भाषा की परिभाषा / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'

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भाषा की परिभाषा

भाषा का विषय जितना सरस और मनोरम है, उतना ही गंभीर और कौतूहलजनक। भाषा मनुष्यकृत है अथवा ईश्वरदत्ता उसका आविर्भाव किसी काल विशेष में हुआ, अथवा वह अनादि है। वह क्रमश: विकसित होकर नाना रूपों में परिणत हुई, अथवा आदि काल से ही अपने मुख्य रूप में वर्तमान है। इन प्रश्नों का उत्तर अनेक प्रकार से दिया जाता है। कोई भाषा को ईश्वरदत्ता कहता है, कोई उसे मनुष्यकृत बतलाता है। कोई उसे क्रमश: विकास का परिणाम मानता है, और कोई उसके विषय में 'यथा पूर्वमकल्पयत्' का राग अलापता है। मैं इसकी मीमांसा करूँगा। मनुस्मृतिकार लिखते हैं-

सर्वेषां तु सनामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्।

वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थांश्च निर्ममे। 1 । 21 ।

तपो वाचं रतिं चैव कामं च क्रोधामेव च

सृष्टिं ससर्ज चैवेमां ष्टुमिच्छन्निमा प्रजा:। 1 । 25 ।

ब्रह्मा ने भिन्न-भिन्न कर्मों और व्यवस्थाओं के साथ सारे नामों का निर्माण सृष्टि के आदि में वेदशब्दों के आधार से किया। प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से परमात्मा ने तप, वाणी, रति, काम और क्रोधा को उत्पन्न किया।

पवित्रा वेदों में भी इस प्रकार के वाक्य पाये जाते हैं-यथा

“ यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य: “

'मैंने कल्याणकारीवाणी मनुष्यों को दी'

अधयापक मैक्समूलर इस विषय में क्या कहते हैं, उसको भी सुनिए-

“भिन्न-भिन्न भाषा-परिवारों में जो 400 या 500 धातु उनके मूलतत्तव रूप से शेष रह जाते हैं, वे न तो मनोराग-व्यंजक धवनियाँ हैं, और न केवल अनुकरणात्मक शब्द ही। हम उनको-वर्णात्मक शब्दों का साँचा कह सकते हैं। एक मानसविज्ञानी या तत्तवविज्ञानी उनकी किसी प्रकार की व्याख्या करे-भाषा के विद्यार्थी के लिए तो ये धातु अन्तिम तत्तव ही हैं। प्लेटो के साथ हम इतना और जोड़ देगे कि 'स्वभाव से' कहने से हमारा आशय है 'ईश्वर की शक्ति से।”1

प्रोफेसर पाट कहते हैं-

“भाषा के वास्तविक स्वरूप में कभी किसी ने परिवर्तन नहीं किया, केवल बाह्य स्वरूप में कुछ परिवर्तन होते रहे हैं, पर किसी भी पिछली जाति ने एक धातु भी नया नहीं बनाया। हम एक प्रकार से वही शब्द बोल रहे हैं, जो सर्गारम्भ में मनुष्य के मुँह से निकले थे।”2 जैक्सन-डेविस कहते हैं-भाषा भी जो एक आन्तरिक और सार्वजनिक साधन है, स्वाभाविक और आदिम है। “भाषा के मुख्य उद्देश्य में उन्नति होना कभी संभव नहीं क्योंकि उद्देश्य सर्वदेशी और पूर्ण होते हैं, उनमें किसी प्रकार भी परिवर्तन नहीं हो सकता। वे सदैव अखंड और एकरस रहते हैं”। 3

इस सिध्दान्त के विरुध्द जो कहा गया है, उसे भी सुनिए-

डार्विन और उसके सहयोगी, 'हक्सले' 'विजविड' और 'कोनिनफार' यह कहते हैं-”भाषा ईश्वर का दिया हुआ उपहार नहीं है,भाषा शनै:-शनै: धवन्यात्मक शब्दों और पशुओं की बोली से उन्नति करके इस दशा को पहुँची है।”

'लाक', 'एडम्स्मिथ' और 'डयूगल्ड स्टुअर्ट' आदि की यह सम्मति है-

“मनुष्य बहुत काल तक गूँगा रहा, संकेत और भ्रू-प्रक्षेप से काम चलाता रहा, जब काम न चला तो भाषा बना ली और परस्पर संवाद करके शब्दों के अर्थ नियत कर लिये।”4

