अपनी खबर / भानुप्रताप तिवारी / पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'

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बचपन में मेरे मुहल्‍ले में दो हस्तियाँ ऐसी थीं जिनका कमोबेश प्रभाव मुझ पर सारे जीवन रहा। उनमें एक थे भानुप्रताप तिवारी (जब मैं सात बरस का था, वह साठ के रहे होंगे), दूसरे महादेव मिश्र उर्फ बच्‍चा महाराज, जो उन दिनों चालीस के भीतर की उम्र के रहे होंगे। भानुप्रताप तिवारी कि अच्‍छे-अच्‍छे दो-दो मकान, पर वह स्‍वयं मुख्‍य मकान के द्वार-देश की संडास के सामने की अंध-अँधेरी, सीलन-भरी बदबूदार कोठरी में रहा करते थे। पहनते थे गाढ़े के चारख़ाने का लम्‍बा रुईदार कोट और पुराने ढंग का पाजामा — रुईदार ही। भानुप्रताप तिवारी के ब्रह्माण्‍ड या बीच खोपड़ी में कोई ऐसा व्रण हो गया था जिसके सबब अधेड़ अवस्‍था ही में वह सहज, सामाजिक जीवन के अयोग्‍य हो गए थे। रोग असाध्‍य था, कर्म-भोग दारुण; फिर भी, तिवारीजी सारे जीवन-दर्प से डटे हुए मरण से लोहा लेते रहे। कुछ नहीं तो तीस-चालीस बरस उन्‍होंने उसी बदबूदार अँधेरी कोठरी में काटे। उस घोर दु:ख को बड़ी ही शान से वह झुठलाते रहे। मस्तिष्‍क में व्रण होने के बावजूद पण्डित भानुप्रताप तिवारी अँधेरी कोठरी में, खाट पर रज़ाई ओढ़े तीस-चालीस बरस तक या तो उत्तम, गम्‍भीर ग्रन्‍थों का अध्‍ययन किया करते थे अथवा किसी सद्ग्रन्‍थ का अनुवाद, भाष्य, समीक्षा आदि। कहते हैं सिर में घाव पैदा होने के काफ़ी पहले से उन्‍हें लिखने-पढ़ने का शौक़ था। मिर्ज़ापुरी बोली में उन्‍होंने तुलसीकृत रामायण की एक टीका भी तभी शुरू कर रखी थी। भानुप्रतापजी ने रामायण की अपनी टीका में रघुनन्‍दन राम को तुलसीदास की तरह परब्रह्म स्‍वरूप नहीं स्‍वीकारा था। दुख या लोअर लाइन्‍स के अंग्रेज़ों की संगत से मुहल्‍ले के ब्राह्मणों की दृष्टि में भानुप्रतापजी नास्तिक बन चुके थे। रामायण की उस टीका में अनेक अवसरों पर उन्‍होंने ऋषि-मुनियों की खिल्‍ली भी ख़ूब उड़ाई थी। कहते हैं, चुनार में एक बार कोई सन्‍त अयोध्‍यावासी आए और संयोग से भानुप्रताप तिवारी तक उनकी रसोई हो गई। तिवारीजी महात्‍मा को, छेड़छाड़ की अदा में, निजकृत तुलसीकृत रामायण की टीका सुनाने लगे। उसमें, बालकांड में, मिथिला की महिलाओं ने ब्रह्मर्षि विश्‍वामित्र को इसलिए भला-बुरा कहा था कि उनकी दृष्टि में चक्रवर्ती दशरथ के राजमहल के सुखों से छुड़ा जंगल-जंगल बहकाकर किशोर कुमार राम-लक्ष्‍मण के साथ उन्‍होंने क्रूरता दिखलाई थी। ऋषि विश्‍वामित्र के प्रति भानुप्रतापजी की छिछली भावना भाँपते ही वह अवधवासी महात्‍मा मारे रोष के स्‍वयमेव क्रोधी कौशिक बन उठे— ‘चपल चाण्‍डाल!’ उन्‍होंने शाप दिया था— ‘इस टीका की समाप्ति के पूर्व ही तेरी टीका विदीर्ण हो जाएगी।’ और वह महात्‍मा वहाँ से अविलम्‍ब चलते बने। और अनतिदूर भविष्‍य में ही भानुप्रतापजी की खोपड़ी के मध्‍य में वह घाव अनायास ही प्रकट होने, बढ़ने, रिसने, जि़न्‍दगी हराम करने लग पड़ा था।

