अपराध और दंड / अध्याय 1 / भाग 1 / दोस्तोयेव्स्की

Gadya Kosh से
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शुरू जुलाई का एक दिन, शाम का समय जब उमसभरी गर्मी पड़ रही थी, एक नौजवान अपनी दुछत्ती में से निकला, जिसमें वह गली स. में रहता था। पुल क. की ओर वह इस तरह धीरे-धीरे बढ़ा जैसे उसे कोई संकोच हो रहा हो।

सीढ़ियों पर मकान-मालकिन से मुठभेड़ नहीं हुई। इससे वह साफ बच कर निकल आया था। उसकी दुछत्ती एक पाँच-मंजिला, ऊँचे मकान की एकदम ऊपरवाली छत के नीचे थी। कमरा क्या था, गोया एक अलमारी थी। मकान-मालकिन, जिसने उसे यह दुछत्ती दे रखी थी, उसके ठीक नीचेवाली मंजिल पर रहती थी। वही उसे दोपहर का खाना देती थी। उसे कुछ और भी सुविधाएँ देती थी, लेकिन जब भी वह बाहर जाता था, उसे उसकी रसोई के सामने से हो कर जाना पड़ता था, जिसका दरवाजा हमेशा खुला रहता था। और उधर से गुजरते हुए हर बार उस नौजवान को झिझक भी होती थी और डर भी लगता था, जिसकी वजह से उसकी त्योरियों पर शिकन पड़ जाती थी और शर्म महसूस होती थी। उसके ऊपर मकान-मालकिन का इतना किराया बाकी चढ़ा हुआ था कि वह उससे मिलते डरता था।

इसकी वजह यह नहीं थी कि वह कायर और दब्बू था। बात बल्कि उल्टी ही थी। पर इधर कुछ समय से उसके दिमाग पर कुछ ज्यादा ही बोझ रहा और वह इतना चिड़चिड़ा हो गया था कि उसे अपने बीमार होने का भ्रम होने लगा था। वह अपने आपमें इस कदर खोया रहने लगा था और अपने साथियों से इस कदर कट चुका था कि उसे मकान-मालकिन से ही नहीं, किसी से भी मिलते हुए डर लगता था। गरीबी ने उसे बिलकुल कुचल कर रख दिया था। तो भी इधर कुछ समय से उसे अपनी हालत पर कोई चिंता नहीं रह गई थी। उसने रोजमर्रा की बातों की ओर ध्यान देना छोड़ दिया था; इसमें उसकी कोई इच्छा भी नहीं रह गई थी। वह मकान-मालकिन से, जो उसके खिलाफ कुछ भी कर सकती थी, कतई डरता नहीं था। लेकिन सीढ़ियों पर रोका जाना, उसकी छोटी-मोटी, बेसर-पैर की गप, पैसों की अदायगी के तकाजे, धमकियाँ और शिकायतें सुनने की मजबूरी और बहाने खोजने के लिए अपने दिमाग पर जोर देना, टालमटोल, झूठ बोलना-नहीं, इससे अच्छा तो वह यही समझता था कि दबे पाँव सीढ़ियों से नीचे खिसक जाए और किसी के देखे बिना वहाँ से चलता बने।

लेकिन इस बार जब वह बाहर निकला तो उसे अपनी मकान-मालकिन से सामना होने के डर का गहरा एहसास हुआ।

'मैं ऐसा काम करने की कोशिश करना चाहता हूँ और फिर भी छोटी-छोटी बातों से डरता हूँ,' उसने एक अजीब-सी मुस्कराहट के साथ सोचा। 'हुँह! ...सब कुछ होता आदमी के अपने हाथ में है और फिर भी वह बुजदिली की वजह से सब कुछ गँवा देता है। यह तो एक मानी हुई बात है। यह जानना भी कितना दिलचस्प होता है कि आदमी किस चीज से सबसे ज्यादा डरता है। सबसे ज्यादा वह डरता है कुछ नया करने से, कोई नई बात कहने से... लेकिन मैं बकबक बहुत करता हूँ और बकबक बहुत करता हूँ, इसीलिए कुछ करता नहीं। या शायद ऐसा न हो कि कुछ करता नहीं, इसलिए बकबक करता हूँ। यूँ बकबक करना मैंने इधर एक महीने में ही सीखा है... अपनी माँद में कई-कई दिन पड़े रह कर सोचते हुए... तमाम बकवास चीजों के बारे में। मैं इस वक्त वहाँ जा क्यों रहा हूँ मैं क्या वह काम कर पाऊँगा क्या मैं संजीदा भी हूँ यह तो महज अपना दिल बहलाने के लिए मेरी कोरी कल्पनाएँ हैं; खिलौने! हाँ शायद ये खिलौने ही हों।'

