अलंकारों पर खोज / लफ़्टंट पिगसन की डायरी / बेढब बनारसी
सेना का जीवन भारतवर्ष में बड़े आनन्द का होता है। कोई विशेष कार्य नहीं। भोजन का बहुत सुन्दर प्रबन्ध; खेल-कूद की बड़ी सुविधा, और रोब-दाब सबके ऊपर, किन्तु मेरे ऐसे व्यक्ति के लिये ऐसे जीवन में रस नहीं मिलता है। यहाँ प्रतिदिन दो कार्य मुख्य होते हैं। मदिरा-पान तथा ब्रिज का खेल। सभी सैनिक अफसरों के लिये यह काम आवश्यक से हो गये हैं। मैं भी कभी-कभी ब्रिज खेलता था। किन्तु मेरा मन उसमें अधिक नहीं लगता था और लोग मुझे कंजूस समझते थे। मेरा मन पुस्तकों के पढ़ने में और भारतीय बातों के जानने में अधिक लगता था।
मैं चाहता था कि पुराने अंग्रेजी सैनिक अफसरों की भाँति मैं भी भारत के सम्बन्ध में कुछ पुस्तकें लिख डालूँ। इससे एक लाभ तो यह होगा कि मेरा नाम अमर हो जायेगा। अंग्रेज लोग जब भारत के सम्बन्ध में पुस्तकें लिखते हैं तब उनका बड़ा आदर होता है। वह विद्वान् हो या न हो, विद्वान् समझा जाता है। भारतवासी समझते हैं कि मेरे देश से इसे बड़ा प्रेम है और अंग्रेज खुश होते हैं कि उन पुस्तकों के अध्ययन से उन्हें राजनीतिक गतिविधि में सहायता मिलती है। बिक्री भी ऐसी पुस्तकों की बहुत होती है और पुस्तकों में थोड़ी-बहुत भूल भी हो तब भी वह प्रमाण मानी जाती है। कर्नल टाड, कनिंघम तथा और भी कई ऐसे उदाहरण मेरे सम्मुख थे। इसलिये मैंने भी कई पुस्तकें लिखने का विचार किया। दो पुस्तकों की तो मैंने रूपरेखा भी बना ली है। एक पुस्तक है 'भारतीय आभूषणों की उत्पत्ति और विकास' तथा दूसरी पुस्तक होगी 'भारतीय राजनीति में धोती का ऐतिहासिक महत्व।'
पहली पुस्तक के सम्बन्ध में मैंने बड़ी खोज की है। यद्यपि मैं अभी डेढ़ साल ही यहाँ रहा हूँ और केवल उत्तर भारत में ही रहा हूँ, फिर भी मैं इस विषय पर लिखने का अपने को अधिकारी समझता हूँ। यह ग्रंथ इस अर्थ में क्रान्तिकारी होगा। यहाँ तो मैं केवल स्मृति के लिये कुछ अंकित कर रहा हूँ। पुस्तक में तो कहीं अधिक विवेचन होगा तथा और भी गहरा अध्ययन होगा। जैसा नेथानियल। इसी से बिगड़कर नथ शब्द भी बन गया है। इसकी उत्पत्ति में एक कथा है। सन् 1177 में इटली से नेथानियल चिलगोजिया नाम का एक ईसाई घूमता-घामता भारत आ गया। वह राजपूताने में एक राजा के यहाँ आकर डाक्टरी करने लगा। रानी और राजा में कुछ झगड़ा हो गया। राजा साहब ने नेथानियल से सलाह ली। उसने सोच-विचारकर कहा - 'मैंने एक ऐसी तरकीब निकाली है जो आप ऐसे महान राजाओं के लिये शोभनीय है और आपका कार्य भी सिद्ध हो जायेगा।' उसने कहा कि आप सोने के तार का एक बड़ा छल्ला बनवाइये और रानी साहब से कहिये कि मैंने एक नवीन ढंग का आभूषण बनवाया है। उसे नाक में छेदकर पहनना होता है। आभूषण समझकर रानी साहब को इसे धारण करने में कोई आपत्ति न होगी क्योंकि शौनक ऋषि ने कहा कि सोने की एक गाड़ी बनवा दीजिये और कहिये कि आभूषण है और गले में धारण किया जाता है, तो स्त्रियाँ इस गाड़ी को सड़क पर स्वयं खींचेंगी।
