अमृत- प्रतीक्षा (कहानी )-2 / सरोजिनी साहू
पारमिता इस बात को अच्छी तरह जानती है कि जयंती की माँ अपने दामाद को बिल्कुल पसंद नहीं करती है। छोटी-मोटी हर बात पर टोकती रहती है और अगर दो-चार लोग मौजूद हों तो कहना ही क्या ! ताने पर ताना मारकर दामाद की खिल्ली उड़ाती है। इतना अपमानित करने के पीछे एक ही कारण है जयंती का पति पढ़ा-लिखा नहीं है, वह केवल खेती-बाड़ी करता है ! चूँकि जयंती का रंग काला था, अतः उसकी शादी में कई अड़चने आ रही थी। कॉलेज की पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाई थी कि उसकी शादी इस लड़के के साथ करवा दी गई। दामाद के पास वैसे तो बहुत सारे खेत-खलिहान हैं, मगर जयंती के पिताजी के तुल्य ओहदे वाले नहीं हैं। यही सोचकर जयंती की माँ उनको बार-बार नीचा दिखाती थी।
कभी-कभी तो जयंती अपमान के इन घूंटों को चुपचाप पी जाती थी, पर कभी-कभी बरदाश्त से बाहर होने पर वह अकेले बैठकर रोने लगती थी। यह देखकर पारामिता का मन बड़ा दुःखी हो जाता था। एक बार उसने जयंती को समझाया भी था यह कहकर-
“खासकर इन फालतू-बातों को लेकर आपका रोना-धोना अनुचित है। आप तो खुद बड़ी समझदार औरत हैं। इतना संवेदनशील होने से चलेगा ! ऊपर से आपकी तबीयत भी ठीक नहीं है। नीचे जो दो टाँके लगे हुए हैं, वे भी पक गए हैं। उनमें सेप्टिक हो गया है। उस दिन डॉक्टर भी बता रहे थे कि धीरे-धीरे यह संक्रमण शरीर के दूसरे हिस्सों में फैल रहा है। इस हालत में रोने-धोने से घाव भरने में भी परेशानी होगी।”
“मुझे कुछ भी नहीं चाहिए, न बाल-बच्चा और न ही कोई घर-बार” रोते-रोते बोलने लगी थी जयंती।
“अभी तक तो मेरा कोई बच्चा नहीं है, और आगे नहीं होगा तो क्या होगा ? नहीं होगा। दूसरी बात मैं कितने साल और जिन्दा रहूँगी ? जब एक चीज का अभाव है, तब इतनी सारी बातें सुननी पड़ती है, इतना कुछ सहन करना पड़ता है। माँ के मन में जब जो कुछ आता है, बकती जाती हैं। मैं उनकी धर्म-पत्नी हूँ तथा इनकी बेटी हूँ। इसलिए ये दोनों ही मुझ पर जितना चाहें उतना गुस्सा निकाल सकते हैं।”
पारामिता इस बात को समझ नहीं पाती थी कि इंसान-इंसान के बीच आत्मीयता का इतना अभाव क्यों ? मानो सभी ने अपनी स्वेच्छा से स्वतंत्र जीवन जीना स्वीकार कर लिया हो तथा उनके बीच में संदेह, अविश्वास और नफरत के कुँहासे की अभेद्य दीवार खड़ी हो गई हो । इस पार से उस पार किसी को कुछ भी नहीं दिखता है। जयंती से पहले, इस बेड पर हेमा बेहेरा भर्ती थी। वह पूर्णतया अनपढ़ , अपरिष्कृत तथा देहाती औरत थी। उसके पास परिचारक के तौर पर उसके पति साथ थे, जो कलकत्ता की किसी जूट-मिल में कैजुअल-कामगार के रूप में काम करते थे। उन पति-पत्नी के बीच पारामिता ने अप्रेम,अविश्वास और संदेह की प्राचीर का अनुमान कर लिया था। हेमा बेहेरा के पहले इस बिस्तर पर एक अधेड-उम्र की वृद्धा औरत भर्ती थी और परिचारक के रूप साथ में थे उनके पति, जो कुछ ही दिनों में नौकरी से सेवा-निवृत्त भी होने वाले थे। उनका एक बेटा भुवनेश्वर में बड़ा आफिसर था। दोनों बूढ़ा-बूढ़ी का स्वभाव एक दूसरे से सर्वथा विपरीत था। एक उत्तर चलता था तो दूसरा दक्षिण। मगर गृहस्थ-धर्म में बँधे हुए थे। उनका अपना खून उनका बेटा उन लोगों से कटा-कटा रहता था। पारामिता कई दिनों से इस बात पर गौर कर रही थी, जितने भी लोग इस कैबिन में आए, आते समय एक आत्मीयता के बंधन में बँधे हुए थे परन्तु इस छोटे-से दसफुट गुणा बारह फुट आकार के घर के आधे भाग में साथ-साथ रहने के कुछ ही दिनों के बाद उनमें एक वैर-भाव जागृत हो जाता था। एक-दूसरे के प्रति असहिष्णुता कभी-कभी तो अपने चरम को पार कर जाती थी। तब वह यह समझ नहीं पाती थी कि यथार्थ में कौन-सा रिश्ता अच्छा है ? केबिन में आते समय का प्रेम-भरा रिश्ता अथवा केबिन में रहते समय रिश्तों के जिन रूपों को पारिमिता ने देखे वे रिश्ते ?