तिवारीजी के पिता सरकारी नौकरी में नाज़िर थे। उनका तहसील चुनार में आदर-मान था। स्‍वयं भानुप्रताप भी चुनार के किले में कोई अधिकारी थे। अवश्‍य ही उन्‍हें आरम्‍भ ही से लिखने-पढ़ने का व्‍यसन रहा होगा। वह अरबी, फ़ारसी, उर्दू, अंग्रेजी, ब्रजभाषा एवं खड़ीबोली के मर्मी ज्ञाता थे। जब बनारस में ‘भारतेन्‍दु’ हरिश्‍चन्‍द्र थे, तभी चुनार में भानुप्रताप तिवारी जवानी पर रहे होंगे। तिवारीजी के दोनों घरों में कुछ नहीं तो दस हज़ार जिल्‍द पुस्‍तकें विविध भाषाओं की, बहुमूल्‍य एवं अमूल्‍य, संग्रहीत रही होंगी। उनकी अंध-अँधेरी कोठरी में तो चारों ओर किताबों से भरी आलमारियाँ और रैकें ठसी थीं। उनकी लिखी एकाधिक छोटी-छोटी किताबें बीसवीं सदी के आरम्‍भ के पहले ही छप चुकी थीं, स्‍वान्‍त: सुखाय, अमूल्‍य-वितरणार्थ। उनमें एक पुस्‍तक चुनार पर थी। चुनार का संक्षिप्‍त इतिहास और समसामयिक नागरिक कुलों का परिचय। उस पुस्‍तक में भानुप्रतापजी ने मेरे ख़ानदान की चर्चा भी कुछ तो उसकी विचित्रता के कारण और कुछ इसलिए की है कि वह हमारे यजमान थे। भानुप्रतापजी के हम पुरोहित थे। उसी पुस्‍तक में तिवारीजी ने मेरे एक प्रपितामह का वर्णन किया है, जो पढ़े-लिखे मुतलक नहीं थे, फिर भी प्रसिद्ध-सिद्ध थे। हमारी कुल-देवी भगवती दुर्गा दुर्ग-विनाशनी सुदर्शन पाँडे—यही उनका नाम था—पर रीझ गई थीं। सो, मेरे प्रपितामह के संकेत-मात्र से राजद्वार का भैंसा शास्‍त्रार्थ करने काबिल हो जाता था। सिद्ध सुदर्शन पाँडे अपने घर की टूटी चारदीवारी पर बैठे दातुन कर रहे थे कि किसी ने सुनाया कि कोई भारी सिद्ध उनसे मिलने को सिंह पर सवार, हाथ में सर्प का चाबुक लिये आ रहा है। सुनते ही सुदर्शन पाँडे ने टूटी चारदीवारी को एड़ लगाई— ‘चल तो। महात्‍मा का इस्‍तक़बाल आगे बढ़कर करें।’ और चारदीवारी उन्‍हें लेकर चल ही तो पड़ी। मेरे परदादा का प्रतापी चमत्‍कार देख वह सिंह-सवार सिद्ध उनके चरणों में लोटने लगा था।

वही अनपढ़ सिद्ध सुदर्शन पाँडे एक दिन स्‍नान-सन्‍ध्‍या के बाद घुटनों तक गंगा में खड़े सूर्य को अर्घ्‍य दे रहे थे कि बीच धारा से तत्‍कालीन काशीराज का राजबजड़ा गुजरा। अमित तेजस्‍वी ब्राह्मण पर नज़र पड़ते ही राजा ने जलयान-चालकों को उधर ही चलने का इशारा किया। राजा के निकट कोई ऐसा भी था जो सिद्ध सुदर्शन पाँडे से भली भाँति परिचित था। उसने देखते ही काशिराज को बतलाया कि वह तेजस्‍वी ब्राह्मण है कौन। दुनिया की नज़रों में महामूर्ख, मगर भगवती का भारी साधक—सिद्ध। सुदर्शन पाँडे के निकट जा राजा ने पूछा— ‘महाराज, गंगा-गर्भ में क्‍या-क्‍या चीज़ें हो सकती हैं?’

