अपनी खबर / राममनोहरदास / पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'
महन्तस भागवतदास ‘कानियाँ’ की नागा-जमात के साथ मैंने पंजाब और नार्थवेस्टइ फ्रण्टियर प्राविंस का लीला-भ्रमण किया। अमृतसर, लाहौर, सरगोधा मण्डीा, चूहड़ काणा, पिंड दादन खाँ, मिण्टीगुमरी, कोहाट और बन्नूो तक रामलीलाओं में अपने राम स्व रूप की हैसियत से शिरकत करते रहे। यह सब सन् 1911-12 ई. की बात होगी। मेरा ख़याल है उन्हींस दोनों बरसों में कभी दिल्लीत में वायसराय लार्ड हार्डिंग पर बम भी फेंका गया था। उसकी चर्चा रामलीला-मण्डहली वालों में भी कम गरम नहीं रही। फ्रण्टियर से चुनार लौटने के बाद शीघ्र ही हम दोनों भाई पुन: अयोध्यानजी चले गए थे। इसका ख़ास सबब था चुनार आते ही बड़े भाई साहब का पुन: जुआ-जंगाड़ी जमात में जुड़ जाना, जिससे खीसा काटते ज़रा भी देर न लगी। ऋणदाताओं के मारे जब घुटन महसूस करने लगते, तभी भाई साहब चुनार छोड़ दिया करते थे। अयोध्या से मझले भाई श्रीचरण पाँडे उर्फ़ सियारामदास ने पत्र दिया था कि वह इन दिनों महन्तछ राममनोहरदास की मण्डदली में है। महन्तणजी मालदार हैं, साथ ही भागवतदास कानियाँ से कहीं उदार। एक्टररों की तनख़ाहें पुष्टी, तुष्टिकारक हैं। मझले ने बड़े भाई से आग्रह किया था कि वह भी राममनोहरदास की मण्डीली में आ जाएँ। सो, हम जा ही पहुँचे।
राममनोहरदास की मण्डहली के साथ मैंने सी.पी. के कुछ नगरों तथा यू.पी. के अनेक नगरों का भ्रमण किया। मेरा काम था रामलीला में सीता और लक्ष्म ण बनना। इस तरह अयोध्या , फैज़ाबाद, बाराबंकी, परतापगढ़, दलीपपुर, अलीगढ़, बुलन्दाशहर, मेरठ, दिल्लीो, दमोह, सागर, गढ़ाकोटा, कटनी आदि स्थालनों में रामलीला का स्व,रूप बनकर ग्या्रह-बारह साल की उम्र में बन्देोखाँ ने सहस्र-सहस्र नर-नारियों के चरण पुजवाए हैं। इससे पूर्व ये ही चरण पंजाब और सीमाप्रान्त- के मण्डी्-नगरों में भी पब्लिक द्वारा परम प्रसन्नहतापूर्वक पूजे जा चुके थे। चरण ब्राह्मण के! छह साल की उम्र ही में चुनार में कुमार-पूजन के अवसर पर बहैसियत ब्रह्मकुमार मेरे चरण अक्सहर पूजे जा चुके थे। ब्राह्मण ने कैसा रंग समाज पर बाँध रखा था! भीख लेता था तनकर।
दान देते समय दानी भिखारी के चेहरे नहीं, चरणों की तरफ़ देखता था। राममनोहरदास की मण्डतली का सारा रंग-ढंग कमोबेश वही था जो भागवतदास की मण्ड ली का, इस फ़र्क के साथ कि पहली मण्ड्ली में साधुओं की संख्याढ नब्बेश प्रतिशत थी; पर दूसरी में सौ में नब्बेस एक्ट र व्याावसायिक, आवारा-मिज़ाज लोग थे। स्वजयं भागवतदास राममनोहरदास के मुकाबले में कहीं अधिक चरित्रवान् थे। राममनोहरदास वैरागी होने पर भी, रहते थे गृहस्थों के बाने में। पहनते थे कुरता, कमीज, धोती, कोट, मोटे चश्मेव, काली दाढ़ी, अलबर्ट कट, देह गुट्ठल, चेहरे पर बाईं तरफ़ नाक के निकट बड़ा-सा मस्सार। राममनोहरदास मैनेजर अच्छे थे। उनकी मण्डगली अधिक उत्तम ढंग से रामलीलाएँ दिखाती थी। लेकिन लंगोट के वह कच्चे् थे — भद्दे ढंग से।
