हिन्दी भाषा का उद्गम / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'
आदि भाषा कौन है? सृष्टि के आदि में एक ही भाषा थी, अथवा कई। इस समय संसार में जितनी भाषाएँ प्रचलित हैं, उनका मूल एक है अथवा भिन्न-भिन्न? आज तक इसकी पूरी मीमांसा नहीं हुई। इस समय जितनी भाषाएँ संसार में प्रचलित हैं,उनमें इण्डो-यूरोपियन एवं सेमिटिक भाषा की ही प्रधानता है, इन्हीं दोनों भाषाओं का विस्तार अधिाक है और इन्हीं के भेद-उपभेद अधिाक पाये जाते हैं! इनके अतिरिक्त हैमिटिक और चीनी भाषा आदि और भी छ: भाषाएँ ऐसी हैं, जो भिन्न-भिन्न वर्ग की हैं, और जिनमें एक का दूसरे के साथ कोई सम्बन्धा नहीं पाया जाता। अब प्रश्न यह होता है कि इन भाषाओं का आधार एक है या वे स्वतन्त्रा हैं। क्या मनुष्यों का उत्पत्तिा-स्थान भिन्न-भिन्न है? यदि भिन्न-भिन्न है तो क्या भाषाएँ भी भिन्न-भिन्न रीति से ही भिन्न-भिन्न अवसरों पर आवश्यकतानुसार उत्पन्न हुई हैं? क्या मनुष्य मात्रा एक माँ-बाप की ही सन्तान नहीं हैं, यदि हैं तो भाषा भी उनकी एक ही होनी चाहिए। जैसे देश-काल के अनुसार मनुष्यों में भेद हुआ, वैसे ही काल पाकर भाषा में भी भेद हो सकता है। परन्तु आदि में ही मनुष्यों और भाषाओं की भिन्नता उपपत्तिा-मूलक नहीं ज्ञात होती। संसार के समस्त धार्म-ग्रन्थ एक स्वर से यही कहते हैं कि आदि में एक पुरुष एवं एक स्त्राी से ही संसार का आरम्भ हुआ। यह विचार इतना व्यापक है कि अब तक इसका विरोधा सम्मिलित कण्ठ से बलवती भाषा में बहुमान्य प्रणाली द्वारा नहीं हुआ। इसी कारण अनेक विद्वानों की सम्मति है कि सृष्टि के आदि में मनुष्य जाति की उत्पत्तिा एक ही स्थान पर एक ही माता-पिता से हुई और इसलिए आदि में भाषा भी एक ही थी। मेरा विषय भाषा-सम्बन्धी है, अतएव मैं देखूँगा कि क्या कुछ विद्वान् ऐसे हैं कि जिनकी यह सम्मति है कि आदि में भाषा एक ही थी और काल पाकर उसमें परिवर्तन हुए हैं।
अक्षर-विज्ञान के रचयिता लिखते हैं-(पृष्ठ 40)
सेमिटिक भाषाओं को आर्यभाषा से पृथक बतलाते हुए भी मैक्समूलर आगे चलकर कहते हैं कि आर्यभाषाओं के धातु रूप और अर्थ में सेमेटिक अराल-आटक, बण्टो और ओशीनिया की भाषाओं से मिलते हैं। अन्त में कहते हैं कि 'निस्सन्देह हम मनुष्य की मूलभाषा एक ही थी।'
मिस्टर बाप कहते हैं-”किसी समय संस्कृत सम्पूर्ण संसार की बोलचाल की भाषा थी,1 एण्ड्रो जकसन डेविस कहते हैं-”भाषा भी जो एक आन्तरिक और सार्वजनिक साधान है, स्वाभाविक और आदिम है। भाषा के मुख्य उद्देश्य में कभी उन्नति का होना सम्भव नहीं, क्योंकि उद्देश्य सर्वदेशी और पूर्ण होते हैं, उनमें किसी प्रकार का भी परिवर्तन नहीं हो सकता, वे सदैव अखंड और एकरस रहते हैं, (हारमोनिया, भाग-5 पृष्ठ 73-देखो, अक्षर-विज्ञान, पृष्ठ 4) आजकल यह सिध्दान्त आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता और इसके पक्ष-विपक्ष में बहुत बातें कही गई हैं। मैंने यहाँ इसकी चर्चा इसलिए की कि इस प्रकार के कुछ विद्वान् हैं जो आदि में किसी एक ही भाषा का होना स्वीकार करते हैं, यदि यह मान लें तो आगे के लिए हमारा पथ बहुत प्रशस्त हो जाता है, फिर भी मैं इस वादग्रस्त विषय को छोड़ता हूँ। मैं उस इण्डो-योरोपियन भाषा को ही लेता हूँ, जो संसार की सबसे बड़ी और व्यापक भाषा है। संस्कृत ही आदि में समस्त संसार की भाषा थी और वही कालान्तर में बदलकर नाना रूपों में परिणत हुई,यद्यपि इसका प्रतिपादन अनेक विद्वानों ने किया है, हाल में श्रीमान् शेषगिरि शास्त्राी ने एक पृथक पुस्तक लिखकर भली प्रकार सिध्द कर दिया है कि उन द्रविड़ भाषाओं की उत्पत्तिा भी संस्कृत से हुई है, जो अन्य वर्ग की भाषाएँ मानी जाती हैं, तो भी इण्डो-योरोपियन भाषा की चर्चा ही से हम प्रस्तुत विषय पर बहुत कुछ प्रकाश डाल सकते हैं, इसलिए इसी भाषा को लेकर आगे बढ़ते हैं। कहा जाता है द्राविड़ भाषाओं को छोड़कर भारतवर्ष की समस्त भाषाएँ इण्डो-योरोपियन भाषा वर्ग की हैं, और उन्हीं से प्रसूत हुई हैं। हिन्दी भाषा भी इन्हीं भाषाओं में से एक है, अतएव विचारना यह है कि वह किस प्रकार इण्डो-योरोपियन भाषा से क्रमश: विकसित होकर इस रूप को प्राप्त हुई। इण्डो-योरोपियन भाषा से प्रयोजन उस वर्ग की भाषा से है, जिसका विस्तार योरोप के अधिाकांश देशों, फारस और भारतवर्ष के अधिाकतर प्रदेशों में है। पहले इसको इण्डो-योरोपियन भाषा कहते थे, परन्तु अब यह नाम बदल दिया गया है। कारण यह बतलाया गया है कि अब तक यह प्रमाणित नहीं हुआ कि योरोप वाले अपने को आर्य मानते थे अथवा नहीं। भारत वाले और ईरान वाले अपने को आर्य कहते थे, इसलिए इन प्रदेशों में जो इण्डो-योरोपियन भाषा की शाखाएँ प्रचलित हैं, उनको आर्य-परिवार की भाषा कह सकते हैं। आगे हम इन भाषाओं की चर्चा आर्य-परिवार के नाम से ही करेंगे।
1. "At one time Sanskrit was the one language spoken all over the world" Edinburgh Rev. Vol. XXXIII, 3. 43.
