अलंकारविधान / गोस्वामी तुलसीदास / रामचन्द्र शुक्ल

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भावों का जो स्वाभाविक उद्रेक और विभावों का जो स्पष्ट प्रत्यक्षीकरण गोस्वामीजी में पाया जाता है उसका दिग्दर्शन तो हो चुका। अब जरा उनके अलंकारों की बानगी भी देख लेनी चाहिए। भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी कभी सहायक होनेवाली युक्ति ही अलंकार है। अत: अलंकारों की परीक्षा हम इसी दृष्टि से करेंगे कि वे कहाँ तक उक्त प्रकार से सहायक हैं। यदि किसी वर्णन में उनसे इस प्रकार की कोई सहायता नहीं पहुँचतीहै, तो वे काव्यालंकार नहीं, भार मात्र हैं। यह ठीक है कि वाक्य की कुछ विलक्षणता-जैसे श्लेष और यमक-द्वारा श्रोता या पाठक का ध्या,न आकर्षित करने के लिए भी अलंकार की थोड़ी बहुत योजना होती है, पर उसे बहुत ही गौण समझना चाहिए। काव्य की प्रक्रिया के भीतर ऊपर कही बातों में से किसी एक में भी जिस अलंकार से सहायता पहुँचती है, उसे हम अच्छा कहेंगे और जिससे कई एक में एक साथ सहायता पहुँचती है, उसे बहुत उत्तम कहेंगे।

अलंकार के स्वरूप की ओर ध्यालन देते ही इस बात का पता चल जाता है कि वह कथन की एक युक्ति या वर्णनशैली मात्र है। यह शैली सर्वत्रा काव्यालंकार नहीं कहला सकती। उपमा को ही लीजिए, जिसका आधार होता है सादृश्य। यदि कहीं सादृश्ययोजना का उद्देश्य बोध कराना मात्र है तो वह काव्यालंकार नहीं। 'नीलगाय गाय के सदृश होती है' इसे कोई अलंकार नहीं कहेगा। इसी प्रकार 'एकरूप तुम भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ॥' में भ्रम अलंकार नहीं है। केवल 'वस्तुत्व' या 'प्रमेयत्व' जिसमें हो, वह अलंकार नहीं1। अलंकार में रमणीयता होनी चाहिए। चमत्कार न कहकर रमणीयता हम इसलिए कहते हैं कि चमत्कार के अन्तर्गत केवल भाव, रूप, गुण या क्रिया का उत्कर्ष ही नहीं, शब्द कौतुक और अलंकार सामग्री की विलक्षणता भी ली जाती है। जैसे, बादल के स्तूपाकार टुकड़े के ऊपर निकले


1.साधर्म्यं कविसमयप्रसिध्दं कांतिमत्वादि न तु वस्तुत्वप्रमेयत्वादि ग्राह्यम्।

-विद्याधर।

हुए चन्द्रमा को देख यदि कोई कहे कि 'मानो ऊँट की पीठ पर घंटा रखा हुआ है' तो कुछ लोग अलंकार सामग्री की इस विलक्षणता पर-कवि की इस दूर की सूझ पर-ही वाह वाह करने लगेंगे। पर इस उत्प्रेक्षा से ऊपर लिखे प्रयोजनों में से एक भी सिद्ध नहीं होता। बादल के ऊपर निकलते हुए चन्द्रमा को देख हृदय में स्वभावत: सौन्दर्य की भावना उठती है। पर ऊँट पर रखा हुआ घंटा कोई ऐसा सुन्दर दृश्य नहीं जिसकी योजना से सौन्दर्य के अनुभव में कुछ और वृध्दि हो। भावानुभव में वृध्दि करने के गुण का नाम ही अलंकार की रमणीयता है।

अब गोस्वामीजी के कुछ अलंकारों को हम इस क्रम से लेते हैं-(1) भावों की उत्कर्षव्यंजना में सहायक, (2) वस्तुओं के रूप (सौन्दर्य, भीषणत्व आदि) का अनुभव तीव्र करने में सहायक, (3) गुण का अनुभव तीव्र करने में सहायक,

(4) क्रिया का अनुभव तीव्र करने में सहायक।

(1) भावों की उत्कर्षव्यंजना में सहायक अलंकार

अशोक के नीचे राम के विरह में सीता को चाँदनी धूप सी लगती है-

डहकु न है उँजियरिया निसि नहिं घाम।

जगत जरत अस लागु मोहिं बिनु रामड्ड

यह निश्चयालंकार सीता के विरहसंताप का उत्कर्ष दिखाने में सहायक है। इसी विरहसंताप की प्रचंडता असिद्धास्पद हेतूत्प्रेक्षा द्वारा भी दिखाई गई है-

जेहि बाटिका बसति तहँ खग मृग तजि तजि भजे पुरातन भौन।

स्वास समीर भेट भइ भोरेहुँ तेहि मग पग न धरयो तिहुँ पौनड्ड

मरते हुए जटायु से राम कहते हैं कि मेरे पिता से सीताहरण का समाचार न कहना-

सीता हरन, तात, जनि कहेउ पिता सन जाइ।

जो मैं राम तो कुल सहित कहहि दसानन आइड्ड

यह 'पर्यायोक्ति' राम की धीरता और सुशीलता की व्यंजना में कैसी सहायता करती हुई बैठी है। राम सीताहरण के समाचार द्वारा अपने पिता को स्वर्ग में भी दुखी करना नहीं चाहते। साथ ही अपनी वीरता भी अत्यन्त संकोच और शिष्टता के साथ प्रकट करते हैं। 'राम' कैसा अर्थान्तरसंक्रमित पद है।

