रम, निज्झर, मास, विनास होगा। प्राकृत मागधी में अकारान्त प्रतिपादित पुल्लिंग के प्रथमा विभक्ति का एक वचन एकारयुक्त होता है, जैसे-माष:-माशे, विलास:-विलासे, निर्झर:-निज्झले। बौध्द मागधी में इसका रूप यथाक्रम मासो, विनासो और निज्झरो होगा।”
“इसी प्रकार के कुछ और उदाहरण देकर पालिप्रकाशकार लिखते हैं (पृष्ठ 16-17) बौध्दमागधी और प्राकृत मागधी में परस्पर और अनेक भेद हैं। बाहुल्य भय से उन सबको पूर्णतया यहाँ नहीं दिखलाया गया। किन्तु जितना दिखलाया गया, उसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों भाषाएँ परस्पर कितनी भिन्न हैं।”
“मृच्छकटिक नाटक में शकार का अधिाकतर कथन विशुध्द प्राकृत मागधी में रचित है। प्राकृत मागधी का मूल शौरसेनी है, इसलिए उसमें शौरसेनी तो मिलती ही है, स्थान-स्थान पर महाराष्ट्री के शब्द भी देखे जाते हैं। इसीलिए कहीं-कहीं शकार की भाषा को अर्ध्दमागधी कहा गया है। अभिज्ञानशाकुन्तल में रक्षिपुरुष और धाीवर की भाषा प्राकृत मागधी है। वेणीसंहार नाटक और उदात्ताराघव के राक्षस की भाषा भी प्राकृत मागधी है। मुद्राराक्षस आदि में भी इसका व्यवहार देखा जाता है। किन्तु प्राय: इसके साथ भिन्न जातीय प्राकृत का सम्मिलन पाया जाता है।”
इन सब बातों को लिखकर पालिप्रकाशकार 18 पृष्ठ में यह लिखते हैं-
“जो कुछ कहा गया, उसको पढ़कर हृदय में स्वभावत: यह प्रश्न उदय होता है, कि 'मागधी, नाम से प्रसिध्द होकर भी पाली, (बौध्द-मागधी), एवं प्राकृत मागधी में परस्पर इतना भेद क्यों है? ये एकही स्थान की भाषाएँ हैं, यह बात इनका साधारण नाम ही स्पष्टभाव से बतलाता है। तो क्या ये दोनों भाषाएँ, विभिन्न प्रदेशों की हैं? अथवा दोनों के मधय में दीर्घकाल का व्यवधान होने के कारण एक ही अन्य रूप में परिवर्तित हो गई है। या विस्तृत मगधा प्रदेश के अंश विशेष में एक, और अन्य विभाग में दूसरी प्रचलित थी? इनका परस्पर सम्बन्धा क्या है?”
इन प्रश्नों का 99 पृष्ठ में वे यह उत्तार देते हैं-
“पहले हमने बौध्दमागधी और प्राकृतमागधी के स्थान और काल के सम्बन्धा में प्रश्न उठाया था। वह प्रश्न पाठकों के निकट इसी रूप में रहा। विषय इतना गुरुतर है, कि इस सम्बन्धा में मैंने जो अनुसन्धान किया है, वह इस समय प्रकाश योग्य नहीं है। समयान्तर में मैं इसका उत्तार देने की चेष्टा करूँगा।”
कम से कम इन पंक्तियों को पढ़कर यह तो स्पष्ट हो गया, कि मागधी दो प्रकार की है, और उनमें परस्पर बहुत बड़ा अन्तर है। इन पंक्तियों द्वारा यह भी विदित होता है, कि बौध्दमागधी ही पाली है, और बुध्ददेव ने इसी भाषा में अपने सिध्दान्तों का प्रचार किया। अशोक के शिलालेख अधिाकतर इसी मागधी अथवा उसके अन्यतम भेद अर्ध्द-माधी में लिखे पाये जाते हैं। इसलिए यदि पहली प्राकृत हो सकती है तो बौध्दमागधी। प्राकृत मागधी को ऐसी अवस्था में दूसरी प्राकृत मान सकते हैं। देशपरक नाम निस्सन्देह बौध्दमागधी को भी निर्विवाद रूप से पाली मानने का बाधाक है, और इसी विचार से ज्ञात होता है कि एक बौध्द विद्वान् ने मागधी की यह व्युत्पत्तिा की है, 'सोच भगवा मागधी मगधो भवत्ता साच भासामागधी। इसका यह अर्थ है कि मगधा में उत्पन्न होने के कारण भगवान् बुध्द को मागधा कह सकते हैं, इसलिए उनकी भाषा को मागधी कहा जा सकता है। किन्तु इस विचार का खंडन यह कह कर किया गया है कि भाषा का नाम देशपरक होता है,व्यक्ति विशेषपरक नहीं। क्योंकि ऐसा कहना अस्वाभाविक और उस प्रत्यक्ष सिध्दान्त का बाधाक है, जिसके आधार से अन्य देशभाषाओं का नामकरण हुआ। 1
यह बहुत बड़ा विवाद है, अब तक छानबीन हो रही है, इसलिए मैं स्वयं इस विषय में कुछ निश्चितरूप से कहने में असमर्थ हूँ। बंगाल के प्रसिध्द विद्वान् डॉक्टर सुनीति कुमार चटर्जी की सम्मति आप लोगों के अवलोकन के लिए यहाँ उध्दृत करता हूँ। वे लिखते हैं-
“महाराज अशोक के समय में एक नई साहित्यिक भाषा भारत से सिंहल में फैली, यह पालि भाषा है। पहले पण्डित लोग सोचते थे कि पाली की जड़ पूर्व में-मगधा में थी, क्योंकि इसका एक और नाम मागधी है। अब पाली के सम्बन्धा में पण्डितों की राय बदल रही है। अब विचार है कि पाली पूर्व की नहीं, बल्कि पछाँह की-अर्थात् मधय देश की ही बोली थी। वह शौरसेनी प्राकृत का प्राचीन रूप थी। बुध्ददेव के उपदेश पूर्व की बोली प्राच्य प्राकृत में हुए, जो कोशल, काशी और मगधा में प्रचलित थी। फिर वे इस प्राच्य प्राकृत से और प्राकृतों में अनूदित हुए। मथुरा और उज्जैन की भाषा में जो अनुवाद हुआ, उसका नाम दिया गया 'पाली'। सिंहल में जब इस अनुवाद का प्रचार हुआ, तब वहाँ के लोग भूल से इसे मागधी के नाम से पुकारने लगे,क्योंकि पाली बुध्द वचन था, और भगवान बुध्द ने मगधा में अपने जीवन का बहुत अंश बिताया। इस कारण बुध्द वचन या पाली से मगधा का संबंधा सोचकर उसका नाम मागधी रखा। सिंहल से ब्रह्मदेश तथा श्याम और कम्बोज में यह पाली भाषा फैली। इस प्रकार दो हजार वर्ष से पहले मधयदेश की भाषा, बहिर्भारत के बौध्दों की धार्मिक भाषा बनी”। 2
