अलंकार / मलिक मुहम्मद जायसी / रामचन्द्र शुक्ल
अधिकतर अलंकारों का विधान सादृश्य के आधार पर होता है। जायसी ने सादृश्यमूलक अलंकारों का ही प्रयोग अधिक किया है। सादृश्य की योजना दो दृष्टियों से की जाती है - स्वरूपबोध के लिए और भाव तीव्र करने के लिए। कवि लोग सदृश वस्तुएँ भाव तीव्र करने के लिए ही अधिकतर लाया करते हैं पर बाह्य कारणों से अगोचर तथ्यों के स्पष्टीकरण के लिए जहाँ सादृश्य का आश्रय लिया जाता है वहाँ कवि का लक्ष्य स्वरूपबोध रहता है। भगवद्भक्तों की ज्ञानगाथा में सादृश्य की योजना दोनों दृष्टियों से रहती है। 'माया' को ठगिनी और काम, क्रोध आदि को बटपार, संसार को मायका और ईश्वर को पति रूप में दिखा कर बहुत दिनों से रमते साधु उपदेश देते आ रहे हैं। पर इन सदृश वस्तुओं की योजना से केवल स्वरूपबोध ही नहीं होता, भावोत्तेजना भी प्राप्त होती है। बल्कि यों कहना चाहिए कि उत्तेजित भाव ही उन सदृश वस्तुओं की कल्पना कराता है। विरक्तों के हृदय में माया और काम, क्रोध आदि का भाव ही उस भय की ओर ध्यान ले जाता है जो ठगों और बटपारों से होता है। तात्पर्य यह कि स्वरूपबोध के लिए भी काव्य में जो सदृश वस्तु लाई जाती है उसमें यदि भाव उत्तेजित करने की शक्ति भी हो तो काव्य के स्वरूप की प्रतिष्ठा हो जाती है। नाना रागबंधंनों से युक्त इस संसार के छूटने का दृश्य कैसा मर्मस्पर्शी है! भावुक हृदय में उसका क्षणिक साम्य मायके से स्वामी के घर जाने में दिखाई पड़ता है। बस इतनी ही झलक मिल सकती है। सदृश वस्तु के इस कथन द्वारा अगोचर आध्यात्मिक तथ्यों का कुछ स्पष्टीकरण भी हो जाता है और उनकी रूखाई भी दूर हो जाती है।
यह कहा जा चुका है कि जायसी का कथानक व्यंग्यगर्भित है। यहाँ पर इतना और मान लेना चाहिए कि भगवत्पक्ष को प्रस्तुत मानने पर अप्रस्तुत की योजना दोनों दृष्टियों से की हुई मिलेगी - अगोचर बातों को गोचर स्वरूप देने की दृष्टि से भी और भावोत्तेजन की दृष्टि से भी। साधक के मार्ग की कठिनाइयों की भावना उत्पन्न करने के लिए कवि विषम पहाड़, अगम घाट तथा खोह और नालों की ओर ध्यान ले जाता है; काम, क्रोध आदि की भीषणता दिखाने के लिए वह ऐसे प्रबल चोरों को सामने करता है जिनका घर का कोना-कोना देखा हो और जो दिन रात चोरी की ताक में रहते हों।
सादृश्य की योजना में पहले यह देखना चाहिए कि जिस वस्तु, व्यापार या गुण के सदृश वस्तु, व्यापार या गुण सामने लाया जाता है वह ऐसा तो नहीं है जो किसी भाव - स्थायी या क्षणिक - का आलंबन या आलंबन का अंग हो। यदि प्रस्तुत वस्तु व्यापार आदि ऐसे हैं तो यह विचार करना चाहिए कि उनके सदृश अप्रस्तुत वस्तु या व्यापार भी उसी भाव के आलंबन हो सकते हैं या नहीं। यदि कवि द्वारा लाए हुए अप्रस्तुत वस्तुव्यापार ऐसे हैं तो कविकर्म सिद्ध समझना चाहिए। उदाहरण के लिए रमणी के नेत्र, वीर का युद्धार्थ गमन और हृदय की कोमलता लीजिए। इन तीनों के वर्णन क्रमश: रतिभाव, उत्साह और श्रद्धा द्वारा प्रेरित समझे जाएँगे और कवि का मुख्य उद्देश्य यह ठहरेगा कि वह श्रोता को भी इन भावों की रसात्मक अनुभूति कराए। अत: जब कवि कहता है कि नेत्र कमल के समान हैं, वीर सिंह के समान झपटता है और हृदय नवनीत के समान है तो ये सदृश वस्तुएँ सौंदर्य, वीरत्व और कोमल सुखदता की व्यंजना भी साथ ही साथ करेंगी। इनके स्थान पर यदि हम रसात्मकता का विचार न कर के केवल नेत्र के आकार, झपटने की तेजी और प्रकृति की नरमी की मात्रा पर ही दृष्टि रख कर कहें कि 'नेत्र बड़ी कौड़ी या बादाम के समान है', 'वीर बिल्ली की तरह झपटता है' और 'हृदय सेमर के घूए के समान है' तो काव्योपयुक्त कभी न होगा। कवियों की प्राचीन परंपरा में जो उपमान बँधे चले आ रहे