मेघे ढाका तारा / मुक्तक / नैनसुख / सुशोभित

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मेघे ढाका तारा
सुशोभित


चलिए, अब कुछ वैसा काज किया जाए, जिससे व्याकुल जनवृन्द की कुछ रस-चर्वणा हो!

अतएव, सुनिए, राग हंसध्वनि, द्रुतलय में निबद्ध पंडित अर्कुत कन्नाभिरम (ए. कानन) का यह गाना। फ़िल्म है ऋत्विक कुमार घटक की 'मेघे ढाका तारा'। और रदे पर हैं बाँग्ला सिनेमा के चहेते चरितनायक ओनिल चट्टोपाध्याय।

विपदा, क्लेश, नैराश्य के बीच ऋत्विक घटक का यह सुपरिचित मेलोड्रामा है! दीदी के पैसों पर पलने वाला शंकर बम्बई से दुनिया जीतकर लौटा है, किन्तु दीदी को तपेदिक हो गई है, यह सूचना उसे अभी नहीं है।

यह वही शंकर है, जिसके पास हजामत बनवाने के पैसे नहीं होते थे और वह विकलता से अपने चेहरे पर उगे चार दिन की दाढ़ी के खूंटों पर हाथ घुमाया करता था। बंटवारे के बाद पूर्वबंग से इधर चले आए प्रवासियों के टोले के बाहर जहाँ जलराशि के समीप छतनार वृक्षों की पंक्तियाँ हैं, वहाँ रेलगाड़ी के तुमुल-कोलाहल के बीच वह गाने का अभ्यास करता था। पैसे पैसे को मोहताज वही शंकर, अब देखिए कैसे राजा-बाबू बनकर लौटा है!

"दादा, मैं जीना चाहती हूँ"- तपेदिक से लगभग मरणासन्न दीदी का यह आर्तनाद शिलॉन्ग की उपत्यकाओं में जब गूँजेगा तब गूँजेगा, अभी तो यह शस्य-श्यामला बंगभूमि है, जिसमें भिंडीबाज़ार बम्बई वाले उस्ताद अमान अली खां साहब की सुपरिचित बंदिश को ए. कानन गा रहे हैं और मानो सर्वत्र सहसा उत्फुल्लता फैल गई है- ”लागी लगन पति सखी संग / लागी लगन पति सखी संग / परम सुख अति आनंदम्।”

जिन्होंने फ़िल्म देखी है, वे इस बात की ताक़ीद कर सकते हैं कि घटक के अतिनाटकीय नैराश्य के बीच यह गाना क्या ही कमाल की 'पोएटिक रिलीफ़' लेकर आता है और अपनी सीटों में धँसे दर्शक मानो ताली बजाकर उछल पड़ते हैं कि “येल्लो, अब तो शंकर लौट आया है, दीदी ख़ून की क़ै करते अब अकेले नहीं मरेगी!"

वह गाना सुनिए। पक्के राग के ऐसे गीत एक बार ज़ेहन पर चढ़ जाएँ, तो आसानी से उतरते नहीं, और आपको गली के मुहाने पर जहाँ लैम्पपोस्ट की पीली रोशनी है, पलायन कर मन ही मन गुनगुनाने को विवश कर देते हैं!