अपराजितो / मुक्तक / नैनसुख / सुशोभित

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अपराजितो
सुशोभित


सत्यजित राय की फ़िल्म 'अपराजितो' (1956) का एक स्थिर-चित्र है। बंगाल के एक छोटे-से गाँव मानसपोटा से अपूर्ब पढ़ाई करने कलकत्ते चला आया है, हाथ में कपड़े-लत्ते, सामान की अटैची के साथ ही एक ग्लोब भी है। यह ग्लोब अपूर्ब को स्कूल में अच्छी पढ़ाई पर ईनाम में मिला है। दुनिया के हर देश का नाम, मानचित्र उस पर है। पर कलकत्ते की जिस गली में रहने का बंदोबस्त उसके लिए स्कूल के प्राध्यापक ने अपने परिचित के नाम चिट्ठी लिखकर करवा दिया है, उसे खोजने में वह उसकी कोई मदद नहीं कर सकेगा। उसे वह स्वयं ही खोजना होगा- हाथ में थामे ग्लोब!

सरलता और विश्वास। सुशिक्षा के प्रति गहरी से गहरी ललक। यह मैंने असंख्य ग्रामीण-क़स्बाई युवकों में देखी है, जो पढ़ाई करने बड़े शहर आते हैं। 'अपराजितो' का यह अपूर्ब कुमार राय उन सबका प्रतिनिधि है। उसके पास कमरे का भाड़ा चुकाने का पैसा नहीं है, इसलिए इसके ऐवज में रात में मालिक-मकान की प्रिंटिंग प्रेस में काम करता है। दिन में स्कूल जाता है। देर तक जगा एक बार अंग्रेज़ी की कक्षा में ऊँघने लगता है तो शिक्षक क्लास से निकाल बाहर करते हैं। इस पर सुबकने लगता है।

यह नेहरूवादी भारत है। 1950 का दशक स्वप्नों का समय था। विभाजन की कड़वाहट पीछे छोड़कर भारत ने नवनिर्माण का प्रण ले लिया था कि अब आगे बढ़ना है, दुनिया के साथ क़दमताल करना है। नेहरू-बहादुर में विराजे थे और 'जैसा राजा वैसी प्रजा' की तर्ज़ पर पूरे देश में ज्ञान-विज्ञान, प्रौद्योगिकी, शिक्षा, विश्व-नागरिकता के प्रति ललक थी। बंगाल पहले ही पुनर्जागरण के दौर से गुज़र चुका था और रबीन्द्रनाथ सरीखे 'रूटेड कॉस्मोपोलिटन'- जिनकी विश्वदृष्टि जितनी सुथरी थी, जातीय चेतना उतनी ही प्रखर- उसके अधिष्ठाता थे। सत्यजित राय इसी बंगाल रेनेसाँ के अन्तिम पुरोधा थे। उनकी फ़िल्म का यह युवा अपने में रबीन्द्रवादी-नेहरूवादी मूल्यों को सँजोए था।

पतला-दुबला चौदह साल का किशोर- जिसकी हँसुली की अस्थि अर्द्धचन्द्र की तरह, बरगद की जड़ की तरह स्पष्ट और उभरी है। वह मैली-कुचैली धोती पहने है और बहन, पिता की मृत्यु देख चुका है। गाँव में माँ को छोड़ कलकत्ते चला आया है- ख़ूब मन लगाकर पढ़ाई करूँगा यह शपथ लेकर। जीवन में पहली बार बिजली का लट्टू देखकर वह प्रसन्न हो जाता है, खटका चलाकर उसे परखता है और माँ को चिट्ठी लिखकर इस बारे में बतलाता है- यह 1950 के दशक की भारत-मूर्ति है। उसकी आँखों में स्वप्नों का उच्छ्वास है।

शिक्षा हमारा उत्थान करेगी, हमें उदात्त बनाएगी, हमारे मनुष्य होने के मानकों को रचेगी- यह स्वप्न महान था। लिखाई-पढ़ाई पैसा कमाने नहीं, सभ्य बनने का माध्यम थी। शिक्षित होने के कुछ उसूल थे। और सब पढ़ेंगे तो सब बढ़ेंगे वाला सामूहिकता का ज्वार इसमें गुँथा हुआ था।

आज सत्तर साल बाद यह फ़िल्म देखकर लगता है-वह स्वप्न कितना सुन्दर था, उसकी स्मृति कितनी सुन्दर है! इसीलिए तो सरलता का यह महाकाव्य-सत्यजित की त्रयी- अपराजित है!