‘गंगा-गर्भ में?’ चमत्‍कारी सुदर्शन ने सुनाया — ‘गंगा-गर्भ में ख़रगोश का बच्‍चा होता है। और क्‍या?’ ख़रगोश का बच्‍चा? गंगा के अंदर? राजा बनारस को ऐसा लगा गोया ब्राह्मण ने उनका उपहास किया अनुचित असम्‍भव उत्तर देकर। राजा के नथने ईषत् फूले, भवें तनीं, होंठ असन्‍तुष्‍ट फड़के: ‘महाजाल डाला जाए गंगा में और जाँचा जाए कि क्‍या पानी के अन्‍दर ख़रगोश का बच्‍चा भी बसता है? एक बार जाल डाला जाए, दो बार, तीसरी बार भी अगर ख़रगोश के बच्‍चे का सूराग़ न लगे तो राज-अपमान के लिए धृष्‍ट ब्राह्मण का मैं शासन करना चाहूँगा।’ सो, महाजाल डाला गया— एक बार, दो बार। लो, तीसरी बार जंगी जाल में फँसा सुंदर ख़रगोश का बच्‍चा! राजा ने स्‍तम्भित हो दाँतो अँगुली दाबी और सुदर्शन पाँडे को एक सौ आठ बीघे ज़मीन, जिसमें चार कुएँ और दो आम की बगियाँ, उसी समय दान में दी। इस घटना के बाद सुदर्शनजी जब घर लौट रहे थे तो राह के जंगल में एकाएक किसी ने तेज़ चाँटा उनके गाल पर जड़ा। ‘मूर्ख कहीं के! देख तो मेरी चूँदरी चिन्‍दी-चिन्‍दी हो गई कटीली झाडि़यों में ख़रगोश का बच्‍चा ढूँढ़ते-ढूँढ़ते।’ चकित सुदर्शन ने देखा, सामने चिथी चूँदरी पहने खड़ी कुमारी के रूप में स्‍वयं जगज्‍जननी वात्‍सल्‍यमयी सर्वकल्‍याणी सर्वमंगला को!

यह सच भी है, जिसका इशारा भानुप्रतापजी की पुस्‍तक में भी है कि मेरे खानदान के लोग हरसू (पाँडे) नामक ब्रह्म के वंश के हैं, जिनका परम प्रसिद्ध स्‍थान उत्तर प्रदेश-बिहार की सीमा पर स्थित चैनपुर में है। इन्‍हीं हरसू ब्रह्म को स्‍वर्गीय परम विद्वान डॉ. रामदास गौड़ आदर से मानते थे। इन हरसू ब्रह्म की तो सोलह-पेजी जीवनी छपकर भक्‍त जनता में सहस्र-सहस्र की संख्‍या में बिकती है। कैसी जीवनी! मेरे विख्‍यात पितामह हरसू पाँडे जिस राजा के राजपुरोहित या गुरु थे, एक बार उसने नई-नई कोई शादी की। रात को जब वह चौमंज़िले के रनिवास में गया, विलास का अवसर आया, तब अचानक नई रानी की नज़र सामने मगर दूर से आते प्रकाश पर पड़ी, जो राजभवन के बराबर ही किसी महल के चौमं‍ज़िले की खिड़की से आ रहा था!

‘यह किसकी खिड़की है मेरे कक्ष के सामने?’ ज़रा रोष में रानी राजा को और भी रमणीय मालूम पड़ी। ‘यह प्रकाश मेरे कुल-गुरु हरसूजी के निवास की‍ खिड़की से आ रहा है।’

‘राज-भवन के बराबर महज़़ ब्राह्मण का भवन! छि:!’

‘मगर?’

‘क्‍या अगर? क्‍या मगर...?’

‘वह परम सिद्ध पुरुष—हरसू पाँडेजी—हमारे पुरोहित, पिता से बढ़कर हैं।’

‘पिता से बढ़कर कोई परम पिता हो, परन्‍तु शयनकक्ष के सामने किसी की भी खिड़की-दरवाज़ा मुझे नापसन्‍द है। सामने वाले घर का एक खण्‍ड पहले गिराया जाए, फिर आप राजा, फिर मैं रानी...।’

‘स्‍त्री...!’

