अम्मा / कमलेश्वर / पृष्ठ 2
‘‘आज से शान्ता आपकी हुई बाबूजी, आज मैं एक बहुत बड़े कर्तव्य से मुक्त हो गया !’’ बाबू श्यामसुन्दर की आवाज भर्रा उठी थी।
‘‘आप ठीक कह रहे हैं भाई साहब, ‘‘एक बाराती बोल उठा, ‘‘लड़की का विवाह पिता पर सबसे बड़ा कर्ज होता है। भगवान की कृपा से आप इस कर्ज से मुक्त हो गए। इससे बड़ी खुशी की और क्या बात हो सकती है !’’
डोली आकर दरवाजे़ पर लगी ही थी कि अचानक फायर की आवाज के साथ ही दौड़ते हुए भारी बूटों की आवाजें चारों ओर से गूँज उठी। लोग भयभीत होकर उस ओर देखने लगे जिस ओर से फायर और भारी बूटों की आवाजें करीब आती जा रही थीं।
‘‘न-वी-न !’’ अंग्रेज सार्जेंट टाम का भारी-भरकम रौबीली आवाज गूँज उठी और फिर वह दौड़ता हुआ वहाँ पहुँच गया जहाँ दूल्हा प्रवीन, उसके और शान्ता के पिता अन्य लोगों के साथ खड़े थे।
‘‘कहाँ है नवीन !’’ सार्जेंट टाम ने कड़ककर प्रवीन से पूछा, ‘‘टुम उसका भाई है...वह टुमारा शादी में जरूर आया होगा।’’
‘‘नहीं, नवीन यहाँ नहीं है,’’ प्रवीन ने साहस करके कहा, ‘‘महीनों बीत गए हमने उसकी शक्ल तक नहीं देखी।’’
सार्जेंट टाम ने क्रोध से तिलमिलाकर अपने रिवाल्वर की नाल प्रवीन के सीने पर टिका दी और गुर्रा उठा, ‘‘झूठ बोलता है ! हम तुम्हें गोली से उड़ा देगा ! बता...कहाँ है नवीन ?’’
सभी लोग कहने लगे नवीन वहाँ नहीं है। वह अपने भाई की बारात में नहीं आया है।
टाम ने कड़ककर कहा और अपने सिपाहियों को हुक्म दिया, ‘‘हमारे जवानों ने इस घर और पूरे इलाक़े को घेर रखा है। नवीन यहाँ से निकलकर भाग नहीं सकता। सिपाहियों, घर का कोना-कोना छान मारो—ऐसा हो ही नहीं सकता कि छोटा भाई बड़े भाई की शादी में शामिल न हो...नवीन जरूर आया होगा...तलाश करो...पूरा घर छान डालो...आज मैं उसे जिन्दा या मुर्दा लेकर ही वापस लौटूँगा।’’
सिपाही अपनी-अपनी राइफल ताने बाबू श्यामसुन्दर के घर में घुस गए और तलाशी लेने लगे।
दुल्हन के वेश में खड़ी शान्ता थर-थर काँप रही थी। उसकी सात-आठ वर्ष ननद मंजू भय से काँपकर उसकी टाँगों से लिपट गई और फिर नीचे बैठ गई।
सिपाहियों ने सारा घर खँगाल डाला लेकिन नवीन जब वहाँ था ही नहीं, तो मिलता कहाँ से।
‘‘टुम नवीन का बाप हाय ?’’ सार्जेंट टाम ने बाबू कुन्दनलाल के सीने पर रिवाल्वर की नाल टिका दी, ‘‘टुमारा बेटा नवीन अंग्रेज सरकार का दुश्मन हाय—बागी हाय ! बागियों का लीडर हाय ! बटाओ कहाँ हाय वो, वरना हम इसी वक्त टुम सबको गोलियों से भून डालेगा।’’
सार्जेंट टाम का क्रोध बढ़ता जा रहा था। वह बड़े यकीन के साथ यहाँ आया था कि आज बागियों के लीडर नवीन को या तो गिरफ्तार करके जिन्दा ले जाएगा या फिर उसकी लाश लेकर जाएगा। और नवीन को गिरफ्तार करके या उसे मौत के घाट उतार देने के बाद उसका प्रमोशन हो जाएगा।
