अमृत-प्रतीक्षा (कहानी)-1 / सरोजिनी साहू
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(मूल रूप से यह कहानी 1986 में लिखी गई थी और तत्कालीन ओड़िया भाषा की प्रसिद्ध पत्रिका 'झंकार' में प्रकाशित हुई थी.)
- मूल ओड़िया से अनुवाद : दिनेश कुमार माली
गर्भवती नारी को घेरकर वे तीन
कर रहे थे अजस्र अमृत-प्रतीक्षा
मगर बंद करके सिंह-द्वार
सोया था वह महामहिम
चिरनिद्रा में मानो रूठकर
सोया हो बंद अंधेरी कोठरी के अंदर
एक अव्यक्त रूठापन
बढ रहा था तेजी से हृदय स्पंदन
नाप रहा था स्टेथो उसके हृदय की धडकन
देखो !
अचानक पहुँच जाता था पारा
रफ़्तार 140 धड़कन प्रतिमिनिट
सीमातीत ,
प्रतीक्षारत वे तीन, कर रहे थे अजरुा अमृत-प्रतीक्षा
बंद थे जैसे विचित्र कैद में
प्रतीक्षा की थकावट ने,
कर दी उनके
नींदों में भी नींदहीनता
सपनीली नींदो में स्वप्नहीनता
ना वे जमीन पर पैर बढा सकते थे
ना वे, गगन में पंछी बन उड सकते थे।
प्रतीक्षारत वे तीन,
कर रहे थे अजस्र अमृत-प्रतीक्षा
कि कब
निबुज कोठरी का दरवाजा खोल
मायावी जठर की कैद तोड
सुबह की धूप की तरह
हँसते-हँसते वह कहेगा
“लो, देखो मैं आ गया हूँ।
भूल गया मैं सारा गुस्सा,
सारा रुठापन,
विगत महीनों की असह्य यंत्रणा”
कब वह घड़ी आएगी
जब खत्म होगी वह अजरुा अमृत-प्रतीक्षा
कब होंगे वे सब मुक्त बंद कैद से,
जब होगा वह महामहिम जठर मुक्त ?
कहीं ऐसा न हो
गर्भवती नारी के साथ-साथ
उनको भी लेना होगा पुनर्जन्म
एक बार फिर नया जन्म
पारामिता के शरीर से झरने की भाँति पसीना बह रहा था । उसकी आंखो में नींद का नामोनिशान न था। कुछ देर पहले ही एक नर्स उसको जगाकर चली गई।
“अरे ! बेबी कहाँ है ? शिशु-विशेषज्ञ डा. साहब आए हैं, बेबी का चेक-अप करेंगे। पर, बेबी कहाँ है ?”
तन्द्रालु पारामिता ने आश्चर्य-चकित होकर कहा ,
“बेबी ? कैसी बेबी ? यहाँ तो कोई बेबी नहीं है।”
अचानक उसे याद आ गया,एक मैडम सुबह उसके पेडू को देखकर बोल कर गई थी
“ऐसा लग रहा है कि तुम्हारे बेबी का आकार छोटा है। हमने शिशु-विशेषज्ञ डा.साहब को खबर कर दी हैं,वह यहाँ आकर एक बार बेबी का आकार देख लेंगे।”
उस चश्मीच गंजे डॉक्टर ने बडे ही गंभीरतापूर्वक पारामिता के पेडू की जाँच की। बोलने लगे
“सचमुच बच्चे का आकार तो छोटा लग रहा है।”
