अमृत- प्रतीक्षा (कहानी)-4 / सरोजिनी साहू

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पारामिता सोच रही थी काश वह छुपकर घर भाग जाती और ये लोग ऐसे ही मूक-दर्शक बनकर बैठे रहते !

जयंती ने पारामिता को आवाज दी। पीछे मुडकर उसको देखने लगी। बड़ी ही चिन्तित दिख रही थी वह। पूछने लगी-

“आपके पास पचास रूपए हैं क्या ?”

“देख रही हूँ, कोई जरूरी काम है ?” पारामिता बोली।

“माँ, गुस्से से बस-स्टैण्ड चली गई है। यह कहकर कि वह ब्रह्मपुर जाएगी।” जयंती ने पारमिता से पचास रूपए लेकर अपने पति को दिए।

“तुम साइकिल लेकर जल्दी उनके पीछे जाओ। वह बहुत गुस्से में गई है, कहीं ऐसा न हो किसी दूसरी बस में बैठकर अन्यत्र चली जाए।”

जयंती के पति तेजी से निकल गए थे।

पारामिता ने आगे पूछा “सुबह तो सब ठीक-ठाक था, पर अचानक अभी ऐसा क्या हो गया ?”

“होगा क्या ?”

जयंती बोली, “माँ हमारे लिए हर रोज बाहर से उबली हुई स्वादहीन सब्जी लाती थी, उस सब्जी को खाने का मन नहीं कर रहा था इसलिए मैंने अपने पति से बाहर किसी होटल से आलूचाप व दूसरी सब्जी लाने के लिए कहा । आज माँ ने उनको खाने का यह सामान लाते हुए देख लिया तो माँ को गुस्सा आ गया। कहने लगी तुम लोग मुझसे छिपा-छिपाकर अच्छी-अच्छी चीजें खा रहे हो, मौज-मस्ती कर रहे हो, और मुझे पूछते तक नहीं। मैं यहाँ खाना बनाकर धूप में इधर से उधर हो रही हूँ और तुम लोगों को बाहर होटल का खाना स्वादिष्ट लग रहा है, तो फिर मेरी यहाँ क्या जरूरत है ?”

यह कहकर जयंती रोने लगी। रोते-रोते कह रही थी। “माँ की इच्छा, अगर वह जाना चाहती हैं तो जाएँ।”

टोकरी से सेव निकालकर पारामिता उनको काटने के लिए चाकू खोज रही थी, तभी देखा जयंती की माँ हडबड़ाकर रूम के अंदर घुस रही थी।

“अरे ! मौसी तो आ गई।”

“आप गए नहीं ?” जयंती ने पूछा।

“कैसे जाती ? बस एक घंटे बाद जाएगी।”


सृजन-प्रक्रिया पूर्णतया यांत्रिकी और

रसायनिकी के सूत्रों की तरह अकवितामय

पूछो, प्रसव-पीडा से छटपटाती उस प्रसूता को,

पूछो, दूरबीन से झाँक रहे खगोलशास्त्र के उन वैज्ञानिकों को,

पूछो, एपीस्टीमोलॉजी, ब्रीच, कन्ट्रेक्शन, सर्विक्स

प्लेसेन्टा को लेकर व्यस्त डॉक्टरों से उस कविता का पता।

इतना होने के बावजूद

गर्भमुक्त प्रसूता की आँखों के किसी कोने में आँसू

और होठों पर थिरकती संतृप्ति भरी हँसी।

कविता पैदा होती है रात के आकाश में

कविता उपजती है पहले सृजन

नवजात शिशु के हँसने और रोने में।

कविता क्या होती है ?

पूछो, रसायन प्रयोगशाला में काम कर रहे

अनभिज्ञ नवागत छात्रों को

पूछो, गर्भस्थ शिशु का पेट में पहले प्रहार

से भयभीत और उल्लासित माँ को

पूछो, प्लेनेटोरियम में टिकट बेचते

लड़कों से,

उस कविता का पता।

प्रज्ञा-चेतना से बाहर निकल कर

देखो, सृजन-प्रक्रिया पूर्णतया यांत्रिक

मगर सृष्टि कवितामय।

पारामिता अब तक एक यंत्र बन चुकी थी। जो कुछ भी बोला जाता, वह उसके लिए राजी हो जाती। चाहे सिजेरियन करे या नारमल, जो भी करे, वह मुक्ति चाहती थी। घर के अन्य तीन सदस्य भी अपना धीरज खो चुके थे। पापा जो कभी भी सीजेरियन के पक्ष में नहीं थे, अब कह रहे थे-