सड़क पर बेपनाह गर्मी थी। फिर यह दमघोंटू हवा, शोर-गुल और पलस्तर, पाड़, ईंटें, धूल और पीतर्सबर्ग की वह खास गर्मी वाली बदबू, जिससे वे सभी लोग अच्छी तरह परिचित हैं, जो गर्मियों में वहाँ से कहीं बाहर नहीं निकल पाते। इन सब चीजों ने उस नौजवान के मानसिक तनाव को और भी असहनीय बना दिया था। उन शराबखानों से आनेवाली असहनीय दुर्गंध ने, जिनकी संख्या शहर के इस हिस्से में औरों से कहीं ज्यादा ही थी, और नशे में चूर उन लोगों ने, जो उसे लगातार आते-जाते मिल रहे थे, बावजूद इसके आज काम का दिन था, इस तस्वीर के दुखद घिनौनेपन की रही-सही कमी भी पूरी कर दी थी। उस नौजवान के सुसंस्कृत चेहरे पर एक पल के लिए बेहद गहरी विरक्ति की झलक नजर आई। लगे हाथ हम यह बता दें कि वह बेहद खूबसूरत था। औसत से अधिक लंबा कद, गठा हुआ छरहरा बदन, सुंदर काली आँखें और गहरे सुनहरे बाल। जल्द ही वह गहरे विचारों में डूब गया, बल्कि यह कहना कहीं ज्यादा सही होगा कि उसका दिमाग किसी भी तरह के विचार से बिलकुल खाली था। यह देखे बिना कि उसके चारों ओर क्या हो रहा है, वह चलता रहता और उसे वह सब देखने की कोई फिक्र भी नहीं थी। अपने आपसे बातें करने की आदत की वजह से, जिसे उसने अभी-अभी अपने आपसे स्वीकार किया था, वह बीच-बीच में कुछ बुदबुदाने लगता था। इन पलों में उसे इस बात का एहसास होने लगता था कि उसके विचार कभी-कभी उलझ जाते थे। वह बहुत कमजोर हो चुका था; दो दिन से उसने शायद ही कुछ खाया होगा।

