उक्तिवैचित्र / गोस्वामी तुलसीदास / रामचन्द्र शुक्ल

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उक्तिवैचित्रय से यहाँ हमारा अभिप्राय उस बेपर की उड़ान से नहीं है जिसके प्रभाव से कवि लोग जहाँ रवि भी नहीं पहुँचता, वहाँ से अपनी उत्प्रेक्षा, उपमा आदि के लिए सामग्री लिया करते हैं। मेरा अभिप्राय कथन के उस अनूठे ढंग से है जो उस कथन की ओर श्रोता को आकर्षित करता है तथा उसके विषय को मार्मिक और प्रभावशाली बना देता है। ऐसी उक्तियों में कुछ तो शब्द की लक्षणा, व्यंजना शक्ति का आश्रय लिया जाता है और कुछ काकु, पर्यायोक्ति अलंकारों का। ऐसी उक्तियाँ गोस्वामीजी की रचनाओं में भरी पड़ी हैं; अत: केवल दो चार का दिग्दर्शन ही यहाँ हो सकता है।

राम की शोभा का वर्णन करते हुए एक स्थान पर कवि कहता है-'मनहुँ उमगि अंग अंग छबि छलकै'। इस 'छलकै' शब्द में कितनी शक्ति है। व्यापार को कैसा गोचर रूप प्रदान करता है। इसका वाच्यार्थ अत्यन्त तिरस्कृत है। लक्षणा से इसका अर्थ होता है-'प्रभूत परिमाण में प्रकट होना।' पर 'अभिधा' द्वारा इस प्रकार कहने से वैसी तीव्र अनुभूति नहीं उत्पन्न हो सकती।

'विनयपत्रिका' में गोस्वामीजी राम से कहते हैंµ

'हौं सनाथ ह्वै हौं सही, तुमहूँ अनाथपति जौ लघुतहि न भितैहौ।'

'लघुता से भयभीत होना' कैसी विलक्षण उक्ति है, पर साथ ही कितनी सच्ची है। शानदार अमीर लोग गरीबों से क्यों नहीं बातचीत करते? उनकी 'लघुता' ही के भय से न? वे यही न डरते हैं कि इतने छोटे आदमी के साथ बातचीत करते लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे? अत: लघुता से भयभीत होने में जो एक प्रकार का विरोध सा लक्षित होता है, वह हृदय पर किस शक्ति के साथ प्रभाव डालता है।

राम के बन चले जाने पर कौशल्या दु:ख से विह्नल होकर कहती हैं-

हौं घर रहि मसान पावक ज्यों मरिबोइ मृतक दह्यो है।

कौशल्या को घर श्मशान सा लग रहा है। इस श्मशान की अग्नि में कौशल्या को भस्म हो जाना चाहिए था। पर वे कहती हैं कि इस अग्नि में भस्म होना चाहिए था मुझे, पर जान पड़ता है कि मैंने अपनी मृत्यु का शव ही इसमें जलाया है। भाव तो यही है कि मुझे मृत्यु भी नहीं आती, पर अनूठे ढंग से व्यक्त किया गया है। ऐसी ऐसी उक्तियों के लिए अंग्रेज महाकवि शेक्सपियर प्रसिद्ध हैं।

अब कौशल्या जी मरती क्यों नहीं, इसका कारण उन्हीं के मुख से सुनिए-

लगे रहत मेरे नयननि आगे राम लखन अरु सीताड्ड

×××

दुख न रहै रघुपतिहिं बिलोकत; मनु न रहै बिनु देखेड्ड

राम लक्ष्मण की मूर्ति हृदय से हटती नहीं, बिना उनकी मूर्ति सामने लाए मन से रहा ही नहीं जाता। और जब उनकी मूर्ति मन के सामने आ जाती है तब दु:ख नहीं रह जाता। मरें तो कैसे मरें?

एक और उक्ति सुनिए, जो है तो साधारण ही, पर एक अपूर्वता के साथ-

कियो न कछू, करिबो न कछू, कहिबो न कछू, मरिबोइ रह्यो है।

और सब काम तो मैं कर चुका, मरने का काम भर और रह गया है। किसी अंग्रेज कवि ने भी कहीं इसी भाव से कहा है-

'आई हैव माई डाइंग टु डू'

लोग मैत्री और प्रीति को बड़े इत्मिनान के साथ धीरे धीरे करते हैं, पर एक जरा सी बात पर उसे चट तोड़ देते हैं-

थोरेहु कोप कृपा पुनि थोरेहि, बैठि के जोरत तोरत ठाढ़े।

यहाँ 'बैठि' और 'ठाढ़े' दोनों का लक्ष्यार्थ ध्याकन देने योग्य है। इसी प्रकार की एक और लक्षणा देखिए-

बड़े ही समाज, आज रावन की लाजपति।

हाँकि ऑंक एक ही पिनाक छीनि लई है।

'उपादान लक्षणा' के उदाहरण हिन्दी में कम मिलते हैं, देखिए उसका कैसा चलता उदाहरण इस दोहे में है-

तुलसी बैर सनेह दोउ रहित बिलोचन चारि।

बोलचाल में बराबर आता है कि 'प्रेम अंधा होता है।'

एक स्थान पर गोस्वामी एक ही क्रिया के दो ऐसे कर्म लाए हैं जो परस्पर अत्यन्त विजातीय होने के कारण बहुत ही अनूठे लगते हैं। हनुमान जी पर्वत लिए हुए राम के पास आ पहुँचते हैं; इसपर-

बेग बल साहस सराहत कृपानिधान,

भरत की कुसल अचल लाए चलिकै।

भरत की कुशल और पर्वत दोनों लाए। इसमें चमत्कार दोनों वस्तुओं के अत्यन्त विजातीय होने के कारण है। अंग्रेज उपन्यासकार डिकेंस को ऐसे प्रयोग बहुत अच्छे लगते थे; जैसे इस बात ने उसकी ऑंखों से ऑंसू और जेब से रूमाल निकाल दिया-(दिस ड्रयू टियर्ज फ्राम हर आइज ऐंड हैंडकरचीफ फ्राम हर पाकेट)।