उस बूढ़ी औरत का एपीसीटोमी का ऑपरेशन हुआ था। पारामिता जिस दिन इस नर्सिंग-होम में भर्ती हुई थी, अपना सामान सूटकेस, बास्केट आदि कैबिन में लाते समय उस अधमरी अवस्था में पड़ी हुई बूढ़ी को देखा था। एक हाथ में सलाइन लगा हुआ था, जिसको पकड़कर उनके पति एक फोÏल्डग-चेअर में बैठे हुए थे। उसको कुछ ही देर पहले ऑपरेशन थियेटर से बाहर लाया गया था। पास में न सगे-संबंधियों की भीड़ थीं न ही किसी को कोई तत्परता या व्यस्तता थी।
बेटे को छोड़़कर उन बूढ़ा-बूढ़ी के पास कोई भी मिलने वाला नहीं आता था। सुबह कच्चे नारियल का पानी, बिस्कुट तथा दिन में ग्यारह बजे पूर्व-निश्चित किसी होटल से खाना लेकर उसका बूढ़ा पति आता था। दिन में तीन बजे हार्लिक्स तथा रात को खाने को दो रोटी दी जाती थी बूढ़ी को। इस प्रकार की दिनचर्या थी इन लोगों की। इस प्रकार उनके दिन-रात कट रहे थे।
पारिमिता को आश्चर्य लगता था ऑपरेशन होने के छः-सात दिन बाद भी उस वृद्धा औरत का हाल-चाल पूछने कोई नहीं आया। एक बार उनकी बहू जरूर आई थी दोपहर के समय में उनको देखने। केवल तीस-पैंतीस मिनट रूकी और लौट गई। जाते समय उसका मूड़ उखड़ा हुआ था। पारामिता इसके लिए अपने मम्मी-पापा को दोषी मान रही थी। बहुत ही मामूली-सी घटना थी। जब बहू पारामिता के साथ बात कर रही थी तब बुढ़िया को खूब जोर से पेशाब लगा था। वह अपने बिस्तर से उतर कर जमीन पर केंचुए की तरह रेंगती-रेंगती बाथरूम के तरफ जा रही थी। बूढ़ी का बिस्तर से उतरना, रेंगते हुए बाथरूम की तरफ जाना और पुनः बिस्तर पर चढ़ना, ये सभी दृश्य पापा की नजरों में आ गए। पता नहीं क्यों वह अपने आप पर काबू नहीं रख पाए। बहू की तरफ इशारा करते हुए बोलने लगे, “बेटी, तुम भी जाओ उनके साथ। बूढ़ी है, कहीं गिर न जाए।”
बहू रूमाल से खुद को हवा देते हुए बोली, “वह खुद का काम खुद कर लेती हैं। उनको पकडने की कोई जरूरत नहीं है।”
माँ से भी नहीं रहा गया, वह तुरंत बोल पडी, “तब दूसरा समय था, अब दूसरा समय है। उनकी तबीयत खराब है ना !”
