भाषा पर अधिकार / गोस्वामी तुलसीदास / रामचन्द्र शुक्ल
भाषा पर जैसा अधिकार गोस्वामीजी का था, वैसा और किसी हिन्दी कवि का नहीं। पहली बात तो यह ध्या न देने की है कि 'अवधी' और 'व्रज' काव्यभाषा की दोनों शाखाओं पर उनका समान और पूर्ण अधिकार था। रामचरितमानस को उन्होंने 'अवधी' में लिखा है जिसमें पूरबी और पछाँही (अवधी) दोनों का मेल है। कवितावली, विनयपत्रिका और गीतावली तीनों की भाषा व्रज है। कवितावली तो व्रज की चलती भाषा का एक सुन्दर नमूना है। पार्वतीमंगल, जानकीमंगल और रामलला नहछू ये तीनों पूरबी अवधी में हैं। भाषा पर ऐसा विस्तृत अधिकार और किस कवि का था? न सूर अवधी लिख सकते थे, न जायसी व्रज।
गोस्वामीजी की कैसी चलती हुई मुहाविरेदार भाषा है, दो चार उदाहरण देकर दिखाया जाता है-
(क) 'बात चले बात को न' मानिबो बिलग, बलि,
काकी सेवा रीझि कै निवाजो रघूनाथ जूड्ड
(ख) 'सब की न कहैं' तुलसी के मते उतनो जग जीवन को फल है।
(ग) प्रसाद राम नाम के 'पसारि पायँ सूतिहौं'।
(घ) सो सनेह समउ सुमिरि तुलसी हू के से
भलीभाँति, भले पैंत, 'भले पाँसे परिगे।'
(च) ऐहै कहा नाथ? आयो ह्याँ, क्यों कहि जात बनाई है।
(आवेगा क्या आया है।)
लोकोक्तियों के प्रयोग भी स्थान स्थान पर मिलते हैं; जैसे-
(क) माँगि कै खैबो मसीत को सोइबो,
लैबे को एक न दैबे को दोऊ।
(ख) मनमोदकनि कि भूख बुताई?
पर सबसे बड़ी विशेषता गोस्वामीजी की है भाषा की सफाई और वाक्य रचना की निर्दोषता जो हिन्दी के और किसी कवि में ऐसी नहीं पाई जाती। यही दो बातें न होने से इधर के ऋंगारी कवियों की कविता और भी पढ़े लिखे लोगों के काम की नहीं हुई। हिन्दी का भी व्याकरण है, 'भाषा' में भी वाक्यरचना के नियम हैं, अधिकतर लोगों ने इस बात को भूलकर कवित्ता सवैयों के चार पैर खड़े किए हैं। गोस्वामीजी के वाक्यों में कहीं शैथिल्य नहीं है, एक भी शब्द ऐसा नहीं है जो पाद पूत्यर्थ रखा हुआ कहा जा सके। ऐसी गठी हुई भाषा किसी की नहीं है। उदाहरण देने की न जगह ही है, न उतनी आवश्यकता ही। सारी रचना इस बात का उदाहरण है। एक ही चरण में वे बहुत सी बातें इस तरह कह जाते हैं कि न कहीं से शैथिल्य आता है न न्यूनपदत्व-
परुष वचन अति दुसह स्तवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो।
बिगत मान सम सीतल मन पर गुन, नहिं दोष, कहौंगोड्ड
कहीं कहीं तो ऐसा है कि पद भर में यहाँ से वहाँ तक एक ही वाक्य चला गया है, पर क्या मजाल कि अन्त तक एक सर्वनाम में भी त्रुटि आने पाए-
जेहि कर अभय किए जन आरत बारक बिबस नाम टेरे।
जेहि कर कमल कठोर संभु धनु भंजि जनक संसय मेटयो।
जेहि कर कमल उठाइ बंधु ज्यों परम प्रीति केवट भेंटयोड्ड
जेहि कर कमल कृपालु गीध कहँ उदक देह निज लोक दियो।
जेहि कर बालि बिदारि दास हित कपि कुल पति सुग्रीव कियोड्ड
आए सरन सभीत बिभीषन जेहि कर कमल तिलक कीन्हों।
जेहि कर गहि सर चाप असुर हति अभय दान देवन दीन्होंड्ड
सीतल सुखद छाँह जेहि कर की मेटति पाप ताप माया।
निसि बासर तेहि कर सरोज की चाहत तुलसिदास छायाड्ड
कैसा सुव्यवस्थित वाक्य है। और कवियों के साथ तो तुलसी का मिलान ही क्या। 'वाक्यदोष' हिन्दी में भी हो सकते हैं, इसका ध्याकन तो बहुत कम लोगों को रहा। सूरदासजी भी इस बात में तुलसी से बहुत दूर हैं। उनके वाक्य कहीं कहीं उखड़े से हैं, उनमें वह सम्बन्ध व्यवस्था नहीं है। उनके पदों के कुछ अंश नीचे नमूने के लिए दिए जाते हैं-
(क) श्रवण चीर अरु जटा बँधावहु ये दु:ख कौन समाहीं।
चंदन तजि ऍंग भस्म बतावत बिरह अनल अति दाहींड्ड
(ख) कै कहुँ रंक, कहूँ ईश्वरता नट बाजीगर जैसे।
चेत्यो नहीं गयो टरि औसर मीन बिना जल जैसेड्ड