फिर कुछ सोचते हुए एक पर्ची पर कुछ दवाइयाँ लिखकर वहाँ से चले गए। पारामिता ने उस पर्ची को एक चटाई के नीचे संभाल कर रख दिया। उसे आश्चर्य हो रहा था, प्रसव में तो बहुत कम दिन बचे हैं इतने कम दिनों में पेट के अंदर ही बच्चे का आकार बड़ा कर देंगे ये लोग !जिस प्रकार बच्चों की किताबों में ‘टॉम-थम्ब’ की कहानियों का जिक्र आता है, कहीं वह उसकी तरह तो पैदा नहीं होगा ? ऐसे बामन बच्चे को लेकर क्या करेगी ? किस प्रकार अपना सारा जीवन-यापन करेगी ? यही सोचकर पारामिता डर से काँपने लगती थी। क्या वास्तव में उदरस्थ शिशु का स्पंदन इतने धीमे है जैसे कि यह आदमी का बच्चा न होकर किसी दूसरे प्राणी का बच्चा है ? ऐसी ही कई बातें पारामिता ने पहले से ही सुन रखी थी कि किसी-किसी के तो विकलांग बच्चे भी पैदा होते हैं। जितना ही इस संदर्भ में वह सोचती, उतना ही वह अनजाने भय से सिहर उठती। ना तो उसके पास पार्थ था, ना ही पापा। बाथरुम के पास खाली जगह पर, अकेली माँ अपने शरीर को समेटकर कर सोई हुई थी। अगर पार्थ और पापा में से कोई भी पास में होता तो वह उन्हें डॉक्टर की पर्ची दिखाती तथा दवाइयों के बारे में पूछती। उसे यह बात मंजूर थी कि भले ही उसका बच्चा सुंदर नहीं हो तो भी कोई दुःख की बात नहीं है, मगर उसकी हार्दिक मनोकामना थी कि उसके एक स्वस्थ बच्चा पैदा हो।
पारामिता को ऐसा अनुभव हो रहा था कि उसके अंतरतम से शिशु-रोदन की एक आवाज सुनाई पड़ रही है, और अगर कुछ समय तक अकेली रही तो वह रो पड़ेगी। जितने भी डॉक्टर देखने आए सभी की राय एक ही थीं,
“बेबी का आकार बहुत छोटा है !”
पारामिता को पहले से ही इस बात की जानकारी थी कि पाँच पाउंड से कम वजन वाले बच्चे पैदा होते ही या तो मर जाते हैं, या फिर जल्दी ही किसी न किसी रोग से ग्रस्त हो जाते हैं। वे ज्यादा दिनों तक जिन्दा नहीं रह पाते। जिस बच्चे के लिए पारामिता ने इतनी प्रतीक्षा, इतनी पूजा-अर्चना और इतनी साधना-आराधना की , आज इस बच्चे के बारे में कोई सोच भी नहीं रहा है। यही सोचकर पारामिता के मन में अपने आत्मीय-जनों के प्रति एक खटास-सी पैदा हो गई।
क्या कर रहे हैं ये सब लोग ? आपस में लड़-झगड़ रहे हैं अपने लिए या उसके बच्चे के लिए ? या तो इन लोगों ने एक दूसरा मुखौटा पहन लिया है या फिर अपने असली मुखौटों को उतारकर दूसरे प्रकार के आदमी बन गए हैं। जिस पार्थ के साथ वह विगत चार सालों से गृहस्थ-जीवन यापन कर रही थी , वह पार्थ तो यह नहीं लग रहा है। जिस मम्मी-पापा को बचपन से देखती आई हैं , क्या ये वही मम्मी-पापा हैं ?