तुलनात्मक भाषा-शास्त्रा के रचयिता अपने ग्रन्थ के पृष्ठ 199 और 200 में इस विषय में अपना यह विचार प्रकट करते हैं-

“पहिला सिध्दान्त यह है कि पदार्थों और क्रियाओं के नाम पहले जड़-चेतनात्मक बाह्य जगत की धवनियों के अनुकरण के आधार पर रखे गये। पशुओं के नाम उनकी विशेष आवाजों के ऊपर रखे गये होंगे। कोकिल या काक शब्द स्पष्ट ही इन पक्षियों की बोलियों के अनुकरण से बनाये गये हैं। इसी प्रकार प्राकृतिक या जड़ जगत् की भिन्न-भिन्न धवनियों के अनुसार जैसे वायु का सरसर बहना, पत्तिायों का मर्मर रव करना, पानी का झरझर गिरना या बहना, भारी ठोस पदार्थों का तड़कना या फटना

1. देखो, मैक्समूलर-के 'लेक्चर्स आन दि साइन्स आफ लांगवेज़', पृष्ठ 439।

2. देखो अक्षर विज्ञान, पृष्ठ 33-34

3. वही।

4. देखो, हारमोनिया, भाग-5, पृष्ठ 73

इत्यादि के अनुकरण से भी अनेक नाम रखे गये। इस प्रकार अनुकरण के आधार पर मूल शब्दों का पर्याप्त कोश बन गया होगा। इन्हीं बीज रूप मूल शब्दों से धीरे-धीरे भाषा का विकास हुआ है। इस सिध्दान्त को हम शब्दानुकरण-मूलकता-वाद नाम दे सकते हैं।

दूसरे सिध्दान्त इस प्रकार हैं। हर्ष, शोक, आश्चर्य आदि के भावों के आवेग में कुछ स्वाभाविक धवनियाँ हमारे मुँह से निकल पड़ती हैं, जैसे हाहा, हाय हाय! वाह वाह, इत्यादि। इस प्रकार की स्वाभाविक धवनियाँ मनुष्यों में ही नहीं और प्राणियों में भी विशेष-विशेष रूप की पाई जाती हैं। प्रारम्भ में ये धवनियाँ बहुत हमारे मनोरोगों की ही व्यंजक रही होंगी, विचार की नहीं। भाषा का मुख्य उद्देश्य हमारे विचारों को प्रकट करना होने से इन धवनियों ने भाषा के बनाने में जो भाग लिया, उसके लिए यह आवश्यक था कि ये धवनियाँ मनोरोगों के स्थान में विचारों की द्योतक समझी जाने लगी हों। इन्हीं धवनियों के दोहराने, कुछ देर तक बोलने और स्वर के उतार- चढ़ाव द्वारा इनके अर्थ या अभिधोय का क्षेत्रा विस्तीर्ण होता गया होगा। धीरे-धीरे वर्णात्मक स्वरूप को धारण करके यही धवनियाँ मानवी भाषा के रूप में प्राप्त हो गई होंगी। इस प्रकार हमारी भाषा की नींव आदि में इन्हीं स्वाभाविक धवनियों पर रखी गई होंगी। इस सिध्दान्त का नाम हम मनोरोग-व्यंजक शब्द-मूलकता-वाद रख सकते हैं।”

उभय पक्ष ने अपने-अपने सिध्दान्त के प्रतिपादन में ग्रन्थ के ग्रन्थ लिख डाले हैं और बड़ा गहन विवेचन इस विषय पर किया है। परन्तु आजकल अधिाकांश सम्मति यही स्वीकार करती है कि भाषा मनुष्यकृत और क्रमश: विकास का परिणाम है। श्रीयुत बाबू नलिनीमोहन सान्याल एम. ए. अपने भाषा-विज्ञान की प्रवेशिका में यह लिखते हैं-

“मैक्समूलर ने कहा है कि हम अभी तक यह नहीं जानते कि भाषा क्या है-यह ईश्वरदत्ता है, या मनुष्यनिर्मित या स्वभावज। परन्तु उन्होंने पीछे से इसको स्वभावज माना है और बाद के दूसरे विद्वानों ने भी इसको स्वभावज प्रमाणित किया है।”