हैं उनमें से अधिकांश सौंदर्य आदि की अनुभूति के उत्तेजक होने के कारण रस में सहायक होते हैं पर कुछ ऐसे भी हैं जो आकार आदि ही निर्दिष्ट करते हैं; सौंदर्य की अनुभूति अधिक करने में सहायक नहीं होते - जैसे जंघों की उपमा के लिए हाथी की सूँड़, नायिका की कटि की उपमा के लिए भिड़ या सिंहनी की कमर इत्यादि। इनसे आकार के चढ़ाव, उतार और कटि की सूक्ष्मता भर का ज्ञान होता है, सौंदर्य की भावना नहीं उत्पन्न होती; क्योंकि न तो हाथी की सूँड़ में ही दांपत्य रति के अनुकूल अनुरंजनकारी सौंदर्य है और न भिड़ की कमर में ही। अत: रसात्मक प्रसंगों में इस बात का ध्यान रहना चाहिए कि अप्रस्तुत (उपमान) भी उसी प्रकार के भाव के उत्तेजक हों, प्रस्तुत जिस प्रकार के भाव का उत्तेजक हो।
उपर्युक्त कथन का यह अभिप्राय कदापि नहीं कि ऐसे प्रसंगों में पुरानी बँधी हुई उपमाएँ ही लाई जाएँ, नई न लाई जाएँ। 'अप्रसिद्धि' मात्र उपमा का कोई दोष नहीं, पर नई उपमाओं की सारी जिम्मेदारी कवि पर होती है। अत: रसात्मक प्रसंगों में ऊपर लिखी बातों का ध्यान रखना आवश्यक है। जहाँ कोई रस स्फुट न भी हो वहाँ भी यह देख लेना चाहिए कि किसी पात्र के लिए जो उपमान लाया जाय वह उस भाव के अनुरूप हो जो कवि ने उस पात्र के संबंध में अपने हृदय में प्रतिष्ठित किया है और पाठक के हृदय में भी प्रतिष्ठित करना चाहता है। राम की सेवा करते हुए लक्ष्मण के प्रति श्रद्धा का भाव उत्पन्न होता है अत: उनकी सेवा का यह वर्णन जो गोस्वामी जी ने किया है कुछ खटकता है -
सेवत लखन सिया रघुवीरहि । जिमि अविवेकी पुरुष सरीरहि॥
इस दृष्टांत में लक्ष्मण का सादृश्य जो अविवेकी पुरुष से किया गया है उससे सेवा का आधिक्य तो प्रकट होता है पर लक्ष्मण के प्रति प्रतिष्ठित भाव में व्याघात पड़ता है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि लक्ष्मण का सादृश्य अविवेकी पुरुष के साथ कवि ने नहीं दिखाया है बल्कि लक्ष्मण के सेवाकार्य का सादृश्य अविवेकी के सेवाकर्म से दिखाया गया है। ठीक है, पर लक्ष्मण का कर्म श्लाघ्य है और अविवेकी का निंद्य, इससे ऐसे अप्रस्तुत कर्म को मेल में रखने से प्रस्तुत कर्मसंबंधिनी भावना में बाधा अवश्य पड़ती है। रसात्मक प्रसंगों में केवल किसी बात के आधिक्य या न्यूनता की हद से ही काम नहीं चलता। जो भावुक और रसज्ञ न हो कर केवल अपनी दूर की पहुँच दिखाना चाहते हैं वे कभी-कभी आधिक्य या न्यूनता की हद दिखाने में ही फँस कर भाव के प्रकृत स्वरूप को भूल जाते हैं। कोई ऑंखों के कोनों को कान तक पहुँचाता है, कोई नायिका की कटि को ब्रह्म के समान अगोचर और सूक्ष्म बताता है, कोई यार की कमर 'कहाँ है, किधर है' यही पता लगाने में रह जाता है। नायिका श्रृंगार का आलंबन होती है। उसके स्वरूप के संघटन में इस बात का ध्यान चाहिए कि उसकी रमणीयता बनी रहे। प्राचीन कवि जहाँ मृणाल की ओर संकेत कर के सूक्ष्मता और सौंदर्य एक साथ दिखाते थे, वहाँ लोग या तो भिड़ की कमर सामने लाने लगे या कमर ही गायब करने लगे। चमत्कारवादी इसमें अद्भुत रस का आनंद मानने लगे। पर सोचने की बात है कि नायिका अद्भुत रस का आलंबन है या श्रृंगार रस का। श्रृंगार रस के आलंबन में 'अद्भुत' केवल सौंदर्य का विशेषण हो सकता है। 'अद्भुत सौंदर्य' हम दिखा सकते हैं पर सौंदर्य को गायब नहीं कर सकते।