सोने के कुछ समय पहले ही उन लोगों में काफी तेज वाक-युद्ध हुआ था। एक छोटी-सी बात पर, वह भी सोने की बात को लेकर। पता नहीं, क्यों हर छोटी-मोटी बात को लेकर उनके बीच में मत-भेद होता रहता था ? पारमिता की समझ में नहीं आ रहा था पार्थ का त्याग करना उचित था अथवा मम्मी-पापा का ? एक छोटी-सी खाली जगह के लिए तीन-तीन जनों की दावेदारी ! खाना खाकर पार्थ सबसे पहले उस जगह पर जाकर लेट गया ,लेटते ही उनकी आँखें लग गईं । सचमुच में ऐसे ही उनको नींद आ गई, या वह जान-बूझकर वहाँ सोए थे। पार्थ का इतना लंबा-चौड़ा शरीर ! ऊपर से सूटकेस, बास्केट, सुराही, टिफिन कैरियर आदि फिर कहाँ से बचती कुछ खाली जगह ? चाहती तो मम्मी, पार्थ को मृदु-भाषा में समझा-बुझाकर वहाँ से उठा सकती थी, मगर उनका इस तरह सोना मम्मी को बिल्कुल पसंद नहीं आ रहा था। जैसे ही पापा बाथरुम से निकले, वह बोलने लगी, “देखिए, मेरी पान की डिबिया उधर पड़ी है, और दामाद जी तो यहाँ हर समय ऐसे सोए रहते हैं कि चाहने से भी पान की डिबिया नहीं ला पा रही हूँ। खाना खाने के बाद कब से इच्छा हो रही है कि पान का एक बीड़ा खा लूँ, पर दामाद जी तो......”
पापा ने मुँह पर अँगुली “श..श..श” कहते हुए मम्मी को चुप रहने का संकेत किया। पारामिता ने झुककर पान की डिब्बी उठाई। पार्थ को थोडा सरकाकर बोलने लगी,
“अभी तक सो रहे हो ! पापा आठ किलोमीटर दूरी से साईकिल पर जाकर हमारे लिए खाना लाते हैं। क्या उनको थकान नहीं लगती ? क्या उनको विश्राम की जरुरत नहीं हैं ? थोड़ा उधर सरकिए ?”
“और कहाँ सरकूँगा ? पूरा तो बेड के नीचे घुस गया हूँ।” नींद में ही बड़बड़ाने लगा था पार्थ।
“तो क्या पापा नहीं सोएँगे ?”
पापा का नाम सुनते ही पार्थ झट से उठ गया था और चिल्लाकर कहने लगा,
“मैं तो सोने नीचे जा रहा था। क्यों मुझे मना कर रही थी ?”
“आप ही तो बोल रहे थे, नीचे तो बैठने के लिए भी जगह नहीं है।”
“तुम्हें क्या दिक्कत है ? मैं नीचे बैठूँ या बाहर घूमुँ ?”
“इतना गुस्सा क्यों कर रहे हो ? दोपहर घूमने-फिरने का समय है ?”
“गुस्सा नहीं करूँगा तो क्या करूँगा ? नीचे नहीं जा सकता, बाहर भी नहीं घूम सकता, यहाँ सो भी नहीं सकता, तब और क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? कहिए ”
पापा बेड-शीट और तकिया अपने साथ ले जाते हुए बोले “तुम शांति से सो जाओ, बेटा ! इन लोगों की बातों पर ध्यान मत दो। मैं जा रहा हूँ ऊपर वाली मंजिल में वहाँ बढ़िया हवा आती है। वहाँ जाकर सो जाऊँगा। चिन्ता मत करो।”
“आप यहाँ सोइए, मैं नीचे जा रहा हूँ। ऊपर और कहाँ सो पाएँगे ? वहाँ तो भवन-निर्माण का काम चल रहा है। सीमेन्ट के बोरें पड़े हैं ,सारी फ़र्श धूल-धूसरित हैं और कामगार व मिस्त्री लोगों के काम करने की खटखट की आवाज से परेशान हो जाओगे।”
“मुझे कोई परेशानी नहीं होगी। तुम आराम से यहाँ सो जाओ, बेटा !”