भाषा चाहे स्वभावज हो अथवा मनुष्यकृत, ईश्वर को उसका आदि कारण मानना ही पड़ेगा, क्योंकि स्वभाव उसका विकास है और मनुष्य स्वयं उसकी कृति है। मनुष्य जिन साधानों के आधार से संसार के कार्यकलाप करने में समर्थ होता है, वे सब ईश्वरदत्ता हैं, चाहे उनका सम्बन्धा बाह्य जगत् से हो अथवा अन्तर्जगत् से। जहाँ पंचभूत और समस्त दृश्यमान जगत् में उसकी सत्ता का विकास दृष्टिगत होता है, वहाँ मन, बुध्दि, चित्ता, अहंकार, ज्ञान, विवेक, विचार आदि अन्त:प्रवृत्तिायों में भी उसकी शक्ति कार्य करती पाई जाती है। ईश्वर न तो कोई पदार्थविशेष है, न व्यक्तिविशेष, वरन् जिस सत्ता के आधार से समस्त संसार, किसी महान् यंत्रा के समान परिचालित होता रहता है, उसी का नाम है ईश्वर। संसार स्वयं विकसित अवस्था में है,किसी बीज ही से इसका विकास हुआ है। इसी प्रकार मनुष्य भी किसी विकास का ही परिणाम है किन्तु उसका विकास संसार-विकास के अन्तर्गत है। कहने वाले कह सकते हैं कि मनुष्य लाखों वर्ष के विकास का फल है, अतएव वह ईश्वरकृत नहीं। किन्तु यह कथन ऐसा ही होगा, जैसा बहुवर्ष-व्यापी विकास के परिणाम किसी पीपल के प्रकाण्ड वृक्ष को देखकर कोई यह कहे कि इसका सम्बन्धा किसी अनन्तकाल व्यापी बीज से नहीं हो सकता। भाषा चिरकालिक विकास का फल हो और उसके इस विकास का हेतु मानव-समाज ही हो किन्तु जिन योग्यताओं और शक्तियों के आधार से वह भाषा को विकसित करने में समर्थ हुआ,वे ईश्वरदत्ता हैं, अतएव भाषा भी ईश्वरकृत है, वैसे ही जैसे संसार के अन्य बहुविकसित पदार्थ। भगवान् मनु के उपर्युक्त श्लोकों का यही मर्म्म है। प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से जिस प्रकार परमात्मा ने तप, रति, काम और क्रोधा को उत्पन्न किया,उसी प्रकार वाणी को भी, यही उनका कथन है। जैसे कोई तप और काम को आदि से मनुष्य-कृत नहीं मानता, उसी प्रकार वाणी को भी मनुष्य-कृत नहीं कह सकता। मनुष्य की वाणी ही भाषा की जड़ है, वाणी ही वह चीज है, जिससे भाषा पल्लवित होकर प्रकाण्ड वृक्ष के रूप में परिणत हुई है, फिर वह ईश्वरकृत क्यों नहीं?

'यथेमां वाचं कल्याणी मा वदानि जनेभ्य:', इस श्रुति में भी 'वाचं' शब्द है, भाषा शब्द नहीं। प्रथम श्लोक के वेद शब्देभ्य,वाक्य में भी शब्द का ही प्रयोग है, उस शब्द का जो आकाश का गुण है और आकाश के समान ही व्यापक और अनन्त है। वाणी मनुष्य-समाज तक परिमित है किन्तु शब्द का सम्बन्धा प्राणिमात्रा से है, स्थावर और जड़ पदार्थों में भी उसकी सत्ता मिलती है। यही शब्द भाषा का जनक है, ऐसी अवस्था में यह कौन नहीं स्वीकार करेगा कि भाषा ईश्वरीय कला की ही कला है। कोलरिक कहता है-

“भाषा मनुष्य का एक आत्मिक साधान है, इसकी पुष्टि महाशय ट्रीनिच ने इस प्रकार की है-ईश्वर ने मनुष्य को वाणी उसी प्रकार दी है, जिस प्रकार बुध्दि दी है, क्योंकि मनुष्य का विचार ही शब्द है, जो बाहर प्रकाशित होता है।”1