कहने की आवश्यकता नहीं कि ऊपर जो बात कही गई है वह ऐसी वस्तुओं के संबंध में कही गई है जिनका वर्णन कवि किसी भाव में मग्न हो कर उसी भाव में मग्न करने के लिए करता है - जैसे, नायिका का वर्णन, प्राकृतिक शोभा का वर्णन, वीर कर्म का वर्णन; इत्यादि। जहाँ वस्तुएँ ऐसी होती हैं कि उनके संबंध में अलग कोई उपयुक्त भाव (जैसे रति, भय, हर्ष, घृणा, श्रद्धा इत्यादि) नहीं होता, केवल उनका रूप, गुण, क्रिया आदि का ही गोचर स्पष्टीकरण करना या अधिकता न्यूनता की ही भावना तीव्र करना अपेक्षित होता है - उनके द्वारा किसी भाव की अनुभूति की वृद्धि करना नहीं - वहाँ आकृति, गुण आदि का निरूपण और आधिक्य या न्यूनता का बोध कराने वाली सदृश वस्तुओं से ही प्रयोजन रहता है। हाथियों के डीलडौल, तलवार की धार, किसी कर्म की कठिनता, खाई की चौड़ाई इत्यादि के वर्णन से केवल इस प्रकार का सादृश्य अपेक्षित रहता है जैसे पहाड़ के समान हाथी, बाल की तरह धार, पहाड़ सा काम, नदी सी खाई, इत्यादि।
जायसी ने सादृश्यमूलक अलंकारों का ही आश्रय अधिक लिया है। अत: उपर्युक्त विवेचन के साथ जब हम उनके अप्रस्तुतान्वय या सादृश्यविधान पर विचार करते हैं, तब देखते हैं कि रसात्मक प्रसंगों में अधिकांश भाव के अनुरूप ही अनुरंजनकारी अप्रस्तुत वस्तुओं की योजना हुई है। पर साथ ही यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि जायसी के वर्णन अधिकतर परंपरानुगत ही हैं। इससे उनमें कविसमयसिद्ध उपमान ही अधिक मिलते हैं और इन परंपरागत उपमानों में कुछ अवश्य ऐसे हैं जो प्रसंग के अनुकूल भाव को पुष्ट करने में सहायक नहीं होते, जैसे हाथी की सूँड़; सिंहनी और भिड़ की कमर। सुंदरी नायिका की भावना करते समय सिंहनी, भिड़ और हाथी सामने आ जाने से उस भावना की पुष्टि में सहायता के स्थान पर बाधा ही पहुँचती है। ऐसे उपमानों को भी जायसी ने छोड़ा नहीं है। बल्कि यों कहिए कि सादृश्य का आरोप करने में फारसी के जोर पर वे एक आध जगह और बढ़ गए हैं। भारतीय काव्यपद्धति में उपमान चाहे उदासीन हों, पर भाव के विरोधी कभी नहीं होते। 'भाव' से मेरा अर्थ वही है जो साहित्य में लिया जाता है। 'भाव' का अभिप्राय साहित्य में तात्पर्यबोध मात्र नहीं है बल्कि वह वेगयुक्त और जटिल अवस्थाविशेष है जिसमें 'शरीरवृत्ति और मनोवृत्ति दोनों का योग रहता है। क्रोध को ही लीजिए। उसके स्वरूप के अंतर्गत अपनी हानि या अपमान की बात का तात्पर्यबोध, उग्र वचन और कर्म की प्रवृत्ति का वेग तथा त्योरी चढ़ना, ऑंखें लाल होना, हाथ उठना, ये सब बातें रहती हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि से इन सबके समष्टिविधान का नाम क्रोध का भाव है। रौद्र रस प्रसंग में कवि लोग जो उपमान लाते हैं वे भी संतापदायक या उग्र होते हैं, जैसे अग्नि। क्रोध से रक्तवर्ण नेत्रों की उपमा जब कोई कवि देगा तब अंगार आदि की देगा, रक्तकमल या बंधूकपुष्प की नहीं। इसी प्रकार श्रृंगार रस में रक्त, मांस, फफोले, हड्डी आदि का बीभत्स दृश्य सामने आना अरुचिकर प्रतीत होता है। पर जहाँ केवल 'तात्पर्य' के उत्कर्ष का ध्यान प्रधान रहेगा - ख्याल की बारीकी या बलंदपरवाजी पर ही नजर रहेगी - वहाँ भाव के स्वरूप का उतना विचार न रह जायगा। फारसी की शायरी में विप्रलंभ श्रृंगार के अंतर्गत ऐसे बीभत्स दृश्य प्राय: लाए जाते हैं। इस बात का उल्लेख हो चुका है कि जायसी में कही - कहीं इस प्रकार के वर्णन मिलते हैं; जैसे, 'विरह सरागन्हि भूजै माँसू। ढरि ढरि परहि रकत कै ऑंसू।' इसी प्रकार नखशिख के प्रसंग में हथेली के वर्णन में जो यह हेतूत्प्रेक्षा की गई है वह भी कोई रमणीय रुचिकर दृश्य सामने नहीं लाती -
हिया काढ़ि जनु लीन्हेसि हाथा । रुहिर भरी अँगुरी तेहि साथा ॥
यदि कवि सच्चा है, शेष सृष्टि के साथ उसके हृदय का पूर्ण सामंजस्य है, उसमें सृष्टिव्यापिनी सहृदयता है तो उसके सादृश्यविधान में एक बात और लक्षित होगी। वह जिस सदृश वस्तु या व्यापार की ओर ध्यान ले जायगा कहीं-कहीं उससे मनुष्य को और प्राकृतिक पदार्थों के साथ अपने संबंध की बड़ी सच्ची अनुभूति होगी। विरहताप से झुलसी और सूखी हुई नागमती को जब प्रिय के आगमन का आभास मिलता है तब उसकी दशा कैसी होती है -