आर्य-परिवार भाषा का आदिम रूप वैदिक संस्कृत में पाया जाता है। यद्यपि अनेक योरोपियन विद्वानों ने इस वैदिक संस्कृत को ही योरोपियन भाषाओं का भी मूल आधार माना है, परन्तु आजकल उसके स्थान पर एक मूल भाषा, लिखना ही पसन्द किया जाता है जिसकी एक शाखा वैदिक संस्कृत भी मानी जाती है। इसका विशेष विवेचन आगे मिलेगा, यहाँ यह विचारणीय है कि वैदिक संस्कृत की भाषा साहित्यिक है, अथवा बोलचाल की। इस विषय में अपने 'पालिप्रकाश' (पृष्ठ 27-28)नामक ग्रन्थ में बंगाल प्रान्त के प्रसिध्द विद्वान श्री विधुशेखर शास्त्राी ने जो लिखा है, उसका अनुवाद मैं आप लोगों के सामने रखता हूँ-'परिवर्तनशीलता बोलचाल की भाषा का स्वभाव है। यह चिरकाल तक एक भाव से नहीं रहती। देश-काल और व्यक्ति-भेद से भिन्न-भिन्न रूप धारण करती है। वैदिक भाषा में यह बात पाई जाती है, उसमें एक वाक्य का भिन्न प्रयोग देखा जाता है। उस समय कोई कहता क्षुद्रक कोई कहता क्षुल्लक। एक बोलता युवाम् तो दूसरा युवम्। किसी के मुख से पश्चात् सुना जाता और किसी के मुख से पश्चा; कोई युष्मासु और कोई युष्मे कहता। इसी प्रकार देवा: देवास: श्रवण-श्रोणा-अवधोतयति, अवज्योतयति-इत्यादि भिन्न प्रकार का व्यवहार होता। कोई किसी-किसी स्थान पर प्रातिपदिक शब्दों के बाद विभक्तियों का प्रयोग बिलकुल नहीं करता (जैसे परमेव्योमन्), कोई करता। कोई किसी शब्द का कोई अंश लोप करके उसका उच्चारण करता जैसे (“त्मना”), कोई ऐसा नहीं करता। कोई विशेषण के अनुसार विशेषण के लिंगादि को भी ठीक करके उसका व्यवहार करता, कोई इसकी परवाह नहीं करता, जिसमें सुविधा होती, वही करता (जैसे 'बहुलापृथूनि भुवनानि विश्वा') कभी कोई संयुक्त वर्ण के पूर्वस्थित दीर्घस्वर को Ðस्व करके उच्चारण करता (जैसे रोदसिप्राम्) और अनेक अवस्थाओं में ऐसा नहीं करता। एक मनुष्य किसी अक्षर को जैसे उच्चारण करता, दूसरा उसको दूसरे प्रकार से कहता। एक ड किसी स्थान पर ल और कहीं ल् उच्चरित होता (देखो, ऋ. प्रा. 1-10-11) पदान्त में वर्ग के तृतीय वर्ण को और दूसरे उसके प्रथम वर्ण का उच्चारण करते। जिनका वैदिक भाषा के साथ थोड़ा परिचय भी है, वे भली-भाँति जानते हैं कि वैदिक भाषा में इस प्रकार प्रयोगों की कितनी भिन्नता है। यह बात भली-भाँति प्रमाणित करती है कि वैदिक भाषा बोलचाल की भाषा थी”।
संभव है कि यह विचार सर्वसम्मत न हो, परन्तु प्रश्न यह है कि जो मूल भाषा की पुकार मचाते हैं, उनसे यदि पूछा जावे कि आपकी 'मूल भाषा का' रूप कहीं कुछ पाया जाता है तो वैदिक मंत्रों को छोड़ वे किसकी ओर उँगली उठावेंगे। ऋग्वेद ही संसार की लाइब्रेरी में सबसे प्राचीन पुस्तक है, जो उसमें मूल भाषा प्रतिफलित नहीं, तो फिर उसका दर्शन किसी दूसरी जगह नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि साहित्यिक होने से किसी भाषा का रूप बिलकुल नहीं बदल जाता। उसकी विशेषताएँ उसमें मौजूद रहती हैं, अन्यथा वह उस भाषा की रचना हो ही नहीं सकती। क्या ग्राम-साहित्य की रचनाओं में बोलचाल की भाषा का वास्तविक रूप नहीं मिलता। साहित्यगत साधारण् परिवर्तन भाषा के मुख्य स्वरूप का बाधाक कदापि नहीं।
योरोपियन विद्वान कहते हैं कि वैदिक काल से पहले एक विशाल जाति मधय एशिया में रहती थी, जब यह विभक्त हुई तो इसमें से कुछ लोग योरोप की ओर गये, और कुछ ईरान एवं भारतवर्ष में पहुँचे और अपने-अपने उपनिवेश वहाँ स्थापित किये। किन्तु भारतीय आर्य-साहित्य में इसका पता नहीं चलता। वैदिक और लौकिक संस्कृत-साहित्य का भण्डार बड़ा विस्तृत है, उसमें साधारण से साधारण बातों का वर्णन है, किन्तु इस बात की चर्चा कहीं नहीं है, आर्यजाति बाहर से भारतवर्ष में आई। इसलिए अनेक आर्य विद्वान् योरोपियन सिध्दान्त को नहीं मानते। उनका विचार है कि आर्यजाति का आदि निवास-स्थान भारतवर्ष ही है और यहीं से वह दूसरे स्थानों में गई हैं। हिन्दू सुपीरियरटी, में इसका अच्छा वर्णन है। बम्बई के प्रसिध्द विद्वान् खुरशेदजी रुस्तमजी ने बम्बई की ज्ञान-प्रसारक मंडली के उद्योग से एक बार 'मनुष्यों का मूल जन्म स्थान कहाँ था। इस विषय पर एक व्याख्यान दिया था, उसका सारांश यह है-
“जहाँ से सारी मनुष्य-जाति संसार में फैली। उस मूल स्थान का पता हिन्दुओं, पारसियों, यहूदियों और क्रिश्चियनों के धार्म-पुस्तकों से इस प्रकार लगता है कि वह स्थान कहीं मधय एशिया में था। योरोप-निवासियों की दन्त-कथाओं में वर्णित है कि, हमारे पूर्व राजा कहीं उत्तार में रहते थे। पारसियों की धार्म-पुस्तकों में लिखा है कि जहाँ आदि सृष्टि हुई, वहाँ दस महीने सर्दी और दो महीने गर्मी रहती है। एटुअर्ट, एलफिन्स्टन, वरनस आदि यात्रियों ने मधय एशिया में भ्रमण करके बतलाया है कि हिन्दूकुश और उसके निकटवर्ती पहाड़ों पर 10 महीने सर्दी और दो महीने गर्मी होती है। उनके ऊपर से चारों ओर नदियाँ बहती हैं। इस स्थान के ईशानकोण् में 'वालूतार्ग' तथा 'मुसावरा' पहाड़ है। ये पहाड़ 'अलवुर्ज' के नाम से पारसियों की धर्म-पुस्तकों और अन्य इतिहासों में लिखे हैं। 'वालूतार्ग' से 'अमू' अथवा 'आक्षस' और जेक जार्टस नाम की नदियाँ 'अरत' सरोवर में होकर बहती हैं। इसी पहाड़ में से निकल कर 'इन्डस' अथवा सिन्धाु नदी दक्षिण की ओर बहती है। इसी ओर के पहाड़ों में से प्रसूत होकर बड़ी-बड़ी नदियाँ पूर्व ओर चीन में और उत्तार ओर साइबेरिया में प्रवेश करती हैं। ऐसे रम्य और शान्त स्थान में पैदा हुए लोग अपने को आर्य कहते थे, और 'स्वर्ग कहकर उसका आदर करते थे?'