लेकिन बदनसीब टाम की यह साध पूरी न हुई। उसे लगा जैसे उसका मनचाहा शिकार उसके हाथों में आकर निकल गया हो।
अपनी नाकामयाबी पर झल्लाकर उसने अपना रिवाल्वर होल्सटर में रख लिया और अपने जवानों को वापस चलने का आदेश देकर उस ओर चल दिया, जहाँ उसकी गाड़ी खड़ी थी।
सार्जेंट टाम और सिपाही जब गाड़ियों में सवार होकर आँखों से ओझल हो गए तो सब लोगों के जी में जी आया। उन्होंने इस तरह इत्मीनान की साँस ली जैसे मौत ने अपने खूनी पंजों में जकड़ी उनकी गर्दनों को बिना हील-हुज्जत के छोड़ दिया हो।
‘‘बाबू कुन्दनलालजी, अब यहाँ से चलिए। क्या पता वह गोरा साहब फिर लौट आए और हम लोग फिर मुसीबत में पड़ जाएँ !’’ एक बाराती ने भयभीत स्वर में कहा।
बाबू कुन्दनलाल ने शान्ता के पिता बाबू श्यामसुन्दर से विदा ली और सब लोगों को साथ लेकर स्टेशन पर खड़ी ट्रेन में आ बैठे।
एक सीट के आगे चादर बाँध दी गई और उस पर्दे में शान्ता को अपनी ननद मंजू के साथ बैठा दिया गया।
ट्रेन स्टार्ट होकर धीरे-धीरे रेंग रही थी कि तभी छोटी-सी गठरी लिये एक औरत जल्दी से ट्रेन में चढ़ आई। उसने बुर्का पहन रखा था। अपनी गठरी लेकर वह कम्पार्टमेंट के एक कोने में जा बैठी।
कुछ देर बाद बाबू कुन्दनलाल ने ससुराल से आया खाना निकाला और बाराती खाना खाने लगे। उन्होंने एक पत्तल पर पूड़ी-सब्जी रखकर चादर के बने पर्दे के पीछे बैठी शान्ता और मंजू के लिए भी भिजवा दी।
वह बारात में आए मेहमानों को खाना परोस रहे थे कि उनकी नजर कोने में बैठी बुर्कापोश औरत पर पड़ी। पूरे कम्पार्टमेंट में बाराती भरे हुए थे। वे आपस में हँसी-मजाक भी कर रहे थे।
बाबू कुन्दनलाल ने उस औरत के पास जाकर कहा, ‘‘आप उधर पर्दे में जा बैठिए। वहाँ मेरी बहू और बेटी बैठी हुई हैं। इतने मर्दों के बीच आपको अकेले बैठने में परेशानी महसूस हो रही होगी।’’
बुर्कापोश औरत ने बाबू कुन्दनलाल की सलाह मान ली और अपनी गठरी उठाकर पर्दे के पीछे शान्ता और मंजू के पास जा बैठी।
कुछ देर बाद ट्रेन एक स्टेशन पर पहुँचकर रुकी ही थी कि उसे सिपाहियों ने फिर अपने घेरे में ले लिया। सार्जेंट टाम हाथ में रिवाल्वर लिये उनका नेतृत्व कर रहा था।
सार्जेंट टाम ने अपना रिवाल्वर लहराते हुए जवानों को कड़ककर हुक्म दिया, ‘‘एक-एक डिब्बे की तलाशी लो। हमारे मुखबिरों ने खबर दी है कि बागी नवीन नासिक स्टेशन से इस ट्रेन में सवार हुआ है। उसे वहाँ प्लेटफार्म पर देखा गया था। सिपाहियों ने उसका पीछा किया तो वह उनकी आँखों में धूल झोंककर न जाने किधर गायब हो गया।’’