वह इतने गंदे कपड़े पहने था कि जिस आदमी को मैले-कुचैले रहने की आदत हो, उसे भी ऐसे चीथड़े पहन कर सड़क पर निकलने में शर्म आए। लेकिन शहर के उस हिस्से में कपड़ों की किसी भी कमी पर शायद ही किसी को हैरानी होती होगी। भूसामंडी की नजदीकी, बदनाम अड्डों की बहुतायत, और पीतर्सबर्ग के बीचोंबीच की इन सड़कों पर और इन गलियों में कारीगरों और दस्तकारों की धक्का-मुक्की की वजह से सड़कों पर ऐसे तरह-तरह के लोग दिखाई देते थे कि कोई आदमी कितना ही अजीब क्यों न हो, उस पर किसी को हैरानी नहीं होती थी। लेकिन नौजवान के दिल में इतनी तल्खी और इतनी धुतकार भरी थी कि उसे सड़क पर अपने फटे-पुराने कपड़ों की वजह से, नौजवानी की तमाम नाजुकमिजाजी के बावजूद, उलझन तो नहीं ही हो रही थी। जब किसी जान-पहचान के आदमी से या अपने किसी पिछले यार से उसकी मुलाकात हो जाती, जिससे मिलना उसे दरअसल किसी वक्त भी अच्छा नहीं लगता, तो बात दूसरी होती... फिर भी जब शराब के नशे में चूर एक आदमी, जिसे न जाने क्यों एक बड़ी-सी और एक तगड़े घोड़े से खींची जा रही गाड़ी में कहीं ले जाया जा रहा था, अचानक उसके पास से गुजरते समय उसकी ओर उँगली उठा कर और अपने गले का पूरा जोर लगा कर चिल्लाया 'अरे ओ, जर्मन हैटवाले!' तो वह नौजवान ठिठक गया। काँपते हुए हाथ से उसने अपनी हैट पकड़ ली। यह जिमरमान की बनी हुई ऊँची-सी गोल हैट थी, लेकिन बिलकुल घिस चुकी थी, इतनी पुरानी थी कि लगता था उसमें जंग लगी हो, बिलकुल फट गई थी और उस पर जगह-जगह मैल के चकते दिखाई पड़ रहे थे। उसकी कगार एक सिरे से गायब थी और वह एक तरफ बहुत बेढंगी झुकी हुई थी। लेकिन शर्म ने नहीं बल्कि एक बिलकुल ही दूसरी भावना ने, जो भय से मिलती-जुलती थी, उसे आ दबोचा।

'मैं जानता था,' वह बुदबुदाया। 'पहले ही सोचा था मैंने! सबसे बुरी बात यही है! ऐसी ही जरा-सी नादानी से, इतनी छोटी-सी बात से बना-बनाया सारा खेल बिगड़ सकता है! देखा न, सभी का ध्यान मेरी हैट की ओर जा रहा है... यह देखने में लगता ही इतना बेतुका है कि किसी का भी ध्यान उसकी ओर जाए... अपने इन चीथड़ों पर मुझे पहननी चाहिए टोपी, किसी भी किस्म की पुरानी, चपटी, नान जैसी टोपी, न कि यह बेहूदा चीज। ऐसा हैट तो किसी को भी नहीं पहनना चाहिए। जो मील भर दूर से नजर आए, जो याद रहे... असल बात यह है कि यह लोगों को याद रहेगी, और इससे उन्हें सुराग भी मिलेगा। इस काम के लिए तो होना यह चाहिए कि आदमी नजर में जितना आए, उतना ही अच्छा... यही छोटी-छोटी बातें तो असल चीज होती हैं! ऐसी ही छोटी-छोटी बातों से हमेशा सब कुछ तबाह होता है...'

उसे बहुत दूर नहीं जाना था; उसे बल्कि यह भी पता था कि उस मकान के दरवाजे से वह जगह कितने कदम की दूरी पर है। ठीक सात सौ तीस। एक बार जब वह अपने खयालों में खोया हुआ था, तब उसने ये कदम गिने भी थे। उस समय उसे इन सपनों पर कोई भरोसा नहीं था; वह तो उनकी भयानक और मनमोहक ढिठाई से बस अपने मन को उकसा रहा था। अब, एक महीने बाद, वह उन्हें बिलकुल दूसरे ढंग से देखने लगा था, और अपने आपसे, अपनी दुर्बलता और ढुलमुलपन के बारे में की गई बहुत-सी कड़वाहट भरी बातों के बावजूद उस सपने को एक व्यावहारिक योजना समझने लगा था, हालाँकि उसे अभी तक भरोसा नहीं था कि वह कभी इस काम को पूरा कर पाएगा। अब वह निश्चित रूप से इस योजना के रिहर्सल के लिए जा रहा था, और हर कदम के साथ उसका जोश अधिक तेज होता जा रहा था।