“सीजेरियन करना चाहते हैं तो कर लेने दो। इसकी बड़ी बहिन के भी तो दो-दो बच्चे सीजेरियन ही पैदा हुए हैं। इसको देर से बच्चा हो रहा है इसलिए सीजेरियन होने की ज्यादा आशंका है।”

पारामिता डॉक्टरों को पूछ-पूछकर परेशान कर देती थी, वही पुराना घिसापिटा जवाब उसे अच्छा नहीं लग रहा था। गर्भस्थ शिशु के हृदय की धड़कन 140 प्रति मिनट, रक्तचाप-सामान्य, कितना सुनती ? डॉक्टरों को भी इस बात का अहसास हो गया था कि यह मरीज बहुत ही संवेदनशील प्रकृति की है। कोई डॉक्टर गर्भ ठहरने से लेकर बच्चे की डिलेवरी तक बच्चों के विकास-क्रम व जीवन-प्रणाली के बारे में समझाते थे तो कोई डॉक्टर माँ की मानसिक अवस्था का गर्भस्थ शिशु पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस बारे में बताते थे। उनकी ये सब बातें सुनकर पारामिता क्या संतुष्ट हो जाती ? नहीं। उस दिन डॉक्टर के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब पारामिता उससे बोली,

“मैं सीजेरियन करना चाहती हूँ। आप जिस दिन चाहें, आपरेशन कर सकते हैं। उसके लिए मैं तैयार हूँ।”

डॉक्टर हँस दिए थे। कुछ समझ नहीं पा रहे थे।

“आपका मन अचानक कैसे परिवर्तित हो गया ? लग रहा है आप बहुत बोर हो गई हो। जब आप इतने दिनों तक प्रतीक्षा कर चुकी हो, तो और कुछ दिन सही।”

“नहीं, और बिल्कुल नहीं।”

“देखिये मैडम, मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है। प्रोफेसर साहब जब निर्णय लेंगे, तभी किया जाएगा।”

“यह आपका कैसा नियम है ?” पापा ने पूछा था।

“सीजेरियन करने के कितने दिन पहले आप निर्णय लेते हैं।”

“देखिए, यह निर्णय लेना बड़े डॉक्टरों के हाथ में है। शायद दो-तीन दिन पहले यह तय किया जाता है,फिर आपरेशन करने की पूर्व संध्या को हम एक तालिका बना देते हैं।”

“आगे अक्षय-तृतीया है । उस दिन करने से अच्छा होगा।” पापा ने कहा था।

“प्रोफेसर साहब को बोलकर देखिए।”

यह कहकर डॉक्टर हँसते हुए चले गए थे। कुछ दिन बाद नर्सिंग होम के कार्यालय से पार्थ को कोई बुलाने आया था तथा पारामिता के लिये ब्लड की व्यवस्था करने की बात कहकर चला गया था। पार्थ का वह सारा दिन ब्लड की व्यवस्था के दौड-धूप में पार हो गया। कटक मेडिकल कॉलेज से निराश होकर दूसरे दिन सुबह पार्थ लौट आया था। पारामिता के ब्लड ग्रुप का ब्लड उपलब्ध नहीं था। पार्थ का ब्लड ग्रुप ‘ओ नेगेटिव’ तथा पापा का ‘एबी पजिटिव’ था। पार्थ अपने दो-चार दोस्तों से भी मिला था ताकि पारामिता के ब्लडग्रुप के ब्लड की व्यवस्था की जा सके।

पापा ने कहा था “तुम थोडी और कोशिश करो, नहीं तो मैं घर जाकर किसी लड़के को लेकर आता हूँ।”

लेकिन शाम को पारामिता के ग्रुप का ब्लड मिल गया था, न्यूरोसर्जरी के किसी एक डॉक्टर ने दिया था। पार्थ खुद अपना ‘ओ नेगेटिव’ खून देकर बदले में ‘ए पाजिटिव’ खून लाया था।

“खून जुगाड़ करने के लिए कह रहे है, मतलब जरूर ही सीजेरियन करेंगे।” पापा ने कहा।

“ऐसा कोई जरूरी नहीं है, ऑफिस वाले कह रहे थे पहले से ही खून मँगाकर रख लेते हैं ताकि जरूरत पडने पर काम आ सके।”