यह प्रदेश भारतवर्ष के उत्तार में है, और हिन्दूकुश से तिब्बत तक फैला हुआ है, इसी के अन्तर्गत, सुमेरु तथा कैलास जैसे पुराण-प्रसिध्द पर्वत और मानसरोवर समान प्रशंसित महासरोवर है। यहीं किन्नर और गन्धार्व रहते हैं, जो स्वर्ग-निवासी बतलाये गये हैं। तिब्बत का दक्षिणी भाग हमारे आराधय हिमालय का ही एक अंश है, इसीलिए उसका संस्कृत नाम भी स्वर्ग का पर्यायवाची है-अमर कोशकार लिखतेहैं-
स्वरव्ययं स्वर्ग नाक त्रिदिव त्रिदशालया।
सुरलोको द्यौ दिवौ द्वे स्त्रिायाँ क्लीवे त्रिविष्टपड्ड
ऋग्वेद में कन्धार-निवासी आर्य-समुदाय के राजा दिवोदास और सिन्धाुनद के समीप बसने वाली आर्य जनता के राजा सुदास का वर्णन मिलता है, इसके उपरान्त गंगा-यमुना कूल के मन्त्राो की रचना का पता चलता है। इससे पाया जाता है कि कंधार अथवा गांधार से ही आर्य-लोग पूर्व और दक्षिण की ओर बढ़े, यदि गांधार के पश्चिमोत्तार प्रदेश से वे आगे बढ़ते तो उनका वर्णन ऋग्वेद में अवश्य होता। किन्तु ऐसा नहीं है। इसीलिए इसी सिध्दान्त को स्वीकार करना पड़ता है कि आर्य जाति की उत्पत्तिा हिमालय के पवित्रा अंक में ही हुई है, और वहीं से वे भारत के और प्रदेशों में फैले हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी सत्यार्थ-प्रकाश में यही लिखा है-
“ आदि सृष्टि त्रिविष्टप अर्थात् तिब्बत में हुई “
यदि यह तर्क किया जावे कि फिर आर्य जाति का प्रवेश योरोप में कैसे हुआ? तो इसका उत्तार यह है कि जो जाति अपने जन्म-स्थान से पूर्व और दक्षिण की ओर बढ़ी, क्या वह पश्चिम और उत्तार को नहीं बढ़ सकती, हिमालय पर्वत से निकली हुई नदियाँ यदि साइबीरिया तक पहुँच सकती हैं, तो उस प्रदेश में निवास करने वाली जनता योरोप में क्यों नहीं पहुँच सकती। भले ही हिमालय समीपवर्ती प्रान्त मधय एशिया में न हो, किन्तु क्या वे मधय एशिया के निकटवर्ती नहीं। किसी विद्वान् ने निश्चित रूप से अब तक यह नहीं बतलाया कि मधय एशिया के किस स्थान से आर्य लोग पूर्व और पश्चिम को बढ़े। अब तक स्थान के विषय में तर्क-वितर्क है, कोई किसी स्थान की ओर संकेत करता है, कोई किसी स्थान की ओर। ऐसी अवस्था में यदि हिमालय प्रदेश को ही यह स्थान स्वीकार कर लिया जावे, तो क्या आपत्तिा हो सकती है। महाभारत और पुराणों में ऐसे प्रसंग मिलते हैं, जिनमें भारतीय जनों का योरोपीय और अमरीका आदि जाने की चर्चा है। राजा सगर ने अपने सौ पुत्रों को क्रुध्द होकर जब भारतवर्ष में नहीं रहने दिया, तब वे देशान्तरों में गये, और वहाँ उपनिवेश स्थापित किये। इसी प्रकार की और कथाएँ हैं, उनकी चर्चा बाहुल्यमात्राहोगा।
चाहे हम यह मानें कि मधय एशिया से आर्य लोग भारतवर्ष में आये, चाहे यह कि वे हिमालय के उत्तार-पश्चिम भाग में उत्पन्न हुए और वहीं से भारतवर्ष में फैले, दोनों बातें ऐसी हैं, जो बतलाती हैं, कि ज्यों-ज्यों वे भारतवर्ष में फैलने लगे होंगे,त्यों-त्यों उनकी बोलचाल की भाषा में स्थान और जलवायु के विभेद से अन्तर पड़ने लगा होगा। ऋग्वेद में इस बात का भी वर्णन है कि इन आर्यों का संघर्ष भी उन लोगों से बराबर चलता रहा, जो उस समय भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों में वास करते थे। इन लोगों की भी कोई भाषा अवश्य होगी, इसीलिए दोनों की भाषाओं का परस्पर सम्मिश्रण भी अनिवार्य था। धीरे-धीरे काल पाकर वैदिक भाषा के अनेक शब्द विकृत हो गये, क्योंकि उनका शुध्द उच्चारण सर्वसाधारण द्वारा नहीं हो सकता था। एक शब्द को लोग पहले भी विभिन्न प्रकार से बोलते थे, अब इसकी और वृध्दि हुई। आवश्यकतानुसार अनार्य भाषा के कुछ शब्द भी उसमें मिल गये, इसलिए काल पाकर बोलचाल की एक नई भाषा की सृष्टि हुई। इसी को पहली प्राकृत अथवा आर्य प्राकृत कहा गया है। इसी प्राकृत का अन्यतम रूप पाली अथवा मागधी है। कहा जाता है कि इस भाषा में वैदिक संस्कृत के शब्दों को बेतरह विकृत होते देखकर आर्य विद्वानों को विशेष चिन्ता हुई, अतएव उन्होंने उसकी रक्षा और उसके संस्करण का प्रयत्न किया और इस प्रकार लौकिक संस्कृत की नींव पड़ी। अनेक विद्वानों ने इस लौकिक संस्कृत से ही सब प्राकृतों की उत्पत्तिा मानी है। यह बड़ा वादग्रस्त विषय है, अतएव मैं इस पर विशेष प्रकाश डालना चाहता हूँ। पालीभाषा अथवा मागधी के विषय में भी तरह-तरह की बातें कही गई हैं, वे भी विचारणीय हैं, अतएव मैं अब इन्हीं विषयों की ओर प्रवृत्ता होता हूँ, जहाँ तक विचार किया गया, निम्नलिखित तीन सिध्दान्त इस विवाद के आधार हैं-
1. यह कि समस्त प्राकृतों की जननी संस्कृत भाषा है-
2. यह कि प्राकृत स्वयं स्वतन्त्रा और मूल भाषा है, व न तो वैदिक भाषा से उत्पन्न हुई, न संस्कृत से-
3. यह कि प्राचीन वैदिक भाषा ही वह उद्गम स्थान है, जहाँ से समस्त प्राकृत भाषाओं के त प्रवाहित हुए हैं, संस्कृत भी उसी का परिमार्जित रूप है।
सबसे पहले प्रथम सिध्दान्त को लीजिए उसके प्रतिपादक संस्कृत और प्राकृत भाषा के कुछ वावदूक विवुधा और हमारी हिन्दी भाषा के धुरन्धर विद्वान् हैं, वे कहतेहैं-
“ प्रकृति: संस्कृतम् तत्रा भवं तत आगतं वा प्राकृतम् “
वैयाकरण हेमचन्द्र
“ प्रकृति: संस्कृतं तत्रा भवत्वात् प्राकृतं स्मृतम् “
प्राकृतचन्द्रिकाकार
“ प्राकृतस्य तु सर्वमेव संस्कृतं योनि: “
प्राकृत संजीवनीकार
“यह सर्वसम्मत सिध्दान्त है कि प्रकृति संस्कृत होने पर भी कालान्तर में प्राकृत एक स्वतन्त्र भाषा मानी गई।”
स्व. पण्डित गोविन्दनारायण मिश्र।
“संस्कृत प्रकृति से निकली भाषा ही को प्राकृत कहते हैं”।