जब वह उस बड़े से मकान के पास पहुँचा, जिसके सामने एक ओर नहर थी और दूसरी ओर सड़क, तो उसका दिल डूब रहा था। वह घबराहट के मारे काँप रहा था। इस घर के छोटे-छोटे हिस्से किराए पर उठा दिए गए थे और उनमें हर तरह के मेहनत-मजदूरी करनेवाले लोग बसे हुए थे - दर्जी, ताले बनानेवाले, बावर्ची, कुछ जर्मन मूल के लोग, जिस तरह भी बने अपनी रोजी कमानेवाली लड़कियाँ, छोटे-मोटे किरानी, वगैरह। घर के दोनों दरवाजों से और उसके दोनों दालानों में लगातार आवाजाही रहती थी। तीन-चार दरबान भी पहरा देने के लिए थे। नौजवान बहुत खुश था कि उनमें से किसी से भी उसकी मुठभेड़ नहीं हुई। सबकी नजरें बचा कर वह फौरन दाहिनी तरफवाले दरवाजे में घुसा और ऊपर सीढ़ियों पर चला गया। यह पीछेवाली सीढ़ी थी, अँधेरी और सँकरी। वह उससे परिचित हो चुका था, और उसे अपना रास्ता मालूम भी था। उसे यहाँ का पूरा-का-पूरा वातावरण अच्छा लगा। ऐसे अँधेरे में तो खोजी से खोजी नजर से भी डरने की कोई आवश्यकता न थी। 'अगर मुझे अभी इतना डर लग रहा है, तो तब भला क्या होगा जब मान लो मैं सचमुच वह काम करने पर उतर आया' चौथी मंजिल तक पहुँचते-पहुँचते वह अपने आपसे यह सवाल किए बिना न रह सका। यहाँ पर कुछ कुलियों ने उसका रास्ता रोका हुआ था, जो एक फ्लैट से सामान बाहर निकाल रहे थे। वह जानता था कि उस फ्लैट में सरकारी नौकरी से लगा एक जर्मन क्लर्क और उसका परिवार रहता था। 'तो यह जर्मन यहाँ से जा रहा है; अब इस सीढ़ी की तरफ से चौथी मंजिल पर उस बुढ़िया के अलावा कोई नहीं रह जाएगा। खूब, यह भी अच्छी बात है,' उसने बुढ़िया के फ्लैट की घंटी बजाते हुए अपने मन में सोचा। घंटी में फुसफुसी-सी टनटनाहट हुई, गोया वह ताँबे नहीं, टीन की बनी हो। इस तरह के छोटे-छोटे फ्लैटों की घंटियाँ हमेशा इसी तरह की आवाज करती हैं। वह उस घंटी की आवाज भूल चुका था। सो उसकी अजीब-सी टनटनाहट सुन कर अब उसे ऐसा लगा जैसे उसे कोई चीज याद आ गई हो और वही चीज साफ तौर पर उसके सामने आ गई हो। ...वह चौंका। उसकी रग-रग में बेहद तनाव पैदा हो चुका था। थोड़ी ही देर बाद दरवाजा जरा-सा खुला। बुढ़िया ने दरार में से अजनबी को स्पष्ट अविश्वास के साथ देखा, अँधेरे में उसकी चमकती हुई, छोटी-छोटी आँखों के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। लेकिन गलियारे में बहुत-से लोगों को देख कर उसका साहस बढ़ा और उसने दरवाजा पूरा खोल दिया। नौजवान ने अँधेरी ड्योढ़ी में कदम रखा, जिसे एक पर्दा लगा कर छोटी-सी रसोई से अलग कर दिया गया था। बुढ़िया उसके सामने चुप खड़ी थी और उसे सवालिया नजरों से देख रही थी। वह बहुत छोटे-से दुबले-पतले, सूखे शरीर की साठसाला बूढ़ी औरत थी। उसकी तीखी नजरों में कीना भरा हुआ था, और नाक बहुत छोटी-सी और नुकीली थी। बेरंग कुछ-कुछ भूरे बालों में ढेरों तेल चुपड़ा हुआ था, और वह अपने सिर पर रूमाल भी नहीं बाँधे हुए थी। लंबी पतली गर्दन के चारों ओर, जो देखने में मुर्गी की टाँग जैसी लगती थी, फलालैन का एक चीथड़ा-सा लिपटा हुआ था, और गर्मी के बावजूद कंधों पर फर का एक सड़ियल लबादा झूल रहा था, जो बहुत पुराना होने के कारण पीला पड़ चुका था। बुढ़िया हर साँस के साथ खाँसती और कराहती थी। नौजवान ने उसे कुछ अजीब से ही भाव से देखा होगा क्योंकि उसकी आँखों में फिर अविश्वास की चमक पैदा हो गई थी।