बहू बिना कुछ बोले उठकर बाथरूम के अंदर चली गई। सास के अंदर से बाहर आने के बाद वह ससुर को बिना मिले ही लौट गई । बूढे के आने के बाद पारामिता के पापा इस बात को जितना बल देकर कह रहे थे, परन्तु बूढ़ा-बूढ़ी दोनों इस विषय पर कुछ भी रूचि नहीं दिखा रहे थे। यह सब देखकर पारामिता को ऐसा लग रहा था मानो जीवन के इस मोड़ पर उनके पास बोलने के लिए कुछ भी शब्द नहीं थे, क्योंकि जीवन के इस कड़वे सत्य को उन्होंने यथार्थ रूप से स्वीकार कर लिया था तथा आगे सुधार हो ,इस बारे में वे कुछ भी आशान्वित नहीं थे।
एक दिन पारामिता चुपचाप बैठकर शून्य को निहार रही थी। वह बूढ़ा आदमी फोÏल्डग-चेअर में बैठकर दोनों टाँगों को ऊपर की तरफ उठा लिया था। सीलींग-फेन की तरफ अपलक देखते हुए वह बोल रहा था,
“बेटी ! समझी, मैं वृन्दावन जा रहा था। पर अब कहाँ जाऊँगा ? आधे रास्ते में यहीं पर अटक गया हूँ। पता नहीं, क्या पाप किए थे मैंने ? इस उम्र में भी वृन्दावन जाने का संयोग नहीं बन रहा है।”
बुढ़िया नींद में सोई हुई थी। पारामिता के पापा दोपहर का खाना लाने बुआ के घर गए हुए थे। माँ पास के केबिन में किसी के साथ बातचीत कर रही थीं । इधर वह बूढा कहता ही जा रहा था,
“बेटी, मैं सेवा-निवृत हो गया हूँ। बहुत दिनों तक मैंने नौकरी कर ली। कहीं पर भी आना-जाना नहीं कर पाया। कभी-कभार छुट्टी मिलने पर पुरी-तीर्थ की तरफ जाता था। मन में बहुत बड़ी इच्छा थी कि जब मैं सेवा-निवृत हो जाऊँगा, तो एक बार वृन्दावन अवश्य जाऊँगा। यही तो मात्र एक इच्छा थी, बेटी ! जब मैं वृन्दावन जाने की तैयारी कर रहा था, तब यह बूढ़ी कहने लगी कि वृन्दावन जाने से पहले बहू-बेटा को मिलते हुए जाना। बेटे को मेरे कमर के दर्द के बारे में भी बताना, ताकि वह मुझे किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा देगा। इस बाबत मैं भुवनेश्वर आया था और देखो, यहाँ अटक कर रह गया। बेटा कहने लगा, जब तक मैं माँ को किसी डॉक्टर से नहीं दिखा लेता हूँ, आप मत जाइएगा। आप पहले उन्हें गाँव में छोडकर, फिर जहाँ जाना हो वहाँ प्रस्थान कर लीजिएगा। देख रही हो बेटी, मेरा यह वृन्दावन !”
उस बूढे की इन बातों में बेटे के लिए उतनी नहीं, जितनी बुढ़िया के लिए विरक्ति मालूम पड़ती थी। मानो बूढ़ी एक केकड़ा हो तथा उनके पाँव को जोर से जकड़ ली हो। उनके लिए एक-दूसरे से अलग होना तभी संभव है जब उनमें से कोई एक मर नहीं जाता। एक दिन बूढ़ी रात को दस बजे अपने बिस्तर से झुक-झुककर चली गई थी। भुवनेश्वर से उनका बेटा कार लेकर लेने आया था। बूढ़ा-बूढ़ी जितने भी दिन यहाँ भर्ती थे, बेटा मिलने केवल दो ही बार आया था वह भी इसी रात की तरह नौ-दस बजे के समय। बहुत हडबड़ी में रहता था और कुछ कहते हुए चला जाता था। बैठकर भी नहीं, खडे-खडे बातें करता था
“कैसी हो ?”
वृद्धा माँ इससे पहले कुछ उत्तर देती, वह अपने बुजुर्ग पिता की तरफ देखते हुए बोलने लगता था
“पापा, डॉक्टर ने दवाई लिखी हैं ? लाना है तो पर्ची दो, मैं लेकर आता हूँ।”
यह सुनकर वह बूढ़ा शेल्फ में पर्ची ढूँढना शुरु कर देता और बुढ़िया रोते-रोते नाक में बोलती-
“मेरे प्यारे बेटे ! क्यों तुमने मुझे अपना खून दिया ? मेरे बेटे के शरीर से कितना खून मैंने ले लिया ? मुझे अब जिन्दा रह कर क्या करना है ? मैं तो अब मर जाऊँगी। अहा ! अहा ! मेरे बेटे के शरीर से इतना खून ले लिया मैने !....”