राम की चढ़ाई का हाल सुनकर इतनी घबराहट हुई, इतनी आशंका फैली कि 'बसत गढ़ लंक लंकेस रावन अछत लंक नहीं खात कोउ भात राँधयो।' यहाँ आशंका को व्यक्त करने में लक्षणा और व्यंजना के मेल में 'विभावना' कितना काम दे रही है।

देखिए, यह रूपक रतिभाव की अनन्यता दिखाने के लिए कैसा दृश्य ऊपर से ला रहा है-

तृषित तुम्हरे दरस कारन चतुर चातक दास।

बपुष बारिद बरषि छबि जल हरहु लोचन प्यासड्ड

एक नई उपमा देखिए। जब कोई राजा धनुष न तोड़ सका; तब जनक ने क्षोभ से भरे उत्तोजक वचन कहे जिन्हें सुनकर लक्ष्मण को तो अमर्ष हुआ, पर अभिमानी मानी राजाओं की यह दशा हुई-

जनक बचन छुए बिरवा लजारू के से

बीर रहे सकल सकुच सिर नाइ कै।

इस उपमा में 'लज्जा' का उत्कर्ष भी है और क्रिया भी ठीक बिम्बप्रतिबिम्ब रूप की है; अत: यह बहुत अच्छी है।

उन्हीं राजाओं कीर् ईर्ष्याै इस विभावना द्वारा कही गई है-

नीच महीपावली दहन बिनु दही है।

राम की नि:स्पृहता और सन्तोष का ठीक अन्दाज कराने के लिए उपमा और रूपक के सहारे कैसी बातें सामने लाए हैं-

असन अजरिन को समुझि तिलक तज्यो;

बिपिन गवनु भले भूखे अब सुनाजु भो।

धरमधुरीन धीर धीर रघुबीरजू को,

कोटि राज सरिस भरतजू को राज भोड्ड

दो भावों के द्वन्द्व का कैसा सुन्दर और स्पष्ट चित्र इस रूपक में मिलता है-

मन अगहुँड़ तनु पुलक सिथिल भयो, नलिन नयन भरे नीर।

गड़त गोड़ मानो सकुच पंक महँ, कढ़त प्रेम बल धीरड्ड

कौशल्या अपने गम्भीर वात्सल्य, प्रेम का प्रकाश इस पर्यायोक्ति द्वारा जिस प्रकार कर रही हैं, वह अत्यन्त उत्कर्षसूचक होने पर भी बहुत ही स्वाभाविक है-

राघव एक बार फिरि आवौ।

ए बर बाजि बिलोकि आपने बहुरो बनहिं सिधावौ।

जे पय प्याइ पोषि कर पंकज बार बार चुचुकारे।

क्यों जीवहिं मेरे राम लाड़िले! ते अब निपट बिसारेड्ड

सुनहु पथिक जो राम मिलहिं बन कहियो मातु सँदेसो।

तुलसी मोहिं और सबहिन तें इनको बड़ो ऍंदेसोड्ड

जिसके वियोग में घोड़े इतने विकल हैं, उसके वियोग में माता की क्या दशा होगी, यह समझने की बात है-

जासु वियोग बिकल पशु ऐसे। कहहु मातु पितु जीवहिं कैसेड्ड

'पर्यायोक्ति' का आश्रय लोग स्वभावत: किस अवस्था में लेते हैं, यह राम का इन शब्दों में आज्ञा माँगना बता रहा है-

नाथ लषन पुर देखन चहहीं। प्रभु सकोच उर प्रगट न कहहींड्ड

लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम को जो मानसिक व्यथा, जो दु:ख हो रहा था, उसे लक्ष्मण ने उठकर देखा और वे कहने लगे-

हृदय छाड़ मेरे, पीर रघुबीरै।

पाइ सजीवन जागि कहत यों प्रेम पुलकि बिसराय सरीरैड्ड

इस 'असंगति' से संजीवनी बूटी का प्रभाव (पीड़ा दूर करने का) भी प्रकट हुआ और राम के दु:ख का आतिशय्य भी। अलंकार का ऐसा ही प्रयोग सार्थक है।

रावण और अंगद के संवाद में दोनों की 'व्याजनिन्दा' बहुत ही अच्छी है। रावण के इस वचन से कुछ बेपरवाई झलकती है-

धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचहिं परिहरि लाजाड्ड

नाचि कूदि करि लोग रिझाई। पति हित करै धरम निपुनाईड्ड

बन्दरों का आदमी के हाथ में पड़कर नाचना कूदना एक नित्यप्रति देखी जानेवाली बात है। अंगद के इन नीचे लिखे वचनों में कैसा गूढ़ उपहास है-

नाक कान बिनु भगिनि निहारी । क्षमा कीन्ह तुम धरम बिचारीड्ड

लाजवंत तुम सहज सुभाऊ । निजमुखनिजगुनकहसिन काऊड्ड

(2) रूप का अनुभव तीव्र करने में सहायक अलंकार

रूप, गुण और क्रिया तीनों का अनुभव तीव्र करने के लिए अधिकतर सादृश्य मूलक उपमा आदि अलंकारों का ही प्रयोग होता है। रूप का अनुभव प्रधानत: चार प्रकार का होता है-अनुरंजक, भयावह, आश्चर्यकारक या घृणोत्पादक। इस प्रकार के अनुभव में सहायक होने के लिए आवश्यक यह है कि प्रस्तुत वस्तु और आलंकारिक वस्तु में बिम्बप्रतिबिम्ब भाव हो अर्थात् अप्रस्तुत (कवि द्वारा लाई हुई) वस्तु प्रस्तुत वस्तु से रूप रंग आदि में मिलतीजुलती हो और उससे उसी भाव के उत्पन्न होने की सम्भावना हो जो प्रस्तुत वस्तु से उत्पन्न हो रहा हो। अब देखिए, तुलसीदासजी के प्रयुक्त अलंकार कहाँ तक इन बातों को पूरा करते हैं।