वह किसी-न-किसी सुन्दीर ‘स्वसरूप’ पर रीझकर पहले सोने के गहनों से उसे लाद देते (दे नहीं डालते, केवल पहनने की सहूलियत देते)। फिर उसी को लोटे के कैश बाक्सह की कुंजी भी दे देते। सेक्रेटरी और शिष्यद के बीच के काम उससे इतना लेते कि अक्सउर थककर वह उन्हीं के गुदगुदे गदेले पर रात काट देता था। और सवेरे मण्ड्ली वालों में अनैतिक कानाफूसी चलती। फिर भी वातावरण ऐसा था कि स्व रूप-मण्ड ली के सभी बालक मन-ही-मन महन्तत राममनोहरदास की कृपा के आकांक्षी रहते थे। एक बार यह प्रकट हो जाने पर कि अमुक स्वडरूप महन्ती से ‘विलट’ गया, मण्डदली के दूसरे मनचले अधिकारी, भण्डा री, श्रृंगारी, लीलाधारी भी मौक़े-बे-मौक़े उस पर ज़रूर लपकते। फलत: स्वसरूप को कुरूप बनने में कुछ भी देर न लगती। मैं बच जाता था इन दुष्टव लीलाधारियों से अपने दो-दो भाइयों के सबब, जो तेजस्वीे अदाकार और तगड़े जवान थे। फिर भी, मैं बिगड़ा नहीं, ऐसा कहना ‘बनना’ होगा, जो मेरी बान नहीं, बाना भी नहीं। असल में स्वतरूपों यानी लड़कों के रहने-सोने का प्रबन्धट अलग ही हुआ करता था। और मैं सोता था स्व रूपों में ही। नतीजा यह होता था कि बड़ों द्वारा कुरूप बना हुआ स्वोरूप बेहिचक, रूप की निहायत नंगी परिभाषा भोले संगियों को पढ़ाता था। यानी ख़रबूजे से ख़रबूजा रंग पकड़ता ही था। इस तरह राममनोहरदास की राम-मण्ड ली ज़बरदस्तख पाप-पार्टी भी थी।
मेरा ख़याल है इश्क़स क्या है, इसका पता मुझे इसी मण्डदली में बारह साल की वय में लग गया था। बारह साल की उम्र में मैं सत्रह साल की एक अभिरामा श्याममा पर ऐसा आशिक़ हो गया था कि ‘सीने में जैसे कोई दिल को मला करे है’ का अनुभव मुझे तभी हो गया था। उस सुन्द री के लिए मैं सारा दिन बेचैन रहा करता था कि कब रात हो, कब उसके मादक स्वामदक मयंक-मुख के दर्शन हों। मेरा प्रथम और अन्तिम प्रेम भी वही था। उसके बाद जो मामले हुए उसी शाश्व त साहित्य के संक्षिप्तम, सस्तेर संस्कउरण मात्र थे। हाँ, तो लीला बाराबंकी में दिखाई जा रही थी। प्रोग्राम एक मास तक का था। लीला-भूमि में महिलाओं के बैठने का प्रबन्धत लीला-मंच के बहुत ही निकट था। उन्हींए में वह सत्रह-साली, निराली ब्यूनटीवाली, कमल-लोचना भी, गैस लाइट में प्रफुल्लित नज़र आती थी। उसी कामिनी में कुछ देखने काबिल भी था, यह मैंने जाना मण्डेली के दिल-फेंक एक्टथरों और अपने बड़े भाई को भी उसकी तरफ़ बार-बार देखते देखने के बाद। बाल-उत्सु कतावश, सीताजी के मेक-अप में ही, रंग-मंच से ही, मैं भी उसे देखता और देखता और देखता। देखती थी वह भी मेरी तरफ़। शायद वह भी ताकझाँकवाली आली थी। सो, मैं देखता ही रहा, मन्त्रव–मुग्धऔ, लेकिन ऐय्यारों ने डोरे डाल, भक्ति-भावना में बहका, परदे के पीछे नज़दीक से रामजी के दर्शन कराने के बहाने अन्दर ले जा, पहले महन्त जी से उसका संयोग करा दिया। राममनोहरदास ने उसको एक महँगी बनारसी साड़ी दी, जिसे उसने ले भी लिया। बस यौवन के जादू का भाव खुल-जैसा गया। लेकिन वह वेश्या नहीं थी। उसका पति साल में दस-ग्यारह महीने बम्बई रहा करता था।