डॉक्टर सुनीति कुमार चटर्जी 'ओरिजन एण्ड डिवलेपमेंट ऑफ दी बंगाली लांगवेज, नामक प्रसिध्द और विशाल ग्रन्थ के रचयिता और आर्यभाषा शास्त्रा के पण्डित हैं, उनको डी. लिट् की उपाधिा भी प्राप्त हो चुकी है, इसलिए उन्होंने जो कुछ लिखा है,उसकी प्रामाणिकता अधिाकतर ग्राह्य एवं निर्विवाद है। परन्तु उनके लेख के कुछ अंश ऐसे हैं, जो तर्करहित नहीं। वे कहते हैं-”बुध्ददेव के उपदेश पूर्व की बोली (प्राच्य प्राकृत) में हुए जो कोशल, काशी और मगधा में प्रचलित थी।” इसके बाद वे यह लिखते हैं “फिर वे (उपदेश) इस प्राच्य प्राकृत से और प्राकृतों में अनूदित हुए, मथुरा और उज्जैन की भाषा में जो अनुवाद हुआ उसका नाम दिया गया पाली” उनके कथन के इन अंगों को पढ़कर यह प्रश्न होता है कि जिस प्राच्य प्राकृत में
1. देखिए पालि प्रकाश, पृ. 13
2. देखो, विशाल भारत, भाग-7, अंक 6 का पृ. 840
बुध्ददेव ने उपदेश दिये उसका क्या नाम था? उसका नाम 'पाली' तो हो नहीं सकता, क्योंकि पालि तो प्राकृत के अनुवाद का नाम है, जो मथुरा और उज्जैन में बोली जाने वाली भाषा (प्राकृत) में हुआ। क्या उसका नाम मागधी था! निस्सन्देह उसका नाम मागधी होगा, और उस समय यह भाषा कोशल और काशी में भी बोली जाती होगी। यह बात निश्चित है कि बुध्ददेव ने अपने उपदेश देशभाषा में ही दिये, उनका उपदेश मगधा, कोशल और काशी में ही अधिाकतर हुआ है, इसलिए उनकी भाषा का नाम मागधी होना ही निश्चित है। बौध्द लोग इसीलिए कहते हैं-
'मागधिाकाय सभाव निरुत्तिाया', अथवा 'सा मागधी मूलभासा,' इत्यादि।
ऐसी अवस्था में बौध्दमागधी को ही पहली प्राकृत मानना पड़ेगा, और पाली को स्थानच्युत होना पडेग़ा। आज दिन भी मागधी और उसके थोड़े परिवर्तित रूप अर्धामागधी को प्राच्य प्राकृत ही माना जाता है, स्थान भी उनका अब तक वही है जिनका उल्लेख ऊपर हुआ है। अशोककाल के शिलालेख भी अधिाकतर इन्हीं भाषाओं में पाये जाते हैं, इसलिए एक प्रकार से यह बात निर्विवाद रूप से स्वीकृत होती है कि बुध्ददेव ने जिस भाषा में उपदेश दिये, वह मागधी ही थी। रहा पाली का स्थानच्युत होना, मेरा विचार यह है कि 'पाली' शब्द के नामकरण पर विचार करने से इस जटिल विषय पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ जाता है। पालिप्रकाशकार प्रवेशिका के पृष्ठ 3 में लिखते हैं-
“उल्लिखित उदाहरण समूह द्वारा यह स्पष्टतया ज्ञात होता है कि पाली शब्द से पहले बौध्दधार्मशास्त्रा की पंक्ति अथवा मूलशास्त्रा त्रिपिटक, समझा जाता था। इसके बाद कालक्रम से धीरे-धीरे त्रिपिटक के साथ सम्बध्द अर्थकथा और साक्षात् अथवा परम्परा सम्बन्धा से उससे संबध्द कोई ग्रन्थ ही पाली शब्द से अभिहित होने का सुयोग पा सका होगा। जैसे मूल संहिता और उससे सम्बन्धिात ब्राह्मण ग्रन्थ दोनों ही वेद माने जाते हैं, और जैसे प्राचीन मनु इत्यादिक धार्मशास्त्रा और उससे सम्बध्द आधुनिक अन्धाकार का ग्रन्थ, दोनों ही स्मृति कहकर गृहीत होते हैं, उसी प्रकार बौध्द साहित्य में पहले त्रिपिटक, उसके उपरांत अर्थ-कथा और तदनन्तर उससे सम्बध्द अपर ग्रन्थ समूह 'पाली' नाम से प्रसिध्द हुए किन्तु जिन ग्रन्थों के साथ'पाली'(त्रिपिटक आदिक) का कोई सम्बन्धा नहीं था, उस समय वे पाली नाम से अभिहित नहीं हुए। केवल ग्रन्थ कहलाकर ही वे परिचित होते थे। मूलशास्त्रा को पाली कहते थे, इसीलिए उसकी भाषा का नाम भी पालिभाषा अथवा कालक्रम से संक्षेप में केवल 'पाली' हुआ। इन सब बातों पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पालि-भाषा का आदिम अर्थ 'पाली' की अर्थात् बौध्दधार्म के मूलशास्त्रा की भाषा है।”
ज्ञात होता है कि इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर किसी पाश्चात्य विद्वान ने पाली को कृत्रिम अथवा साहित्यिक भाषा लिखा है,परन्तु पाली प्रकाशकार उनके इस विचार का खंडन करते हैं, वे प्रवेशिका के पृष्ठ 98 में लिखते हैं-
“किसी पाश्चात्य विद्वान् ने पाली को बिलकुल कृत्रिम भाषा बतलाया है, किन्तु यह सर्वथा असंगत है, यह कहना ही बाहुल्य है।”
वे ऐसा कहते तो हैं, परन्तु उन्होंने जो पहले स्वयं लिखा है, वही उनके इस उत्तार कथन का विरोधाी है। डॉक्टर चटर्जी महोदय ने जो कथन किया है, उसे आप पहले पढ़ चुके हैं, वे कहते हैं, 'पाली' मथुरा प्रान्त की भाषा है, जो शौरसेनी का पूर्वरूप है, और जिसे भूल से सिंहलवालों ने मागधी कहा। लेख इच्छा के विरुध्द बहुत विस्तृत हो गया, किन्तु मतभिन्नता का निराकरण न हो सका। तथापि यह स्वीकार करना पड़ेगा, कि आदि अथवा पहली प्राकृत वह है, जिसके उपरान्त देशपरक नाम वाली प्राकृतों की रचना हुई। इस पहली प्राकृत को पाली कहिए चाहे बौध्दमागधी अथवा आर्ष प्राकृत।
देशपरक नाम की दृष्टि से मागधी को दूसरी ही प्राकृत मानना पड़ेगा, चाहे वह बौध्दमागधी न होकर प्राकृतमागधी ही क्यों न हो। ऐसी दशा में बौध्दमागधी को प्राकृत मागधी का पूर्वरूप मानना पड़ेगा। जैसा मैं पहले दिखला आया हूँ, उससे यह बात स्पष्ट हो गई है, कि बौध्दमागधी ही बाद को पाली कहलाई। पाली नाम की कल्पना बौध्दों द्वारा ही हुई है, वे ही इस नाम के उद्भावक हैं, और बौध्दशास्त्रा की पंक्ति उसका आधार है। यह जान लेने पर यह बात समझ में आ जाती है कि क्यों पाली का पर्यायवाची नाम मागधी है। मैं यह स्वीकार करूँगा कि डॉक्टर चटर्जी महोदय का कथन इस उक्ति का विरोधाी है,और जैसा उन्होंने बतलाया है, उससे पाया जाता है, कि वर्तमान काल के विद्वानों का मत ही उनका मत है। तथापि सब बातों पर दृष्टि रखकर यह स्वीकार करना ही पड़ेगा, कि इन दोनों नामों का जो सम्बन्धा है, उसके पक्ष में ही प्रबल प्रमाण है और यह मान लेने से ही सब विचारों का समन्वय हो जाता है, कि बौध्दमागधी अथवा पाली पहली प्राकृत है, और प्राकृतमागधी दूसरी प्राकृत।