रानी के बिगड़े दिल पर राजा के मुख से ‘स्‍त्री’ शब्‍द, हीन-भाव से निकलते ही साँप-सा लोट गया। वह फूल-सेज से सर्पिणी-सी सरककर कक्ष के बाहर जाने लगी — ‘आप मेरे प्राण ले सकते हैं — राजा हैं, मैं अबला हूँ, पर मुझे अपने मन के खिलाफ़ आचरण करने पर विवश नहीं कर सकते। मैं बाज़ार से ख़रीदकर नहीं लाई गई हूँ— पाणिगृहीता, कुलीना, राज्‍य-कन्‍या हूँ। अभी मेरे पिता जीवित और समर्थ हैं।’

कहते हैं कई दिन तक रूपवती यौवनगर्विता रानी ने हठ नहीं छोड़ा। तब, विवश हो, काम-मोहित राजा ने पुरोहित हरसू पाँडे से पूछा कि रानी को प्रसन्‍न करने के लिए यदि वह अपने भवन का एक खण्‍ड गिरा दें तो कोई बड़ी हानि होगी क्‍या?

‘हानि?’ तेजस्‍वी हरसू पाँडे ने दुहराया— ‘कामिनी का आग्रह रहे, गुरु की मर्यादा चूल्‍हे-भाड़ में जाए—इसमें कोई हानि ही नहीं? मैं कहता हूँ औरत के मोह से जिस राजा की मति मलीन हुई उसके नाश में अधिक देर नहीं लगती।’ राजा स्‍तब्‍ध, सुन्‍न, चुप रहा। प्रचण्‍ड पुरोहित के आगे विशेष बोलने की उसकी हिम्‍मत न हुई। हरसू पाँडे का सारे राज्‍य में दिव्‍य ब्राह्मण होने के कारण बड़ा मान था। उनके दर्शनों में बरकत मानी जाती थी। बचपन ही से राजा के मन में हरसूजी के प्रति श्रद्धा थी। लेकिन नई रानी, कल की आई। उसे तो अपनी सौतों को यह दिखलाना था कि राजा पर उसी का एकाधिकार है। सो, दिनों तक खींचातानी चलती रही। न रानी ने स्‍त्री-हठ छोड़ा, न हरसू पाँडे को ही अपना मान मर्दित कराना मंजूर हुआ और न राजा ही की हिम्‍मत पड़ी कि रानी के लिए पुरोहित-भवन का एक खण्‍ड बलात् गिरवा दे। लेकिन एक दिन जो न होना था वही हुआ और राजा ने पुरोहित-भवन का एक खण्‍ड बलात् गिरवा दिया। इसको अपमान मान राजपुरोहित हरसू पाँडे ने राज-द्वार पर आमरण अनशन ठान दिया था। अनशन के इक्‍कीसवें दिन हरसू पाँडे के प्राण जाते रहे थे। प्राण त्‍यागने के थोड़ा ही पहले राजा की पहली रानी की कन्‍या के हाथों कटोरा भर दूध ग्रहण करते हुए हरसूजी ने राजपुत्री को आशीर्वाद दिया था ‘जा, केवल तेरा वंश बचेगा।’ विख्‍यात है कि हरसू पाँडे मरने के बाद प्रचण्‍ड ब्रह्म-प्रेत हो गए। साथ ही, सहसा, पड़ोसी राजा ने उस राजा पर चढ़ाई कर दी। उसको पराजित कर, सारा राजपाट, ठाठ-बाट विध्‍वस्‍त, अग्निसात् कर दिया था। उसी ध्‍वंसावशेष के बीच में हरसू ब्रह्म की भारत-प्रसिद्ध समाधि है। हरसू ब्रह्म बिहार और उत्त्‍र प्रदेश के अनेक भागों में देवताओं से भी अधिक पुजते हैं। बुरा-से-बुरा भूत-प्रेत-बाधिक व्‍यक्ति हरसू ब्रह्म जाकर चंगा हो जाता है। हरसू ब्रह्म के मेले में सारे देश से प्रेत-बाधित प्राणी—प्राय: स्त्रियाँ—हर साल आते हैं। वीरान-उजाड़ में पचासों हज़ार आदमियों की भीड़ लगती है; लाखों का व्‍यापार-धंधा होता है; दसों हज़ार रुपए वहाँ के पण्‍डे प्राप्‍त करते हैं। ऊपर से माल-मलाई, रेशम, कम्‍बल, रज़ाई भी। मैं पाण्‍डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ हरसू ब्रह्म के कुल का हूँ — निस्‍संदेह। विदित विद्वान, प्रेत-पंडित रामदासजी गौड़ ने लिखा है कि हरसू ब्रह्म के यज्ञोपवीत संस्‍कार में गोस्‍वामी तुलसीदासजी शामिल हुए थे।

