अपवित्र आख्यान / अब्दुल बिस्मिल्लाह / पृष्ठ 1
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वे दोनों पहली बार साथ-साथ रिक्शे पर बैठे थे। गर्मियों के दिन थे। चारों तरफ़ धूप चिलचिला रही थी। रह-रहकर धूप-भरे बवंडर उठ रहे थे। पसीने से रिक्शा चलानेवाले की क़मीज़ तर हो गई थी। मगर था वह मस्त। गले में लाल रंग का रुमाल बाँधे गुनगुनाता हुआ इतनी तेज़ी के साथ रिक्शा चला रहा था कि वे लोग रह-रहकर एक-दूसरे को पकड़ लेते थे। जब कभी वह दाएँ या बाएँ रिक्शा घुमाता तो ऐसा लगता मानो अब गिरे, अब गिरे। रिक्शा जैसे ही चौड़ी सड़क को पार करके संकरी सड़क पर पहुँचा यासमीन ने अपना पर्श खोला और नक़ाब निकालकर जल्दी –जल्दी उसे पहनने लगी। जमील हक्का-बक्का रह गया।
‘‘यासमीन तुम नक़ाब ओढ़ती हो ?’’
‘‘क्यों ?’’ यासमीन ने उँगलियों से नक़ाब का पल्ला उठाते हुए उसकी तरफ़ ताका। ‘‘हिन्दी पढ़ते का यह मतलब तो नहीं होता कि आदमी अपनी तहज़ीब भुला दे।’’
‘‘यह तुम्हारी तहजीब है या डर ?’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘कुछ नहीं, कुछ नहीं....।’’
‘‘देखो जमील.....’’ बस, इतना ही यासमीन ने कहा और रिक्शेवाले को आगे बढ़ने से रोकती हुई बोली,‘‘रुको।’’ रिक्शा रुक गया।
‘‘तुम यहीं उतर जाओ।’’ यासमीन ने उस क्षण ठीक से अपना चेहरा छिपा लिया था, ‘‘मैं चलती हूँ। तुम थोड़ी देर बाद आना।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘यूँ ही हमारा इस तरह एक साथ रिक्शे पर बैठकर घर चलना ठीक नहीं होगा। अब्बू ने या बड़े भैया ने देख लिया तो....?’’
‘‘तो क्या होगा ?’’
‘‘होगा तो कुछ नहीं मगर ...’’
जमील रिक्शे से उतर गया।
‘‘चलो ....’’ यासमीन ने रिक्शे से कहा और जमील से बोलीः
‘‘थोड़ा इधर-उधर टहलते हुए आना- आँ...। मकान नम्बर एक सौ पैंतीस, ठीक रोड पर.....।’’
धूल का एक जलता हुआ बवंडर आया और पल-भर में रिक्शा ओझल हो गया।
जमील पीछे आ रहे स्कूटर के पिर्र-पिर्र से चौका। घबराहट में वह बजाय बाई ओर के दाई ओर भागा। स्कूटर वाले के मुँह से एक अस्पष्ट गाली निकली, फिर वह भी ओझल हो गया।
दाहिनी तरफ़ चायखाना था। सामने भट्ठी में पत्थर के कोयले जिस पर एक केतली चढ़ी थी। भट्टी के ऊपर, इधर उधर उबली हुई चाय की पत्तियाँ बिखरी थीं। कहीं-कहीं शक्कर के दाने भी। इस तरह कुल मिलाकर ऐसा लग रहा था मानो वह भट्ठी नहीं, साक्षात् ब्रह्मांड है। लाल-लाल दहकते हुए सूर्य के इर्द-गिर्द अदर्शनीय नक्षत्र।
जमील चायख़ाने में घुस गया। वहाँ धूप नहीं थी, मगर भट्ठी की आँच का ताप मौजूद था। वह धूल के बवंडर भी नहीं थे, मगर बीडियों का धुआँ भी हुआ था। वह एक बेंच पर बैठ गया।
‘‘एक चाय।’’ उसने ज़रा ज़ोर से आवाज़ लगाई और अपनी फ़ाइल रखने के लिए जगह देखने लगा। जिस बेंच पर वह बैठा था. उस पर दो लोग बैठे हुए थे दाहिनी तरफ़। बाई तरफ़ थोड़ी-सी जगह न ख़ाली थी, मगर वहां पानी गिरा हुआ था। टेबुल पर चाय के भरे हुए प्याले तो थे ही, ख़ाली भी पड़े थे। उन पर मक्खियाँ भिनभिना रहीं थी। प्यालों और मक्खियों के क़ब्जें से तो जो टुकड़े बचे हुए थे उन पर या तो अधजली बीड़ियों के जंगल नज़र आ रहे थे या फिर छलकी हुई चाय के सागर.....और जमील की फाइल में...अयोध्याकांड, कामयाबी और झूठा सच के नोट्स...।