स्व. पण्डित बदरी नारायण चौधरी।
अब दूसरे सिध्दान्त वालों की बात सुनिए। इनमें अधिाकांश बौध्द और जैन विद्वान हैं। अपने 'पयोग सिध्दि' ग्रन्थ में कात्यायन लिखते हैं-
“ सा मागधी मूल भासा नरायायादि कप्पिका
ब्राह्मणो च स्सुतालापा सम्बुध्दा चापिभासरे। “
आदि कल्पोत्पन्न मनुष्यगण, ब्राह्मणगण, सम्बुध्दगण और जिन्होंने कोई वाक्यालाप श्रवण नहीं किया है ऐसे लोग जिसके द्वारा बातचीत करते हैं, वही मागधी मूल भाषाहै।
'पतिसम्विधा अत्वूय', नामक ग्रन्थ में लिखा है-
“मागधी भाषा देवलोक, नरलोक, प्रेतलोक और पशुजाति में सर्वत्रा प्रचलित है। किरात, अन्धाक, योणक, दामिल, प्रभृति भाषाएँ परिवर्तनशील हैं, किन्तु मागधी आर्य और ब्राह्मणगण की भाषा है। इसलिए अपरिवर्तनीय और चिरकाल से समानरूपेण व्यवहृत है।”
महारूपसिध्दिकार लिखते हैं-'मागधिाकाय स्वभाव निरुत्तिाया' मागधी स्वाभाविक (अर्थात् मूलभाषा) है।
अपने पाली भाषा के व्याकरण की अंग्रेजी भूमिका में श्रीयुत सतीश चन्द्र विद्याभूषण लिखते हैं-
“धीरे-धीरे मागधी में जो इस देश में बोली जाती थी, बहुत से परिवर्तन हुए, और आजकल की भाषाएँ, जैसे बंगाली,मरहठी, हिन्दी और उड़िया इत्यादि उसी से उत्पन्न हुई हैं।”1
जैनेरा अर्धा मागधी भाषा केई आदि भाषा वलियामने करेन
जैन लोग अर्ध्द मागधी भाषा को ही आदि भाषा मानते हैं।
बंगला विश्वकोश, पृष्ठ 438
अब तीसरे सिध्दान्त वालों का विचार सुनिए। यह दल समधिाक पुष्ट है, इसमें पाश्चात्य विद्वान् तो हैं ही, भारतीय विद्वानों की संख्या भी न्यून नहीं है। क्रमश: अनेक विद्वानों की सम्मति मैं आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूँ। जर्मन विद्वान् वेबर कहते हैं-”वैदिक भाषा से ही एक ओर सुगठित और सुप्रणालीबध्द होकर संस्कृत भाषा का जन्म और दूसरी ओर मानव प्रकृति सिध्द और अनियत वेग से वेगवान प्राकृत भाषा का प्रचलन हुआ। प्राचीन वैदिक भाषा ही क्रमश: बिगड़कर सर्वसाधारण के मुख से प्राकृत भाषा हुई”-
बंगला विश्वकोश, पृष्ठ 433
1. In course of time this Magadhi-the spoken language of the country underwent immense changes, and gave rise to the modern vernaculars such as Bengali, Marahati, Hindi, Uriya, etc.
श्रीमान् विधुशेखर शास्त्राी अपने पालि प्रकाश नामक बंगला ग्रन्थ में क्या लिखते हैं, उसे भी देखिए-
“आर्यगण की वेदभाषा और अनार्यगण की साधारण भाषा में एक प्रकार का सम्मिश्रण होने से बहुत से अनार्य शब्द वर्तमान कथ्य वेद भाषा के साथ मिश्रित हो गये, इस सम्मिश्रणजात भाषा का नाम ही प्राकृत है”।
पालि-प्रकाश प्रवेशक, पृष्ठ 36
हिन्दी भाषा के प्रसिध्द विद्वान् श्रीमान् पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी की यह अनुमति है-
“हमारे आदिम आर्यों की भाषा पुरानी संस्कृत थी, उसके कुछ नमूने ऋग्वेद में वर्तमान हैं, उसका विकास होते-होते कई प्रकार की प्राकृतें पैदा हो गईं, हमारी विशुध्द संस्कृत किसी पुरानी प्राकृत से ही परिमार्जित हुई है।”
अब मैं देखूँगा इन तीनों सिध्दान्तों में से कौन-सा सिध्दान्त विशेष उपपत्तिा मूलक है। शब्द शास्त्रा की गुत्थियों को सुलझाना सुलभ नहीं, लोग जितना ही इसको सुलझाते हैं, उलझन उतनी ही बढ़ती है। बहुत कुछ छानबीन हुई, किन्तु भाषा-विज्ञान का अगाधा रत्नाकर आज भी बिना छाने हुए पड़ा है। उसे सौ-सौ तरह से छाना गया, किन्तु रत्न का हाथ आना सबके भाग्य में कहाँ! मैं उस उद्योग में नहीं हूँ, न मुझमें इतनी योग्यता है, न मैं इस घनीभूत अन्धाकार में प्रवेश करने के लिए सुन्दर आलोक प्रस्तुत कर सकता हूँ, केवल मैं विचारों का दिग्दर्शन मात्रा करूँगा। प्रथम सिध्दान्त के विषय में मैं कुछ विशेष नहीं लिखना चाहता। वेदभाषा को प्राचीन संस्कृत कहा जाता है, कोई-कोई वेदभाषा को वैदिक और पाणिनि काल की और उसके बाद के ग्रन्थों की भाषा को लौकिक संस्कृत कहते हैं। प्रथम सिध्दान्त वालों ने संस्कृत से ही प्राकृत की उत्पत्तिा बतलायी है। यदि संस्कृत से वैदिक संस्कृत अभिप्रेत है, तो प्रथम सिध्दान्त तीसरे सिध्दान्त के अन्तर्गत हो जाता है, और विरोधा का निराकरण होता है। परन्तु वास्तव बात यह है कि प्रथम सिध्दान्त वालों का अभिप्राय वैदिक संस्कृत से नहीं वरन् लौकिक संस्कृत से है क्योंकि षड्भाषा चन्द्रिकाकार यह लिखते हैं-
भाषा द्विधा संस्कृता च प्राकृती चेति भेदत:।
कौमार पाणिनीयादि संस्कृता संस्कृता मता।
प्रकते: संस्कृतायास्तु विकृति: प्राकृता मता।
अतएव दोनों सिध्दान्तों का परस्पर विरोधाी होना स्पष्ट है। आइए, प्रथम सिध्दान्त की सारवत्ता का विचार करें। शिक्षा नामक वेदांग के पाँचवें अधयाय की यह अर्ध्दश्लोक कि “प्राकृते संस्कृते वापि स्वयं प्रोक्ता स्वयंभुवा” इस विषय को बहुत कुछ स्पष्ट करता है। इसका अर्थ है स्वयं आदि पुरुष प्राकृत अथवा संस्कृत बोलते थे। इस श्लोक में प्राकृत को अग्र स्थान दिया गया है, जो पश्चाद्वर्ती संस्कृत को उसका पश्चाद्वर्ती बनाता है। इसलिए लौकिक संस्कृत से प्राकृत की उत्पत्तिा नहीं मानी जा सकती। दूसरी बात यह है कि प्राकृत भाषा में अनेक ऐसे शब्द मिलते हैं कि जिनका लौकिक संस्कृत में पता तक नहीं चलता। परन्तु वे शब्द वैदिक संस्कृत अथवा वैदिक भाषा में पाये जाते हैं। इससे यह बात स्वीकार करनी पड़ती है कि प्राकृत की उत्पत्तिा यदि हो सकती है, तो वैदिक भाषा से हो सकती है, लौकिक संस्कृत से नहीं। शब्द व्यवहार की दृष्टि से प्राकृत भाषा, जितनी वेद भाषा की निकटवर्ती है, संस्कृत की नहीं। बोलचाल की भाषा होने के कारण वैदिक भाषा में वे शब्द मिलते हैं, जो प्राकृत में उसी रूप में आये, परन्तु संस्कार हो जाने के कारण लौकिक संस्कृत में उनका अभाव हो गया। यदि संस्कृत से प्राकृत की उत्पत्तिा हुई होती, तो इस प्रकार के शब्द उसमें अवश्य मिलते, जब नहीं मिलते तब संस्कृत से उसकी उत्पत्तिा मानना युक्तिसंगत नहीं। इस प्रकार के कुछ शब्दों का उल्लेख नीचे किया जाता है।