बुढ़िया भावुकतावश अपने बेटे का हाथ छूने की कोशिश करने लगी , तभी बूढे ने शेल्फ से खोजकर वह पर्ची निकालकर बेटे को थमा दी । बेटा कहने लगा था,
“बस, आधे घंटे में सारी दवाइयाँ ले आता हूँ।”
यह कहते हुए वह आँधी की तरह निकल जाता था। पारामिता को ये सब किसी उद्भट नाटक के दृश्यों की भाँति लगने लगता था। ऐसा लगने के पीछे एक कारण यह भी था, वोल्टेज की कमी की वजह से कमरे का ट्यूबलाइट टिम-टिमा रही थी। इसलिए शाम होते ही ये लोग बैड-लैम्प जला देते थे। जैसे ही बेटा आता था वह ट्यूबलाइट ऑन कर देता था। उस ट्यूबलाइट की मद्धिम टिमटिमाहट में बेटा किसी रंगमंच के पौराणिक उद्भट नाटक के पात्र की तरह चित्र-विचित्र रहस्यमयी भाव भंगिमायुक्त दिखाई देता था और कमरे के सारे परिदृश्य रंगारंग प्रोग्राम की तरह ।
नर्सिंग-होम से डिस्चार्ज होने वाले दिन वह वृद्ध आदमी भोर में जल्दी उठ गया था। उठते ही अपनी दैनिक-दिनचर्या से निवृत होकर उसने अपनी ललाट पर चंदन का टीका लगाया। बेड व शेल्फ के आस-पास उपयोग में लाई हुई दवाइयों के जितने खाली डिब्बे थे, उन सबको पास में रखी हुई कचरे की पेटी में डालकर अपना बक्सा व बेडिंग तैयार किया। वृद्धा ने भी तैयार होकर एक सुंदर-सी साड़ी पहन ली। फिर बाल कंघी कर अपने हाथ से माँग में सिंदूर भर लिया । इसके उपरांत मुख में इलायची के दो दाने डालकर अपने बिस्तर पर सज-धजकर बैठ गई। लेडी डॉक्टर के राउंड पर आने से पूर्व ही बूढे ने कार्यालय में जाकर नर्सिंग-होम के खर्चे का भुगतान कर दिया। लेड़ी डॉक्टर ने बुढ़िया को चेक-अप के बाद वहाँ से डिस्चार्ज होने की अनुमति दे दी। अब दोनों बेटे के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे जो यह कहकर गया था कि नौ-दस बजे वह कार लेकर उनको लेने आएगा। प्रतीक्षा करते-करते दस बज गए, फिर ग्यारह फिर बारह..... मगर बेटा नहीं आया था। जैसे ही बारह बजे, वैसे ही एक नर्स और उसके पीछे स्ट्रेचर पर सलाइन लगा हुआ एक अधमरे -रोगी के साथ उस रूम में घुस आए। मगर वे लोग बिस्तर के पास पहुँचते ही रूक गए।
“ऐ मौसी ! उठ, उठ ” बोलकर वह नर्स चिल्लाने लगी।
बिस्तर से उठने में बुढ़िया को जैसे कष्ट हो रहा हो, देखकर नर्स गुस्से में बोलने लगी
“जल्दी उठ न ! कैसे अजीब लोग हैं ये ? सुबह से डिस्चार्ज हो गए हैं, परन्तु अभी तक बिस्तर छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।”
“जा रही हूँ बेटी, जा रही हूँ।”
बुढ़िया असमंजस की स्थिति में थी। समझ नहीं पा रही थी कि कहाँ जाए ? इसी अंतराल में रोगी के साथ वाले सगे-संबंधी लोग भी वहाँ पहुँच गए थे।
पारामिता के पापा ने उन्हें अपने पास बुलाया। उनको वहाँ मात्र ढाई फुट गुणा तीन फुट की जगह मिली थी। इतनी कम जगह में बुढ़िया पापा के पास दीवार के सहारे सटकर बैठी थी, जबकि बूढ़ा नीचे उतर कर अपने बेटे की प्रतीक्षा कर रहा था। जब लौटकर रूम में आया तो बूढ़ी को इस तरह बैठा देखकर बहुत दुःखी हो गया।
“क्या करेंगे, जी ? बेटा भुवनेश्वर से अभी तक नहीं आया। मैं बेटे के पास चला जाऊँ क्या ? इतना विलंब क्यों हो गया उसको ? अगर अभी मैं भुवनेश्वर जाता हूँ तो शाम तक गाड़ी लेकर लौट आऊँगा।” यह कहते-कहते बूढे ने अपनी बची हुई दवाइयों के डिब्बे, बेडिंग व बक्सा सभी लाकर पारामिता के पास खाली छोटी-सी जगह पर एक के ऊपर एक रख दिए।