चाय आ गई जमील ने फ़ाइल अपनी गोद में रख ली और इन्तजार करने लगा चाय ऊपर भूरे रंग की पर्त जम जाने का इन्तजार। जमील पहले उस पर्त को उँगली से निकालकर अलग करता, फिर चाय पीता। यह उसकी आदत नहीं, उसका दर्शन था। पानी में घुसने से पहले काई हटा दो। पानी क्या है ? काई क्या है इन प्रश्नों के उत्तर अभी तक उसे नहीं मिले थे।
जमील मुस्कराया। लेकिन तुरन्त ही उसने लक्ष्य किया कि सामने की बेंच पर बैठा आदमी भाँप गया है कि वह मुस्करा रहा है। जमील गम्भीर हो गया।
‘ये क्या दार्शनिक जैसी बातें करते हो ? यासमीन ने उसे दिन टोका था- लाइब्रेरी में।
‘इस मुल्क में कोई मुसलमान दार्शनिक होता हुआ है ?’
चाय में भूरे-रंग की परत जम गई थी। मगर जमील ने जब उसे अलग करने की कोशिश की तो वह बिखर गई। अब उसे हटाया नहीं जा सकता था। या तो पर्त के टुकड़ों समेत चाय पी जा सकती थी, या फिर छोटी जा सकती थी ! सो, क्या करना चाहिए ?
मकान नम्बर एक सौ पैंतीस में जाना चाहिए या नहीं जमील ने स,मय जानने के लिए अपनी बाई कलाई पर से क़मीज की आस्तीन हटाई लेकिन घडी़ तो वहां थी ही नहीं वह क्षेप गया । मान लीजिए आपका रास्ता बीच में ही कटा हुआ हो और उस गड्ड़े में पाँव रखते हुए आप आगे बढ़ते हों.... कि अचानक एक रोज़ जब आप गड्ढे में पाँव रखने की केशिश करे और पता चले की वहां तो कोई गड्ढा नहीं है ...तो ?’’
दरअसल हफ्ते भर पहले जमील ने अपनी घडी बेच दी थी। मगर वह भूल गया था.... और घड़ी के बगैर भी क्या कोई समय का अनुमान लगा सकता है।
जमील को लगा कि वह फिर दर्शन के जाले में फँसा रहा है। किसी भी जाले अथवा जाल में न फँसने के एकमात्र उपाय य़ह है कि मनुष्य स्वयं को कार्य और कारण से परे कर ले। उसने तत्काल निर्णय लिया और चाय छोड़ दी ! वाह, निर्णय ले लेने का भी क्या सुख है ! वह भट्ठी के ताप और धुँए की घुटन से बाहर आ गया। जमील यासमीन के घर नहीं गया। शाम हो गई थी, मगर सूरज अभी नहीं डूबा था। वह क़ब्रस्तान के पार, पेड़ों के पीछे चमक रहा था। जमील ने खिड़की खोली तो भीतर एक-लपट-सी घुसी। उसने फ़ौरन खिड़की बन्द कर दी। खिड़की खोली तो भीतर एक के पास ही उसकी चारपाई थी- बँसखट। दस रुपये में खरीदी थी। बँसखट पर एक पुरानी-सी दरी बिछी थी,.जिस पर उसने लाल –हरे चारखाने की सूती चादर डाल रखी थी। तकिया बहुत पुराना था। भीतर कई-कई तो अस्तर थे। जिसमें सबसे ऊपर वाला भी तेलहुँस... उसके ऊपर एक सस्ता-सा कवर। जमील ने खिड़की बन्द करने के बाद बिस्तर उलटकर सिरहाने की तरफ़ मोड़ दिया।
दरवाज़े के पास उसका किचन था। कोयलों वाली एक अँगीठी, आटा-चावल-दाल के डिब्बे, बालटी, कुछ बर्तन और एकदम कोने में कोयलों वाली बोरी। अंगीठी में कोयले धधक गए थे। जमीन ने पतीली में दाल का पानी चढ़ा दिया।
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