सीता के जयमाल पहनाने की शोभा देखिए-

सतानंद सिष सुनि पायँ परि पहिराई माल

सिय पिय हिय, सोहत सो भई है।

मानस तें निकसि बिसाल सुतमाल पर

मानहुँ मराल पाँति बैठि बन गई हैड्ड

इस उत्प्रेक्षा में श्रीराम के शरीर और तमाल में श्यामता के विचार से ही बिम्बप्रतिबिम्ब भाव है, आकृति का सादृश्य नहीं है; पर मरालपाँति और जयमाल में वर्ण और आकृति दोनों के सादृश्य से बिम्बप्रतिबिम्ब भाव बहुत पूर्णता को पहुँचा हुआ है। पर सबसे बढ़कर बात तो यह है कि तमाल पर बैठी मरालपंक्ति का नयनाभिरामत्व कैसे प्राकृतिक क्षेत्रों से सौन्दर्यसंग्रह करके गोस्वामीजी मेल रखने के लिए लाये हैं।

इसी ढंग की एक और उत्प्रेक्षा लीजिए। रणक्षेत्रों में रामचन्द्रजी के दूर्वादल श्याम शरीर पर रक्त की जो छींटें पड़ी हैं वे कैसी लगती हैं-

सोनित छींटि छटान जटे तुलसी प्रभु सोहैं महाछबि छूटी।

मानो मरक्कत सैल बिसाल में फैलि चलीं बर बीरबहूटीड्ड

इनमें भी रक्त की छींटों और बीरबहूटियों में वर्ण और आकृति दोनों के विचार से बिम्बप्रतिबिम्ब है, पर शरीर और मरकत शिला में केवल वर्ण का सादृश्य है। पर आकृति का ब्योरा अधिक न मिलना कोई त्रुटि नहीं है, क्योंकि प्रेक्षक कुछ दूर पर खड़ा माना जायेगा। इसी प्रकार देखिए, तट पर से खड़े होकर देखनेवाले को गंगा यमुना के संगम की छटा कैसी दिखाई पड़ती है-

सोहै सितासित को मिलिबो तुलसी हुलसै हिय हेरि हिलोरे।

मानो हरे तृन चारु चरैं बगरे सुरधोनु के धौल कलोरेड्ड

एक और सुन्दर 'उत्प्रेक्षा' लीजिए-

लता भवन तें प्रकट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।

निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइड्ड

इस उत्प्रेक्षा में मेघखंड के बीच से प्रकट होते हुए चन्द्रमा का मनोरम दृश्य लाया गया है जो प्रस्तुत दृश्य की मनोहरता के अनुभव को बढ़ानेवाला है। नेत्रा शीतल करने का गुण भी राम लक्ष्मण और चन्द्रमा दोनों में है।

'रूपकातिशयोक्ति' का प्रयोग बहुत से कवियों ने इस ढंग से किया है कि वह एक पहेली सी हो गई है। पर गोस्वामीजी ने उसे अपनी प्रबन्धधारा के भीतर बड़े स्वाभाविक ढंग से बैठाया है-ऐसे ढंग से बैठाया है कि वह अलंकार जान ही नहीं पड़ती, क्योंकि उसमें अप्रस्तुत भी वन के भीतर प्रस्तुत समझे जा सकते हैं। सीता के वियोग में वन वन फिरते हुए राम कहते हैं-

खंजन, सुक, कपोत, मृग, मीना । मधुप निकर कोकिला प्रबीनाड्ड

कुंद कली दाड़िम, दामिनी । सरद कमल, ससि, अहि भामिनीड्ड

वरुण पाश मनोज, धनु, हंसा । गज केहरि निज सुनत प्रसंसाड्ड

श्रीफल, कमल कदलि हरखाहीं । नेकु न संक सकुच मन माहीड्ड

गोस्वामीजी की प्रबन्धकुशलता विलक्षण है जिससे प्रकरण प्राप्त वस्तुएँ अलंकार सामग्री का कार्य भी देती चलती हैं। इससे होता यह कि अलंकारों में कृत्रिमता नहीं आने पाती। रंगभूमि में इधर राम आते हैं, उधर सूर्य का उदय होता है। इस बात पर कवि को यह अपह्नुति सूझती है-

रवि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रताप सब नृपन दिखायाड्ड

भिन्न भिन्न गुणों के आश्रयत्व से एक ही राम को गोस्वामीजी ने इतने विभिन्न (कहीं कहीं तो बिलकुल विरुद्ध) रूपों में 'उल्लेख' के सहारे दिखाया है कि जो अलंकार सलंकार नहीं जानते, वे इसे राम की दिव्य विभूति समझकर ही प्रसन्न हो जाते हैं। देखिए-

जिनकै रही भावना जैसी । हरि-मूरति देखी तिन्ह तैसीड्ड

देखहिं भूप महा रनधीरा । मनहुँ बीररस धरे सरीराड्ड

डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारीड्ड

पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई । नरभूषन लोचनसुखदाईड्ड

रहे असुर छलछोनिप वेषा । तिन प्रभु प्रगट काल सम देखाड्ड

अलंकार के निर्वाह का वे पूरा ध्या न रखते थे। हिरन के पीछे दौड़ते हुए राम को पंचशर कामदेव बनाना है, इसके लिए देखिए इस भ्रमालंकार में वे शरों की गिनती किस प्रकार पूरी करते हैं-

सर चारिक चारु बनाइ कसे कटि, पानि सरासन सायक लै।

बन खेलत राम फिरैं मृगया, तुलसी छबि सो बरनै किमि कै?