सो, यौवन की महावृष्टि में उसके चलन की क्या री फूटकर बह चली थी। लेकिन बदमाश लीलाधारियों के चक्र में पड़ते ही आठ ही दस दिनों में वह भयानक यौन-रोग-ग्रस्तल हो गई थी। और संयोगवश इसी बीच उसका पति बम्बनई से आ गया। शक्कीम मर्द उसी रात अपनी देवी की देह-दशा ताड़ गया। संदिग्ध भाव से घर में और भी कोई प्रमाण तलाशने पर बनारसी साड़ी भी उसके हाथ लगी। सुना, इसके बाद वह मर्द कुछ ऐसा उत्तेजित हुआ कि रसोई बनाती रामा रमणी को बाहर घसीट, मुँह में कपड़ा ठूँस, नंगी कर, हाथ-पाँव बाँध, उसे एक खम्भेय से बाँध दिया। इसके बाद चूल्हेो में लोहे की छड़ लाल करके पिशाच के उल्लासस से वह तरुणी का अंग-अंग दागने लगा। सारे शहर में कोहराम मच गया। बड़ा होहल्लाछ मचा। मरने के पहले उस औरत ने बयान दिया था कि उसे रामलीलावालों ने बरबाद किया है। लेकिन महन्त़ राममनोहरदास बड़े काइयाँ थे। जहाँ भी मण्ड ली जाती पहले वहाँ की पुलिस से ही प्रेम बढ़ाते थे। फिर राम का बलवान नाम लीलाधारियों के साथ था। साथ ही वह आदमी कोई बड़ा आदमी नहीं था। सारा दोष उसी के माथे मढ़ा गया। पाखण्डी लीलावाले फिर भी पुजते रहे। औरत अस्पवताल में मर गई थी। यह सब सुनकर पुलिस से प्रेम होने पर भी महन्त। राममनोहरदास मन-ही-मन डरे, साथ ही, कम्पयनी के अन्यब छिपे रुस्तेम भी प्रकम्पित हो उठे। फलत: येनकेनप्रकारेण प्रोग्राम पूरा कर मनोहरदास मण्डंली के साथ बाराबंकी से सागर प्रस्थाेन कर गए। फिर भी, मारी जाने, मर जाने, भस्मीमभूत हो जाने के बावजूद बाराबंकीवाली की वह बाँकी छवि, वह मादक, छलकती, छाती को छूती, अछूती जवानी की हवा मेरे हृदय से न गई, न गई। और मैं उदास-उदास रहने लगा, प्रेत-बाधित जैसा। मेरी चंचलता कम होने लगी, भीड़ छटने लगी। अब ध्या न होता सत्रह साल वाली का — और बारह साल के बेचन पाण्डे होते। और बेचैनी होती। ऐसा मचलता मन होता जिसका पता न चलता कि वह आख़िर मचल रह है क्योंत? वही उस्ता्द का शेर : ‘दिलेनादाँ, तुझे हुआ क्याआ है? आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?’ लेकिन मैंने पहले दर्द जाना, दवा के लिए तरसने का रस चखा, ‘ग़ालिब’ का शेर तो इस वाक़या के मुद्दतों बाद मैंने सुना। फिर भी कमाल! सारी ग़ज़ल दिल को छूने वाली—
हम हैं मुश्ताक़ और वह बेज़ार,
या इलाही! ये माजरा क्याज है?
ये परी-चेहरा लोग कैसे हैं?
ग़म्ज़ी-ओ-इश्व–ओ अदा क्या है?
सब्ज़ा-ओ-गुल कहाँ से आते हैं?