पार्थ रोज शाम को तालिका देखकर आता था, मगर पारामिता का नाम नजर नहीं आता था। न ही सीजेरियन की तालिका में, न ही सामान्य-प्रसव की तालिका में। पारामिता मुक्ति चाहती थी। कब मिलेगी उसे मुक्ति। जितने भी सगे-संबंधी, यार-दोस्त थे, प्रतीक्षा करती हुई पारामिता को देखकर जा चुके थे।

पारामिता के उदरस्थ-शिशु मुक्ति के लिए क्या ऐसे ही छटपटाता होगा ? उसकी तरह ऐसे ही व्याकुल होता होगा ? पारामिता सोच रही थी, शायद वह रास्ता ही भूल गया है। शायद वह निर्विकार, निर्विकल्प तपस्वी बनकर बैठ गया है । माँ बच्चे की प्रतीक्षा करते-करते थक गई थी। आखिरकर हारकर वह अपने घर चली गई थीं। बच्चे की प्रतीक्षा में पापा ने ढेरों जासूसी उपन्यास पढ़ लिए थे और उसी प्रतीक्षा में पार्थ के चेहरे पर दाढ़ी बाबाओं की तरह बढ़ गई थी, शर्ट मैला हो गया था, अँगुलियों के नाखून बढ़ गए थे, नाखूनों में मैल जमा हो गया था। मगर उसे देखो कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, एकदम निर्विकार व निर्विकल्प। डॉक्टर बारम्बार नापते थे गर्भस्थ शिशु के हृदय की धडकन 140 प्रति मिनट तथा रक्तचाप-सामान्य।

पापा रोटी लेने होटल गए हुए थे। पारामिता बैठकर जयंती के साथ बात कर रही थी। पार्थ अंधेरे में सिगरेट फूँक रहा था। तभी नर्स आकर बोली थी, “कल आपका ऑपरेशन है।”

“मुझे कह रही हो ?” चौंक गई थी पारामिता।

“हाँ, आज रात को सिर्फ पावरोटी और दूध लेना। दरवाजा खोलकर रखना, डूस दिया जाएगा।”

पार्थ तालिका देखने गया था, लेकिन आया हाथ में दवाई की एक पर्ची लेकर। पारामिता से पूछने लगा-

“तुम्हारे पास कितने रूपये हैं ? मुझे पाँच सौ रूपये चाहिए। जल्दी जाना पडेगा नहीं तो दवाई की दूकान बन्द पड़ जाएगी।”

पता नहीं क्यों, यह खबर सुनने के बाद, वह इतनी काँप रही थी कि रूपया भी ढंग से गिन नहीं पाई। नोटों का एक बंडल पार्थ को पकडा दिया । पारामिता, जयंती के साथ और कुछ बात नहीं कर पाई थी। दो स्लाईस से ज्यादा डबल रोटी भी नहीं खा पाई थी। ढंग से सो भी नहीं पाई थी। बिस्तर से बाथरूम, बाथरूम से बिस्तर, ऐसे पूरी रात जागते-जागते बिता दी। सुबह उसके गुप्तांग की शेविंग की गई तथा पहनने के लिए सफेद गाऊन दिया गया। फिर लाल लाइट जलते हुए डरावने कमरे के अंदर ले जाया गया। पार्थ और पापा बाहर खडे थे। पारामिता को ऐसा लग रहा था मानो चारों तरफ कुहासा छा गया हो और कुहासे के अंदर बहुत सारे लोग उसे घेरकर खड़े हैं। कुहासे के भीतर से किसी की आवाज सुनाई दी-

“तुम्हारे बेटा हुआ है, बेटी।”

धीरे-धीरे कुँहासे से पारामिता बाहर निकली तथा हाथ बढ़ाकर कुछ ढूँढने लगी। जब आँखे खोली तो देखा जयंती और उसके बेड के बीच में एक झूला आ गया है। कोई कह रहा था

“तुम्हारे बेटा हुआ है।”