अवलोकि अलौकिक रूप मृगी मृग चौंकि चकैं चितवैं चित दै।

न डगैं, न भगैं जिय जानि सिलीमुख पंच धरे रतिनायक हैड्ड

प्रकरणप्राप्त वस्तुओं के भीतर से ही वे प्राय: अलंकार की सामग्री चुनते हैं। इस 'निदर्शना' में उसका एक और सुन्दर उदाहरण लीजिए। विश्वामित्र के साथ जाते हुए बालक राम लक्ष्मण उनकी नजर बचाकर कहीं धूल, कीचड़ में खेल भी लेते हैं। जिसके दाग कहीं कहीं बदन पर दिखाई पड़ते हैं-

सिरनि सिखंड सुमन दल मंडन बाल सुभाय बनाए।

केलि अंक तनु रेनु पंक जनु प्रगटत चरित चुराएड्ड

कवि लोग कभी कभी दूर की उड़ान भी मारा करते हैं। गोस्वामीजी ने भी कहीं कहीं ऐसा किया है। सीता के रूपवर्णन में यह 'अतिशयोक्ति' देखिए-

जौंछबि सुधा पयोनिधि होई । परम रूपमय कच्छप सोई।

सोभा रजु मंदर सृंगारू । मथै पानि पंकज निज मारूड्ड

यहि बिधि उपजै लच्छि जब सुन्दरता सुख मूल।

तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय सम तूलड्ड

चन्द्रमा के काले दाग पर यह अप्रस्तुत प्रशंसा देखिए-

कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा । सार भाग ससि कर हरि लीन्हाड्ड

छिद्र सो प्रकट इंदु उर माहीं । तेहि सम देखिय नभ परछाहींड्ड

रूपसम्बन्धी कुछ और उक्तियाँ देखिए-

(क) सम सुबरन सुषमाकर सुखद न थोर।

सीय अंग सखि, कोमल, कनक कठोरड्ड

सियमुख सरद-कमल जिमि किमि कहि जाइ।

निसि मलीन वह, निसि दिन यह बिगसाइ॥ (व्यतिरेक)

(ख) सिय तुव अंग रंग मिलि अधिक उदोत।

हार बेलि पहिरावौं चंपक होतड्ड (मीलित)

(ग) चंपक हरवा अंग मिलि अधिक सुहाइ।

जानि परै सिय हियरे जब कुम्हिलाइड्ड (उन्मीलित)

(घ) केस मुकुत, सखि, मरकत मनिमय होत।

हाथ लेत पुनि मुकुता करत उदोतड्ड (अतद्गुण)

(च) मुख अनुहरिया केवल चंद समान। (प्रतीप)

(छ) द्वैभुज कर हरि रघुबर सुंदर बेष।

एक जीभ कर लछिमन दूसर शेषड्ड (हीनअभेद रूपक)

जहाँ वस्तु या व्यापार अगोचर होता है वहाँ अलंकार उसके अनुभव में सहायता गोचर रूप प्रदान करके करता है; अर्थात् वह पहले गोचर प्रत्यक्षीकरण करके बोधवृत्ति की कुछ सहायता करता है, तब फिर रागात्मिका वृत्ति को उत्तोजित करता है। जैसे, यदि कोई आनेवाली विपत्ति या अनिष्ट का कुछ भी ध्यािन न करके अपने रंग में मस्त रहता हो और कोई उसको देखकर कहे कि-'चरै हरित तृन बलिपसु जैसे' तो इस कथन से उसकी दशा का प्रत्यक्षीकरण कुछ अधिक हो जाएगा जिससे उसमें भय का संचार पहले से कुछ अधिक हो सकता है।

'भव बाधा' कहने से कोई विशेष रूप सामने नहीं आता, सामान्य अर्थ ग्रहण मात्र हो जाता है। इससे गोस्वामीजी उसे व्याल का गोचर रूप देते हुए 'परिकरांकुर' का अवलम्बन करते हुए कहते हैं-

तुलसिदास भव व्याल ग्रसित तव सरन उरगरिपु गामीड्ड

इसी प्रकार कैकेयी की भीषणता सामने खड़ी की गई है-

लखी नरेस बात यह साँची। तिय मिस मीच सीस पर नाचीड्ड

(3) क्रिया का अनुभव तीव्र करने में सहायक अलंकार

क्रिया और गुण का अनुभव तीव्र कराने के लिए प्रस्तुत अप्रस्तुत वस्तु के बीच या तो 'अनुगामी' (एक ही) धर्म होता है; या 'वस्तु प्रतिवस्तु' या उपचरित। सीधी भाषा में यों कह सकते हैं कि अलंकार के लिए लाई हुई वस्तु और प्रसंगप्राप्त वस्तु का धर्म या तो एक ही होता है, या अलग अलग कहे जाने पर भी दोनों के धर्म समान होते हैं, अथवा एक के धर्म का उपचार दूसरे पर किया जाता है; जैसे, उसका हृदय पत्थर के समान है।