जस भुइँ दहि असाढ़ पलुहाई। परहिं बूँद और सौंधि बसाई॥
ओहि भाँति पलुही सुख बारी। उठी करिल नइ कोंप सँवारी॥
इसमें मनुष्य देखता है कि जिस प्रकार संताप और आह्लाद के चिह्न मेरे शरीर में दिखाई पड़ते हैं वैसे ही पेड़ पौधों के भी। इस प्रकार उनके साथ अपने संबंध की अनुभूति का उदय उसके हृदय में होता है। ऐसी अनुभूति द्वारा मानवहृदय का प्रसार करने में जो कवि समर्थ हो वह धन्य है। 'शरीर पनपना' आदि लाक्षणिक प्रयोग जो बोलचाल में आए हैं वे ऐसे ही कवियों की कृपा से प्राप्त हुए हैं।
सादृश्यमूलक अलंकारों में उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा का व्यवहार अधिक मिलता है। इनमें से हेतूत्प्रेक्षा जायसी को बहुत प्रिय थी। इसके सहारे उन्होंने अपनी कल्पना का विस्तार बहुत दूर तक बढ़ाया है - कहीं-कहीं तो सारी सृष्टि को अपने भाव के भीतर लिया है (दे. विरहवर्णन)। रूपवर्णन में कवियों को अलंकार भरने का खूब मौका मिलता है। जायसी का शिखनख वर्णन भी अधिकतर परंपरानुगत ही है। इसमें अलंकारों की भरमार उसमें और जगहों से अधिक देखी जाती है। सादृश्यमूलक अलंकारों में वस्तूत्प्रेक्षा अधिक है। काले केशों के बीच माँग की शोभा देखिए -
कंचन रेख कसौटी कसी। जनु घन महँ दामिनी परगसी॥
सुरुज किरन जनु गगन बिसेखी। जमुना माँह सुरसती देखी॥
इसी प्रकार आँख की बरौनियाँ भी कुछ और ही जान पड़ती है। -
बरुनी का बरनौं इमि बनी। साधो बान जान दुइ अनी॥
जुरी राम रावन कै सेना। बीच समुद्र भए दुइ नैना॥
इस सादृश्य में उपमानों की परिमाणगत अधिकता यदि कुछ खटके तो इस बात का स्मरण कर लेना चाहिए कि जायसी का प्रेम केवल लौकिक नहीं है अत: उसका आलंबन भी अनंत सौंदर्य की ओर संकेत करने वाला है।
इस संबंध में वस्तूत्प्रेक्षा का एक और उदाहरण दे कर आगे चलता हूँ। पद्मिनी की कटि इतनी सूक्ष्म जान पड़ती है -
मानहुँ नाल खंड दुइ भए। दुहुँ बिच लंकतार रहि गए॥
ये तो वस्तूत्प्रेक्षा या स्वरूपोत्प्रेक्षा के उदाहरण हुए। क्रियोत्प्रेक्षा के भी बहुत बढ़े चढ़े उदाहरण इस रूपवर्णन के भीतर मिलते हैं, जैसे -
अस वै नयन चक्र दुइ, भँवर समुद उलथाहिं।
जनु जिउ घालिहिं डोल महँ, लेइ आवहिं लेइ जाहिं॥
हेतूत्प्रेक्षा के कुछ उदाहरण विरहवर्णन आदि के अंतर्गत आ चुके हैं। यह अलंकार उत्कर्ष की व्यंजना के लिए बड़ा शक्तिशाली होता है। लोक में कार्य और कारण एक साथ बहुत ही कम देखे जाते हैं। प्राय: कारण परोक्ष ही रहता है। अत: कोई रूप या क्रिया यदि अपने प्रकृत रूप में हमारे सामने रख दी गई तो वह उस प्रभाव का प्रमाणस्वरूप लगने लगती है जिसे कवि खूब बढ़ाव कर दिखाना चाहता है और हम इस बात की छानबीन में नहीं पड़ने जाते कि हेतु ठीक है या नहीं। इस अलंकार के दो एक उदाहरण दे कर हम यह सूचित कर देना चाहते हैं कि जायसी की हेतुत्प्रेक्षाएँ अधिकतर असिद्धविषया ही मिलती हैं। ललाट का वर्णन करता हुआ कवि कहता है -
सहस किरिन जो सुरुज दिपाई । देखि लिलार सोउ छपि जाई॥
सूर्य छिपता अवश्य है पर उसके छिपने का जो हेतु कहा गया है वह कविकल्पित है और उस हेतु का आधार 'लज्जित होना' सिद्ध नहीं है। इसी प्रकार की हेतूत्प्रेक्षा दाँतों पर है -
दारिउँ सरि जो न कै सका, फाटेउ हिया दरक्कि।
रूपवर्णन के अंतर्गत फलोत्प्रेक्षा भी कई जगह दिखाई देती है, जैसे नासिका के वर्णन में यह पद्य -
पुहुप सुगंधा करहि एहि आसा। मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा॥
अथवा माँग के संबंध में ये उक्तियाँ -
करवत तपा लेहिं होइ चूरु। मकु सो रुहिर लेइ देइ सेंदूरु॥
कनक दुवादस बानि होइ, चह सोहाग ओहि माँग।
