विवाह / लफ़्टंट पिगसन की डायरी / बेढब बनारसी
आज अपने जीवन में एक नई घटना हुई। सर बोरामल टाटका के यहाँ विवाह था और यहाँ कर्नल साहब और कई व्यक्तियों को निमन्त्रण था। पार्टी भी थी। मुझे भी निमन्त्रण था। उसमें पार्टी का समय पाँच बजे था और विवाह का सात। मुझे पार्टी से विशेष रुचि नहीं थी क्योंकि इन दिनों मेरा स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। फिर भी मन में कहा कि जब जाना ही है तब पार्टी में भी सम्मिलित होना आवश्यक है। नहीं तो मैं लिखने वाला था कि पार्टी में नहीं आ सकूँगा।
ज्यों ही मेरी कार पहुँची, सर बोरामल ने स्वागत किया। कर्नल साहब ने परिचय कराया। बाग खूब सजा हुआ था। कृत्रिम पहाड़ तथा झरने बने हुए थे। चारों ओर रंग-बिरंगे फूल नन्दन-कानन के समान खिल रहे थे। कई बड़े-बड़े खेमे लगे हुए थे। एक खेमे में हम लोगों के खाने-पीने का सामान लदा हुआ था। जितने हम लोग थे उससे अधिक व्हिस्की तथा शैम्पेन की बोतलें थीं। हिन्दुओं के जलपान की व्यवस्था अलग थी क्योंकि मैंने सुना है कि उन लोगों के भोजन का सामान गंगाजल में बनकर ही आता है और गंगाजल में जो कुछ बनाया जाये वह कहीं भी खाया जा सकता है, ऐसा उन लोगों का विश्वास है।
फिर हम लोगों की मेज पर ऐसे पदार्थ भी थे, जैसे मांस की और अंडे की बनी वस्तुऐं। परन्तु लोगों को सुनकर आश्चर्य होगा कि हम लोगों की मेज पर कई हिन्दुस्तानी सज्जन थे। हमारी राय में जब हमारे देशवाले यह आपत्ति उठाते हैं कि भारतीय स्वराज्य के योग्य नहीं हैं तब भारतवासियों को इस पर इन्हीं के समान और लोगों के नाम उपस्थित करने चाहिये। क्योंकि मैंने देखा कि उनके काँटे भी वैसे ही सफाई से चल रहे थे जैसे हम लोगों के; और गिलासों को भी वे उतनी ही शीघ्रता से खाली कर रहे थे जितनी शीघ्रता से हम लोग।
ऐसी अवस्था में जहाँ तक मेरा विचार है, भारतीय लोग अंग्रेजों की बराबरी कर सकते हैं। मैं नहीं कह सकता और लोगों का क्या विचार है!
सात बजते-बजते सारा उद्यान आलोक से भर गया। रंग-बिरंगे बल्बों से सारे वृक्ष तथा पौधे सुसज्जित थे। एक ओेर कारों का तांता लगा था। वह बाग परिस्तान लग रहा था। जिस भारत के सम्बन्ध में इंग्लैंडवाले अभी सोच रहे हैं, वह भारत अब नहीं रह गया। अब तो यहाँ जान पड़ता है कि स्वर्ण की घर-घर खान है, इतना वैभव, इतना विलास तो बड़े पुराने खानदानी लार्डों के यहाँ भी कम देखने में आता है। स्त्रियाँ भी अब भारत में पर्दे से बाहर आ गयी हैं और एक बात मैं यह कहूँगा कि जिस नफासत, बारीकी, सुबुद्धि तथा सुरुचि से यह साड़ियाँ चुनती हैं उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि भारत की व्यवस्थापिका सभाओं को चुनाव बन्द करके इन्हीं पर सदस्यों के चुनाव का भार देना चाहिये। अवश्य ही भारत की सब व्यवस्थापिका सभायें आदर्श सदस्यों की संस्था हो जायेंगी। बहुत-से इतिहासकारों ने लिखा है कि भारत में बहुत-सी जातियाँ तथा अगणित भाषायें हैं। यदि वे यहाँ की साड़ियाँ और उनके रंग देखते तो ऐसा न लिखते।
