अम्मा / कमलेश्वर / पृष्ठ 1

Gadya Kosh से
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पावन गोदावरी नदी के किनारे बसे नासिक नगर की रेलवे कॉलोनी में आज बड़ी धूमधाम थी। नासिक रेलने स्टेशन के असिस्टेंट स्टेशन मास्टर की बेटी शान्ता की आज शादी होनेवाली थी। कॉलोनी में रहनेवालों ने बारात के लिए जगह-जगह स्वागत द्वार बनाए थे। उन्हें बड़ी खूबसूरती से केले, आम के पत्तों से सजाया गया था। कॉलोनी के इस छोर से लेकर उस छोर तक रंग-बिरंगे कागजों की झंडियाँ लगाकर वातावरण को और भी सुन्दर बना दिया था। बहुत ही सज्जन मिलनसार आदमी थे असिस्टेंट स्टेशन मास्टर। इसलिए रेलवे कॉलोनी में रहनेवाले हर व्यक्ति में ऐसा उत्साह और उछाह था जैसे उसकी अपनी बेटी की ही शादी हो।


ए.एस.एम. बाबू का घर मेहमानों और अड़ोस-पड़ोस की औरतों से भरा हुआ था। शान्ता शादी के कपड़े पहने एक कमरे में बैठी थी। शादी के मौके पर होनेवाली रस्म-रिवाजों को पूरा करते-करते थक गई थी। आज भाँवरे पड़ने तक उसे आधी रात तक जागना भी था। इसलिए दादी माँ ने उसे आराम करने की सलाह देकर इस कमरे में लिटा दिया था और बाहर से दरवाजा बन्द करके घर मैं मौजूद सभी औरतों को सख्त हिदायत दी थी कि शान्ता के आराम में कोई खलल न डाले।

‘आज मेरी शादी हो जाएगी और मैं एक अनजाने व्यक्ति के पल्लू से बँधकर एक अजनबी शहर के एक पराए घर में चली जाऊँगी। उस घर के सभी लोग अपरिचित होंगे, अनजाना वातावरण होगा। मैं किस तरह रह पाऊँगी उस पराए घर और घर के अनजाने लोगों के बीच...’बिस्तर पर लेटी शारदा मन ही मन अपने आप से पूछ रही थी।

अपनी शादी के बारे में सोचते-सोचते शान्ता अपने बचपन से लेकर आज तक की यादों की भीड़ में न जाने कहाँ गुम हो गई।


अपने अतीत की यादों को दोहराते हुए बचपन की एक घटना उसकी आँखों के आगे साकार हो उठी। उस समय शान्ता की उम्र केवल सात वर्ष थी और उसके पड़ोस में रहनेवाले सलीम की उम्र लगभग दस वर्ष की थी। रेलवे कॉलोनी के अन्य बच्चों के साथ शान्ता और सलीम बचपन से ही खेलते चले आए थे।

शान्ता के पिता असिस्टेंट स्टेशन मास्टर थे। इसलिए उन्हें काफी बड़ा क्वार्टर मिला था और उनके क्वार्टर के सामने बड़ा-सा लॉन था, जिसे मेहँदी की झाड़ियों से घेर दिया गया था। लॉन में मेहँदी की झाड़ियों के किनारे-किनारे रंग-बिरंगे फूलदार पौधे लगे हुए थे। इंगलिश फूलों और खुशबू बिखेरती मेहँदी की झाड़ियों से घिरा हरी घासवाला यह मैदान सुबह से शाम तक बच्चों से भरा रहता था। वे तरह-तरह के खेल खेलते रहते थे।


शान्ता की माँ ने उसके लिए एक बहुत ही सुन्दर गुड़िया बना दी थी। उसकी गुड़िया को देखकर, अपनी अम्मी से जिद करके सलीम ने एक गुड्डा बनवा लिया था। और उस दिन शान्ता की गुड़िया और सलीम के गुड्डे की शादी थी।

कॉलोनी भर के बच्चे लॉन में जमा हो गए थे। कुछ बच्चे अपनी बाँसुरी, पिपहरी, भोंपू, ढोलक जैसे खिलौने ले आए थे और दूल्हे के वेश में सजे-धजे सलीम के गुड्डे के आगे-आगे उन्हें बजाते हुए चल रहे थे। ठीक उसी तरह जिस तरह बारात में बाजे बजानेवाले दूल्हे की घोड़ी के आगे-आगे चलते हैं।


सलीम ने अपने अब्बा की शेरवानी पहन ली थी, जिसने उसकी टाँगों तक को ढक लिया था। सिर पर अब्बा की ही फैज कैप लगा ली थी और अपने गुड्डे को दोनों हाथों से पकड़कर लॉन पर चलता हुआ, बाजेवालों के पीछे-पीछे उस कोने की ओर बढ़ रहा था जहाँ शान्ता ने अपनी गुड़िया का घर बना रखा था। कॉलोनी के सभी लड़के बारातियों के वेश में सलीम के गुड्डे के साथ चल रहे थे और कॉलोनी की तमाम लड़कियाँ शान्ता के साथ इकट्ठी होकर बारात के स्वागत के लिए तैयार खड़ी थीं। उनमें से कई के एक पास खिलौनेवाली छोटी-छोटी ढोलकें थीं। वे उन ढोलकों को बजा रही थीं और शादी के मौके पर अपने-अपने घरों में गाए जानेवाले गीत गा रही थीं।