व्यतिरेक के दो उदाहरण नीचे दिए जाते है। -
का सरवरि तेहि देउँ मयंकू। चाँद कलंकी वह निकलंकू॥
औ चाँदहिं पुनि राहु गरासा। वह बिनु राहु सदा परगासा॥
सुवा सो नाक कठोर पँवारी। वह कोमल तिलपुहुप सँवारी॥
दूसरे उदाहरण में 'तिलपुहुप' पद आक्षेप द्वारा दूसरे उपमान के रूप में नहीं लाया गया है बल्कि तृतीयांत (तिलपुष्प से) है। इससे व्यतिरेक ही अलंकार कहा जायगा।
'रूपकातिशयोक्ति' (भेदप्यभेद:) भी जायसी की अत्यंत मनोहर है। इसके द्वारा कवि ऐसी मनोहर और रमणीय प्राकृतिक वस्तुएँ सामने रखता है कि हृदय सौंदर्य की भावना में मग्न हो जाता है। हेतूत्प्रेक्षा के समान यह अलंकार भी कवि को बहुत प्रिय है। स्थान स्थान पर इसका प्रयोग मिलता है। रतनारे नेत्रों के बीच घूमती हुई पुतलियों की शोभा की ओर कवि इस प्रकार इशारा करता है -
राते कँवल करहिं अलि भँवा। घूमहिं माति चहहिं अपसवाँ॥
इसी कमल और भ्रमरवाले रूपक को अतिशयोक्ति में जायसी और जगह भी बड़ी सुंदरता से लाए हैं। प्रेमजोगी रत्नसेन के सिंहलगढ़ में पकड़े जाने पर पद्मावती विरह में अचेत पड़ी है, ऑंखें नहीं खोलती है। इतने में कोई सखी आ कर कहती है -
कँवल कली तू, पदमिनी! गह निसि भएउ बिहानु।
अबहुँ न संपुट खोलसि, जब रे उवा जग भानु॥
यह सुनते ही पद्मावती आँखें खोलती है जिसकी सूचना रूपकातिशयोक्ति के बल से कवि इन शब्दों में देता है -
भानु नावँ सुनि कँवल बिगासा। फिर कै भँवर लीन्ह मधु बासा॥
यहाँ भी कवि ने केवल कमलदल पर बैठे भौंरे का उल्लेख कर के आँख खुलने (डेले के बीच काली पुतली दिखाई देने) की सूचना दी है। इसी अलंकार के कुछ और नमूने देखिए -
(क) साम भुअंगिनि रोमावली। नाभिहि निकसि कँवल कहँ चली॥
आइ दुवौ नारँग बिच भई। देखि मयूर ठमकि रहि गई॥
(ख) पन्नग पंकज मुख गहे, खंजन तहाँ बईठ॥
छत्र, सिंघासन, राज, धनु ता कहँ होइ जो दीठ॥
कहीं-कहीं तो जायसी ने अलंकारों की बड़ी जटिल और गूढ़ योजना की है। देवपाल की दूती पद्मिनी को बहका रही है कि जब तक यौवन है तब तक भोगविलास कर ले -
जोबन जल दिन दिन जस घटा। भँवर छपान, हंस परगटा॥
जैसे जैसे यौवनरूपी जल दिन दिन घटता जाता है वैसे ही वैसे (शरीर रूपी नदी या सरोवर में) पानी की बाढ़ के भँवर छिपते जाते हैं और हंस (मानसरोवर से आकर) दिखाई पड़ने लगते हैं। यह तो हुआ सांगरूपक। पर एक बात है। जल का आरोप जिस पर किया गया है उस यौवन का उल्लेख तो साथ ही है। पर दूसरी पंक्ति में भँवर और हंस का जिन पर आरोप है उन काले और श्वेत केशों का उल्लेख नहीं है। अत: दूसरी पंक्ति में हमें रूपकातिशयोक्ति माननी पड़ती है। दोनों पंक्तियों का एक साथ विचार करने पर नदी या सरोवर के ही अंग भँवर (पानी के भँवर) और हंस ठहरते हैं जो शरत के दृश्य को पूरा करते हैं। अत: दूसरी पंक्ति में अतिशयोक्ति सिद्ध हो जाने पर ही 'सांग-रूपक' होता है। पर अतिशयोक्ति की सिद्धि के लिए श्लेष द्वारा 'भँवर' शब्द का दूसरा अर्थ, काला भौंरा, लेना पड़ता है तब जा कर उपमेय अर्थात् काले केश की उपलब्धि होती है। इस प्रकार रूपक को प्रधान या अंगी मानने से श्लेष और अतिशयोक्ति उसके अंग हो जाते हैं और अलंकारों का यह मेल 'अंगागि भाव संकर' ठहरता है।
प्रसंगवश 'सांगरूपक' के गुण-दोष का भी थोड़ा विचार कर लेना चाहिए। यह तो मानना ही पड़ेगा कि एक वस्तु से दूसरी वस्तु का आरोप सादृश्य और सामंजस्य के आधार पर ही होता है। अधिकतर देखा जाता है कि 'निरंग रूपक' में तो सादृश्य और साधर्म्य का ध्यान रहता है पर सांग और परंपरित में इनका पूरा निर्वाह नहीं होता और जल्दी हो भी नहीं सकता। दो में से एक का भी पूरा निर्वाह हो जाय तो बड़ी बात है, दोनों का एक साथ निर्वाह तो बहुत कम देखा जाता है। सादृश्य से हमारा अभिप्राय बिंबप्रतिबिंब रूप और साधर्म्य से वस्तुप्रतिवस्तु धर्म है। साहित्यदर्पणकार का यह उदाहरण ले कर विचार कीजिए -