“वह जरूर आएगा, आप इतना बेचैन क्यों हो रहे हो ?” बुढ़िया ने कहा।
“आयेगा, और कब आएगा ?” झुंझलाकर बोला बूढ़ा।
“साढ़े बारह बजने जा रहे हैं।”
फिर कुछ सोचकर उसने अपना बंद पैकिंग खोला तथा टिफिन-कैरियर बाहर निकाला।
“सुबह-सुबह घर चले जाएँगे, सोचकर मैंने कल से होटल में खाने का आर्डर भी निरस्त करवा दिया था। अब तेल-मसाले युक्त खाना खाना पड़ेगा।”
न तो वह बूढ़ा भुवनेश्वर जा पाया था, न ही केबिन में शांति से बैठ पाया था। केवल ऊपर नीचे हो रहा था। शाम हो गई थी। ऐसा लग रहा था मानो वृद्ध दम्पति के शरीर से प्राण निकल गए हों और बची रह गई हो जैसे दो प्रेतात्माएँ, दो प्रतिच्छायाएँ, दो वाकहीन अस्थिपंजर और मात्र दो अस्तित्व। बेटा हर-बार की तरह रात को दस बजे आया था। उसे अपनी गलती के लिए जरा-सा भी पछतावा नहीं था। ऐसा बर्ताव करने लगा था, जैसे कुछ भी नहीं हुआ हो।
“चलो, चलिए, सब सामान तैयार हैं ?”
उस बुढ़िया के बिस्तर पर जो मरीज लाया गया था, वह थी हेमा बेहरा। एक देहाती औरत। पारामिता के साथ बातचीत करने के लिए बहुत ही बेताब थी, परन्तु उसकी कुत्सित हँसी और लगातार बकबक करने की आदत देखकर पारामिता उसे बिल्कुल पसंद नहीं करती थी। यह बात हेमा बेहेरा की समझ में अच्छी तरह से आ गई थी। वह बोलने लगी-
“मेरे पास बहुत सारे जेवरात हैं, आप जिस तरह से मुझे देख रही हो, वैसी मैं नहीं हूँ। जब सारा जेवर पहन लूँगी तो एक सुन्दर रानी की तरह दिखूँगी।”
इसी बात को बार-बार दोहराती थी वह। पारामिता उसकी इन बातों को सुनकर चौंक गई। सोचने लगी इस औरत की आँखे क्या एक्स-किरणों से भी ज्यादा भेदक क्षमता वाली हैं ? जो बखूबी किसी के भी मन की बातें पढ़ लेती हैं। जरूर ही इस औरत ने दीर्घ एकाकी जीवन जिया होगा। यही वजह हो सकती है कि एकाकीपन ने उसे इतना संवेदनशील बना दिया कि पलक झपकते ही वह हवा की गंध, पानी का रंग और किसी के दिल की व्यथा सब कुछ पढ़ लेती है , उदाहरण के तौर पर उसने एक ही निगाह में पारामिता की नफरत को पढ़ लिया था।
हेमा बेहरा की बातचीत से पता चलता था कि वह अपने पति से संतुष्ट नहीं थी। बातों-बातों में उनकी शिकायत करती रहती थी । जबसे उसे होश आया था तबसे वह अपने पति को गालियाँ दिए जा रही थी। जबकि उसका पति दिखने में बड़ा ही भद्र व सहनशील स्वभाव का दिख रहा था। अपनी पत्नी की हर प्रकार की बातें मान लेता था, यहाँ तक कि कई बार तो उसकी बेतुकी बातों को भी सहन कर लेता था। फिलहाल उसका ऑपरेशन हुए एक ही दिन बीता था, वह मछली-भात खाने की जिद्द करने लगी। उसके पति ने नर्स और नर्सिंग स्टाफ की आँखों में धूल झोंककर उसके लिए मछली-भात का प्रबंध किया । उसने एक दिन पारामिता की मम्मी से भी कहा था-
“मौसी, मैं उसको कुछ भी नहीं कहता हूँ, उसके जो मन में आए, वह करे। बचपन से ही उसके माँ-बाप नहीं हैं, इसलिए मैं कभी भी इसको डाँट-फटकार नहीं करता हूँ। पाँच बीघा जमीन भी इसके नाम से करवा दिया हूँ। एक बड़ा-सा घर भी बनवा दिया हूँ। सोने-चांदी के जेवर भी तैयार करवा दिया हूँ। भगवान की दया से उसके पास किसी भी चीज की कमी नहीं है। मौसी ! सब कुछ है हमारे पास, मगर बच्चा नहीं है।”
“शादी हुए कितने साल हो गए हैं ?”