'मैं रस्कोलनिकोव हूँ; पढ़ता हूँ, यहाँ मैं एक महीना पहले ही आया था,' नौजवान जल्दी-जल्दी बुदबुदाया, फिर थोड़ा-सा झुका। उसे खयाल आ गया था कि उसे कुछ अधिक शिष्टता बरतनी चाहिए।

'मुझे याद है, जनाब, मुझे आपका यहाँ आना अच्छी तरह याद है,' बुढ़िया ने एक-एक शब्द का साफ उच्चारण करते हुए कहा। वह अपनी खोजी नजरें अभी तक उसके चेहरे पर जमाए हुए थी।

'और अब... अब मैं फिर उसी काम से आया हूँ,' रस्कोलनिकोव ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा। बुढ़िया का अविश्वास देख कर वह कुछ बेचैन हो उठा था और उसे कुछ उलझन हो रही थी।

'शायद वह हमेशा ऐसी ही रहती हो, मैंने पिछली बार गौर नहीं किया होगा,' उसने एक चिढ़भरी बेजारी से सोचा।

बुढ़िया कुछ देर रुकी, जैसे उसे संकोच हो रहा हो, फिर एक ओर हट कर, कमरे के दरवाजे की ओर इशारा करते हुए, मेहमान को अपने सामने से हो कर गुजरने का मौका देते हुए बोली, 'अंदर आइए, जनाब।'

उस छोटे-से कमरे में, जिसमें नौजवान ने कदम रखा, दीवारों पर पीला कागज मढ़ा हुआ था, खिड़कियों पर मलमल के पर्दे पड़े थे और जेरेनियम के फूल रखे हुए थे। डूबते हुए सूरज की वजह से उस समय वहाँ काफी रौशनी थी।

'तो उस समय भी सूरज चमक रहा होगा।' रस्कोलनिकोव के दिमाग में यह विचार बिजली की तरह कौंधा और उसने तेजी से नजरें दौड़ा कर कमरे की हर चीज को एक बार देखा। जहाँ तक हो सका, उसकी कोशिश यही थी कि हर चीज की जगह को अच्छी तरह देख कर याद कर ले। सारा ही फर्नीचर बहुत पुराना, किसी पीली-सी लकड़ी का था। उसमें एक सोफा था जिसकी पीछे की बड़ी-सी लकड़ी की टेक कुछ झुकी हुई थी; उसके सामने एक अंडाकार मेज थी; खिड़कियों के बीच एक सिंगार-मेज थी, जिस पर आईना लगा हुआ था; दीवार से कुर्सियाँ लगी हुई रखी थीं, पीले रंग के फ्रेमों में दो-तीन बहुत सस्ती किस्म की तस्वीरें थीं, जिनमें जर्मन सुंदरियाँ हाथों में चिड़ियाँ लिए खड़ी थीं। बस, और कुछ नहीं। कोने में एक छोटी-सी मूरत के सामने रौशनी जल रही थी। हर चीज बहुत साफ-सुथरी थी। फर्श और फर्नीचर पर चमकदार पालिश थी; हर चीज दमक रही थी। 'यह सब काम लिजावेता का होगा,' नौजवान ने सोचा। पूरे फ्लैट में धूल का एक कण भी कहीं नहीं था। 'ऐसी सफाई तो सबसे चिढ़नेवाली बूढ़ी विधवाओं के घरों में ही देखने को मिलती है,' रस्कोलनिकोव ने फिर सोचा, और नजरें बचा कर दूसरे, छोटे-से कमरे में जानेवाले दरवाजे पर पड़े सूती पर्दे को देखा। उस कमरे में बुढ़िया का पलँग था और दराजोंवाली अलमारी थी। उसने इससे पहले उस कमरे पर कभी नजर नहीं डाली थी। पूरे फ्लैट में बस यही दो कमरे थे।