लेकिन ब्रह्म या प्रेतात्‍मा अथवा भूतों के अस्तित्‍व पर मेरा विश्‍वास ज़रा भी नहीं। संसार का सबसे भयानक भूत मैं पंचभौतिक आदमी को मानता हूँ। मैंने भयानक-से-भयानक भवन, सन्‍नाटे-से-सन्‍नाटे मैदान, ऊजड़-वीरान में भी ढूँढ़ने पर जब एक भी भूत, भूतनी या भूतनी-कुमार को नहीं पाया, तब भूतों पर से मेरी आस्‍था भले ही न उठ गई हो, पर यह विश्‍वास दृढ़ हो गया है कि आदमी से भयभीत हो भूत भी भागा-भागा फिरता है।

पर, मैं भानुप्रताप तिवारी की चर्चा कर रहा था। तिवारीजी जिस कोठरी में रहा करते थे उसके पूरबी द्वार के सामने ही बड़ा भारी पीपल का पेड़ था। चिलकती दुपहरी या चमकती चाँदनी में पीपल के पेड़ के निकट खड़े-खड़े पेशाब करते हुए भानुप्रताप तिवारी पूरे प्रेत मालूम पड़ते थे — हड्डीले, रक्‍तरहित, उजले—धँसी आँखें, चेहरे पर सारी दृष्टि के श्‍मशानी-शाप। मैले चारख़ाने का रुईदार पायजामा और उसी रंग का लम्‍बा दगला रुईदार। बहुत लड़कपन में मैं तो तिवारीजी के सामने तक जाने से डरता था और यदि उस गली से गुज़रना ही होता, तो जहाँ तक उनका मकान था उतनी गली मैं भयभीत दौड़ता पार करता था। लेकिन जब भी उनकी कोठरी में नज़र जाती वहाँ कोई साहब अंग्रेज़ बैठा होता, या मेमसाहब गोरी होती, या बंगाली मोशाई होते। तहसील के अधिकारी या ईसाई मिशनरी या साधु या फ़कीर। और भानुप्रताप तिवारी उसी ड्रेस में खाट पर अध-पड़े फर्राटी इंग्लिश या हिन्‍दुस्‍तानी गड़गड़़ाती आवाज़ में बोलते होते। भानुप्रताप तिवारी जब तक जीवित रहे, चुनार में विश्‍वकोश माने जाते थे। कबीर, दादू, दरिया, मलूकदास, रैदास आदि अ-ब्राह्मण सन्‍तों के प्रति उनका अनुराग-विशेष था। इनकी रचनाओं की उन्‍होंने टीकाएँ तथा समीक्षाएँ लिखीं। तुलसी की रामायण पर भी जिल्‍द-की-जिल्‍द, रजिस्‍टर-के-रजिस्‍टर भरे। एक-दो नहीं, पचासों पुस्‍तकें उन्‍होंने स्‍वान्‍त:सुखाय, चिद्विलास के लिए लिखीं। आगन्‍तुक विद्वानों से उन्‍हीं विषयों पर तिवारीजी चतुर चर्चाएँ चलाया करते थे। मैं काफी बड़ा होने पर स्‍कूल में दाख़िल हुआ। चौदह साल की उम्र में नेहरू जवाहरलाल लन्‍दन में शिक्षा पाते थे, लेकिन बेचन पाँडे का नाम चौदह साल की उम्र में चुनार के चर्चमिशन स्‍कूल में, थर्ड क्‍लास में लिखा गया। तब मुझे पुरोहित-वंश का जानकर—या क्‍यों— भानुप्रतापजी ने मुंशी मथुराप्रसाद-रचित त्रिलिंगुअल डिक्‍शनरी दी थी। वह आज भी मेरे घर की पुस्‍तकों में हो तो ताज्‍जुब नहीं। तिवारीजी की दो-दो ब्‍याहता बेटियाँ थीं—मैना और