अपवित्र आख्यान / अब्दुल बिस्मिल्लाह / पृष्ठ 2

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जमील ने वह कमरा पन्द्रह रुपए महीने पर लिया था, जिसका दरवाज़ा पश्चिम की तरफ़ था। उसके गाँव में ऐसा कोई भी घर नहीं था। वह दरवाज़े या तो पूर्व की तरफ़ थे या फिर उत्तर की तरफ़। पश्चिम की तरफ दरवाजा बनाने का तर्क उसकी समझ में नहीं आता था। गर्मियों में दिन-भर सूरज की लपटें भीतर आती थीं। लेकिन मकान-मालिक के पास तर्क था। मग़रिब में काबा है ! और मशरिक़ में ? मशरिक़-यानी पूरब में मकान-मालिक ने पाखाना बनवा रखा था, जिसमें प्रवेश करने के लिए पहले कमरे से बाहर निकलना होता था, फिर बाईं ओर की गली से पीछे की तरफ जाना होता था। चूकि पाख़ाने में ताले की व्यवस्था नहीं थी, इसलिए वहाँ कोई भी जा कर निपट सकता था !

खाना और पाखाना-कितने मिलते-जुलते शब्द हैं। हैं कि नहीं ?

जमील पानी में दाल के दाने डाल रहा था और मुस्करा रहा था। उस समय उसकी मुस्कान को भाँपने वाला वहाँ कोई नहीं था। दाल जब पक जाएगी तो वह पकाएगा चावल। चावल जब पक जाएगा तो वह पकाएगा सब्जी। सब्जी जब पक जाएगी तो वह बनाएगा रोटी। रोटी जब बन जाएगी तो वह...आदमी इसी तरह सोचता है, जबकि ऐसा होता नहीं। सच तो यह है कि जमील दाल पकाने के बाद सिर्फ़ रोटी बनाएगा ! अरहर की खूब गाढ़ी दाल-हल्दी, लहसुन और कटी मिर्च वाली। साथ में मोटी-मोटी दो रोटियाँ अगर वह चावल बनाता तो सिर्फ़ चावल बनाता। बाज़ार से एक रुपए की दही दीये के बराबर कसोरे में ले आता और थोड़ा-सा शक्कर मिलाकर खा लेता। मगर सोचने में क्या जाता है ?

दाल में हल्दी-मिर्च डालकर जमील कुर्सी पर बैठ गया। कुर्सी ? हाँ, बँसखट के साथ ही उसने पचास रुपयों में एक कुर्सी और मेज़ भी ख़रीदी थी। महुवे की लकड़ी की। किचन के बगल में ही वे सजी हुई थीं। क्योंकि उसी तरफ़ दीवार में अलमारियाँ बनी थीं। अलमारियों में किताबें भरी थीं। जमील ने उन्हें कबाड़ी की दुकान से ख़रीदा था। डाक्टर ज़िवागो आठ आने में, यह पथबन्धु था (छात्र संस्करण) एक रुपए में, मार्क्स, गाँधी एण्ड सोशलिज़्म दो रुपए में, न आनेवाला कल और वरुण के बेटे (पाकेट बुक) चार-चार आने में...जमील कुर्सी पर बैठता तो पहले उन किताबों को गंभीरतापूर्वक देखता, फिर रद्दी की दुकान से तौल के हिसाब से ख़रीदे गए काग़ज़ों को टेबुल पर फैलाकर अपनी कलम का कैप खोलता। कहानी लेखकः जमील अहमद ....!

हिन्दी में बहुत से मुसलमान कहानी-उपन्यास लिख रहे हैं, क्या तुम कोई नया तीर मारने वाले हो ?’

यासमीन ने उसे टोका था एक दिन- पार्क में घूमते हुए। जमील को लगा, कोई दरवाजा खटखटा रहा है। उसके बदन पर उस वक्त सिर्फ़ एक जाँघिया था-पट्टे का-और सेंडो बनियान। लेकिन लुँगी बाँधने का मतलब था खटखटाने की आवाज़ को सुनते रहना-लगातार। यह बहुत तकलीफ़देह था.....उसने दरवाज़ा खोल दिया।

‘‘आपको बुलाई हैं। अभी।’’

सड़क पर एक बचकानी साइकिल थी। सीट पर इरफान बैठा था-यासमीन का भाई। उसका एक पांव पायडिल पर था, दूसरा चबूतरे पर।

‘‘तुम चलो, मैं आता हूँ।’’


इतना कहते ही साइकिल मुड़ गई और दरवाज़ा बन्द करके जमील कपड़े बदलने लगा।

जमील जब कमरे से बाहर आया, सूरज ढूब चुका था। क़ब्रिस्तान में खड़े पेड़ों पर झुंड की झुंड चिड़ियाँ मडराने लगी थी। गली में सस्ती आइस्क्रीम और चाट बेचने वालों की आवाजें गूँजने लगी थीं। नंगे-अधनंगे बच्चे अपनी मुट्ठियों में पैसे दबाए उनके इर्द-गिर्द चक्कर काट रहे थे। दरवाजों पर पड़े मैले-कुचैले पर्दों की आड़ से उनकी अम्माओं के चेहरे झाँक रहे थे। मुहल्ले की दुकानों की बत्तियाँ जल गई थीं।

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