'क्या चाहिए?' बुढ़िया ने कमरे में आते हुए कठोर स्वर में कहा। वह पहले की तरह ही ठीक उसके सामने खड़ी हो गई ताकि सीधे उसकी नजरों में नजरें डाल कर देख सके।

'मैं कुछ गिरवी रखने लाया हूँ,' और यह कह कर उसने अपनी जेब से पुराने ढंग की, चाँदी की एक चपटी-सी घड़ी निकाली, जिसके पीछे दुनिया का गोल नक्शा खुदा हुआ था। घड़ी की जंजीर फौलाद की थी।

'लेकिन पिछली गिरवी की मीयाद पूरी हो चुकी। परसों एक महीना पूरा हो गया।'

'मैं आपको एक महीने का सूद और दे दूँगा। बस थोड़ी-सी मोहलत और दीजिए।'

'वो तो मैं वही करूँगी जनाब, जो मेरा जी चाहेगा, कि मोहलत दूँ या फौरन आपकी गिरवी रखी चीज बेच दूँ।'

'आप मुझे इस घड़ी का कितना देंगी अल्योना इवानोव्ना?'

'आप ऐसी छोटी-छोटी चीजें ले कर आते हैं जनाब कि कोई उनकी कीमत लगाए भी तो क्या लगाए। मैंने पिछली बार आपको आपकी अँगूठी के दो रूबल दिए थे और जौहरी की दुकान में वैसी ही बिलकुल नई अँगूठी डेढ़ रूबल में मिल सकती है।'

'आप मुझे इसके चार रूबल दे दीजिए। मैं इसे जरूर छुड़ा लूँगा क्योंकि यह मेरे बाप की थी। जल्द ही मुझे कुछ पैसा मिलनेवाला है।'

'डेढ़ रूबल, और सूद पेशगी। अगर आपका जी चाहे!'

'डेढ़ रूबल!' नौजवान चीख पड़ा।

'आपकी मर्जी,' यह कह कर बुढ़िया ने घड़ी उसे वापस कर दी। नौजवान ने घड़ी वापस ले ली। उसे इतना गुस्सा आ रहा था कि वह वहाँ से उठ कर शायद चला भी जाता। पर उसने फौरन अपने आपको रोका। उसे याद आया कि उसके पास जाने के लिए कोई और जगह नहीं थी, और फिर यहाँ आने के पीछे उसका एक और मकसद भी तो था।

'लाइए, दीजिए,' उसने बड़े कड़ेपन से कहा।

बुढ़िया ने अपनी जेब में चाभियाँ टटोलीं, और पर्दे के पीछे जा कर दूसरे कमरे में गायब हो गई। नौजवान कमरे के बीचोंबीच अकेला रह गया। वह बड़ी जिज्ञासा से कान लगा कर सुनने लगा, और कुछ सोचता रहा। दराजोंवाली अलमारी का ताला खुलने की आवाज उसे सुनाई पड़ी। 'सबसे ऊपरवाली दराज होगी,' उसने सोचा। 'तो चाभियाँ वह अपनी दाहिनी जेब में रखती है... सारी की सारी एक गुच्छे में, लोहे के छल्ले में पिरोई हुई... और उनमें एक चाभी बाकी से तीन गुनी बड़ी है, गहरे खाँचोंवाली। वह तो दराजोंवाली अलमारी की चाभी हो नहीं सकती... यानी कि कोई दूसरा बड़ा संदूक भी होगा या तिजोरी होगी... यह बात जाननी ही होगी। तिजोरी की चाभियाँ हमेशा ऐसी ही होती हैं... लेकिन यह सब कितना बड़ा कमीनापन है...'

बुढ़िया वापस आई।

'यह लीजिए साहब। जैसा कि हम लोगों में कहा जाता है, रूबल पीछे दस कोपेक महीना, इसलिए मैं डेढ़ रूबल में से एक महीने के पंद्रह कोपेक पेशगी काट रही हूँ। लेकिन जो दो रूबल मैंने आपको पहले दिए थे, उनके भी इस हिसाब से मेरे बीस कोपेक आपके जिम्मे पेशगी के निकलते हैं। इस तरह कुल मिला कर हुए पैंतीस कोपेक। अब मुझे आपको घड़ी के एक रूबल पंद्रह कोपेक देने हैं। सो ये रहे।'

'क्या कहा! कुल एक रूबल और पंद्रह कोपेक!'

