भुवन शोम / मुक्तक / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
सैकड़ों फ़िल्में देख लीजिए, इसके जोड़ की दूसरी नहीं मिलेगी। इसका परिवेश, उत्फुल्लता, उसके ब्योरे, और ख़ूब इत्मीनान, दुर्लभ चैनदारी वाली उसकी बुनावट। लेकिन शायद फ़िल्म के इन तात्त्विक गुणों के लिए मृणाल सेन की विशुद्ध भाव-प्रतिभा के साथ एक और चीज़ ज़िम्मेदार थी।
क़िस्सा यह था कि बाँग्ला में पूरी आठ फ़्लॉप फ़िल्में बनाने के बाद मृणाल दा घर बैठे थे। हाथ में कोई काम नहीं था। ऐसी ही ऊभचूभ में वह एक दिन एफ़.एफ़.सी. (फ़िल्म फ़ाइनेंस कॉर्पोरेशन, जिसे बाद में एन.एफ़.डी.सी. कहकर पुकारा गया) चले गए और एक फ़िल्म बनाने के लिए क़र्ज़ा ले आए। वह बलाई चंद मुखोपाध्याय की कहानी 'बनफूल' पर फ़िल्म बनाना चाहते थे। लेकिन यह बहुत छोटी कहानी थी। यार-दोस्तों ने कहा कि इस पर किसी फ़िल्म में एक किंचित लम्बी उपकथा ज़रूर बन सकती है, लेकिन फ़िल्म तो बन ही नहीं सकती। एक अधेड़ चिड़ीमार अफ़सर शिकार करने जंगल जाता है और वहाँ गांव की एक गोरी से मिलने के बाद जीवन के प्रति उसकी धारणाएँ बदल जाती हैं, इस दो लाइन की कहानी पर एक पूरी फ़ीचर फ़िल्म कैसे बनाइएगा। लेकिन मृणाल दा ने बनाई। अलबत्ता वह तब बनाई जा रही हिन्दी फ़िल्मों की लम्बाई से आधी यानी कुल 90 मिनट की ही है।
चूँकि मृणाल दा के पास भरपूर स्क्रीन टाइम था, लिहाज़ा वह निहायत इत्मिनान से एक-एक दृश्यबंध को चबाते हुए ('च्युइंग द सीनरी'- यह एक प्रसिद्ध सिनेमाई-मुहावरा है) यह फ़िल्म बनाते हैं। एक-एक ब्योरे पर ठहरते हैं। रेल की पटरियाँ, रेत के ढूह, भिनभिनाती मक्खियाँ, उड़ते परिंदे, अलार्म घड़ी की सुइयाँ, बैलगाड़ी की दुलकी चाल, उजाड़ महल में अदृश्य झूला। यह फ़िल्म अनेक अर्थपूर्ण अन्तरालों से भरी है। इसमें अनेक फ्रीज़-फ्रेम हैं। क्लोज़-अप हैं। जम्प-कट हैं। मृणाल दा को यहाँ अपने वक़्त का भरपूर इस्तेमाल करना था, सो उन्होंने किया और इस प्रक्रिया में मानो फ़िल्म का एक नया जीवंत फ़ॉर्म बन गया। यह क्या चीज़ है, इसकी तुलना आप किसी भी 'एपिक' फ़िल्म से करके देखिए, जो अढ़ाई-तीन घंटों की होने के बावजूद बेहद ठसी हुई होती है और साँस लेने तक का वक़्फ़ा नहीं देती। जबकि 'भुवन शोम'- जैसे पानी पर अनायास ही फिसलता जहाज़!
सत्यजित राय ने तब उपहासपूर्वक इस फ़िल्म को ख़ारिज करते हुए कहा था कि 'बिग बैड ब्यूरोक्रेट रिफ़ॉर्ड बाय अ रस्टिक गर्ल', यही इसकी कुलजमा कहानी है। तिस पर मृणाल दा ने पलटवार करते हुए कहा था कि ब्यूरोक्रेट यहाँ रिफ़ॉर्म्स नहीं, उलटे 'करप्ट' हुआ है। उसने 'स्टेटस-को' के आगे घुटने टेके हैं। मेरी फ़िल्म एक सरलीकृत लफ़्फ़ाज़ी से बढ़कर एक सोशल सटायर है। ख़ैर, राय साहब और मृणाल दा के बीच इस तरह की खटपट का एक अलग ही पिटारा है।
मृणाल सेन ने 'कोरस' जैसा राजनैतिक-रूपक बनाया, फिर 'कलकत्ता त्रयी' ('पदातिक', 'इंटरव्यू', 'कलकत्ता 71') बनाकर 70 के दशक में सत्यजित राय की प्रासंगिकता को चुनौती दे डाली, फिर 'ख़ारिज' बनाकर अपनी ही मान्यताओं को प्रश्नांकित किया, ‘अकालेर शन्धाने' बनाकर बंगाल के दुर्भिक्ष का अनेक समालोचकों की दृष्टि में सत्यजित की कृति ('अशनि संकेत') से बेहतर पाठ तैयार किया, फिर अपने भीतर मुड़े और 'खंडहर' और 'एक दिन अचानक' बनाकर ठहरे।
फिर भी, अगर मृणाल सेन को याद रखा जाएगा, तो सबसे पहले 'भुवन शोम ' का ही नाम लिया जाएगा। यहाँ अन्यथा उदग्र और बेचैन मृणाल दा की सहज-सिनेमाई प्रतिभा अपने स्वाभाविक शीर्ष पर है, और उत्पल दत्त और सुहासिनी मुळे का प्रमुदित अभिनय इस फ़िल्म का अलंकार।