मैंने मनु भगवान के विचारों को स्पष्ट करने और भाषा की सृष्टि पर प्रकाश डालने के लिए अब तक जो कुछ लिखा है;उससे यह न समझना चाहिए कि ईश्वर और मनुष्य की कृति में जो विभेद सीमा है, उसको मैं मानना नहीं चाहता। गजरे को हाथ में लेकर कौन यह न कहेगा कि यह माली का बनाया है, परंतु जिन फूलों से गजरा तैयार हुआ उनको उसने कहाँ पाया,जिस बुध्दि, विचार एवं हस्तकौशल से गजरा बना, उन्हें उसने किससे प्राप्त किया। यदि यह प्रश्न होने पर ईश्वर की ओर दृष्टि जाती है और उसके प्राप्त साधानों और कार्यों में ईश्वरीय विभूति दीख

1. देखो, स्टडी ऑफ वड्र्स, आर. सी. ट्रीनिच, डी. डी.

पड़ती है, तो गजरे को ईश्वर-कृत मानने में आपत्तिा नहीं हो सकती, मेरा कथन इतना ही है। अनेक आविष्कार मनुष्यों के किये हैं, बड़े-बड़े नगर मनुष्यों के बनाये और बसाये हैं। उसने बड़ी-बड़ी नहरें निकालीं; बड़े-बड़े व्योमयान बनाये, रेल-तार आदि का उद्भावन किया, ऊँची-ऊँची मीनारें खड़ी कीं; सह प्रकाण्ड प्रकाशस्तम्भ निर्माण किये, इसको कौन अस्वीकार करेगा। मनुष्य विद्याओं का आचार्य है, अनेक कलाओं का उद्भावक है, वरन् यह कहा जा सकता है कि ईश्वरीय सृष्टि के सामने अपनी प्रतिभा द्वारा उसने एक नयी सृष्टि ही खड़ी कर दी है, यह सत्य है, इसको सभी स्वीकार करेगा। परन्तु उसने ऐसी प्रतिभा कहाँ पाई,उपर्युक्त साधान उसको कहाँ मिले, जब यह सवाल छिड़ेगा, तो ईश्वरीय सत्ता की ओर ही उँगली उठेगी, चाहे उसे प्रकृति कहें या और कुछ। इसी प्रकार यह सत्य है कि संसार की समस्त भाषाएँ क्रमश: विकास का फल हैं, देश-काल और आवश्यकताएँ ही उनके सृजन का आधार हैं, मनुष्य का सहयोग ही उनका प्रधान सम्बल है किन्तु सबमें अन्तर्निहित किसी महान शक्ति का हाथ है, यह स्वीकार करना ही पड़ेगा। ऐसा कहकर न तो मैंने ईश्वर-दत्ता मनुष्य की बुध्दि और प्रतिभा आदि का तिरस्कार किया और न उनकी महिमा ही कम की। न वादग्रस्त विषय को अधिाक जटिल बना दिया और न सुलझे हुए विषय को और उलझन में डाला। वरन् वास्तविक बात बतला, जहाँ मानव की आन्तरिक प्रवृत्तिायों को ईश्वरीय शक्ति सम्पन्न कहा, और इस प्रकार उन्हें विशेष गौरव प्रदान किया। वहाँ दो परस्पर टकराते और उलझते हुए विषयों के बीच में ऐसी बातें रखीं, जिनसे वर्ध्दमान जटिलता बहुत कुछ कम हो सकती है और उभयपक्ष अधिाकतर सहमत हो सकते हैं। संसार में जितनी भाषाएँ यथासमय विकसित होकर इस समय जीवित और कर्मक्षेत्रा में, उतरकर रात-दिन कार्यरत हैं, उन्हीं में से एक हमारी हिन्दी-भाषा भी है। यह कैसे विकसित हुई, इसमें क्या-क्या परिवर्तन हुए, इसकी वर्तमान अवस्था क्या है? और उन्नति पथ पर वह किस प्रकार दिन-दिन अग्रसर हो रही है, मैं क्रमश: इन बातों का वर्णन करूँगा। आशा है यह वर्णन रोचक होगा।