अर्ध्दमागधी भी दूसरी प्राकृत है। जो भाषा मगधा प्रान्त में बोली जाती थी वह मागधी कहलाई, किन्तु काशी और कोशल प्रदेश की भाषा अर्ध्दमागधी कही गई है। अर्ध्दमागधी शब्द ही बतलाता है, कि इस भाषा की शब्द सम्पत्तिा इत्यादि का अध्र्दांश मागधी है। यहाँ प्रश्न यह होगा कि दूसरा अध्र्दांश क्या है? इसका उत्तार क्रमदीश्वर यह देते हैं, “महाराष्ट्री मिश्रार्ध्द मागधी, अर्थात् जिस मागधी में महाराष्ट्री शब्दों का मिश्रण हो गया है, वह अर्ध्दमागधी है।” किन्तु मारकण्डेय यह कहते हैं-
“शौरसेन्याविदूरत्वादियमेवार्धामागधी” अर्थात् शौरसेनी के सन्निकट होने के कारण इसका नाम अर्ध्दमागधी है। प्रयोजन यह कि जिस मागधी पर शौरसेनी का प्रभाव पड़ गया है, वह अर्ध्दमागधी है। इन दोनों सिध्दान्तों में प्रथम सिध्दान्त के पोषक अधिाक लोग हैं, और वे कहते हैं कि अर्ध्दमागधी पर अधिाक प्रभाव महाराष्ट्री का ही है। मागधी भाषा में यदि बौध्दों के धार्मग्रन्थ हैं, तो अर्ध्दमागधी में जैनों के। वह यदि बुध्ददेव के प्रभाव से प्रभावित है, तो यह महावीर स्वामी के गौरव से गौरवित। कहा जाता है कि अशोक के समय में यदि मागधी राजभाषा होने के कारण विशेष सम्मानित थी, तो अर्ध्दमागधी का समादर भी कम न था, पूर्ण सम्मान का अध्र्दांश उसको भी प्राप्त था। अशोक के स्तम्भों पर पाली अथवा मागधी को यदि स्थान दान किया गया है, तो अर्ध्दमागधी भी इस सम्मान से वंचित नहीं हुई, अनेक शिलालेख अर्ध्दमागधी में लिखे पाये गये हैं।
महाराष्ट्री भी देशपरक नाम है, और यह भी दूसरी प्राकृत है। परन्तु स्वर्गीय पण्डित बदरीनारायण चौधारी ने अपने व्याख्यान में लिखा है “महाराष्ट्री शब्द से प्रयोजन दक्षिण देश से नहीं किन्तु भारत रूपी महाराष्ट्र से है” 'प्राकृत प्रकाशकार'वररुचि भी इसी विचार के हैं। किसी समय यह प्राकृत देशव्यापिनी थी, कहा जाता है महाराष्ट्र शब्द से ही, महाराष्ट्री का नामकरण हुआ है। कुछ लोगों ने सर्व प्राकृतों में इसी को प्रधान माना है, क्योंकि प्राकृत भाषा के व्याकरण रचयिताओं ने उसी के विषय में विशेष रूप से लिखा है। प्राय: व्याकरणों में देखा जाता है कि अन्य प्राकृतों के कुछ विशिष्ट नियमों को लिखकर शेष के विषय में लिख दिया गया है, कि महाराष्ट्री के समान उनका आदेशादि होगा। इसका साहित्य भी विस्तृत है।
शौरसेनी के विषय में श्रीयुत डॉक्टर सुनीतिकुमार चटर्जी महोदय यह लिखते हैं-
“सारे उत्तार भारत में जिस समय प्राकृत या प्रादेशिक बोलियाँ प्रचलित हुईं, उस समय प्रान्तीय प्राकृतों के अन्तर्वेद-विशेषतया ब्रह्मर्षि देश या कुरु पंचाल की प्राकृत शौरसेनी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी। संस्कृत नाटकों के श्रेष्ठ सद्वंशज पात्रा बात करने में इस शौरसेनी ही का प्रयोग करते थे। इससे यह साबित होता है कि प्राकृत युग में शौरसेनी का स्थान क्या था। गाने में महाराष्ट्रीय प्राकृत का प्रयोग था, यह ठीक है, परन्तु इसका कारण् इतना ही मालूम होता है कि महाराष्ट्रीय प्राकृत में स्वर बहुत होने से वह शौरसेनी से श्रुतिमधुर मानी जाती थी, और गाने में शायद इसीलिए लोग इसे अधिाक पसन्द करते थे।”
“ईस्वी सदी के प्रारम्भ से संस्कृत के बाद उत्तार में शौरसेनी भद्र समाज में बोली जाती थी, इसका प्रभाव दूसरी प्राकृत बोलियों पर भी पड़ा। भाषातत्तव के विचार से ग्रियर्सन आदि पण्डितों ने, राजस्थान, गुजरात, पंजाब और अवधा की प्राकृत बोलियों पर शौरसेनी का विशेष प्रभाव स्वीकार किया है। राजस्थानी, गुजराती, पंजाबी और अवधाी के विकास में शौरसेनी ने बहुत काम किया है।”
शौरसेनी की गणना भी दूसरी प्राकृत में ही है, यह कहना बाहुल्य मात्रा है। 'प्राकृत लक्षणकार' 'चण्ड' ने चार प्राकृत मानी है 'प्राकृत', 'अपभ्रंश', 'पैशाचिकी', और 'मागधी।' प्राकृत लक्षण के टीकाकार षड्भाषा मानते हैं, वे उपर्युक्त चार नामों के साथ संस्कृत और शौरसेनी का नाम और बढ़ाते हैं। वररुचि महाराष्ट्री, पैशाची, मागधी और शौरसेनी, चार और हेमचन्द्र, 'मूलप्राकृत,शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका और अपभ्रंश छ: प्राकृत बतलाते हैं। अधयापक लासेन यह कहते हैं-
“वररुचि वर्णित महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पैशाची, इन चार प्रकार के प्राकृतों में शौरसेनी और मागधी ही वास्तव में स्थानीय भाषाएँ हैं। इन दोनों में शौरसेनी एक समय में पश्चिमांचल के विस्तृत प्रदेश की बोलचाल की भाषा थी। मागधी अशोक की शिलालिपि में व्यवहृत हुई है, और पूर्व भारत में यही भाषा किसी समय में प्रचलित थी। महाराष्ट्री नाम होने पर भी यह महाराष्ट्र प्रदेश की भाषा नहीं कही जा सकती। पैशाची नाम भी कल्पित मालूम होता है।”