यह कहते हुए पापा बेड शीट और तकिया लेकर बाहर चले गए। उनको बाहर जाता देख पार्थ मुँह फुलाकर नीचे चला गया।
पारामिता का मन दोनों पार्थ और पापा के लिए दुःखी हो रहा था। उसको लग रहा था कि ऊपर मंजिल जहाँ काम चल रहा है, केवल छत ही बनी होगी। उस आधे तैयार मकान में जमीन पर बेड-शीट बिछाकर धूल भरे माहौल में बूढे-पिताजी सोते हुए बार-बार करवटें बदल रहे होंगे , दो घंटे से किस प्रकार असहनीय यंत्रणा को सह रहे होंगे । उधर शायद नीचे पार्थ को भी थोड़ी-सी जगह नहीं मिली होगी। वह इस भरी दुपहरी में तपती धूप के अंदर यहाँ-वहाँ भटक रहे होंगे या फिर नर्सिंग होम के दरवाजे के सहारे खड़ा होकर सिगरेट पी रहे होंगे। वहीं नजदीक में एक नेपाली दरबान स्टूल पर बैठे-बठे झपकी लगा रहा होगा।
उसका मन बार-बार उनके लिए कराह रहा था कि एक बार ऊपर जाकर पापा को देख आएँ और एक बार नीचे जाकर पार्थ को। मगर क्या करे ? उसके लिए सीढ़ी चढ़ना-उतरना मना है।
इतना कुछ घटित होने के बावजूद भी जैसे कुछ भी घटना नहीं घटी हो, माँ अनजान-सी बनकर पान बना रही थीं। उन दोनों के जाने के बाद पास वाले बेड में सो रही पारामिता की हम-उम्र जयन्ती को देखकर वह बोलने लगी थीं,
“इतना गुस्सा किस बात के लिए ? बोलो तो बेटी ! हम लोग उनकी पत्नी और बच्चे के लिए यहाँ पडे हुए हैं या नहीं ? सच बता रही हूँ उनके तेवर देखकर मुझे यहाँ रहने का कतई मन नहीं हो रहा है। लेकिन बेटी को इस हालत में छोड़कर घर जाने से लोग क्या कहेंगे ?”
पारामिता की तरफ देखकर फिर जयंती को बोलने लगी,
“माँ मंगला देवी को नमन करती हूँ कि कितनी जल्दी मेरी बेटी को बच्चा हो जाए !”
पारामिता की तरफ देखकर जयंती हँसने लगी। यह समस्या तो उसके साथ भी थी। बहुत सारे डॉक्टरों व अस्पतालों का चक्कर काटने के बाद वह यहाँ पहुँची थी। उसने ऑपरेशन तो पहले भी नहीं करवाया था। जयंती की फैलोपियन टयूब में श्लेष्मा बनने की बीमारी थी, इसलिए शादी के बारह साल गुजर जाने के बाद भी मातृत्व-सुख से वह वंचित थी। ऐसा क्यों होता है ? पृथ्वी के किसी भू-भाग में अकाल तो किसी भू-भाग में हरियाली ही हरियाली।
जयंती की माँ एक दिन बता रही थी,
“घर में खेती-बाड़ी है, धन-संपति की कोई कमी नहीं है मगर उपभोग करने वाला कोई वारिस नहीं है। बेटी की यही चिन्ता मुझे ज्यादा खाए जाती है। यही कारण है, मैं अपना घर-बार छोड़कर यहाँ पड़ी हुई हूँ। इसके पापा सब-डिविजनल ऑफिसर है, उनके पास तो बिल्कुल फुर्सत नहीं है। मेरा बेटा ब्रह्मपुर मेड़िकल कॉलेज में पढ़ता है। उसने हमें इस नर्सिंग-होम में भर्ती करवाया है। उसको बीच-बीच में फोन करने के लिए बोली थी। इससे बढ़कर और मैं क्या करुँगी ? अगर मैं यहाँ से चली जाऊँगी तो मेरा दामाद कुछ भी नहीं कर पाएगा। देख नहीं रहे हो, किस प्रकार दामाद बेचैन हो रहे हैं ? बेटे का एक दोस्त इस नर्सिंग-होम में काम करता है इसलिए ध्यान रखने के लिए बेटा उसको हमारे बारे में बता कर गया है।”
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