नायक / मुक्तक / नैनसुख / सुशोभित

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नायक
सुशोभित


बाँग्ला सिनेमा में महानायक के नाम से सर्वज्ञात उत्तम कुमार ने सत्यजित राय की फ़िल्म 'नायक' में एक लोकप्रिय फ़िल्म स्टार की भूमिका निभाई थी। एक मायने में उत्तम वहाँ स्वयं को अभिनीत कर रहे थे। सिनेमा में स्वयं को अभिनीत करने के वैसे उदाहरण विरले ही हैं। यह भूमिका उत्तम ने इतनी कुशलता, अस्मिता, स्पर्शकातरता और स्वाभाविकता के साथ निभाई है, जैसे मानो वह यह चरित्र निभाने के लिए ही बने थे। जैसे एक अभिनेता के रूप में उनकी समूची जीवन-यात्रा इस बिन्दु तक पहुँचने का प्रयोजन थी, ताकि पहले वह लोकप्रियता के शिखरों को छुएँ, दर्शकों के द्वारा सराहे-पूजे जाएँ, फिर एक जनाकीर्ण एकान्त में अपने जीवन को लौटकर देखें, उस पर सोचें, अपनी दुर्बलताओं और अभावों, अपने निष्कवच-अन्तरंग का जायज़ा लें, किसी से उसके बारे में बात करें, दो शहरों के बीच दौड़ रही एक रेलगाड़ी में स्थगित, ठिठके, विलम्बित, अपनी यात्रा के इस मोड़ को अवलोकें।

सिनेमा में ऐसे स्वर्णिम संयोग कम ही होते हैं। फ़ेदरीको फ़ेलीनी ने अपनी फ़िल्म 'एट एंड अ हाफ़' में एक ऐसे फ़िल्म निर्देशक की कहानी सुनाई थी, जो आभ्यन्तरिक संकटों से जूझ रहा है और वास्तविकता से जिसका नियंत्रण छूट गया है। एक निर्देशक ने वहाँ एक निर्देशक के लिए फ़िल्म बनाई थी। 'नायक' में सत्यजित ने एक नायक के लिए फ़िल्म बनाई और नायक को ही केन्द्रीय भूमिका में लिया। वह किसी और को लेते तो बात बनती नहीं। शायद कोई और उसमें अच्छा अभिनय करने का यत्न करता। लेकिन उत्तम कुमार को यहाँ अच्छा अभिनय करने की आवश्यकता नहीं थी, केवल उस स्पेस में घटित होना उनसे अपेक्षित था। उत्तम ने इसे होने दिया। फ़िल्म उनके भीतर से होकर गुज़र गई। उत्तम ने इतने एफ़र्टलेस तरीक़े से एक सितारे की वल्नरेबिलिटी, उसकी लार्जर-दैन-लाइफ़ छवि, उसके आकर्षण और चार्म को अभिनीत किया है कि आँख नहीं हटती।

सत्यजित ने कहीं पर कहा भी है कि यह फ़िल्म उन्होंने उत्तम कुमार को सोचकर ही लिखी थी। यह ‘कंचनजंघा' के बाद सत्यजित की दूसरी मौलिक पटकथा थी और इसको लिखते हुए पूरे समय उत्तम उनके दिमाग़ में थे (जैसे 'पारस पत्थर' बनाते समय तुलसी चक्रबर्ती और 'जलसाघर' बनाते समय छोबी बिस्वास उनके दिमाग़ में थे)। यानी व्यक्तित्व पहले रूपायित हुआ, कहानी ने उसका अनुसरण किया, फ़िल्म सबसे अन्त में साकार हुई। एक व्यक्ति-व्यंजना ने छवियों के विधान को निर्दिष्ट किया।

फ़िल्म में दो स्वप्न-दृश्य और सात फ़्लैशबैक हैं। ये दोनों ही सत्यजित के सिनेमा में अप्रचलित युक्तियाँ हैं, अमूमन वह इनका उपयोग नहीं करते। बहुत सारे क्लोज़ अप शॉट भी हैं। कमर्शियल सिनेमा का एक लोकलुभावन मैटिनी-आइडल फ़िल्म का नायक है- जिसके लिए मृणाल सेन ने सत्यजित को आड़े हाथों लिया था। लेकिन अपने माध्यम पर सत्यजित का अधिकार यहाँ निष्णात है। पूरी फ़िल्म पर उनका सधा हुआ हाथ दिखता है। यह 1966 की फ़िल्म है और सत्यजित तब तक सिनेमा की दुनिया में अपना पहला और सबसे सृजनात्मक दशक पूरा कर चुके थे। 1960 के दशक में बनाई गई उनकी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में यह 'कंचनजंघा ' और 'चारुलता' के समकक्ष है। सत्यजित के यहाँ लिरिकल रियलिज्म और सोशल रियलिज़्म की बहुत चर्चा हुई है, लेकिन अपने उच्च मध्यवर्गीय या सामंती चरित्रों की जैसी पैनी कैरेक्टर-स्टडी उन्होंने अपने सिनेमा करियर में लगातार की है, वह अल्प-विवेचित रह गई है। इस वर्ग के प्रति सत्यजित की अन्तर्दृष्टियाँ उनके बौद्धिक पर्यवेक्षण और सामाजिक-सांस्कृतिक समानुभूति से उत्पन्न होती थीं। 'नायक' जिस पेस पर, जिस टोन के साथ बनाई गई है, वह मनभावन है- मास्टर एट वर्क!