विश्वकोष , पृ. 438
ऊपर के वर्णन में जहाँ प्राकृतों में केवल 'प्राकृत; और 'मूल प्राकृत' लिखा गया है, मेरा विचार है वहाँ उनका प्रयोग 'आर्य-प्राकृत अथवा पाली के अर्थ में किया गया है। जिनके विषय में पहले बहुत कुछ लिखा जा चुका है। अपभ्रंश तीसरी प्राकृत है,उसका वर्णन आगे होगा। शेष रही चूलिका पैशाची उसका वर्णन थोडे में किया जाता है।
“संस्कृत साहित्य में पिशाच शब्द का प्रयोग अधिाकतर दानवों के अर्थ में हुआ है, क्योंकि वे मांसाशी थे, परन्तु वास्तव में भारत के पश्चिमोत्तार में रहने वाली एक विशेष जाति पिशाच कहलाती है। संस्कृत अथवा प्राकृत के वैयाकरणों ने पैशाची को प्राकृत का एक रूप बतलाया है, हेमचन्द्र ने उसका वर्णन विशेषतया किया है, उन्होंने कहा है यह मधय प्रान्त की भाषा थी,और उसका साहित्य भी है। मारकण्डेय ने बृहत्कथा से शब्द उध्दाृत करके यह कहा कि वह केकय प्रान्त की भाषा है,जो भारत के पश्चिमोत्तार में स्थित है। परन्तु इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि पैशाची वास्तव में उस प्रदेश में बसने वाली पिशाचों की भाषा थी या क्या हेमचन्द्र की पैशाची बिलकुल भारतीय भाषा है, उत्तार पश्चिम की वर्तमान पिशाचभाषा इस प्राकृत से भिन्न है। यह संभव हो सकता है कि पिशाच जब मधयएशिया से आये तो अभारतीय (अर्थात् ईरानियन इत्यादि) विशेषताओं को भूल गये और उन विशेषताओं को सुरक्षित रखा जिससे पैशाची प्राकृत मानी जा सके।
वर्तमान पिशाच भाषाएँ शुध्द भारतीय नहीं हैं, उनमें उच्चारण के बहुत से नियम ऐसे हैं, जो कि इण्डोएरियन भाषाओं से उनको अलग करते हैं। जैसे वर्तमान पिशाची में 'र' का उच्चारण। यद्यपि अन्य विषयों में वे साधारणत: इण्डोएरियन भाषाओं के समान हैं, तथापि कभी-कभी उनमें ईरानियन विशेषताएँ भी झलक जाती हैं। इनमें से कुछ ईरानी विशेषताएँ ऐसी हैं, कि जिनको देखकर 'कोनो' ने यह विचार प्रकट किया कि पैशाची में वशगली भाषा ईरानी भाषा की वर्तमानकालिक प्रतिनिधिा है। इस बात का विचार करते हुए कि कुल पिशाची भाषाओं में कुछ ईरानियन विशेषताओं का अभाव है, मेरी राय यह है कि पिशाच भाषाएँ न तो शुध्द भारतीय हैं और न शुध्द ईरानियन। शायद उन्होंने इण्डोएरियन भाषाओं की उत्पत्तिा के बाद आर्य-भाषा को,जो उसके माँ-बाप हैं, छोड़ दिया। परन्तु ज्ञात होता है कि अवेस्ता के ईरानियन विशेषताओं के विकास होने के पहले ही ऐसा हुआ। आर. जी. भण्डारकर की राय यद्यपि अन्य शब्दों में प्रकट की गई है, परन्तु उससे भी यही भाव प्रकट होता है। वे कहते हैं, “यह पैशाची प्राकृत शायद आर्य-जाति की उस शाखा की भाषा है, जो कि अपनी जाति वालों के साथ बहुत दिन तक रही,परन्तु भारत में पीछे आई, और किनारे पर बस गई। या यह भी हो सकता है कि वह अपनी जाति वालों के साथ ही भारत में आई, परन्तु किनारे के पहाड़ी प्रदेशों में स्वतंत्रातापूर्वक बस जाने के कारण अपनी भाषा सम्बन्धाी उच्चारण विशेषताओं का ऐसा ही विकास किया कि जिससे मैदान की सभ्य भाषा से घनिष्ठता प्राप्त कर सकी। इसी कारण उनकी भाषाओं के उच्चारण में वे परिवर्तन नहीं हुए, जो कि संस्कृत से उत्पन्न होने वाली प्राकृतों में हो सके” अन्त में मैं यह सोचता हूँ कि वर्तमान पिशाच भाषा कुछ विषयों में तलचह भाषा से मिलती-जुलती है, जिससे यह अनुमान होता है कि इसके बोलने वाले अपने वर्तमान स्थान पर भारत के मैदान से नहीं वरन् सीधो पामीर से आये और दूसरे लोग जो कि शुध्द इण्डोएरियन के बोलने वाले थे, भारत के मैदान में पश्चिम से पहुँचे। यदि वास्तविक घटना ऐसी ही है, तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आर्यों के मुख्य दलों से इनका दल अलग था। 1
तीसरी प्राकृत अपभ्रंश है। संसार परिवर्तनशील है, जैसे यथाकाल उसके समस्त पदार्थों में परिवर्तन होता है, वैसे ही भाषा में भी। मागधी, अर्ध्दमागधी, महाराष्ट्री और शौरसेनी में जब अधिाक परिवर्तन हुए, और एक प्रकार से उनका व्यवहार सर्वसाधारण के लिए असंभव हो गया, तब अपभ्रंश भाषा सामने आई। यह कोई अन्य भाषा नहीं थी, पूर्व कथित भाषाएँ ही बदलकर अपभ्रंश बन गईं। इस समय भारतवर्ष के उत्तारीय प्रदेश और महाराष्ट्र प्रान्त में जितनी आर्य भाषा सम्बन्धिानी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें से अधिाकांश भाषाओं का आधार अपभ्रंश ही है। अपभ्रंश ही रूप बदलकर अब देशभाषा के रूप में विराजमान है। प्राय: यह कहा जाता है कि जब कोई भाषा साहित्यिक हो जाती है, अर्थात् जब उसमें साहित्यिक विशेषताएँ आ जाती हैं, तो वह बोलचाल की भाषा नहीं रह जाती। यह कारण निर्देश युक्तिसंगत नहीं मालूम होता। किसी भाषा का साहित्य में गृहीत हो जाना, उसके बोलचाल से बहिष्कृत होने का हेतु नहीं है। यह प्राकृतिक नियम है कि चिरकाल तक किसी भाषा का एक रूप ही नहीं रहता, विशेष कारणों से उसमें यथासमय ऐसा परिवर्तन हो जाता है, कि वह लगभग उससे इतनी दूर पड़ जाती है, कि उसका उससे कोई सम्बन्धा ही नहीं ज्ञात होता। भाषामर्मज्ञ लोग भले ही सूक्ष्म दृष्टि से उनके पारस्परिक सम्बन्धा