यों आप रानी साहब पर रोब जमाना चाहेंगे अथवा वश में करना चाहेंगे तो कठिनाई होगी। वह भी क्षत्राणी ठहरीं और जब वह सोने का छल्ला अलंकार समझकर नाक में धारण कर लेंगी तब आपको यह सुविधा होगी कि जब वह बिगड़ें आप चुपचाप इसे पकड़ लिया कीजियेगा। वह चुप हो जायेंगी। राजा साहब ने ऐसा ही किया। राजा साहब ने अपने मन्त्री से कहा, उन्होंने भी अपनी स्त्री को पहनाया। इसी प्रकार सारे दरबार को पुरुषों ने अपनी स्त्रियों को इस भाँति अलंकार के बहाने वशीभूत किया। तभी से इसका चलन हुआ और नेथानियल साहब के नाम पर नथ या नथिया कहा जाने लगा।
जब से स्त्रियाँ पुरुषों के बराबर होने लगीं और स्वाधीन होने लगीं तब से इसका प्रचलन उठ गया। यद्यपि मैं भविष्यवक्ता नहीं हूँ तथापि मुझे ऐसा जान पड़ता है कि इसकी प्रतिक्रिया होने वाली है और सम्भव है पुरुषों को अपनी नाक छिदानी पड़े।
कर्णफूल की उत्पत्ति इससे भी पुरानी है। जहाँ तक खोज से पता चला है, महाभारत के समय से इसकी प्रथा चली है। महाभारत में कर्ण नाम का एक योद्धा था, उसे फूल का बहुत शौक था। अब वह फूल रखे कहाँ? कोट उस युग में नहीं था कि बटनहोल में रखा जा सके। हाथ में सदा रखना असम्भव था। इसलिये उसने कान पर रखना आरम्भ किया। देखा-देखी और लोगों ने भी कर्ण की नकल की। एक दिन कहीं उत्तरा ने देख लिया। उसने कहा - 'इन फूलों में क्या रखा है? मैं तो सोने का फूल धारण करूँगी।' उसने सोने का बनवाया। एक दिन वह कहीं गिर गया। उसने सोचा कि यह तो ठीक नहीं, कान छिदवा लिया जाये, तब गिरेगा नहीं। यह है कर्णफूल की उत्पत्ति।
समय के साथ-साथ इसमें बड़े परिवर्तन हुए। जब भारत की स्त्रियों में जागृति हुई तब इन्होंने प्राचीन युग की प्रथा छोड़ दी। किन्तु यूरोप में यह दूसरे रूप में आया, यूरोप में वह प्रथा कैसे आयी यह विषय इस पुस्तक का नहीं है, किन्तु यह तो सर्वसम्मत बात है कि यूरोप में जो बात समाज में हो जाती है, वह श्रेष्ठ और सभ्यतानुकूल समझी जाती है। जब यहाँ की महिलाओं ने इसका यूरोपीय स्वरूप देखा तब उसी का अनुकरण इन्होंने किया। कर्ण की स्मृति जा रही है। इयरिंग के रूप में अब इसे स्त्रियाँ धारण करती हैं और ठीक भी है। पुराने नाम और पुरानी वस्तुऐं ऐसे असभ्य युग की स्मृति जाग्रत् करती हैं कि प्रगतिशील देश तथा जाति उन्हें ग्रहण करने में अपना अपमान समझती है। यदि पुराने समाचारपत्र फेंके जा सकते हैं, पुराना फर्नीचर नीलाम किया जा सकता है, पुराने बाल और नाखून कटाये जा सकते हैं, पुरानी बातें भी छोड़ देनी चाहिये। मेरी राय में पुरानी शराब और पुराना चावल छोड़कर कोई पुरानी वस्तु ग्रहण के योग्य नहीं होनी चाहिये।