'जी हाँ।'

नौजवान ने रकम कोई बहस किए बिना ले ली। उसने बुढ़िया को गौर से देखा। उसे वहाँ से जाने की कोई जल्दी नहीं थी, गोया वह अभी कुछ और कहना या करना चहता हो, लेकिन उसे खुद ठीक से पता न हो कि वह क्या कहना या करना चाहता है।

'एक-दो दिन में शायद मैं आपके पास कोई और चीज ले कर आऊँ अल्योना इवानोव्ना... कीमती चीज... चाँदी की... सिगरेट-केस, जैसे ही वह मुझे अपने दोस्त से वापस मिल जाएगा...' - उसने बौखला कर, अटकते हुए कहा।

'खैर, उसकी बात उसी वक्त होगी जनाब।'

'अच्छा, चलता हूँ... आप घर पर हमेशा अकेली रहती हैं, आपकी बहन यहाँ नहीं रहती क्या?' उसने ड्योढ़ी में निकलते हुए, जहाँ तक हो सका इस तरह पूछा जैसे कोई खास बात न हो।

'उससे आपको क्या लेना-देना?'

'नहीं, कोई खास बात नहीं, मैंने तो यों ही पूछा। आप तो बहुत जल्दी... अच्छा चलता हूँ, अल्योना इवानोव्ना।'

रस्कोलनिकोव बौखलाया हुआ, बाहर चला आया। उसकी यह बौखलाहट लगातार और गहराती गई, सीढ़ियाँ उतरते हुए वह बीच में दो-तीन बार ठिठका, गोया, अचानक उसे कुछ खयाल आ गया हो। जब वह बाहर सड़क पर निकल आया तो वह चिल्ला उठा :

'हे भगवान, यह सब कितनी घिनौनी बात है! और क्या मैं ऐसा कर सकता हूँ, क्या यह मेरे लिए मुमकिन है... नहीं, यह सब बकवास है, सरासर बकवास है!' उसने जी कड़ा करके कहा। 'ऐसी बेहूदा बात मेरे दिमाग में आई कैसे? मेरा दिल भी कैसी गंदी-गंदी बातें सोचता है! सरासर गंदी, ऐसी कि नफरत होने लगे, घिनौनी, घिनौनी! ...और पूरे एक महीने से मैं...'

उसके अंदर जो तूफान उठ रहा था, उसे कोई भी शब्द, कोई भी चीख व्यक्त नहीं कर सकती थी। बुढ़िया के घर जाते समय नफरत की जिस भावना ने उसके दिल को लताड़ना और तकलीफें देना शुरू किया था, वह अब ऐसी सतह तक पहुँच गई और उसने ऐसा स्पष्ट रूप ले लिया कि उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अपने आपको इस मुसीबत से छुटकारा दिलाने के लिए वह क्या करे। वह शराब के नशे में चूर किसी शख्स की तरह सड़क की पटरी पर चला जा रहा था; उसे कोई खबर न थी कि कौन उसके पास से हो कर निकला और कौन उससे टकराता हुआ आगे बढ़ गया। उसे तब जा कर होश आया जब वह अगली सड़क पर पहुँच चुका था। उसने चारों ओर नजर दौड़ा कर देखा। मालूम हुआ कि वह एक शराबखाने के पास खड़ा हुआ है जिसमें जाने के लिए सड़क की पटरी से तहखाने तक सीढ़ियाँ चली गई थीं। उसी समय दो शराबी बाहर निकल कर दरवाजे पर आए और एक-दूसरे को गालियाँ बकते हुए एक-दूसरे को सहारा देते हुए सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। रुक कर कुछ सोचे बिना रस्कोलनिकोव फौरन सीढ़ियों से नीचे उतर गया। उस समय तक वह कभी किसी शराबखाने में नहीं गया था, लेकिन इस समय उसका सर चकरा रहा था और प्यास के मारे उसका गला सूखा जा रहा था। ठंडी बियर पीने को उसका जी बहुत चाह रहा था; उसने सोचा कि उसकी कमजोरी खाने की कमी की वजह से है। वह अँधेरे और गंदे कोने में छोटी-सी चिपचिपी मेज के सामने जा कर बैठ गया, बियर मँगाई और पहला गिलास एक साँस में गटक गया। फौरन उसे कुछ राहत मिली और वह साफ-साफ सोचने लगा।