1. Bulletin of the school of Oriental Studies, London Institute (S 36) Hi-74-75.
को देखते रहें, परन्तु यह सम्बन्धा सर्वसाधारण का बोधागम्य नहीं रह जाता। इसीलिए बोलचाल की भाषा स्वयं उससे अलग हो जाती है, और पूर्ववर्ती भाषा का रूप साहित्य में रह जाता है। ऐसा सह वर्ष के उपरान्त ही होता है, परन्तु होता है अवश्य। अपभ्रंश भाषा ऐसे ही परिवर्तनों का फल थी। यह बात स्पष्ट है कि जो भाषा बोलचाल की होती है, जनता की शिक्षा की दृष्टि से बाद को उसमें ही ग्रन्थ-रचना होने लगती है, और धीरे-धीरे बोलचाल की भाषा ही साहित्य का रूप ग्रहण कर लेती है। अपभ्रंश भाषा भी ज्यों-ज्यों पुष्ट होती गई, त्यों-तयों उसको साहित्यिक रूप मिलने लगा। इस भाषा में बहुत अधिाक साहित्य है।
कोषकारों ने अपभ्रंश का अर्थ कुत्सित अथवा अपभाषा किया है-
एक स्थान से भ्रंश होकर जिसका पतन होता है, वही अपभ्रंश कहलाता है (दे., प्रकृतिवाद, पृ. 42) आर्ष शब्दों के बिगड़ने से ही, प्राकृत-भाषा और अपभ्रंश की उत्पत्तिा हुई है, इसीलिए उनका उल्लेख संस्कृत ग्रंथों में इसी रूप में किया गया है। गरुड़ पुराण में तो यहाँ तक लिख दिया गया है-
( पूर्व खण्ड 98, 17)
लोकायतं कुतर्क × च प्राकृतं म्लेच्छभाषितम्।
न श्रोतव्यं द्विजेनैतदधाोनयति तद् द्विजम्ड्ड
एक स्थान पर अपभ्रंश के लिए यह लिखा गया है-
आभीरादि गिर: काव्ये अपभ्रंशगिर: स्मृता:।
परन्तु स्वाभाविक नियम का प्रत्याख्यान नहीं हो सकता। अपभ्रंश का बहुत अधिाक प्रचार हुआ और उसमें रचनाएँ भी हुईं। कुछ काल तक उसकी ओर पठित समाज की अच्छी दृष्टि नहीं रही, परन्तु ज्यों-ज्यों उसका प्रसार होता गया, त्यों-त्यों दृष्टिकोण भी बदलता गया, और उसको साहित्य में स्थान मिलने लगा। कुछ विद्वानों का विचार है कि दूसरी शताब्दी में उसकी रचना आरंभ हो गयी थी, और उस काल की कुछ प्राकृत रचनाओं में वह मिलती है, परन्तु अधिाक लोग इस सम्मति को नहीं मानते। इन लोगों का कथन है कि अपभ्रंश की साहित्यिक रचनाएँ छठी शताब्दी से ही प्रारम्भ होती हैं। श्रीमान् पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी डॉक्टर ग्रियर्सन के लेखों के आधार पर बनी अपनी 'हिन्दी भाषा की उत्पत्तिा' नामक पुस्तक में यह लिखतेहैं-
“छठे शतक में अपभ्रंश भाषा में कविता होती थी। ग्यारहवें शतक के आरंभ तक इस तरह की कविता के प्रमाण मिलते हैं। इस पिछले अर्थात् ग्यारहवें शतक में अपभ्रंश भाषाओं का प्रचार प्राय: बन्द हो चुका था।”
“सम्वत् 990 में देवसेन नामक एक जैन ग्रन्थकार हो गये हैं, दोहों में उनके बने दो ग्रन्थ पाये जाते हैं, एक का नाम है'श्रावकाचार' और दूसरे का 'दब्बसहावपयास' इन दोनों ग्रन्थों की भाषा अपभ्रंश कही जा सकती है। अपभ्रंश की अधिाकांश रचना दोहों में ही मिलती है।
बौध्दमत के महायान सम्प्रदाय की एक 'सहजिया' नामक शाखा है, यह शाखा विक्रमी चौदहवें शतक में मौजूद थी, उसकी पुरानी पोथियों का संग्रह महा. म. श्रीहर प्रसाद शास्त्राी ने “बौध्दगानओ दोहा” नाम से निकाला है, उसमें कन्ह और सरह के दोहे अपभ्रंश भाषा में लिखे गये प्रतीत होते हैं।
हेमचन्द्र प्राकृत भाषा के बहुत बड़े वैयाकरण हो गये हैं, वे विक्रमी बारहवें शतक में मौजूद थे, उन्होंने 'सिध्दहेमचन्द्र शब्दानुशासन', नामक प्राकृत भाषा का एक बड़ा व्याकरण बनाया है, उसमें अपभ्रंश भाषा के अनेक दोहे उदाहरण में लिखे गये हैं, उन दोहों में से कुछ उनके पहले के भी हैं।'
विक्रमी तेरहवें शतक में (1241) सोमप्रभसूरि नामक एक जैन विद्वान् ने 'कुमार प्रतिबोधा' नामक एक ग्रन्थ लिखा है,उसमें भी अपभ्रंश भाषा के दोहे मिलते हैं, जिनमें से कुछ उनके बनाये हैं और कुछ प्राचीन हैं।
विक्रमी चौदहवें शतक (1361) में जैनाचार्य मेरुतुंग ने 'प्रबन्धाचिन्तामणि' नामक एक संस्कृत ग्रन्थ बनाया, इसमें भी बीच-बीच में अपभ्रंश भाषा के दोहे मिलते हैं। स्थान-स्थान पर मालवराज मुंज के रचे अपभ्रंश दोहे भी इसमें देखे जाते हैं।
नलसिंह भट्ट भी चौदहवें शतक में हुआ है, इसका बनाया 'विजयपाल रासो' अपभ्रंश में लिखा गया है। पन्द्रहवें शतक में मैथिल कोकिल विद्यापति ने भी दो ग्रन्थ अपभ्रंश भाषा में लिखे, 'कीर्तिलता', एवं 'कीर्तिपताका' परन्तु इनकी रचनाओं में उनके समय में प्रचलित देश-भाषा का ढंग भी पाया जाता है, उसमें प्राय: संस्कृत के तत्सम शब्द भी मिल जाते हैं, जो प्राकृत परम्परा के विरुध्द हैं।”1
इन अवतरणों से पाया जाता है कि ग्यारहवें शतक में ही अपभ्रंश का व्यवहार बन्द नहीं हो गया था, वरन चौदहवें शतक तक चलता रहा, और पन्द्रहवें शतक में भी उसमें पुस्तकें लिखी गईं, चाहे उनकी संख्या कितनी ही अल्प क्यों न हो। यह मैं पहले लिख आया हूँ कि इस समय जितनी भाषाएँ भारतवर्ष में आर्य परिवार की बोली जाती हैं, वे प्राय: अपभ्रंश से ही विकसित हुई हैं, अब मैं उनका उल्लेख पृथक्-पृथक् डा. जी. ए. ग्रियर्सन की सम्मति के अनुसार करता हँ। इधार जो आविष्कार हुए हैं,अथवा जो छानबीन की गई है, बाद को उनका उल्लेख भी करूँगा।