देखिए, केवल क्रिया की तीव्रता का अनुभव कराने के लिए इस 'ललितोपमा' का प्रयोग हुआ है-

मारुतनंदन मारुत को, मन को, खगराज को बेग लजायो।

सीता के प्रति कहे हुए रावण के वचन को सुनकर हनुमानजी को जो क्रोध हुआ, उसके वर्णन में इस रूपक का प्रयोग भी ऐसा ही है-

अकनि कटु बानी कुटिल की क्रोध बिंधय बढ़ोइ।

सकुचि राम भयो ईस आयसु कलसभव जिय जोइड्ड

इनमें क्रिया या वेग को छोड़ प्रस्तुत अप्रस्तुत में रूप आदि का कोई सादृश्य नहीं है। पर गोस्वामीजी के ग्रन्थों में ऐसे स्थल भी बहुत से मिलते हैं जिनमें बिम्बप्रतिबिम्ब भाव से प्रस्तुत और अप्रस्तुत की स्थिति भी है और धर्म भी वस्तु प्रतिवस्तु है। एक उदाहरण लीजिए-

बालधी बिसाल बिकराल ज्वाल जाल मानौ,

लंक लीलिबे को काल रसना पसारी है।

कैधों ब्योम बीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,

बीर रस बीर तरवारि सी उघारी हैड्ड

तुलसी सुरेस चाप, कैधों दामिनी कलाप

कैधों चली मेरु तें कृसानु सरि भारी हैड्ड

इसमें 'उत्प्रेक्षा' और 'सन्देह' का व्यवहार किया गया है। इधर उधर घूमती हुई जलती पूँछ तथा काल की जीभ और तलवार में बिम्बप्रतिबिम्ब भाव (रूप सादृश्य) भी है तथा संहार करने और दाह करने में वस्तुप्रतिवस्तु धर्म भी है। इस दृष्टि से यह अलंकार बहुत ही अच्छा है।

दो एक जगह ऐसे उपमान भी मिलते हैं जिसमें कवि के अभिप्रेत विषय में तो सादृश्य है, पर शेष विषयों में इतना अधिक असादृश्य है कि उपमान की हीनता खटकती है; जैसे-

सेवहिं लषन सीय रघुबीरहिं। जिमि अविवेकी, पुरुष सरीरहिंड्ड

पर कहीं कहीं इस हीनता को कुछ अपने ऊपर लेकर गोस्वामीजी ने उसका सारा दोष हर लिया है-

कामिहिं नारि पियारि जिमि, लोभिहि प्रिय जिमि दाम।

तिमि रघुनाथ निरन्तर, प्रिय लागहु मोहिं रामड्ड

नीचे लिखे 'रूपक' में उपमान और उपमेय का अनुगामी (एक ही) धर्म बड़ी ही सुन्दर रीति से आया है-

नृपन केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासीड्ड

मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकानेड्ड

इसमें ध्याकन देने की पहली बात यह है कि केवल क्रिया का सादृश्य है, रूप आदि का कुछ भी सादृश्य नहीं है। दूसरी बात यह है कि यद्यपि यहाँ 'सकुचना' और 'लज्जित होना' आए हैं, पर रूपक का उद्देश्य इन भावों का उत्कर्ष दिखाना नहीं है, बल्कि एक साथ इतनी भिन्न भिन्न क्रियाओं का होना ही दिखाना है।

एक ही क्रिया का सम्बन्ध अनेक पदार्थों से दिखाती हुई यह 'तुल्ययोगिता' भी बड़ी ही सटीक बैठी है-

सब कर संसय अरु अग्यानू । मंद महीपन कर अभिमानूड्ड

भृगुपति केरि गर्ब गरुआई । सुर मुनि बरन केरि कदराईड्ड

सिय कर सोच, जनक परितापा । रानिन कर दारुन दुख दापाड्ड

संभुचाप बड़ बोहित पाई । चढ़े जाइ सब संग बनाईड्ड

प्रबन्धधारा के बीच यह अलंकार ऐसा मिला हुआ है कि ऊपर से देखने में इसकी अलंकारता प्रकरण से अलग नहीं मालूम होती। 'बोहित' को छोड़ और कोई सामग्री कविप्रतिभाप्रदत्ता या ऊपर से लाई हुई नहीं है। हाँ, वस्तुओं की जो सुन्दर योजना है, वह अवश्य कवि की प्रतिभा का फल है। यही प्रतिभा कवि को प्रबन्ध रचना का अधिकार देती है; कौतुकी कवियों की वह प्रतिभा नहीं जो 'पंचवटी शोभा के वर्णन' के समय प्रलयकाल के बारहों सूर्य उतार लाती है। प्राप्त प्रसंग के गोचर अगोचर सब पक्षों तक जिसकी दृष्टि पहुँचती है, किसी परिस्थिति में अपने को डालकर उसके अंगप्रत्यंग का साक्षात्कार जिसका विशाल अन्त:करण कर सकता है, वही प्रकृत कवि है। जी न चाहने पर भी विवश होकर यह कहना पड़ता है कि गोस्वामीजी को छोड़ हिन्दी के और किसी कवि में वह प्रबन्धपटुता नहीं जो महाकाव्य की रचना के लिए आवश्यक है। प्रकरणप्राप्त विषयों को अलंकार सामग्री बनाते हुए किस प्रकार वे स्थान स्थान पर प्रबन्धप्रवाह के भीतर ही अलंकारों का विधान भी करते चलते हैं, यह हम दिखाते आ रहे हैं। एक और उदाहरण लीजिए जिसमें 'सहोक्ति' द्वारा एक ही क्रिया (धनुर्भंग) का कैसा विशद संग्राहक रूप दिखाया गया है-