'रावणरूप अवर्षण से क्लांत देवतारूप शस्य को इस प्रकार वाणीरूप अमृतजल से सींच वह कृष्णरूप मेघ अंतर्हित हो गया।'
इस उदाहरण में रावण और अवर्षण में रूपसादृश्य नहीं है, केवल साधर्म्य है। इसी प्रकार देवता और शस्य में तथा वाणी और जल में कोई रूपसादृश्य नहीं है, साधर्म्य मात्र है - विष्णु का स्वरूप नील जलद का सा और धर्म भी उसी के समान लोकानंद प्रदान है। पर सांगरूपक में कहीं-कहीं तो केवल अप्रस्तुत (उपमान) दृश्य को किसी प्रकार बढ़ाकर पूरा करने का ही ध्यान कवियों को रहता है। वे यह नहीं देखने जाते कि एक-एक अंग या ब्योरे में किसी प्रकार का सादृश्य या साधर्म्य है अथवा नहीं। विनयपत्रिका के 'सेइय सहित सनेह देह भरि कामधेनु कलि कासी' वाले पद में रूपक के अंगों की योजना अधिकतर इसी प्रकार की है।
अब इस विवेचन के अनुसार जायसी के उपर्युक्त रूपक की समीक्षा कीजिए - यौवनरूप जल, काले केशरूपी भँवर (जलावर्त) और श्वेत केशरूपी हंस। यौवन और जल में उमड़ने या उमंग के धर्म को ले कर साधर्म्य मात्र है। काले केश का पहले तो अतिशयोक्ति में काले भँवरों के साथ वर्णसादृश्य है फिर श्लेष द्वारा रूपक में पहुँचकर जलावर्त के साथ कुछ आकृति सादृश्य (केश कुंचित या घूमे हुए होने से) है। श्वेत केश और हंस में वर्णसादृश्य है। इसके उपरांत जब दूसरी पंक्ति के इस व्यंग्यार्थ पर आते हैं कि युवावस्था में मनुष्य विषयों के चक्कर में पड़ा रहता है और वृद्धावस्था में उसमें सद्विवेक करनेवाली आत्मा (हंस) का उदय होता है तब हमें सादृश्य और साधर्म्य दोनों मिल जाते हैं क्योंकि जलावर्त का धर्म है चक्कर में डालना और हंस का स्वभाव है नीर क्षीर विवेक।
उसी दूती के मुख से वृद्धावस्था का यह वर्णन गूढ़ 'अप्रस्तुत प्रशंसा' द्वारा कवि ने कराया है -
छल कै जाइहि बान पै, धनुष छाँड़ि कै हाथ।
बान या तीर सीधे शरीर का उपमान है और धनुष झुके हुए शरीर का। ये दोनों क्रमश: युवावस्था और बुढ़ापे के कार्य हैं। अत: कार्य द्वारा कारण के निर्देश से यहाँ 'अप्रस्तुत प्रशंसा' हुई, जो रूपकातिशयोक्ति द्वारा सिद्ध हुई है। इस प्रकार दोनों का 'अंगांगिभाव संकर है'। इसके अतिरिक्त 'बान' शब्द का दूसरा अर्थ वर्ण या कांति लेने से श्लेष की 'संसृष्टि' भी हुई।
कहीं-कहीं तो संकर या 'संसृष्टि' के बिना ही रूपकातिशयोक्ति बहुत दुर्बोधा हो गई है, जैसे -
जौ लगि कालिंदि, होहि विरासी। पुनि सुरसरि होइ समुद परासी॥
यह भी उसी दूती का वचन है। अभिप्राय यह है कि जब तक तू काले केशोंवाली (अर्थात् युवती) है तब तक विलास कर ले, फिर जब श्वेत केशोंवाली हो जायगी तब तो काल के मुँह में पड़ने के लिए जल्दी-जल्दी बढ़ने लगेगी। जमुना की काली धारा सीधे समुद्र में नहीं गिरती है। जब वह श्वेत धारा वाली गंगा के साथ मिल कर श्वेत गंगा हो जाती है तब समुद्र की ओर जाती है जहाँ जा कर उसका अलग अस्तित्व नहीं रह जाता। यह अतिशयोक्ति दुर्बोध हो गई। दुर्बोधता का कारण है अप्रसिद्धि। रूपकातिशयोक्ति में प्रसिद्ध उपमान ही लाए जाते हैं। प्रसिद्ध और नए कल्पित उपमानों के रखने से तो पद्य पहेली हो जायगा। उक्त पद्य में जायसी ने स्वतंत्रता यह दिखाई कि परंपरा से व्यवहृत प्रसिद्ध उपमान न ले कर स्वकल्पित अप्रसिद्ध उपमान लिए हैं, जिससे एक प्रकार की दुरूहता आ गई है। काले केशों के लिए कालिंदी नदी की और श्वेत केशों के लिए गंगा की उपमा प्रसिद्ध नहीं है। यह रूपकातिशयोक्ति अलंकार ही लीक पीटने वालों के लिए है। जो नए उपमानों की उद्भावना करे वह इस अलंकार की ओर जाय क्यों?