सिन्धा नदी के आसपास जो प्रदेश हैं, उसमें ब्राचड़ा नाम की अपभ्रंश भाषा प्रचलित थी, आधुनिक सिन्धाी एवं लहँड़ा की उत्पत्तिा उसी से हुई। कोहिस्तानी और काश्मीरी भाषा किस अपभ्रंश से निकली, यह पता नहीं, परन्तु ब्राचड़ा अपभ्रंश से वह अवश्य प्रभावित होगी।
1. देखो, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-7, ता. 17
दाक्षिणात्य प्रदेश में बोली जाने वाली भाषाओं का सम्बन्धा वैदर्भी और महाराष्ट्री अपभ्रंश से बतलाया जाता है, इसी प्रकार उत्कली अपभ्रंश उड़िया भाषा की जननी कही जाती है।
मागधी अपभ्रंश मगही आदि वर्तमान बिहारी भाषाओं का आधार है, यही मागधी बंगाल में पहुँचकर प्राच्या अथवा गौड़ी कहलाई, और उसी के अपभ्रंश से बंगला भाषा और आसामी की उत्पत्तिा हुई। मागधा अपभ्रंश का बड़ा विस्तृत रूप देखा जाता है, उत्कल अपभ्रंश भी उसी के प्रभाव से प्रभावित है, और पूर्व में ढक्की भाषा पर भी उसका अधिाकार दृष्टिगत होता है। वह उत्तार दक्षिण और पूर्व में ही नहीं बढ़ी, उसने पश्चिम में भी अपना विकास दिखलाया और अर्ध्दमागधी कहलाई। जिसके अपभ्रंश ने अवधाी, बघेलखंडी, और छत्ताीसगढ़ी का सृजन किया।
पश्चिमी भारत की वर्तमान भाषाओं का सम्बन्धा नागर अपभ्रंश से है, उसका एक रूप शौरसेनी है और दूसरा आवन्ती। शौरसेनी का विस्तार पश्चिमी हिन्दी और पंजाबी में देखा जाता है और आवन्ती का प्रभाव राजस्थानी और गुजराती में। कहा जाता है पंजाब से लेकर नेपाल तक के पहाड़ी प्रदेशों में जो भाषा इस समय बोली जाती है, उसका सम्बन्घ भी उज्जैन प्रान्त की आवन्ती भाषा के अपभ्रंश से ही है, क्योंकि राजस्थानी भाषाओं का जनक वही है, और राजस्थानी भाषाओं का ही अन्यतम रूप इन पहाड़ी भाषाओं में पाया जाता है।
श्रीयुत् डॉक्टर सुनीति कुमार चटर्जी महोदय इस अपभ्रंश भाषा के विषय में क्या कहते हैं, उसे भी सुनिए1&
“ईस्वी प्रथम सहò वर्षों के बीच में प्राचीन भारतवर्ष में एक नवीन राष्ट्र या साहित्यिक भाषा का उद्भव हुआ। यह अपभ्रंश भाषा थी, जो शौरसेनी प्राकृत का एक रूप थी। अपभ्रंश भाषा-अर्थात् यह शौरसेनी अपभ्रंश पंजाब से बंगाल तक और नेपाल से महाराष्ट्र तक साधारण शिष्ट भाषा अैर साहित्यिक भाषा बनी। लगभग ईस्वी सन् 800 से 13 या 14 सौ तक शौरसेनी अपभ्रंश का प्रचारकाल था। गुजरात और राजपूताने के जैनों के द्वारा इसमें एक बड़ा साहित्य बना। बंगाल के प्राचीन बौध्द सिध्दाचार्यगण इसमें पद रचते थे, जो अन्त में भोट (तिब्बती) भाषा में उल्था किये गये। इसके अतिरिक्त भारत में इस अपभ्रंश में एक विराट लोकसाहित्य बना। जिसके टूटे-फूटे पद और गीत आदि हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण और प्राकृत पिंगल और छन्दोग्रन्थ में पाये जाते हैं। शौरसेनी अपभ्रंश की प्रतिष्ठा के कई कारण थे।ईस्वी प्रथम सहòक की अन्तिम सदियों के राजपूत राजाओं की सभा में यह भाषा बोली जाती थी, क्योंकि यह भाषा उसी समय मधयदेश और उसके संलग्न प्रान्तों में-आधुनिक पछाँह में-साधारणत: घरेलू भाषास्वरूप में इस्तेमाल होती थी। द्वितीय कारण यह है कि इस समय गोरखपंथी आदि अनेक हिन्दू समुदाय के गुरु लोग जो पंजाब और
1. देखिए, विशाल भारत, भाग-7, अंक 6, पृ. 841
हिन्दुस्तान से नवजाग्रत हिन्दू धार्म की वाणी लेकर भारत के अन्य प्रदेशों में गये, वे भी इसी भाषा को बोलते थे, इसमें पद आदि बनाते थे, और इसी में उपदेश देते थे। उसी समय उत्तार भारत के कन्नौजिया आदि ब्राह्मण बंगाल आदि प्रदेश में ब्राह्मण आचार और संस्कृति ले उपनिविष्ट हुए। इन सब कारणों से आज से लगभग एक हजार साल आगे, जिसे हम हिन्दी का पूर्व रूप कह सकते हैं, वही शौरसेनी अपभ्रंश, ठीक उसी प्रकार जैसे आजकल हिन्दी राष्ट्रभाषा बनी है, एक राष्ट्रीय साहित्यिक तथा धार्मिक भाषा हुई थी।”
अब तक जो कुछ लिखा गया, उससे यह बात प्रकट हुई कि किस प्रकार प्राचीन संस्कृत अथवा वैदिक भाषा से प्राकृत भाषाओं की उत्पत्तिा हुई, और फिर कैसे प्राकृत भाषाओं से अपभ्रंश भाषाओं का उद्भव हुआ। यह भी बतलाया जा चुका है, कि अपभ्रंश भाषाओं का परिवर्तित रूप हीर् वत्तामानकालिक बोलचाल की भाषाएँ हैं, जो आजकल भारतवर्ष के अधिाकांश भाग में बोली जाती हैं। हमारी हिन्दी भाषा उन्हीं भाषाओं में से बोलचाल की एक भाषा है। अपना पूर्वरूप बदलकर वहर् वत्तामान रूप में हमारे सामने है। उसका पूर्व रूप क्या था, उसकी कुछ रचनाएँ देखिए-विदग्धा मुखमण्डनकार ने अपभ्रंश भाषा की निम्नलिखित कविता बतलाई है-
रसि अह केण उच्चाडण किज्जइ।
जुयदह माणस केण उविज्जइ।
तिसिय लोउ खणि केण सुहिज्जइ।
एह पहो मह भुवणे विज्जइ।
रसिकों का उच्चाटन किस प्रकार किया जा सकता है, युवतियों का मन किस प्रकार उद्विग्न होता है, तृषितलोक क्षणभर में किस प्रकार सुखी बनाया जा सकता है, हमारा यह प्रश्न भुवन को विदित हो।
रसिअह = रसिकों, केण = क्यों, उच्चाडण = उच्चाटन, किज्जइ = किया जाय, जुयदह = युवति, माणस = मानस,उविज्जइ = ऊबना, तिसिय = तृषित्, लोउ = लोक, खणि = क्षण, सुहिज्जइ = सुखित, एह = यह, पहो = पश्न, मह = मम,भुवणे = भुवने, विज्जइ = विदित।