कितने ताज्जुब की बात है, देखो ! कल तक एक अलग दुनिया में जी रही थी पारामिता, आज उसकी दुनिया दूसरी हो गई है। इस दुनिया की रीति-नीति, मूल्य-बोध, सार्थकता उस दुनिया से बिल्कुल भिन्न है। कल तक अपने जिन स्तनों को अपना गोपनीय अंग मानकर छुपाकर रखती थी, आज उन्हीं स्तनों को सभी के सामने खोलकर स्तनपान करा रही थी वह। कौन लूटकर ले गया पारामिता की सारी शर्म-लाज को ? इस मातृत्व जगत की यह अद्भुत अनुभूति है। सब अश्लीलता इस जगत में शीलता में बदल जाती है। यहाँ सब स्वार्थपरता प्रेम के अनुरूप हो जाती हैं।

इन चंद आठ दिनों के अंतर्गत पारामिता को दुनिया में एक अलग उपलब्धि प्राप्त हो गई। उसे लग रहा था कि वह प्राप्ति कितनी तुच्छ है ! इस सामान्य-सी प्राप्ति के लिए इतना बडा संघर्ष ! अंततः चार सालों से आशा-आशंकाओं के बीच हर मासिक-धर्म के चौबीस घंटों के अंदर-अंदर कटक जाना पड़ता था, एन्डोमेटोरियम बायोप्सी की नेगेटिव रिपोर्ट वाले हारमोन-परीक्षा से जूझ रही थी पारामिता, सिर्फ इतनी तुच्छ प्राप्ति के लिए ! माँ बनने के बाद उसे लग रहा था मानो माँ बनना कोई बड़ी चीज नहीं है।

इसी प्राप्ति की आशा में मनुष्य अपना जीवन जीता है जैसे हेमा बेहेरा, जैसे वह बूढ़ा-बूढ़ी, जैसे जयंती। जिस स्नेह, प्रेम, ममता की प्राप्ति के लिए तड़प रहे थे वे लोग, कितना मूल्यहीन था वह !

इसी परिदृश्य में घुटनों के ऊपर मुँह रखकर उदास बैठी जयंती कविता बन गई थी।

“आह, रे !” पारामिता को जयंती के लिए दुःख लग रहा था। वह लड़की आज सुबह से कितनी उदास लग रही थी ! पार्थ, मम्मी-पापा घर लौटने की तैयारी में थे। पारामिता का सारा सामान बाँध दिया गया था। माँ ने सुराही जयंती को दे दी। बडे दुखी मन से जयंती ने सुराही को अपनी अलमारी में रखा। उसे लग रहा था जैसे उसके चारों तरफ से पृथ्वी विलीन होती जा रही हो।साथ ही साथ धूमिल होती जा रही थी प्रभात की चहल-पहल।

गाड़ी प्रतीक्षा में नीचे खडी थी। सब समान नीचे भेज दिया गया था। पारामिता अंतिम बार अपनी आधी जगह व बाथरूम को देखकर आ गई थी कि कहीं कोई सामान छूटा तो नहीं है। मम्मी के हाथ से बेटे को लेकर गोद में जकड़ लिया था जयंती ने। उसको चुंबन देते हुए रोने लगी।

“जा रहे हो ?”

इस समय पारामिता को ऐसा लग रहा था कि अगर कोई देवदूत प्रकट होकर उसे कोई मनचाहा वरदान दे, तो वह सिर्फ एक ही वर माँगेगी और वह वर होगा जयंती के माँ बनने का। एकबार माँ बनकर वह भी उन कवितामय क्षणों का अनुभव करे, जो वास्तव में कितने अर्थहीन हैं !

मूल ओड़िया से अनुवाद : दिनेश कुमार माली

(प्रस्तुत कहानी लेखिका के 'ओड़िशा साहित्य अकादमी पुरस्कार' द्वारा पुरस्कृत कहानी-संग्रह 'अमृत प्रतीक्षारे' में से ली गई है. मूल रूप से यह कहानी १९८६ में लिखी गई थी और तत्कालीन ओड़िया भाषा की प्रसिद्ध पत्रिका 'झंकार' में प्रकाशित हुई थी. बाद में इस कहानी का अंग्रेजी रूपांतरण 'वेटिंग फॉर मन्ना' शीर्षक से इप्सिता षडंगी ने किया , जो लेखिका के दूसरे अंग्रेजी कहानी-संग्रह 'वेटिंग फॉर मन्ना' ( ISBN: 978-81-906956) में शीर्षक कहानी के रूप में संकलित हुई है.)