सार्जेंट टाम का आदेश पाते ही पुलिस के जवानों ने पहले ट्रेन से उतरनेवाले एक-एक यात्री की अच्छी तरह जाँच-पड़ताल की और फिर डिब्बे में घुस गए। ट्रेन एक घंटे तक प्लेटफार्म पर खड़ी रही। इस एक घंटे में सिपाहियों ने ट्रेन का एक-एक डिब्बा छान डाला। प्लेटफार्म पर मौजूद एक-एक आदमी को अच्छी तरह देखा लेकिन उन्हें नवीन नहीं दिखाई दिया।
इस दूसरी असफलता ने टाम के क्रोध को और भी भड़का दिया। अपने सिपाहियों को गालियाँ बकते हुए वहाँ से चल पड़ा।
सार्जेंट टाम और उसके सिपाहियों के जाने के बाद ट्रेन स्टार्ट होकर आगे बढ़ने लगी।
‘‘बाबू कुन्दनलालजी, आपके छोटे बेटे नवीन ने अपनी करतूतों से आपके पूरे खानदान की जिन्दगी संकट में डाल दी है। जिन अंग्रेजों के राज में सूरज कभी नहीं छिपता, वहीं नवीन मुट्ठी-भर सिरफिरे छोकरों की मदद से उस अंग्रेजी राज का तख्ता पलट देना चाहता है !’’ मुंशी गिरधारीलाल ने खाते-खाते कहा।
‘‘बाबूजी, आप नवीन को समझाएँ कि वह अंग्रेज सरकार से वैर-विरोध छोड़ दे और शरीफ आदमियों की तरह जिन्दगी बसर करे। आप अपने शहर के इज्जतदार और सम्मानित आदमी हैं। आप कोशिश करेंगे तो अंग्रेज सरकार नवीन को माफ कर देगी—उसका नाम बागियों की लिस्ट से आप बड़ी आसानी से खारिज करवा सकते हैं। अब आप घर पहुँचकर सबसे पहले यही काम कीजिए !’’ मुंशीजी ने सलाह दी।
मुंशीजी और दूसरे लोगों की बातें सुनकर बुर्कापोश औरत कसमसाते हुए बार-बार पहलू बदल लेती थी।
‘‘आप आराम से बैठिए,’’ शान्ता ने उसे परेशान देखकर कहा। और फिर मंजू की ओर देखकर बोली, ‘‘तुम्हारे छोटे भैया बारात में नहीं आए।’’
‘‘नहीं भाभी, नवीन भैया तो घर आते ही नहीं हैं, इन अंग्रेज कुत्तों की वजह से....’’ मंजू ने भीगी आवाज में उत्तर दिया।
‘‘सचमुच ही कुत्ते हैं ये !’’ शान्ता घृणा-भरे स्वर में बोली, ‘‘पहले तो सूँघते हुए जनवासे में पहुँच गए, फिर घर पर आ धमके, और जब वहाँ भी नहीं मिले तो अब गाड़ी के डिब्बे सूँघते फिर रहे हैं।’’
‘‘छोटे भैया तक इन अंग्रेज कुत्तों का पहुँचना आसान नहीं है भाभी,’’ मंजू बोली, ‘‘खैर, अब आप खाना खाइए।’’
तभी मुंशीजी की आवाज फिर सुनाई दी, ‘‘बाबू कुन्दनलाल, नवीन को तो घर की मोह-ममता ही नहीं रह गई है। अरे, उस पर अगर क्रान्ति का भूत सवार न होता तो वह तुम्हारा दूसरा बाजू बन जाता। आज ठाठ से अपने बड़े भाई की शादी में शामिल हुआ होता।’’
मुंशीजी की बात सुनकर बुर्कापोश औरत फिर कसमसा उठी।
शान्ता ने पूड़ी का कौर तोड़कर मंजू की ओर बढ़ा दिया।
‘‘तुम भी खाओ न भाभी !’’ मंजू ने खाते हुए हुआ।
शान्ता ने अपने दोनों पाँव सीट पर रखे ही थे कि बुर्कापोश औरत का एक हाथ बाहर निकला और शान्ता के पैर छूकर फिर बुर्के में छिप गया।
शान्ता हड़बड़ाकर बोली, ‘‘आपको कुछ चाहिए ?’’