प्राकृत में पद का आदि वर्णगत 'र' और 'य' प्राय: लोप हो जाता है। जैसे संस्कृत ग्राम प्राकृत में गाम होगा और व्यवस्थित होगा ववत्थित! वैदिक भाषा में भी इस प्रकार का प्रयोग पाया जाता है, जैसे-अप्रगल्भ के स्थान पर अपगल्भ (तै. स. 4, 5, 6, 1) त्रि + ऋच् से त्रयच् पद न होकर त्रिच और तृच होता है (शत. व्रा. 1, 3, 3, 33) कात्यायन श्रौत सूत्रा में भी इस प्रकार का प्रयोग देखा जाता है। यास्क कहते हैं-”अथापि द्विवर्ण लोपस्तृच:” (नि. 2, 1, 2) अर्थात् यहाँ त्रिशब्द के रकार और इकार दोनों लोप हो गये।
प्राकृत में संयुक्त वर्ण का पूर्ववर्ती दीर्घ स्वर प्राय: Ðस्व हो जाता है। जैसे-मात्रा, मत्ता इत्यादि। वैदिक भाषा में भी इस प्रकार का प्रयोग देखा जाता है। जैसे रोदसीप्रा रोदसिप्रा (ऋ. सं. 10, 88, 10) अमात्रा-अमत्रा (ऋ. स. 3। 36। 4)-
प्राकृत में अनेक स्थानों पर संयुक्त वर्ण के स्थान पर एक व्यंजन का लोप करके पूर्ववर्ती Ðस्व स्वर को दीर्घ कर दिया जाता है जैसे कर्तव्य-कातव्य, निश्वास-नीसास, दुहरि-दूहार। वैदिक भाषा में भी ऐसा होता है, जैसे-दुर्दभ-दूडभ, (ऋ. सं. 4, 9,8)दुर्नाश-दूणाश (श्रु. प्रा. 3, 43)
प्राकृत में बहुत स्थान पर ऋकार के स्थान पर उकार होता है, जैसे ऋतु-उतु अथवा उदु इत्यादि। वैदिक साहित्य में भी इस प्रकार का प्रयोग अलभ्य नहीं है-यथा वृन्द-वुन्द (द्रष्टव्यानि. 6-6-4-6)
प्राकृत में बहुत स्थान पर दकार डकार हो जाता है। जैसे दहति-डहति, दण्ड-डण्ड। वैदिक साहित्य में भी ऐसा होता है-जैसे दुर्दभ-दूडभ (बा.स. 3, 36) पुरोदाश-पुरोडाश (श्रु.प्रा. 3, 44 शत. प्रा., 5, 1, 5)
प्राकृत में अव के स्थान पर उकार और अय के स्थान पर एकार हो जाता है। जैसे अवहसति उहसित, नयति-नेति। वैदिक साहित्य में भी इस प्रकार का बहुत अधिाक प्रयोग मिलता है। यथा-श्रवण-श्रोण, (तै. ब्रा. 1, 5, 1, 4-5, 2, 9) अन्तरयति-अन्तरेति (शत. ब्रा. 1, 2, 2, 18)
प्राकृत में 'द्य' के स्थान पर 'ज' होता है और प्राकृत नियमानुसार स्थान-विशेष में यह जकार द्वित्व को प्राप्त होता है। यथा-द्युति-जुति, विद्या-विज्जा। वैदिक भाषा में इस प्रकार का प्रयोग बहुत अधिाक पाया जाता है, अन्तर केवल इतना है कि यहाँ'य' कार का लोप नहीं होता है। जैसे-द्योतिस-ज्योतिस, द्योतते-ज्योतते, द्योतय-ज्योतय (व्यथ. स. 4, 37, 10) अवद्योतयति-अवज्योतयति (शत. ब्रा. 1, 2, 3, 3, 36) अवद्योत्तय-अवज्योत्य (का. श्रो. 4, 14, 5)। 1
दूसरा सिध्दान्त क्या है, मैं उसका परिचय दे चुका हूँ। वह मागधी को आदि कल्पोत्पन्न मूल भाषा, आदि भाषा और स्वाभाविक भाषा मानता है। यदि इस भाषा का अर्थ वैदिक भाषा के अतिरिक्त सर्वसाधारण में प्रचलित भाषा है, तो वह सिध्दान्त बहुत कुछ माननीय है। क्योंकि महर्षि पाणिनि के प्रसिध्द सूत्रो में वेद अथवा उसमें प्रयुक्त भाषा, छन्द, मंत्रा,निगम आदि नामों से अभिहित है, यथा-विभाषाछन्दसि (1, 2, 36 अयस्मयादिनिछन्दसि) (1, 4, 20) नित्यं मन्त्रो (6, 1, 10) जनितामन्त्रो (9, 4, 53) वावपूर्वस्या निगमे (6, 4, 9) ससूर्वतिनिगमे (6, 4, 74)!2 परन्तु भाषाओं के लिए लोक,लौकिक अथवा भाषा शब्द का ही उपयोग उन्होंने किया है यथा-विभाषा भाषायाम् (9, 1, 81) स्थेच भाषायाम् (6, 3, 20)प्रथमायाश्चद्विवचने भाषायाम् (7, 2, 88) पूर्वं तु भाषायाम् (8, 2, 98) परन्तु वास्तव बात यह नहीं है, वरन वास्तव बात यह है कि मागधी को मूलभाषा अथवा आदि भाषा कहकर वेद भाषा पर प्रधानता दी गई है, क्योंकि वह अपरिवर्तनीय मानी गई है और कहा गया है कि नरलोक के अतिरिक्त उसकी व्यापकता देवलोक तक है, प्रेतलोक और पशु जाति में भी वह सर्वत्रा प्रचलित है। धार्मिक संस्कार सभी धार्म वालों के कुछ न कुछ इसी प्रकार के होते हैं, ऐसे स्थलों पर वितण्डावाद व्यर्थ है,केवल देखना यह है कि भाषा विज्ञान की दृष्टि से यह विचार कहाँ तक युक्तिसंगत है, और पुरातत्तववेत्ता क्या कहते हैं। वैदिक भाषा की प्राचीनता, व्यापकता और उसके मूल भाषा अथवा आदि भाषा होने के सम्बन्धा में कुछ विद्वानों की सम्मति मैं नीचे उध्दत करता हूँ, उनसे इस विषय पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ेगा। निम्नलिखित अवतरणों में संस्कृत भाषा से वैदिक संस्कृत अभिप्रेत है, न कि लौकिक संस्कृत।
“सर्वज्ञात भाषाओं में से संस्कृत अतीव नियमित है, और विशेषतया इस कारण अद्भुत है कि उसमें योरप की अद्यकालीन भिन्न-भिन्न भाषाओं और प्राचीन भाषाओं के धातु हैं” मिस्टर कूवियर। 3
1. देखो, पालि प्रकाश, पृष्ठ 40, 41, 42, 43 प्रवेशिका।
2. संस्कृतं प्राकृतं चैव अपभ्रंशोऽथ पिशाचकी।
मागधी शौरसेनी च षड् भाषाश्च प्रकीर्तिताड्ड प्राकृतलक्षणाकार टीका।
3. "It is the most regular language known and is especially remarkable, as containing the roots of various languages of Europe, and the Greek, Latin, German, of Scalvoric-Baron Cwiver-Lectures on the Natural Sciences."