वैयाकरण हेमचन्द्र ने अपभ्रंश भाषा का यह उदाहरण दिया है-
बाह विछोड़वि जाहि तुइँ हऊँ तेवइँ को दोसु।
हिय पट्टिय जद नीसरहिं जाणउँ मुंज सरोसुड्ड
बिछोड़वि = छुड़ाना, जाहि = जाते हो, तुइँ = तू, हऊँ = हौं = हम, तेवइँ = तिवई = त्रिया, को = कौन, दोसु = दोष,पट्टिय = पट्टी, जद = यदि, नीसरहिं = निकले, जाणउँ = जानूँ, सरोसु = सरोष।
ज्ञात होता है हिन्दी भाषा का निम्नलिखित दोहा, इसी पद्य को आधार मानकर रचा गया है, देखिए दोनों में कितना साम्य है-
बाँह छुड़ाये जात हो निबल जानि कै मोहि।
हियरे सों जब जाहुगे सबल बखानौं तोहि।
दोनों दोहों का भाव लगभग एक है, परन्तु शब्द विन्यास में अन्तर है। पहले दोहे के जितने शब्द हैं, सभी परिचित से ज्ञात होते हैं। उसके अनेक शब्द ऐसे हैं, जो अब तक हिन्दी में प्रयुक्त होते हैं, विशेष कर ब्रजभाषा की कविता में।
एक पद्य और देखिए-
अग्गिएं उण्हउ होइ जगु वाएं सीअलु तेंव।
जो पुणु अग्गिं सीअला तसु उणहत्ताणु केंव।
जग अग्नि से ऊष्ण और वायु से शीतल होता है। जो अग्नि से शीतल होता है, वह फिर ऊष्ण कैसे होगा।
अग्गिएं = अग्नि से, उण्हउ = ऊष्ण, होइ = होता है, जगु = जगत, वाएँ = वायु, सीअलु = शीतल, तेंव =त्यों, पुणु = पुनि, तसु = सो, केवँ = क्यों, उण्हत्ताणु = ऊष्ण।
अपभ्रंश भाषा की रचनाओं को पढ़कर उसके शब्दों का मैंने जो अर्थ लिख दिया है, उनको देखकर आप लोगों को यह ज्ञात हो जावेगा कि किस प्रकार हिन्दी का विकास अपभ्रंश भाषा से धीरे-धीरे हुआ। इस समय हिन्दी भाषा का रूप बहुत विस्तृत है,उसका प्रचार बिहार से पंजाब तक और हिमालय से मधयप्रदेश तक है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उस पर दूसरी प्राकृतों के अपभ्रंश का कुछ प्रभाव नहीं है, परन्तु यह निश्चित है कि उसकी उत्पत्तिा शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है। चिरकाल तक हिन्दी भाषा का परिचय केवल भाषा कहकर ही दिया जाता रहा। हिन्दी भाषा के प्राचीन साहित्य ग्रन्थों में उसका भाषा नाम ही मिलता है, गोस्वामी जी रामायण में लिखते हैं 'भासाभणित मोर मत थोरी', अब भी पुराने विचार के लोग और प्राय: संस्कृत के पण्डित उसे भाषा ही कहते हैं। नागरी यद्यपि लिपि है, परन्तु पहले क्या अब भी बहुत से लोग हिन्दी को नागरी कहते हैं, और नागरी शब्द को हिन्दी का पर्यायवाची शब्द मानते हैं। परन्तु हिन्दी-संसार का पठित समाज कम से कम पचास वर्ष से उसको'हिन्दी' ही कहता है, और साधारणतया हिन्दी-संसार क्या अन्यत्रा भी अब वह इसी नाम से परिचित है। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि इस हिन्दी नाम की कल्पना क्या आधुनिक है! वास्तव में यह कल्पना आधुनिक नहीं है, चिरकाल से उसका यही नाम है परन्तु यह सत्य है कि इस नाम के प्रयोग में भ्रान्ति होती आई है और अब भी कभी-कभी वह अपना प्रभाव दिखलाये बिना नहीं रहती। मुसलमान जब भारतवर्ष में आये, और उन्होंने जब दिल्ली एवं आगरे को अपनी राजधानी बनाई तो अनेक कार्य सूत्रा से उनको अपने आसपास की देशी भाषा का नामकरण करना पड़ा। क्योंकि फारसी, अरबी, अथवा संस्कृत तो देशभाषा को कह नहीं सकते थे और वह वास्तव में फारसी, अरबी अथवा संस्कृत थी भी नहीं, इसलिए उन्होंने देशभाषा का नाम 'हिन्दी' रखा। यह नाम रखने का हेतु यह भी हुआ कि वे भारतवर्ष को 'हिन्द' कहते थे, इसलिए इस देश की भाषा को उन्होंने 'हिन्दी कहना ही उचित समझा। कुछ लोग कहते हैं कि हिन्दू शब्द ही से हिन्दी शब्द बना, किन्तु यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि हिन्दू शब्द भी हिन्द शब्द से ही बना है। यद्यपि कुछ लोग यह बात नहीं मानते, और अन्य प्रकार से हिन्दू शब्द की व्युत्पत्तिा करते हैं परन्तु बहुमान्य सिध्दान्त यही है कि 'हिन्द' शब्द से ही हिन्दू शब्द बना है क्यों यह सिध्दान्त बहुमान्य है, इस विषय में अपने एक व्याख्यान का कुछ अंश यहाँ उठाता हूँ-
“हिन्दी शब्द उच्चारण करते ही, हृदय उत्फुल्ल हो जाता है, और नस-नस में आनन्द की धारा बहने लगती है। यह बड़ा प्यारा नाम है, कहा जाता है, इस नाम में घृणा और अपमान का भाव भरा हुआ है, परन्तु जी इसको स्वीकार नहीं करता। हिन्दू शब्द से ही हिन्दी का सम्बन्धा नहीं है-वरन् हिन्द शब्द उसका जनक है-हिन्द शब्द देशपरक है, और भारतवर्ष का पर्यायवाची शब्द है। यदि हिन्दू शब्द से ही उसका सम्बन्धा माना जावे तो भी अप्रियता की कोई बात नहीं। आज दिन हिन्दू शब्द ही इक्कीस करोड़ संख्या का सम्मिलन सूत्रा है, यह नाम ही ब्राह्मण से लेकर अस्पृश्य जाति के पुरुष तक को एक बन्धान में बाँधाता है। आर्य नाम उतना व्यापक नहीं है, जितना हिन्दूनाम, यह कभी विष रहा हो, पर अब अमृत है। वह पुण्य-सलिला-सुरसरी जल-विधाौत, सप्तपुरी-पावन-रजकणपूत और पुनीत वेद मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित है, क्या अब भी उसमें अपावनता मौजूद