इसी प्रकार की गूढ़ और अर्थगर्भित योजना 'तद्गुण अलंकार' की भी लीजिए। देवपाल की दूती बहुत से पकवान लाकर पद्मावती के सामने रखती है। वह उन्हें हाथों से भी न छूकर कहती है -
रतन छुवा जिन्ह हाथन्ह सेंती। और न छुवौं सो हाथ सँकेती॥
दमक रंग भए हाथ मँजीठी। मुकुता लेउँ पै घुघुँची दीठी॥
अर्थात् जिन हाथों से मैंने उस दिव्य रत्न (राजा रत्नसेन) का स्पर्श किया अब उनसे और वस्तु क्या छूऊँ? उस दिव्य रत्न या माणिक्य के प्रभाव से मेरे हाथ इतने लाल हैं कि मोती भी अपने हाथ में ले कर देखती हूँ तो वह गुंजा (हाथ की ललाई से गुंजा का लाल रंग और देखने से पुतली की छाया पड़ने के कारण गुंजा का सा काला दाग) हो जाता है, अर्थात् उसका कुछ भी मूल्य नहीं दिखाई पड़ता।
अब इसके अलंकारों पर विचार कीजिए। सबसे पहले तो 'रतन' पद में हमें श्लेष मिलता है। फिर दूसरे चरण में काकुवक्रोक्ति। तीसरे - चौथे चरण में जटिलता है। 'उस रत्न के स्पर्श से मेरे हाथ लाल हुए' इसका विचार यदि हम गुण की दृष्टि से करते हैं तो 'तद्गुण' अलंकार ठहरता है। फिर जब हम यह विचार करते हैं कि पद्मिनी के हाथ तो स्वभावत: लाल हैं (उनमें लाली का आरोप नहीं है) तब हमें रत्नस्पर्श रूप हेतु का आरोप कर के हेतूत्प्रेक्षा कहनी पड़ती है। अत: यहाँ इन दोनों अलंकारों का 'संदेह संकर' हुआ। चौथे चरण में 'तद्गुण' अलंकार स्पष्ट है। पर यह अलंकारनिर्णय भी हमें व्यंग्य अर्थ तक नहीं पहुँचाता। अत: हम लक्षणा से तो 'मुक्ता' का अर्थ लेते हैं 'बहुमूल्य वस्तु' और घुँघची का अर्थ लेते हैं 'तुच्छ वस्तु'। इस प्रकार हम इस व्यंग्य अर्थ पर पहुँचते हैं कि रत्नसेन के सामने मुझे संसार की उत्तम वस्तु तुच्छातितुच्छ दिखाई पड़ती है।
इन उदाहरणों से पाठक समझ सकते हैं कि जायसी ने अलंकारों से अर्थ पर अर्थ भरने का कैसा कड़ा काम किया है। इसी 'मुक्ता' को ले कर कवियों ने भी तद्गुण अलंकार बाँधा है, पर वे रूपाधिक्य की व्यंजना के आगे नहीं बढ़ सके हैं, जैसे कि इस प्रसिद्ध दोहे में -
अधर जोति बिद्रुम लसत, पिय मुकुता कर दीन्ह।
देखत ही गुंजा भयो, पुनि हंसि मुकुता कीन्ह॥
सिंदूर से लाल माँग के इस वर्णन में जायसी ने तद्गुण और हेतूत्प्रेक्षा का मेल किया है -
भोर साँझ रवि होइ जो राता। ओहि देखि राता भा गाता॥
'निदर्शना' और 'यमक' का यह उदाहरण है -
धरती बान बेधि सब राखी। साखी ठाढ़ देहिं सब साखी॥
इसी प्रकार दाँतों के इस वर्णन में भी 'तृतीय निदर्शना' है – ‘हारी जोति सो तेहि परिछाहीं।'
देखिए, 'गोरा' नाम का कैसा अर्थगर्भित प्रयोग इस सुंदर दोहे में जायसी ने किया है -
रतनसेन जो बाँधा , मसि गोरा के गात।
जौ लगि रुहिर न धोवौं, तौ लगि होइ न रात॥
'गोरा' नाम भी है और शुभ्रश्वेत अर्थ का द्योतक भी है। जो वस्तु श्वेत और निर्मल है उस पर मसि या स्याही का धब्बा पड़ना कितना बुरा है! यह धब्बा मिटेगा कैसे? जब (अपने या शत्रु के) रुधिर से धोया जायगा। इस दोहे में यदि 'गात' के स्थान पर 'वदन' या 'मुख' शब्द आया होता तो इसका मोल अधिक बढ़ जाता क्योंकि उस अवस्था में 'सुर्खरू' होने का मुहाविरा भी सटीक बैठ जाता।
एक स्थान पर तो जायसी ने ऐसी ढकी हुई या गूढ़ रमणीय रूपयोजना (अप्रस्तुत) रखी है जिसका आभास मिलने पर कवि के कौशल पर चित्त चमत्कृत हो जाता है। जब पद्मिनी हँसती है तब उसके लाल होठों और सफेद दाँतों की द्युति का प्रसार किस प्रकार होता है, देखिए -
हीरा लेइ सो विद्रुमधा । बिहँसत जगत होइ उजियारा॥
हीरे की ज्योति लिए हुए जब वह विद्रुम वर्ण की (अरुण) द्युतिधारा फैलती है तब सारा जगत प्रकाशित हो जाता है। इस उक्ति में उषा की मधुर श्वेत अरुण ज्योति के उदय का दृश्य किस प्रकार छिपा है! जब पद्मिनी हँसती है तब संसार उसी प्रकार खिल उठता है, जगमगा उठता है, जिस प्रकार उषा का मधुर प्रकाश फैलने पर। उक्ति के भीतर अप्रस्तुत रूप में इस प्रकार का दबा हुआ रूपविधान (सप्रैस्ड इमैजरी) आधुनिक काव्याभिव्यंजन की दृष्टि से भी परम रमणीय माना जाता है।