“यह देखकर कि भाषाओं की एक बड़ी संख्या का प्रारम्भ संस्कृत से है, या यह कि संस्कृत से उसकी समधिाक समानता है, हमको बड़ा आश्चर्य होता है और यह संस्कृत के बहुत प्राचीन होने का पूरा प्रमाण है। रेडियर नामक एक जर्मन लेखक का यह कथन है कि संस्कृत सौ से ऊपर भाषाओं और बोलियों की जननी है। इस संख्या में उसने बारह भारतवर्षीय, सात मिडियन फारसी, दो अरनाटिक अलबानियन, सात ग्रीक, अठारह लेटिन, चौदह इसल्केवानियन और छ: गेलिक केल्टिक को रखा है।”
लेखकों की एक बड़ी संख्या ने संस्कृत को ग्रीक और लेटिन एवं जर्मन भाषा की अनेक शाखाओं की जननी माना है। या इनमें से कुछ को संस्कृत से उत्पन्न हुई, किसी दूसरी भाषा द्वारा निकला पाया है, जो कि अब नाश हो चुकी है। सर विलियम जोन्स और दूसरे लोगों ने संस्कृत का लगाव पारसी और जिन्द भाषा से पाया है।
हालहेड ने संस्कृत और अरबी शब्दों में समानता पाई है, और यह समानता केवल मुख्य-मुख्य बातों और विषयों में ही नहीं, वरन् भाषा की तह में भी उन्हें मिली है। इसके अतिरिक्त इण्डोचाइनीज और उस भाग की दूसरी भाषाओं का भी उसके साथ घनिष्ठ सम्बन्धा है। -मिस्टर एडलिंग
“पुरातन ब्राह्मणों ने जो ग्रन्थ हमें दिये हैं, उनसे बढ़कर निर्विवाद प्राचीनता के ग्रन्थ पृथ्वी पर कहीं नहीं मिलते।” - मिस्टर हालहेड1
“जिन्द के दश शब्दों में 6 या 7 शब्द शुध्द संस्कृत हैं।” -मिस्टर हैमर
“जिन्द और वैदिक संस्कृत का इतना अन्तर नहीं जितना वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत का है।” -मैकडानैल
ईश्वरीयज्ञान, पृ.-63, 64, 66, 67
1. The great number of languages which are said to owe their origin, or bear a close affinity to the Sanskrit is truly astonishing, and is another proof of its high antiquity. A german writer (Rudiger) has asserted it to be the parent of upwards of a hundred languages and dialects, among which he enumerates twelve Indian, seven Median-Persic, two Arnantic-Albanian, seven Greek, eighteen Latin, fourteen Sclavonian, and six Celtic-Gallic.
A host of writers have made it the immediate parent of the Greek, and Latin, and German families of languages, or regarded some of these as descended from it through a language now extinct. With the Persian and Zend it has been almost identified by Sir William Jones and others. Halhed notices the similitude of Sanskrit and Arabic words, and this not merely in technical and metaphorical terms, but in the main ground work of language. In a contrary direction the Indo-Chinese, and other dialects in that quarter, all seems to be closely allied to it."-Adeling Sans. Literature. H. 30-40.
"The world does not now contain annals of more indisputable antiquity than those delivered down by the ancient Brahmans.-Halhed, Code of Hindu Laws."
संसार की आर्यजातीय भाषाओं के साथ वैदिक भाषा का सम्बन्धा प्रकट करने के लिए, मैं यहाँ कुछ शब्दों को भी लिखता हँ।
संस्कृत मीडी यूनानी लैटिन अंग्रेजी फारसी
पितृ पतर पाटेर पेटर फादर पिदर
मातृ मतर माटेर मेटर मदर मादर
भ्रातृ व्रतर फाटेर फेटर ब्रदर बिरादर
नाम नाम ओनोमा नामेन नेम नाम
अस्मि अह्मि ऐमी एम ऐम अस
अवतरणों को पढ़ने और ऊपर के शब्दों का साम्य देखकर यह बात माननी पड़ेगी कि वैदिक भाषा अथवा आर्य जाति की वह भाषा जिसका वास्तव और व्यापक रूप हमको वेदों में उपलब्धा होता है, आदि भाषा अथवा मूल भाषा है। आजकल के परिवर्तन और नूतन विचारों के अनुसार यदि संसार भर अथवा योरोपियन भाषाओं की जननी उसे न मानें तो भी आर्य परिवार की जितनी भाषाएँ हैं, उनकी आधारभूता और जन्मदात्री तो उसे हमें मानना ही पड़ेगा और ऐसी अवस्था में मागधी भाषा को मूल भाषा अथवा आदि भाषा कहना कहाँ तक युक्तिसंगत होगा, आप लोग स्वयं इसको सोच सकते हैं।
पालि-प्रकाशकार एक स्थान पर लिखते हैं “पालि भाषा का दूसरा नाम मागधी है और यह उसका भौगोलिक नाम है, (पृष्ठ 13) दूसरे स्थान पर वे कहते हैं, “मूल प्राकृत जब इस प्रकार उत्पन्न हुई, तो उसके अन्यतम भेद पाली की उत्पत्तिा का कारण भी यही है, यह लिखना बाहुल्य है (पृष्ठ 48)।” इन अवतरणों से क्या पाया जाता है, यही न कि पाली अथवा मागधी से मूल प्राकृत की प्रधानता है, ऐसी अवस्था में वह आदि और मूल भाषा कैसे हुई! तात्कालिक कथ्य वेद भाषा के साथ अनार्य भाषा का सम्मिश्रण होने से जो भाषा उत्पन्न हुई, उसे वे मूल प्राकृत मानते हैं (देखो पृष्ठ 36) अतएव मूल प्राकृत भाषा कथ्य वेद भाषा की पुत्री हुई अत: वेद भाषा उसकी भी पूर्ववर्ती हुई, फिर पाली अथवा मागधी मूल भाषा किम्बा आदि भाषा कैसे कही जा सकती है। विश्वकोशकार ने वैदिक संस्कृत से आर्ष प्राकृत, पाली और उसके बाद की प्राकृत का सम्बन्धा प्रकट करने के लिए शब्दों की एक लम्बी तालिका पृष्ठ 434 में दी है, उनके देखने से यह विषय और स्पष्ट हो जायेगा। अतएव उसके कुछ शब्द यहाँ उठाये जाते हैं। विश्वकोशकार ने पालि-प्रकाशकार के मूल प्राकृत के स्थान पर आर्य प्राकृत लिखा है, यह नामान्तर मात्रा है-
संस्कृत आर्ष प्राकृत पाली प्राकृत
अग्नि: अग्गि अग्नि अग्गी
बुध्दि: बुध्दि बुध्दि बुध्दी
मया मये, मे मया मये, मइये, ममए
त्वम् तां, तुमन् तां, तुवम् तं, तुमं, तुवम्
षोडश सोलस सोलस सोलह
विंशति वीसा वीसति, वीसम् वीसा
दधिा दहि, दहिम् दधिा दहि, दहिम्
प्राकृत लक्षणकार चण्ड ने आर्ष प्राकृत को, प्राकृत प्रकाशकार वररुचि ने महाराष्ट्री को, पयोगसिध्दिकार कात्यायन ने मागधी को और जैन विद्वानों ने अर्धा मागधी को आदि प्राकृत अथवा मूल प्राकृत लिखा है। पालिप्रकाशकार एक स्थान पर (पृष्ठ 48) पाली को सब प्राकृतों से प्राचीन बतलाते हैं, कुछ लोग पाली और मागधी को दो भाषा समझते हैं, अपने कथन के प्रमाण में दोनों भाषाओं के कुछ शब्दों की प्रयोग भिन्नता दिखलाते हैं, ऐसे कुछ शब्द नीचे लिखे जाते हैं-
संस्कृत पाली मागधी