'बकवास है वह सब कुछ,' उसने आशापूर्वक कहा, 'इस सबमें चिंता की कोई बात नहीं! यह बस शरीर की कमजोरी के सबब है! बस एक गिलास बियर, सूखी रोटी का एक टुकड़ा और एक पल में दिमाग में ताकत आ गई, खयाल पहले से ज्यादा साफ हो गए, और इरादा पक्का हो गया! छिः, ये सब कैसी टुच्ची बातें हैं!'

लेकिन इस सारे तिरस्कार भरे उद्गारों के बावजूद वह अब खुश दिखाई दे रहा था, गोया किसी भयानक बोझ से अचानक उसे छुटकारा मिल गया हो। बड़ी मित्रता के भाव से उसने कमरे में बैठे लोगों पर नजर डाली। लेकिन उस पल भी उसके मन में धुँधली-सी आशंका बनी हुई थी कि शायद उसके दिमाग की यह अधिक सुखमय स्थिति भी सामान्य तो नहीं ही है।

शराबखाने में उस समय बहुत थोड़े-से लोग थे। उन दो शराबियों के अलावा, जो उसे सीढ़ियों पर मिले थे, एक और टोली उसी वक्त बाहर गई थी, जिसमें अकार्दियन लिए पाँच आदमी थे और एक लड़की थी। उनके जाते ही कमरे में शांति छा गई थी और वह कुछ खाली-खाली लगने लगा था। जो लोग शराबखाने में रह गए थे उनमें एक आदमी था जो देखने से दस्तकार लगता था। उसने शराब जरूर पी रखी थी, लेकिन हद से कुछ ज्यादा भी नहीं। वह सामने एक बड़ा-सा बियर का मग रखे बैठा था। साथ में लंबे-चौड़े डीलडौलवाला, सफेद दाढ़ीवाला एक तगड़ा-सा आदमी था, जिसने एक छोटा-सा चुन्नटदार कोट पहन रखा था। वह बहुत पिए हुए था और बेंच पर ही सो गया था; थोड़ी-थोड़ी देर बाद वह गोया सोते-सोते ही अपनी उँगलियाँ चटकाने लगता था। उसकी बाँहें पूरी फैली हुई थीं और जब वह कोई बेसर-पैर की धुन गुनगुनाने की कोशिश करता तो धड़ बेंच पर इधर-उधर हिलने-डुलने लगता था। वह कुछ इस तरह की पंक्तियाँ याद करने की कोशिश कर रहा था :

दिल से प्यार किया बीवी को पूरा-पूरा साल,

पूरा साल किया बीवी को दिल से मैंने प्यार...

फिर अचानक जाग कर वह गाने लगा,

फिर इक दिन वह राह में चलते मिली मुझे इक बार

वही पुरानी जाने-मन, जो कभी थी मेरी नार...

लेकिन इस मस्ती में कोई उसका साथ नहीं दे रहा था। उसका साथी खामोश, इन सब उद्गारों को विरोध और अविश्वास के भाव से देख रहा था। कमरे में एक और आदमी था जो देखने में मानो एक रिटायर्ड सरकारी क्लर्क लगता था। वह सबसे अलग बैठा, बीच-बीच में अपने मग में से एक चुस्की लगा लेता था और एक नजर वहाँ बैठे लोगों पर डाल लेता था। ऐसा लगता था कि वह भी किसी बात पर तिलमिलाया हुआ है।