गहि करतल, मुनि पुलक सहित, कौतुकहि उठाइ लियो।

नृपगन मुखनि समेत नमित करि सजि सुख सबहि दियो।

आकरष्यो सिय मन समेत हरि हरष्यो जनक हियो।

भंज्यो भृगुपति गर्व सहित, तिहुँलोक बिमोह कियोड्ड

परिणाम का स्वरूप आगे रखकर कर्म की भयंकरता अनुभव कराने का कैसा प्रकृत प्रयत्न इस 'अप्रस्तुत प्रशंसा' में दिखाई पड़ता है-

मातु पितहि जनि सोच बस करसि महीप किसोरड्ड

इसी प्रकार कर्म के स्वरूप को एकबारगी नजर के सामने लाने के लिए 'ललित' अलंकार द्वारा उसका यह गोचर स्वरूप सामने रखा गया है-

यहि पापिनिहि सूझि का परेऊ। छाए भवन पर पावक धरेऊड्ड

क्रूर और नीच मनुष्य यदि कभी आकर नम्रता प्रकट करे तो इसे बहुत डर की बात समझना चाहिए। नीचों की नम्रता की यह भयंकरता गोस्वामीजी ने बड़े ही अच्छे ढंग से गोचर की है-

नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अंकुस, धनु, उरग, बिलाईड्ड

यही बात दोहावली में दूसरे ढंग से गोचर की है-

मिलै जो सरलहि सरल ह्नै, कुटिल न सहज बिहाइ।

सो सहेतु, ज्यों बक्रगति ब्याल न बिलै समाइड्ड

जिसे हम पचासों बार दुष्टता करते देख चुके हैं, वह यदि कभी बहुत सीधा बनकर आवे तो यह समझ लेना चाहिए कि वह अपना कोई मतलब निकालने के लिए तैयार हुआ है। मतलब निकालने के लिए तैयार दुष्ट संसार में कितनी भयंकर वस्तु है।

क्रोध से भरी कैकेयी राम को वन भेजने पर उद्यत होकर खड़ी होती है। उस समय उसके कर्म और संकल्प की सारी भीषणता गोचर नहीं हो रही है। देश और काल का व्यवधान पड़ता है। इससे गोस्वामीजी रूपक द्वारा उसे प्रत्यक्ष कर रहे हैं-

अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी । मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ीड्ड

पाप पहार प्रगट भइ सोई । भरी क्रोध जल जाइ न जोइड्ड

दोउ बर कूल, कठिन हठ धारा । भँवर कूबरी बचन प्रचाराड्ड

ढाहत भूप रूप तरु मूला । चली बिपति बारिधि अनुकूलाड्ड

'पाप' और 'पहाड़' तथा 'क्रोध' और 'जल' में यहाँ अनुगामी धर्म है, शेष में वस्तु प्रतिवस्तु। जैसे नदी के दो कूल होते हैं, वैसे ही उसके क्रोध के दो

पक्ष दोनों वर हैं; जैसे धारा में वेग होता है वैसे ही हठ में है; जैसे भँवर मनुष्य का निकलना कठिन कर देता है, वैसे ही कूबरी के वचन परिस्थिति को और कठिन कर रहे हैं। यह सांगरूपक कैकेयी के कर्म की भीषणता को खूब ऑंख के सामने ला रहा है। भाव या क्रिया की गहनता द्योतित करने के लिए गोस्वामीजी ने प्राय: नदी और समुद्र के रूपक का आश्रय लिया है। चित्रकूट में अपने भाइयों के सहित रामचन्द्र जनक से मिलकर उन्हें अपने आश्रय पर ले जा रहे हैं। वह समाज ऐसे शोक से भरा हुआ था जिसका प्रत्यक्षीकरण इस 'रूपक' के ही द्वारा अच्छी तरह हो सकता था-

आश्रम सागर सांतरस पूरन पावन पाथ।

सेन मनहुँ करुना सरित लिए जाहिं रघुनाथड्ड

बोरति ग्यान बिराग करारे । बचन ससोक मिलत नद नारेड्ड

सोच उसास समीर तरंगा । धीरज तट तरुवर कर भंगाड्ड

विषम विषाद तुरावति धारा । भय भ्रम भँवर अवर्त अपाराड्ड

केवट बुध, बिद्या बड़ि नावा । सकहिं न खेइ एक नहिं आवाड्ड

आश्रम उदधि मिली जब जाई । मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाईड्ड

(4) गुण का अनुभव तीव्र करने में सहायक अलंकार

देखिए, इस 'व्यतिरेक' की सहायता से सन्तों का स्वभाव किस सफाई के साथ औरों से अलग करके दिखाया गया है-

संत हृदय नवनीत समाना । कहा कबिन पै कहइ न जानाड्ड

निज परिताप द्रवै नवनीता । पर दुख द्रवैं सुसंत पुनीताड्ड

सन्तों और असन्तों के बीच के भेद को थोड़ा कहते कहते 'व्याघात' द्वारा कितना बड़ा कह डाला है, जरा यह भी देखिए-

बंदौ संत असज्जन चरना । दुखप्रद उभय, बीच कछु बरनाड्ड

मिलत एक दारुन दुख देहीं । बिछुरत एक प्रान हरि लेहींड्ड

इस इतने बड़े भेद को थोड़ा कहनेवाले का हृदय कितना बड़ा होगा!