शश ससा मो
कुक्कुट कुक्कुटो रो
अश्व अस्स सांगा
श्वान सुनका साच
व्याघ्र व्यघ्घो वी
जो अभेदवादी हैं, वे इन शब्दों को मागधी भाषा के देशज शब्द मानते हैं। जो हो किन्तु अधिाकांश विद्वान् पाली और मागधी को एक ही मानते हैं। कारण इसका यह है कि बुध्ददेव ने अपने उपदेश अपनी ही भाषा में दिये हैं। उनकी भाषा मागधी ही थी, क्योंकि मगधा प्रान्त ही उनकी लीला भूमि थी। बुध्ददेव के समस्त उपदेश पहले पाली भाषा में ही लिखे मिलते हैं, वरन् कहा जाय तो यह कहा जा सकता है कि बौध्द साहित्य का प्रधान और सर्वमान्य बृहदंश पाली ही में मिलता है, ऐसी दशा में दोनों भाषाओं का अभेद स्वीकार करना ही पड़ता है। किन्तु पाली जब मागधी नाम ग्रहण करती है, तब अपनी व्यापकता खोकर सीमित हो जाती है। पाली ही ऐसी प्राकृत है, जो वैदिक भाषा की अधिाकतर निकटवर्ती है, इसीलिए उसको आर्ष प्राकृत का अन्यतम रूप कहा जाता है। अन्य प्राकृत भाषाएँ उसके बाद की हैं-कुछ प्रमाण पालिप्रकाश ग्रन्थ से नीचे दिये जाते हैं-
अकारान्त शब्द के तृतीया बहुवचन में पालि-भाषा में केवल विसर्ग मात्रा का त्याग करके वैदिक प्रयोग ही रक्षित रहता है। यथा-देवेभि: प्रयोग के स्थान में पाली में देवेभि और विकल्प में भ के स्थान पर ह का प्रयोग करके देवेहि पद बनता है,किन्तु प्राकृत में भ का प्रयोग बिलकुल लुप्त हो जाता है, केवल देवेहि रह जाता है, आगे चलकर वह देवेहिं और देवेहिँ भी हो जाता है।
क्लीव लिंग चित्ता शब्द का प्रथमा बहुवचन पाली में चित्ता और चित्तानि दोनों होता है और यह दोनों रूप ही वेदमूलक हैं। जैसे विश्वा और विश्वानि (ऋ. 10, 169, 3) परन्तु बाद की प्राकृतिक भाषाओं में ऐसा व्यवहार नहीं होता, उनमें चित्तानि,चित्ताईं, चित्ताईँ आदि पाया जाता है।
शानच् प्रत्यय के स्थान पर पाली में प्राचीन वैदिक भाषा के अनुसार आन और मान दोनों प्रत्यय ही प्रयुक्त होते हैं-जैसे भु×ज से भु×जान और भु×जमान दोनों रूप बनता है, किन्तु प्राकृत में केवल मान अथवा माण का प्रयोग होता है। इसका एकमात्रा कारण यही है कि प्राकृत, मूल भाषा से पाली की अपेक्षा बहुत दूर हट गई, और इस कारण समस्त रूपों को रक्षित न रख सकी।
पाली में पारगू (पारग) आदि शब्द भी पाये जाते हैं, ए समस्त शब्द वैदिक भाषा में से ही उसमें आये हैं, यथा अग्रग अर्थ में अग्रगू आदि (पाणिनि 6, 4, 40)।
वैदिक भाषा में तुम अर्थ में तवै, तवेङ् प्रत्यय का प्रयोग अधिाकता से देखा जाता है। (पा. 3, 4, 9) जैसे पातु के अर्थ में'पातवै' इत्यादि। पाली में भी इस प्रकार का प्रयोग बिल्कुल लुप्त नहीं हो पाया है।
इन बातों पर दृष्टि देने से पाली की प्राचीनता निर्विवाद है, अन्य प्राकृत भाषाएँ उसके बाद की हैं। ये विशेषताएँ मागधी में नहीं हैं, और उसका नाम प्रान्त विशेष से भी सम्बन्धा रखता है। इसलिए कुछ लोग उसको पाली नहीं मानते, किन्तु अधिाकतर विद्वानों की सम्मति वही है, जिसका उल्लेख मैंने पहले किया है।
कुछ विद्वान् गाथा से पाली की उत्पत्तिा मानते हैं। पालिप्रकाशकार लिखते हैं-(पृ. 48, 50)
“गाथा की भाषा के सम्बन्धा में पूर्वकाल के पण्डितगण ने बहुत आलोचना की है। इनमें भारत के सुप्रसिध्द प्राच्य तत्तवविद्यावित् डॉक्टर राजेन्द्रलाल मित्रा ने उसके विषय में जो आलोचना की है, उसको अधयापक मैक्समूलर और डॉक्टर वेबर जैसे प्रमुख विद्वानों ने भी स्वीकार किया है।”
“मिस्टर वर्न उफष् कहते हैं कि गाथा विशुध्द संस्कृत और पाली की मधयवर्ती भाषा है डॉक्टर मित्रा ने इसको माना है,और वे सोचते हैं कि यह गाथा ही शाक्यसिंह के जन्म ग्रहण के पूर्व देशभाषा थी। संस्कृत से गाथा और गाथा से पाली की उत्पत्तिा हुई है।”1
गाथा के विषय में ऐसा विचार होने का कारण यह है कि उसमें संस्कृत वाक्यों का बड़ा अशुध्द प्रयोग हुआ है। उसकी भाषा न तो शुध्द संस्कृत है और न प्राकृत, उसमें दोनों का विचित्रा सम्मिश्रण देखा जाता है, इसीलिए उसको संस्कृत और प्राकृत का मधयवर्ती कहा गया है, और यही कारण है कि सबसे प्राचीन प्राकृत पाली की उत्पत्तिा उससे मानी गई है। गाथा का श्लोक देखिए।
अधा्रुवं त्रिभवं शरदभ्रनिभम्।
नटरंग समाजगि जन्मिच्युति।
गिरिनद्य समं लघु शोघ्र जवम्।
व्रजतायुजगे पथ विद्युनभे।
संस्कृत के नियम के अनुसार दूसरे चरण के नटरंग सभा को नटरंग समम्-जगिजन्मिच्युति के स्थान पर जगति जन्मच्युति: होना चाहिए। तीसरे चरण में गिरिनद्य समम् को गिरिनदी समम् और चतुर्थ चरण को 'ब्रजत्यायुर्जगति'पथविद्युद्नभसि, लिखना ठीक होगा। परन्तु उस समय भाषा ऐसी विकृत हो रही थी कि इन अशुध्द प्रयोगों का धयान बिलकुल नहीं किया गया। यह सब होने पर भी पालिप्रकाशकार ने एक लम्बा लेख लिखकर और बहुत से अकाटय प्रमाणों को देकर यह सिध्द किया है कि गाथा की रचनाएँ अपभ्रंश काल के लगभग हुई हैं, जो सबसे अन्तिम प्राकृत हैं। ऐसी अवस्था में यह पालिभाषा की पूर्ववर्ती नहीं हो सकती, और न उससे उसकी उत्पत्तिा मानी जा सकती है। उनके प्रमाणों को मैं विस्तार भय से नहीं उठाता हूँ। किन्तु उनको पढ़ने के उपरान्त यह स्वीकार करना असंभव हो जाता है कि गाथा से पाली की उत्पत्तिा हुई। यदि डॉक्टर राजेन्द्र लाल मित्रा इत्यादि की सम्मति मान ली जाये तो पालि-भाषा उसके बाद की प्राकृत ठहरती है, और ऐसी अवस्था में उसका मूल भाषा होना और असंभव हो जाता है, मागधी की बात ही क्या। अब तक मैं जो कुछ लिख आया, उससे पाया जाता है कि पाली अथवा मागधी किसी प्रकार मूल भाषा नहीं हो सकती। उसका आधार वैदिक भाषा है, जो अनेक सूत्रों से प्रतिपादित किया जा चुका है।
इस प्रकार के मतभेद और खींचतान का आधार कुछ धार्मिक विश्वास और कुछ आपेक्षिक ज्ञान की न्यूनता है। बौध्द ग्रन्थों में लिखा है-
1. "The language of the Gatha is belived, by M. Burnouf, to be intermediate between the Pali and the pure Sanskrit....it would not be unreasonad'e to suppose that the Gatha, which preceded it, was the dialect of the millions at the time of Sakya's advant and for sometime before it." Indo-Aryan, Vol. VI, p. 295.