है। इतना निराकरण के लिए कहा गया, इस विषय में मेरा दूसरा सिध्दान्त है। यह सत्य है कि हमारे प्राचीन ग्रन्थों अथवा पुराणों में हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं है, यह सत्य है कि मेरुतन्त्रा का “हीनश्च दूषयत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रिय” और शिव रहस्य का “हिन्दू धार्म प्रलोप्तारोभविष्यन्ति कलौयुगे” आधुनिक श्लोक खंड हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि विजेता मुसलमानों ने बलपूर्वक हिन्दुओं से हिन्दू नाम नहीं स्वीकार कराया। यदि बलात् यह नाम स्वीकार कराया गया होता, तो चन्दवरदाई ऐसा स्वधार्माभिमानी अब से सात सौ बरस पहले, अपने निम्नलिखित पद्य में हिन्दुवान, शब्द का प्रयोग न करता। वह लिखता है-
“ हिन्दुवान रान भय भान मुख गहिय तेग चहुँआन अब “
वास्तव बात यह है कि फारस-निवासी चिरकाल से भारत को हिन्द कहते आये हैं अब से लगभग पाँच सहò वर्ष की पुरानी पुस्तक जिन्दावस्ता में इस शब्द का प्रयोग पाया जाता है, उसकी 163वीं आयत यह है-
“ चूं व्यास ' हिन्दी , बलख़ आमद '
गुस्तास्पजरतुश्तरा बख्वाँद “
यह हिन्द नाम सिन्धाु के सम्बन्धा से पड़ा है, क्योंकि फारसी में हमारा 'स' 'ह' हो जाता है, जैसे सप्त से हफ्त, असुर से अहुर, सोम से होम बना वैसे ही सिंधा से हिंधा अथवा हिन्द बन गया और इसी हिन्द से ही हिन्दू शब्द की वैसे ही उत्पत्तिा है,जैसे इण्डस से इण्डिया और इण्डियन की। जब मुसलमान जाति विजेता बनकर भारत में आई, तो वह यहाँ के निवासियों को इसी प्राचीन नाम से पुकारती रही, अतएव उसके संसर्ग और प्रभाव से यह शब्द सर्वसाधारण में गृहीत हो गया। इस सीधाी और वास्तविक बात को स्वीकार न करके यह कहना कि हिन्दू माने काफ़िर के हैं, अतएव बलात् यह नाम हिन्दुओं से स्वीकार कराया गया, अनुचित औरअसंगतहै।”
डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन क्या कहते हैं, उसे भी सुनिए-
“यूरोपियन लेखकों ने 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग बड़ी लापरवाही के साथ किया है। यह फारसी शब्द है, और इसका अर्थ है,भारत का अथवा भारत से सम्बन्धा रखने वाला। परन्तु लोग इसका सम्बन्धा हिन्दू शब्द से बतलाते हैं, जो ठीक नहीं। पुराने समय में भी मधयभारत की भाषा, भारत में सबसे महत्तव की होती थी। यह स्थानीय भाषा नहीं है, वरन् एक प्रकार से'हिन्दुस्तानी' है-जो कि उत्तारी और पश्चिमी भारत के बोल-चाल की भाषा है”1 मुसलमान लोग हमारी देश भाषा को बहुत पहले से हिन्दी कहते आये हैं, इसका प्रमाण खुसरो की रचनाओं में मौजूद है। खुसरो ईस्वी तेरहवें शतक में हुए हैं-उन्होंने हिन्दी भाषा में भी रचना की है। हिन्दुओं को फारसी सिखलाने के लिए उन्होंने खालिकवारी नाम की एक पुस्तक लिखी है, उसमें वेकहतेहैं-
मुश्क काफ़ूरस्त कस्तूरी कपूर।
' हिन्दवी , आनन्द शादी औसरूर।
सोजनो रिश्ता व हिंदी सूई ताग। '
सका अर्थ हुआ मुश्क को कस्तूरी, काफ़ूर को कपूर, शादी और सरूर को आनन्द, एवं सोजन और रिश्ता को हिन्दी में सूई तागा कहते हैं।
अपनी हिन्दी रचना में एक जगह वे यह कहते हैं-
1. The term "Hindi" is very laxly employed by European writers. It is Persian word, and properly means "of or belonging to India," as opposed to "Hindu," a person of the Hindu religion...As also was the case in ancient times the language of this tract (i.e. Madhyadesha) is by for the most important of any of the speeches of India. It is not only a local vernacular, but in one of its forms, "Hindustani," it is spoken over the whole of the north and west of continental India as a lingua franc...'-Bulletin of the School of Oriental Studies, London Institute. p.p. 50-5 (§6)
फारसी बोली आईना। तुर्की ढूँढी पाईना।
'हिन्दी , बोली आरसी आए। खुसरो कहे कोई न बताये। '
इसका अर्थ हुआ फारसी में जिसे आईना कहते हैं, हिन्दी में उसको आरसी। मलिक मुहम्मद जायसी भी हिन्दी को हिन्दवी ही कहते हैं-
तुरकी अरबी हिन्दवी भाषा जेती आहि।
जामें मारग प्रेम का सबै सराहै ताहि।
इन पद्यों से यह स्पष्ट हो गया कि अब से छ:-सात सौ बरस पहले से हमारे मधयवर्ती देश की भाषा हिन्दी कहलाती है। परन्तु यह अवश्य है कि हिन्दुओं में यह नाम बहुत पीछे गृहीत हुआ है, जैसा मैं ऊपर लिख आया हूँ। पहले हिन्दवी अथवा हिन्दुई को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था। हिन्दुई शब्द गँवारी बोलचाल अथवा साधारण कोटि की भाषा के लिए प्रयुक्त होता था। इसीलिए उच्च हिन्दी अथवा उसकी साहित्यिक रचनाओं का नाम भाषा था। परन्तु जब यह भाषा बहुत व्यापक हुई,और उसमें अनेक अच्छे-अच्छे ग्रन्थ निर्मित हुए, सुदूर प्रान्तों से सुन्दर-सुन्दर समाचार-पत्रा निकले, तब विचार बदला और उस समय से हिन्दी भाषा कहकर ही उसका परिचय दिया जाने लगा। आज दिन तो हिन्दी अपने नाम के अर्थानुसार वास्तव में हिन्द की भाषा बन रही है।