“सोलह साल”
“जानती हो, मौसी, मैं बच्चे के लिए और आशा नहीं रखता हूँ, पर पता नहीं, कैसे उसको मिर्गी (अपस्मार) का रोग लग गया। चूँकि वह निपट अकेली रहती है मिर्गी का दौरा पड़ने से कब क्या हो जाएगा ? यही सोचकर बीच-बीच में डॉक्टर के पास दिखलाने के लिए ले आता हूँ। परन्तु इसका यहाँ आने का मन बिल्कुल नहीं था।”
“हाँ, कितना झूठ बोलते हो ? तुम्हारा मन था ? दस चिट्ठी लिखने के बाद तो तुम आए हो, वह भी मानो मुझ पर अहसान कर दिया हो। हाँ..., मुझे क्या हो जाता ? जैसे ही यहाँ से घर जाऊँगी बढ़िया खाना बनाऊँगी, खाऊँगी, पीऊँगी और मजे करूँगी। किसके लिए बचाऊँगी ? कौनसा मेरा वारिस है ? और कौन है जो खाएगा ? ये तो कलकत्ता चले जाएँगे। मैं तो इनके दूसरे भाइयों से अलग रहती हूँ।”
धीरे से फुसफुसाते हुए वह बोलने लगी-
“जानती हो ! ये दूसरी शादी करना चाहते हैं। एक लड़की भी देख चुके हैं। सिर्फ समाज को दिखाने के लिए मुझे यहाँ ले आते हैं। हाँ, मेरे पास तो बहुत सारे जेवर हैं ? खेती-बाड़ी है, घर द्वार है। और मुझे क्या चाहिए ? मुझे और किसी सामान की जरूरत है क्या ?”
पारामिता कहने लगी, “हाँ, सब कुछ तो है, और क्या चाहिए ?”
कहते-कहते यह बात पारामिता के हृदय में अटक गई। क्या कोई इंसान अपनी जिंदगी में केवल ये सब चीजें चाहता है ? सिर्फ ये ही सब ? अगर पारामिता को ये सब चीजें मिल जातीं, तो क्या वह खुश रहती ? विशाल दिलवाली होने के बावजूद भी पारामिता को सब कुछ सूनासूना लग रहा था उसके जीवन और उस औरत की सभी संभावनाएँ धूमिल होती नजर आ रही थी तभी तो इस प्रकार की अभद्र भाषा का प्रयोग वह कर रही थी ?
कैलेण्डर के सभी पन्नों को
फाड़कर, मैं खड़ी हूँ
मुहूर्तों की सलाखों के पीछे
बंदी बन
समयहीन हो गई हूँ
मेरे सामने हो तुम
जागरण में
नींद में
सुख में
दुःख में
मगर भीषण ताप से
पसीना बह जा रहा है
इस शरीर स
दिल में जाग उठी
एक प्रचंड प्यास
मेरे सामने
वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़
मानो कुछ भी नहीं हैं।
सन क्लीनिक, कटक
भारत, पृथ्वी, ग्रह, तारा, आकाश
मानो कुछ भी नहीं हैं।
सिर्फ तुम हो
और मैं हूँ
मुहूर्तों की सलाखों के पीछे
बंदी बन
समयहीन हो गई हूँ
पर भीषण ताप से
पसीना बहा जा रहा है
इस शरीर से
दिल में जाग उठी है
एक प्रचंड प्यास।