“यदि माता-पिता अपनी भाषा बच्चे को न सिखलावें तो वह स्वभावतया मागधी भाषा को ही बोलेगा। इसी प्रकार एक निर्जन वन में रखा हुआ आदमी यदि स्वभाव-वश बोलने का प्रयत्न करे तो उसके मुख से मागधी ही निकलेगी। इसी भाषा का प्राधान्य तीनों लोकों में है, अन्यान्य भाषाएँ परिवर्तनशील हैं, यही सदा एक रूप में रहती है। भगवान् बुध्द ने अपने त्रिपिटक की रचना भी इसी सनातन भाषा में की है।”1
इस प्रकार के विचारों के विषय में कुछ अधिाक कथन करना व्यर्थ है। केवल एक कथन की ओर आप लोगों की दृष्टि मैं और आकर्षित करूँगा, वह यह कि कुछ लोगों का यह विचार है कि मागधी को देशभाषा मूलक मानकर मूलभाषा कहा गया है। किन्तु यह सिध्दान्त मान्य नहीं, क्योंकि यदि ऐसा होता तो द्राविड़ी और तेलगू आदि देशभाषाओं के समान वह भी एक देशभाषा मानी जाती, परन्तु उसको किसी पुरातत्तववेत्ता ने आज तक ऐसा नहीं माना, वह आर्य भाषा संभवा ही मानी गई है,इसिलए यह तर्क सर्वथा उपेक्षणीय है। आर्यभाषा संभवा वह इसलिए मानी गई है, कि उसकी प्रकृति आर्यभाषा अथवा वेद भाषा मूलक है। प्राकृत भाषा के जितने व्याकरण हैं, उन्होंने संस्कृत के शब्दों और प्रयोगों द्वारा ही प्राकृत के शब्द और रूपों को बनाया है। प्राकृत भाषा का व्याकरण सर्वथा संस्कृतानुसारी है। संस्कृत और प्राकृत के अधिाकांश शब्द एक ही झोले के चट्टे-बट्टे अथवा एक फूल के दो दल अथवा एक चने की दो दाल ज्ञात होते हैं, थोड़े से ऐसे शब्द नीचे लिखे जातेहैं-
संस्कृत मागधी संस्कृत मागधी
कृतं कतं ऐश्वर्यम् इस्सरियन
गृहं गहं मौक्तिकं मुत्तिाकम्
घृतं घतं पौर: पौरो
वृत्तान्त: वुत्तान्तो मन: मनो
चैत्रा: चित्तो भिक्षु: भिक्खु
क्षुद्रं खुद्दं अग्नि: अग्गी
केवल कुछ शब्दों के मिल जाने से ही किसी भाषा का आधार कोई भाषा नहीं मानी जा सकती, उन दोनों की प्रकृति और प्रयोगों को भी मिलना चाहिए। वैदिक संस्कृत और मागधी अथवा पाली की प्रकृति भी मिलती है, उनका व्याकरण सम्बन्धाी प्रयोग भी अधिाकांश मिलता है-नीचे के श्लोक इसके प्रमाण हैं। संस्कृत
1. दे- M. Miller : Lectures on the Sciences of Language, भाग 1, 0 145।
"Even Buddhaghosa (reminding one of Herodotu's story) says that a child brought up without hearing the human voice would instinctively speak Magadhi (Alw. I (vii)-Childers, Dictionary of the Pali Language, p.xiii.
दे. पालिप्रकाश, पृष्ठ 96।
श्लोक के नीचे जो दो श्लोक हैं, उनमें से पहला शुध्द मागधी और दूसरा अर्ध्द मागधी है। देखिए उनमें परस्पर कितना अधिाक साम्य है-
रभसवश नम्र सुरशिरो विगलित मन्दार
राजितांघ्रि युग:।
वीर जिन: प्रक्षालयतु मम सकल मवद्य जम्वालम्
लहश वश नमिल शुल शिल विअलिद मन्दाल
लायिदंहि युगे।
बील धिाणे पक्खालदु मम शयल मयय्य यम्वालम्।
लभश वश नमिल शुल शिल विअलिद
मन्दाल लाजिदाई युगे।
बील जिणे पक्खालदु मम शयल मवज्ज जम्बालम्।
ऐसी अवस्था में यदि प्राकृत भाषा अर्थात् पाली और मागधी आदि वैदिक भाषा मूलक नहीं हैं, तो क्या देश भाषा मूलक हैं? वास्तव में मागधी अथवा अर्ध्द मागधी किम्बा पाली की जननी वैदिक संस्कृत है और यही तीसरा सिध्दान्त है, जिसको अधिाकांश भाषा विज्ञानवेत्ता स्वीकार करते हैं। ऐसी अवस्था में दूसरे सिध्दान्त की अप्रौढ़ता अप्रकट नहीं। जितनी बातें पहले कही जा चुकी हैं वे भी कम उपपत्तिा मूलक नहीं हैं।
एक बात और है वह यह कि इण्डो-योरोपियन भाषा की छानबीन के समय भारतीय भाषाओं में से संस्कृत ही अन्य भाषाओं की तुलना मूलक आलोचना के लिए ली गई है, पाली, अथवा मागधी किम्बा अन्य कोई प्राकृत नहीं, इससे भी संस्कृत की मूल-भाषा-मूलकता सिध्द है। निम्नलिखित पंक्तियाँ इस बात को और पुष्टकरतीहैं-
“यथार्थ वैज्ञानिक प्रणाली से भाषा की चर्चा पहले पहल भारतवर्ष में ही हुई इसके सम्बन्धा में एक अंग्रेज विद्वान् के कथन1 का सारांश यह है कि भारतीयों ने ही सर्वप्रथम भाषा को ही भाषा का रूप दिया। भारतीय ऋषियों ने सैकड़ों वर्ष तक वैदिक तथा लौकिक संस्कृत भाषा को मथकर व्याकरण शास्त्रा का उत्कर्ष विधान किया। पाणिनि का व्याकरण इन गवेषणाओं का ही सार है।” भाषा विज्ञान (पृष्ठ32)।
योरोप के प्रसिध्द विद्वान् मैक्समूलर क्या कहते हैं। उसे भी सुनिए-
“मानव भाषा समुद्र में देशभाषाएँ द्वीप की भाँति इधार-उधार बिखरी पड़ी थीं वे सब मिलकर महाद्वीप का स्वरूप नहीं धारण कर पाती थीं। प्रत्येक विज्ञान के
1. "The native grammarians of India had at an early period analysed both the phonetic sounds and vocabulary of Sanskrit with astonishing precision and drawn up for more scientific system of grammar than the philologist of Alexandria or Rome had been able to attain."
इतिहास में यह आपत्तिापूर्ण समय सामने आता है। यदि अचानक वह आनन्द मूलक घटना न घटी होती, जिसने इन बिखरे अंशों को बिजली की तरह चमक कर एक नियंत्रित रूप से प्रकाश में ला दिया, तो यह अनिश्चित था कि भाषा के विद्यार्थियों का हार्बिज और एडेलंग की भाषा सम्बन्धिानी लम्बी सूचियों में अनुराग बना रहता या नहीं। यह ज्योति दान करने वाली बिजली आर्य जाति की प्राचीन और आदिम भाषा संस्कृत है।”