गिरजा। एकमात्र पुत्र था रामगुलाम तिवारी, जिसका पुकारने का नाम ‘मलुक्‍की’ था। मिडिल पास रामगुलाम तिवारी तहसीली रजिस्‍ट्रार का क्‍लर्क था। रामगुलाम तिवारी विवाहित था। भानुप्रतापजी की पत्‍नी तगड़ी, मालकिन-मुखी, निहायत नेक-दिल थीं। लेकिन मारे दुलार के उन्‍होंने अपने पुत्र रामगुलाम तिवारी को बरबाद कर डाला था। मारे मोह के वह माता अपने बिगड़े बेटे को दारू पीने और जुआ तक खेलने के लिए रुपए ही नहीं देती थी बल्कि दूसरे के घर में जाकर पूत संकट में न पड़े, अतएव अपने दूसरे घर में जुए की फड़ लगाने देती थी। उस दूसरे घर में मलुक्‍की कुछ भी करता था। इस लड़के को लेकर भानुप्रताप और उनकी पत्‍नी में प्राय: विवाद होता। भानुप्रताप शासन करना चाहते (असाध्‍य रोग-पी‍ड़ित खाट पकड़े प्राणी) पर पत्‍नी के आगे उनकी एक न चलती—सिवाय ज़बान के। और तिवारीजी सारी ज़िन्‍दगी अपनी पत्‍नी को धारावाहिक भाषा में गालियाँ सुनाते रहे। रामगुलाम तिवारी भानुप्रताप के सामने ही पहली बार जुए में गिरफ़्तार किया गया था, लेकिन भानुप्रताप के प्रभाव से तहसील के नेक-दिल अधिकारियों ने उसे बचा दिया था। इसके बाद भानुप्रतापजी का देहान्‍त हुआ और रामगुलाम तिवारी सरकारी रुपयों से जुआ खेलने के बाद अमानत में ख़यानत, ग़बन में गिरफ़्तार हुआ। मुक़दमा बरसों चलता रहा। दरमियान में रामगुलाम की पत्‍नी मर गई। पुलिस को बेटे की कुशल के लिए रिश्‍वत देती-देती मोहमयी माता मालकिन से भिखारिन बन गई, फिर भी, इस भ्रम में कि उसके पास छिपा धन है, एक पुलिस-अधिकारी ने उस बेचारी को वो-वो गालियाँ सुनाईं, ऐसी-ऐसी कमीनी धमकियाँ दीं कि सारा मुहल्‍ला त्रस्‍त हो उठा। अन्‍त में जिस बेटे के मोह में वह माता मर मिटी उसको दो वर्ष की सख्‍़त सज़ा हो गई। इसी बीच में भानुप्रताप तिवारी का सारा बहुमूल्‍य पुस्‍तकालय, उनकी लिखी पाण्‍डुलिपियाँ बेचकर मलुक्‍की ने जुआ खेल लिया था। उसके जेल जाते ही वह मोहमयी माता मर ही गई। ऐसे भयानक दुख से विदीर्ण होकर भानुप्रताप का मकान भी ‘भहरा’ पड़ा, जिसकी एक-एक ईंट या ढोंका दुनियादार पड़ोसी चुन ले गए।

अन्‍त में जुआड़ी कुलांगार रामगुलाम तिवारी का पुत्र बच रहा था — नंदन — तेरह-चौदह साल का; जो दिन में सज्‍जन पड़ोसियों के यहाँ पशुवत परिश्रम करने और रात में दुष्‍टों के साथ कुकर्म करने पर टुकड़े पाता था। देखते-ही-देखते भानुप्रताप तिवारी के वंश का ऐसा हाल हुआ कि : जिनके महलों में हज़ारों रंग के फ़ानूस थे, झाड़ उनकी क़ब्र पर है और निशाँ कुछ भी नहीं!