अब्र क्या चीज़ है? हवा क्या है?
या इलाही! या इलाही! या इलाही! ये माजरा क्याद है? उसके सर्वनाश पर मेरे सीने में दर्द क्यों हुआ? जो हो, वही मेरे सीने में मुहब्बयत की आग कुछ ऐसी जगमगा गई, जो किसी क़दर आज तक मुझे गरमाती, तपाती, जलाती, यानी जिलाती रहती है। और मेरे सलोने सौभाग्य में बारह बरस की ही वय में मुहब्बतत बदी थी। उस शायर ने झूठ कहा होगा जिसने कहा, ‘मेरा मिज़ाज़ लड़कपन से आशिक़ाना था,’ लेकिन मैं सच कहता हूँ। कोई पूछ सकता है— इससे मेरा फ़ायदा हुआ या नुकसान? यह सवाल वही करेगा जिसे मुहब्बकत के राहोरस्म। का इल्मग मुतलक न होगा। मुहब्बात सांसारिक हानि-लाभ के तराजू पर तौली जाने योग्यक जिंस कदापि नहीं। इसका तो जीवन के सुदुर्लभ सुधा-मधुर स्वाबद से सम्ब न्धल है। कहा उस्तानद ने : इश्क़न से तबीअत ने ज़ीस्तं का मज़ा पाया, दर्द की दवा पाई, दर्द बेदवा पाया। इस बे-ऋतु के प्रेम ने मुझे अकारण प्रेम के मार्ग पर कुछ ऐसा उतार दिया कि आज तक मैं मन के मचलने से नहीं — न जाने क्यों — किसी को प्या्र करता हूँ। बक़ौल : दिल चाहेगा जिसको उसे चाहा न करेंगे, हम इश्क़ो हविस को कभी इक जा न करेंगे। मैं महसूस कर रहा हूँ — डूबकर निकलने वाले दोस्तह पूछना चाहते हैं कि साठ के हो गए आज तक जनाब दिल फेंक ही हैं? जी हाँ।
मैं बरसों से उम्र क्योंह गिनूँ? जीवन की गति से क्यों न जाँचूँ? अभी मेरी भाँवरें नहीं पड़ीं। विवाह नहीं, सगाई नहीं। उस बाराबंकी वाली से दिल लगने के बाद मैं बराबर कुआँरा ही रहा हूँ। लानत है साधारण गिनती पर! जोड़, बाक़ी, गुणा मेरे भाग में भगवान् की दया से कभी नहीं रहे। मैथमेटिक्सग में मैं इतना मन्दी कि साठ का हो जाने पर भी गधापचीसी के आगे जीवन जोड़ने की तमीज़ बिलकुल नहीं। आदमी के चेहरे की यह मूँछ-दाढ़ी, मेरे मते, व्यतक्ति की बंजरता विदित करने वाले कुशकास हैं। ख़ास-ख़ास देवताओं की मूर्तियों में उनकी वय किशोर और युवा ही क्योंस बतलाई जाती है? इसीलिए कि परम भागवत-तत्त्व व्यैक्ति में तभी तक रहता है जब तक मूँछ-दाढ़ी नहीं रहती। मर्यादा-पुरुषोत्तम होने पर भी राम या भगवान् स्ववयं कृष्ण की मूँछे और दाढ़ी किसी ने देखी हैं? इतने विकट भयंकर-प्रलयंकर होने पर भी शंकर के विग्रहों में दाढ़ी-मूँछ कहाँ होती है? क्यों? इसका अर्थ यही है कि कोई कृष्ण की तरह अमृत रस करने वाला हो या शंकर की तरह प्रलयंकर ताण्डव सृष्टि और नाश, दोनों ही आदमी के हाथ में तभी तक रहते हैं जब तक उसे मूँछ-दाढ़ी की दिक्क़कत दरपेश नहीं आती। यह मूँछ-दाढ़ी मूढ़ मानव के बाहर तो बाहर, अन्दर भी निकलती है। इनमें अन्दरवाली को आदमी सावधानी से साफ़ करता रहे तो बाहरवाली उतनी भयावनी नहीं साबित होती।