शान्ता बारात के स्वागत के लिए घर के दरवाजे पर खड़ी थी।

बारात दरवाजे पर पहुँची तो बड़ी हँसी-खुशी के साथ उसका स्वागत किया गया। एक लड़की ने पंडित बनकर गुड्डे-गुड़िया की भाँवरें डलवाईं....! शान्ता ने माँ से कहकर अपनी गुड़िया की शादी के लिए खाने की कुछ चीज़ें बनवा ली थीं। बारातियों के साथ-साथ शान्ता की सहेलियों ने भी मिल-बाँटकर उन चीजों को खाया और इस तरह बारात को शानदार दावत दे दी गई।


इसके बाद ! गुड़िया को गुड्डे के साथ विदा कर दिया गया।

हालाँकि यह केवल गुड्डे-गुड़िया का खेल था लेकिन न जाने क्यों शान्ता और सलीम को यह महसूस होता रहा कि गुड्डे-गुड़िया के रूप में उन दोनों की शादी हो रही है—वे दोनों गुड्डे-गुड़िया को हाथ में लिये हवन-कुंड के चारों ओर इस तरह फेरे लगा रहे हैं जैसे उनके गुड्डे और गुड़िया नहीं बल्कि वे दोनों ही सात फेरे लगा रहे हैं—जैसे उन्हीं की शादी हो रही हो।

और शादी होने का यह अहसास मासूम शान्ता और सलीम के नन्हें से भोले-भाले मन में इतनी गहराई तक बैठ गया था कि वे आमने-सामने पड़ते तो दोनों इस तरह शरमा जाते, जिस तरह नई-नई शादी होनेवाले दूल्हा-दुल्हन शरमा जाते हैं।

और आज शान्ता सचमुच दुल्हन बनी थी। उसका विवाह होनेवाला था। आज वह सचमुच ही अपने दूल्हे के साथ अग्नि के सात फेरे लगानेवाली थी। सबकुछ वैसा ही हो रहा था और होनेवाला था जैसा शान्ता की गुड़िया और सलीम के गुड्डे की शादी के मौके पर हुआ था। उस वक्त शान्ता को ऐसा लगा था कि सलीम के साथ अग्नि-कुंड के फेरे लगा रही है लेकिन आज उसे प्रवीन के साथ फेरे लगाने थे—प्रवीन उसका भावी पति—जिसे उसने अभी तक देखा भी नहीं था। पता नहीं कैसा होगा ?...सलीम जैसा या इससे सुन्दर !


तभी दरवाजे पर बाजों की आवाजें गूँज उठीं। घर की स्त्रियाँ दौड़ती हुई कमरे में आईं और शान्ता को सजा-सँवारकर कमरे के बाहर ले गईं।

दूल्हे के दरवाजे पर आते ही पहले माँ ने प्रवीन की आरती उतारी और फिर शान्ता ने फूलों का एक खूबसूरत हार उसके गले में डाल दिया। प्रवीन ने भी उसे माला पहनाई।

रेलवे कॉलोनी के लोग बड़े उल्लास से बारातियों का स्वागत-सत्कार कर रहे थे। उन्हें खिला-पिला रहे थे सलीम दोनों बाजुओं को एक दूसरे में लपेटे एक ओर खड़ा था। आज वह तेईस वर्ष का युवक था। शिक्षित और शालीन...आज भी उसके बदन पर वैसी ही शेरवानी थी। वैसी ही फैज कैप थी लेकिन उसके चेहरे पर वह खुशी नहीं थी, मन में वह उल्लास नहीं था जो आज से लगभग तेरह वर्ष पहले गुड्डे और गुड़िया के विवाह के समय था। उसके चेहरे पर उदासी थी, आँखें बुझी-बुझी और थकी-थकी दिखाई दे रही थीं जैसे उसे किसी ने अचानक ही उस समय जगा दिया हो जब वह एक सुन्दर सपना देख रहा था। वह सुन्दर सपना अधूरा रह गया था। और सपने के इस अधूरेपन ने उसके तन-मन में एक अजीब-सी शिथिलता भरा अवसाद भर दिया था। अजीब-सी उदासी और अजीब-सी खामोशी।


ट्रे में शर्बत के गिलास लिये कॉलोनी के ही एक लड़के ने सलीम की ओर ट्रे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘सलीम भाई लीजिए शर्बत पीजिए...आप इस तरह कटे-कटे चुपचाप क्यों खड़े हैं !’’

‘‘शुक्रिया दोस्त, दरअसल शर्बत पीने का मन नहीं हो रहा।’’ सलीम ने मुस्कुराने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा।

शुभ मुहूर्त में शान्ता और प्रवीन को पंडितों ने वेद मन्त्रों और अग्नि को साक्षी बनाकर एक सूत्र में बाँध दिया।

‘‘बाबू कुन्दनलालजी, अब शान्ता आज से आप की बेटी हो गई। हम जैसा होना चाहिए था आपका वैसा स्वागत-सत्कार नहीं कर पाए। जो भी भूल-चूक हो गई हो क्षमा कर दीजिएगा !’’ शान्ता के पिता ने प्रवीन के पिता से हाथ जोड़कर प्रार्थना की।

प्रवीन के पिता ने उनके दोनों हाथ थाम लिए और खुशी से छलछलाती आवाज में बोले, ‘‘कैसी बातें करते हैं

श्यामसुन्दरजी। शान्ता बेटी आपने हमें दे दी तो हम समझते हैं कि आपने अपना सबकुछ हमें अर्पित कर दिया। शान्ता बेटी से बढ़कर आपके पास और था भी क्या ? मुझे सबकुछ मिल गया श्यामसुन्दरजी...सबकुछ मिल गया।’’

प्रवीन के पिता बाबू कुन्दनलाल ने शान्ता के पिता बाबू श्यामसुन्दर को अपनी बाँहों में भरकर छाती से लगा लिया।