कवि लोग अपनी चतुराई दिखाने के लिए श्लेष, कूट, प्रहेलिका आदि लाया करते हैं, पर परम भावुक गोस्वामीजी ने ऐसा कहीं नहीं किया। एक स्थान पर ऐसी युक्तिपटुता है, पर वह आख्यानगत पात्र का चातुर्य दिखाने के लिए ही है। लक्ष्मण से शूर्पणखा के नाक, कान काटने के लिए राम इस तरह इशारा करते हैं-

बेद नाम कहि, ऍंगुरिन खंडि अकास।

पठयो सूपनखाहि लषन के पासड्ड

(वेद श्रुति कान। आकाश स्वर्ग नाक।)

गोस्वामीजी की रचना में बहुत से स्थल ऐसे भी हैं, जहाँ यह निश्चय करने में गड़बड़ी हो सकती है कि यहाँ अलंकार है या भाव। इसकी सम्भावना वहीं होगी जहाँ स्मरण, सन्देह और भ्रान्ति का वर्णन होगा। स्मरण का यह उदाहरण लीजिए-

बीच बास करि जमुनहि आए। निरखि नीर लोचन जल छाएड्ड

इसे न विशुद्ध अलंकार ही कह सकते हैं, न भाव ही। उपमेय और उपमान राम के शरीर, यमुना के जल के सादृश्य की ओर ध्याहन देते हैं तो स्मरण अलंकार रहता है; और जब अश्रु सात्विवक की ओर देखते हैं तो स्मरण संचारी भाव निश्चित होता है। सच पूछिए तो इसमें दोनों हैं। पर इसमें सन्देह नहीं कि भाव का उद्रेक अत्यन्त स्वाभाविक है और यहाँ वही प्रधान है, जैसा कि 'लोचन जल छाए' से प्रकट होता है। विशुद्ध अलंकार तो वहीं कहा जा सकता है जहाँ सदृश वस्तु लाने में कवि का उद्देश्य केवल रूप, गुण या क्रिया का उत्कर्ष दिखाना रहता है। अलंकार का स्मरण प्राय: वास्तविक नहीं होता; रूप, गुण आदि के उत्कर्ष प्रदर्शन का एक कौशल मात्र होता है। दूसरी बात ध्यामन देने की यह है कि स्मरण भाव केवल सदृश वस्तु से ही नहीं होता, सम्बन्धी वस्तु से भी होता है। शुद्ध 'स्मरण' भाव का यह उदाहरण बहुत ही अच्छा है-

जननी निरखति बान धनुहियाँ।

बार बार उर नयननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँड्ड

अब भ्रम का एक ऐसा ही उदाहरण लीजिए। सीताजी अपने जलने के लिए अशोक से अंगार माँग रही थीं। इतने में हनुमान ने पेड़ के ऊपर से राम की 'मनोहर मुद्रिका' गिराई और-

जानि असोक ऍंगार सीय हरषि उठि कर गह्यो।

इसी प्रकार जहाँ उत्तरकांड में अयोध्यार की विभूति का वर्णन है, वहाँ कहा गया है-

मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं।

इन दोनों उदाहरणों में 'भ्रम' अलंकार नहीं है। अलंकार में भ्रम के विषय की विशेषता होती है, भ्रान्त की विशेषता में तो पागलों का भ्रम भी अलंकार हो जायेगा। सीता का जो भ्रम है, वह विरह की विह्नलता के कारण और बन्दरों का जो भ्रम है, वह पशुत्व के कारण। इस प्रकार का भ्रम अलंकार नहीं, यह बात आचार्यों ने स्पष्ट कर दी है-

मर्मप्रहारकृत चित्ताविक्षेपविरहादिकृतोन्मादादिजन्यभ्रांतेश्च नालंकारत्वम्।

-उद्योतकार।

सन्देह के सम्बन्ध में भी यही बात समझिए जो ऊपर कही गई है। तीनों में सादृश्य आवश्यक है। सन्देह तो अलंकार तभी होगा जब उसको लाने का मुख्य उद्देश्य रूप, गुण, क्रिया का उत्कर्ष (अपकर्ष भी) सूचित करना होगा। ऐसा सन्देह वास्तविक भी हो सकता है, पर वहाँ अलंकारत्व कुछ दबा सा रहेगा। जैसे, 'की मैनाक की खग पति होई' में जो सन्देह है, वह कवि के प्रबन्धकौशल के कारण वास्तविक भी है तथा आकार की दीर्घता और वेग की तीव्रता भी सूचित करता है। पर नीचे लिखा उदाहरण यदि लीजिए तो उसमें कुछ भी अलंकारत्व नहीं है-

की तुम हरिदासन महँ कोई । मोरे हृदय प्रीति अति होईड्ड

की तुम राम दीन अनुरागी । आए मोहिं करन बड़ भागीड्ड

अलंकार का विषय समाप्त करने के पहले दो चार बातें कह देना आवश्यक है। पहली बात तो यह है कि सब अलंकार आने पर भी गोस्वामीजी की रचना कहीं ऐसी नहीं है कि पहले अलंकार का पता लगाया जाय तब अर्थ खुले। जो अलंकार का नाम तक नहीं जानते, वे भी अर्थ ग्रहण करके, पूरा आनन्द उठाते हैं। एक बिहारी हैं कि पहले 'नायिका' का पता लगाइये, फिर अलंकार निश्चित कीजिए, और तब दोनों की सहायता से प्रसंग की ऊहा कीजिए, तब जाकर कहीं अर्थ से भेंट हो। गोस्वामीजी की इस अद्भुत विशेषता का कारण है उनकी अपूर्व प्रबन्धपटुता जिसके बल से उन्होंने अपनी प्रबन्धधारा के साथ, अधिकतर प्रकरणप्राप्त वस्तुओं को ही लेकर, अलंकारों को इस सफाई से मिलाया है कि जोड़ मालूम नहीं पड़ता।