एकाएक बाजे के शब्द सुनायी पड़े और धीरे-धीरे उस दल ने, जिसके साथ दूल्हा था, बाग में प्रवेश किया। दस-पन्द्रह प्रकार के बाजे थे। मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि वह क्या-क्या थे। बैण्ड तथा बैग-पाइप तो मेरी जानकारी के थे और बाकी सब भारतीय थे। शोर इतना हो रहा था कि अपनी बात भी कठिनाई से सुनायी पड़ती।
फिर हाथी थे। पाँच-छः हाथी रहे होंगे इसके पश्चात् कोई दो दर्जन ऊँट थे, फिर पचास घोड़े। विवाह में इन जानवरों का क्या काम था, समझ में नहीं आया। जान पड़ता था कि डाका डालने दल चला आ रहा है। साथ-साथ आतिशबाजी भी थी और बहुत-से लोग कागज के फूल लिये हुए थे। धीरे-धीरे मोटर ने प्रवेश किया जिसमें दूल्हा बैठा हुआ था। उसके सिर पर विचित्र पगड़ी थी, जिसमें सोने की तथा फूल की लम्बी मालायें लटक रही थीं। ऐसा जान पड़ता है कि किसी ने एक गमले को उलटकर उसके सिर पर रख दिया है। दूल्हे का मुँह इससे बिल्कुल ढंक गया था। राह की धूल से उसके चेहरे की पूरी रक्षा हो रही थी। विवाह के पहले चेहरे की इस प्रकार रक्षा भी आवश्यक है। मैंने सोचा कि अभी विवाह हो जायेगा, किन्तु मोटर आकर दरवाजे पर खड़ी हो गयी और वहाँ कुछ पूजा इत्यादि हुई; जिसे मैं समझ नहीं सका और वह लौटा कर एक सुसज्जित शामियाने में बैठा दिया गया। मैंने सुना कि विवाह रात में होगा और विवाह सब लोग देख नहीं सकते; केवल विशिष्ट व्यक्ति, जैसे दोनों के सम्बन्धी और नाई, ब्राह्मण इत्यादि।
मैंने सर टाटका से कहा कि यदि मैं देखना चाहूँ तो कैसे देख सकता हूँ। उन्होंने कुछ सोचकर कहा - 'मुझे तो कोई आपत्ति नहीं है। मैं घर में स्त्रियों से पूछकर आपको बता सकूँगा।' अन्त में उन्होंने मुझे आज्ञा दे दी।
मैं बैरक लौट आया और ग्यारह बजे विवाह देखने चला। यदि मैंने जो विवाह देखा वैसा ही सबका विवाह होता है, तो हिन्दू विवाह बड़ी भारी कसरत है। घण्टों तक विचित्र ढंग से बैठना पड़ता है। बगल में आपकी भावी पत्नी बैठती है जिसे केवल एक ओर नीची निगाह किये बैठना पड़ता है। पुरुष और स्त्री एक-दूसरे से कपड़ों से बाँध भी दिये जाते हैं; सम्भवतः इसलिये कि कहीं घबड़ाकर भाग न जायें।
ब्राह्मण लोग बराबर कुछ न कुछ पढ़ा करते थे और इतने जोर-जोर से कि किसी को नींद नहीं आ सकती। बीच-बीच पति-पत्नी फेरा-चक्कर भी लगाया करते। सम्भवतः इसलिये कि देर तक बैठे-बैठे थक न गये हों। पंडित लोग जो इतने जोर-जोर से पढ़ा करते हैं, उसका पुरस्कार भी मिलता रहता है। कुछ देर बाद एक लाल बुकनी लड़के ने लड़की के सिर के बीच भर दी। यही विवाहित स्त्री का बैज समझा जाता है। स्त्री को भी कुछ रंग पुरुष के ऊपर लगाना चाहिये; क्योंकि हिन्दू स्त्री सिर में लाल रेखा के रहने पर विवाहित समझी जाती है, किन्तु ऐसा चिह्न नहीं जिससे यह जाना जा सके कि यह पुरुष विवाहित है।