(ग) भाव भक्ति जहँ हरि जस सुनयो तहाँ जात अलसाई।
लोभातुर ह्नै काम मनोरथ तहाँ सुनत उठि धाईड्ड
इस प्रकार की शिथिलता तुलसीदासजी में कहीं न मिलेगी। लिंग आदि का भी सूरदासजी ने कम ध्या्न रखा है; जैसे-
कागरूप इक दनुज धरयो।
बीत्यो जाय ज्वाब जब आयो सुनहु कंस तेरो 'आयु सरयो।'
इसी प्रकार तुकान्त और छन्द के लिए शब्दों के रूप भी सूरदासजी ने बहुत बिगाड़े हैं; जैसे-
(क) पलित केस, कफ कंठ बिरोधयो, कल न परी दिन राती।
माया मोह न छाँड़ै तृष्णा, ये दोऊ दुख 'दाती'ड्ड
(ख) राम भक्त वत्सल निज बानो।
राजसूय में चरन पखारे स्याम लिए कर 'पानो'ड्ड
क्या यह कहने की आवश्यकता है कि तुलसीदासजी को यह सब करने की आवश्यकता नहीं पड़ी है? लिंगभेद में तो एक एक मात्र का उन्होंने ध्याोन रखा है-
राम सत्य संकल्प प्रभु सभा काल बस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु नहिं खोरिड्ड
नीचे की चौपाई-
मर्म बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोलाड्ड
में जो लिंग की गड़बड़ी दिखाई पड़ती है वह 'बोला' को 'बोल' मान लेने से और 'ल' की दीर्घता को चौपाई के पदान्त के कारण ठहराने से दूर हो जाती है। अवधी मुहावरे में 'बोल' का अर्थ होगा 'बोलती है', जैसे 'उत्तर दिसि सूरज बह पावनि' में 'बह' का अर्थ है 'बहती है।'
घुँघरारी लटैं लटकै मुख ऊपर, कुंडल लोल कपोलन की।
निवछावरि प्रान करै तुलसी, बलि जाउँ लला इन बोलन कीड्ड
वाक्यों की ऐसी अव्यवस्था एकआध जगह कोई भले ही दिखा दे, पर वह अधिक नहीं पा सकता। सर्वत्रा वही परिष्कृत, गठी हुई, सुव्यवस्थित भाषा मिलेगी।
कुछ खटकनेवाली बातें
इतनी विस्तृत रचना के भीतर दो चार खटकनेवाली बातें भी मिलती हैं; जिनका संक्षेप में उल्लेख मात्र यहाँ कर दिया जाता है-
(1) ऐतिहासिक दृष्टि की न्यूनता। इस दोष से तो शायद ही कोई बच सकता हो। किसी की रचना हो उसके समय का आभास उसमें अवश्य रहेगा। इसी से ऋषियों के आश्रमों और विभीषण के दरवाजे पर गोस्वामीजी ने तुलसी का पौधा लगाया और राम के मस्तक पर रामानन्दी तिलक। राम वैदिक समय में थे। उनके समय में न तो रामानन्दी तिलक की महिमा लोगों को मालूम हुई थी और न तुलसी की। राम के सिर पर जो चौगोशिया टोपी रखी है, उसका तो कोई ख्याल ही नहीं।
(2) भक्ति सम्प्रदायवालों की इधर की कुछ भक्तमाली कथाओं पर गोस्वामीजी ने जो आस्था प्रकट की है, वह उनके गौरव के अनुकूल नहीं है। जैसे-
ऑंधरो, अधम, जड़, जाजरो जरा जवन,
सूकर के सावक ढका ढकेल्यो मग में।
गिरयो हिय हहरि, 'हराम हो, हराम हन्यो'
हाय हाय करत परीगो काल फँग मेंड्ड
तुलसी बिसोक ह्नै त्रिलोकपति लोक गयो,
नाम के प्रताप, बात बिदित है जग में।
(3) इसी नामप्रताप को राम के प्रताप से भी बड़ा कहने का (राम से अधिक राम कर नामा) प्रभाव अच्छा नहीं पड़ा। सच्ची भक्ति से कोई मतलब नहीं, टीका लगाकर केवल 'राम राम' रटना बहुत से आलसी अपाहिजों का काम हो गया। एक धनाढय महन्त जिस गाँव में छापा डालते हैं, वहाँ के मजदूरों को बुलाकर उनसे दो तीन घंटे राम राम रटाते हैं और जितनी मजदूरी उन्हें खेत में काम करने से मिलती, उतनी गाँववालों से वसूल करके दे देते हैं।
(4) दोहों में कहीं कहीं मात्राएँ कम होती हैं और सवैयों में भी कहीं कहीं वर्ण घटे बढ़े हैं।
(5) अंगद और रावण का संवाद राजसभा के गौरव और सभ्यता के विरुद्ध है। पर इसका मतलब यह नहीं कि गोस्वामीजी राजन्य वर्ग की शिष्टता का चित्रण नहीं कर सकते थे। राजसमाज के सभ्य भाषण का अत्यन्त सुन्दर नमूना उन्होंने चित्रकूट में एकत्र सभा के बीच दिखाया है। पर राक्षसों के बीच शिष्टता, सभ्यता आदि का उत्कर्ष वे दिखाना नहीं चाहते थे।