ध्यािन देने की दूसरी बात यह है कि गोस्वामीजी श्लेष, यमक, मुद्रा आदि खेलवाड़ों के फेर में एक तरह से बिलकुल नहीं पड़े हैं। इसका मतलब यह नहीं कि शब्दालंकार का सौन्दर्य उनमें नहीं। ओज, माधुर्य आदि का विधान करनेवाले वर्णविन्यास का आश्रय उन्होंने लिया है। उनकी रचना शब्द सौन्दर्यपूर्ण है। अनुप्रास के तो वे बादशाह थे। अनुप्रास किस ढंग से लाना चाहिए, उनसे यह सीखकर यदि बहुत से पिछले फुटकरिए कवियों ने अपने कवित्ता सवैए लिखे होते, तो उनमें वह भद्दापन और अर्थन्यूनता न आने पाती। तुलसी की रचना में कहीं कहीं एक ही वर्ण की आवृत्ति सारे चरण में यहाँ से वहाँ तक चली गई है, पर प्रसंगबाह्य या भरती का शब्द एक भी नहीं। दो नमूने बहुत होंगे-

(क) जग जाँचिए कोउ न, जाँचिए जौ, जिय जाँचिए जानकी जानहि रेड्ड

जेहि जाचत जाचकता जरि जाइ जो जारति जोर जहानहि रेड्ड

(ख) खल परिहास होहि हित मोरा। काक कहहिं कल-कंठ कठोराड्ड

और उदाहरण ढूँढ़ लीजिए, कुछ भी कष्ट न होगा; जहाँ ढूँढ़िएगा, वहीं मिलेंगे।

श्लेष, परिसंख्या जैसे कृत्रिमता लानेवाले अलंकारों का व्यवहार भी इनकी रचनाओं में नहीं मिलता। इस प्रसिद्ध उदाहरण को छोड़, हम समझते हैं, परिसंख्या का शायद ही कोई और उदाहरण इनकी रचनाओं भर में मिले-

दंड जतिन कर, भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।

जितहु मनहिं अस सुनिय जग रामचंद्र के राजड्ड

शब्दश्लेष के उदाहरण भी ढूँढ़ने पर चार ही पाँच जगह मिलते हैं; जैसे-

(क) साधु चरित सुभ सरिस कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासूड्ड

(ख) बहुरि सक्र सम बिनवौं तेही। संतत सुरानीक हित जेहीड्ड

(ग) रावन सिर सरोज बनचारी। चलि रघुबीर सिलीमुख धारीड्ड

(घ) सेवा अनुरूप फल देत भूप कूप ज्यों;

बिहूने गुन पथिक पियासे जात पथ के।

इसी प्रकार 'यमक' का व्यवहार भी कम ही मिलता है; जैसे-

काढ़ि कृपान कृपा न कहू, पितु काल कराल बिलोकि न भागे।

'राम कहाँ सब ठाउँ हैं', 'खंभ में?', 'हाँ', सुनि हाँक नृकेहरि जागेड्ड

गोस्वामीजी को रामचरित की ओर सब प्रकार के लोगों को आकर्षित करना था; जो जिस रुचि से आकर्षित हो, उसी से सही। इससे उन्होंने अलंकार की भद्दी रुचि रखनेवालों को भी निराश नहीं किया और इस तरह के भी कुछ अलंकार कहे जिस तरह का विनयपत्रिका में यह 'सांगरूपक' है-

सेइय सहित सनेह देह भरि कामधोनु कलि कासी।

मरजादा चहुँ ओर चरन बर सेवत सुरपुर बासीड्ड

तीरथ सब सुभ अंग, रोम सिवलिंग अमित अबिनासी।

अंतरअयन अयन भल थल, फल बच्छ बेद बिस्वासीड्ड

गल कंबल बरुना बिभाति, जनु लूम लसति सरिता सी।

लोल दिनेस त्रिलोचन लोचन, करनघंट घंटा सीड्ड

कहिए, काशी की इन वस्तुओं का सींग, पूँछ, गलकंबल आदि के साथ कहाँ तक सादृश्य है। अनुगामी धर्म, वस्तु प्रतिवस्तु धर्म, उपचरित धर्म, बिम्बप्रतिबिम्ब रूप आदि ढूँढ़ने से कहाँ तक मिल सकते हैं? 'घंटा' और 'करनघंटा' में तो केवल शब्दात्मक सादृश्य ही है। इसी प्रकार विनयपत्रिका में अर्ध्दनारीश्वर शिव को वसन्त बनाया है और गीतावली में चित्रकूट की वनस्थली को होली का स्वाँग। पर फिर भी यही कहना पड़ता है कि इसमें गोस्वामीजी का दोष नहीं; यह एक वर्गविशेष की रुचि का प्रसाद है। इतनी विस्तृत रचना के भीतर दो चार ऐसे स्थलों से उनके रुचिसौन्दर्य में अणुमात्र भी सन्देह नहीं उत्पन्न हो सकता।