'संदेहालंकार' का उदाहरण जायसी में नहीं मिलता। एक स्थान पर (नखशिख में) रोमावली के वर्णन में वह खंडित रूप में मिलता है -
मनहुँ चढ़ी भौंरन्ह कै पाँती। चंदन खाँभ बास कै माती॥
की कालिंदी बिरह सताई। चलि पयाग अरइल बिच आई॥
संदेह में दो कोटियाँ होनी चाहिए और दोनों कोटियों में समान रूप से ज्ञान होना चाहिए। यहाँ एक ही कोटि है, चौपाई के पिछले दो चरणों में। चौपाई के प्रथम दो चरणों में तो उत्प्रेक्षा है। अत: संदेह अलंकार सिद्ध नहीं है, खंडित है।
कुछ और अलंकारों के उदाहरण लीजिए -
(1) कहाँ छपाए चाँद हमारा। जेहि बिनु रैनि जगत अँधियारा॥ (विनोक्ति)
(2) बसा लंक बरनै जग झीनी। तेहि ते अधिक लंक वह खीनी॥
परिहस पियर भए तेहि बसा। लये डंक लोगन्ह कहँ डसा॥ (प्रत्यनीक)
सिंह न जीता लंक सरि, हारि लीन्ह बनबासु॥
तेहि रिस मानुस रकत पिय, खाइ मारि कै माँसु॥ (प्रत्यनीक)
(3) निति गढ़ बाँचि चलै ससि सूरू। नाहि त होइ बाजि रथ चूरू॥ (संबंधातिशयोक्ति)
(4) मिलिहहिं बिछुरे साजन अकम भेंटि गहंत।
तपनि मृगसिरा जे सहहिं ते अद्रा पलुहंत॥ (अर्थातरंयास)
(5) का भा जोग कथनि के कथे। निकसै घिउ न बिना दधि मथे॥ (दृष्टांत)
(6) घट महँ निकट, बिकट होइ मेरू। मिलहिं न मिले परा तस फेरू॥ (विशेषोक्ति)
(7) ना जिउ जिए, न दसवँ अवस्था। कठिन मरन तें प्रेम बेवस्था॥ (विरोध)
(8) भूलि चकोर दीठि मुख लावा। (भ्रम)
(9) नैन नीर सौं पोता किया। तस मद चुवा बरा जस दिया॥ (परिणाम)
(10) जीभ नाहिं पै सब किछु बोला। तन नाहीं सब ठाहर डोला॥ (विभावना)
(11) पदमिनि ठगिनी भइ कित साथा। जेहिं तें रतन परा पर हाथा॥ (परिकरांकुर)
(12) रतन चला भा घर अँधियारा॥ (परिकरांकुर)
नीचे पहली पंक्ति में तो विषादन अलंकार की पुरानी उक्ति है जिसका व्यवहार सूरदास ने भी किया है, पर आगे उसमें जायसी ने 'द्वितीय पर्यायोक्ति' का मेल बड़ी सफाई से किया है -
गहै बीन मकु रैनि बिहाई। ससि बाहन तहँ रहै ओनाई॥ (विषादन)
पुनि धनि सिंघ उरेहे लागै। ऐसिहि बिथा रैनि सब जागै॥
(द्वितीय पर्यायोक्ति)
इतने उदाहरणों से यह स्पष्ट हो गया होगा कि जायसी ने बहुत से अलंकारों का विधान किया है और यह विधान अधिकतर भाव या विषय के अनुरूप तथा अर्थविस्तार में सहायता की दृष्टि से किया है। पर यह कहा जा चुका है कि उन्होंने परंपरापालन का ध्यान भी बहुत रखा है। इससे कहीं-कहीं भद्दी परंपरा के भी उदाहरण मिलते हैं। इस प्रकार का एक सांग-रूपक और एक परिणाम नीचे दिया जाता है। एक में तो वीररस की सामग्री में श्रृंगार की सामग्री का आरोप है और दूसरे में श्रृंगार की सामग्री में वीररस की सामग्री का। पहले स्त्री के रूपक में तोप का यह वर्णन लीजिए -
कहौं सिंगार जैसि वै नारी। दारू पियहिं जैसि मतवारी॥
सेंदुर आगि सीस उपराहीं। पहिया तरिवन चमकत जाहीं॥
कुच गोला दुइ हिरदय लाई। चंचल धुजा रहै छिटकाई॥
रसना लूक रहहिं मुख खोले। लंका जरै सो उनके बोले॥
अलक जंजीर बहुत गिउ बाँधे। खींचहिं हस्ती, टूटहिं काँधे॥
बीर सिंगार दोउ एक ठाऊँ। सत्रुसाल गढ़भंजन नाऊँ॥
इसी प्रकार का उदाहरण नीचे 'परिणाम' अलंकार का भी है जो बादल की नवागत वधू के मुँह से कहलाया गया है -
जौ तुम चहहु जुझि, पिय बाजा। कीन्ह सिंगार जूझ मैं साजा॥
जोबन आइ सौंह होइ रोपा। बिखरा बिरह कामदल कोपा॥
भौंहैं धनुक, नयन सर साधे। काजर पनच, बरुनि विष बाँधे॥
अलक फाँस गिउ मेलि असूझा। अधर अधर सौं चाहहिं जूझा॥
कुम्भस्थल कुच दोउ मैमंता। पेलौं सौंह, सँभारहु कंता॥
इन दोनों उदाहरणों में प्रस्तुत रस के विरुद्ध सामग्री का आरोप है। यद्यपि साहित्य के आचार्यों ने साम्य से कहे हुए विरोधी रस या भाव को (विभाव आदि को भी) दोषाधायक नहीं माना है, पर इस प्रकार के आरोपों से रस की प्रतीति में व्याघात अवश्य पड़ता है, वाग्वैदग्ध्य द्वारा मनोरंजन चाहे कुछ हो जाय। काव्य में बिंबस्थापना (इमैजरी) प्रधान वस्तु है। वाल्मीकि, कालिदास आदि प्राचीन कवियों में यह पूर्णता को प्राप्त है। अँगरेजी कवि शेली इसके लिए प्रसिद्ध है। भाषा के दो पक्ष होते हैं - एक सांकेतिक (सिंबोलिक) और दूसरा बिंबाधायक (प्रजेंटेटिव)। एक में तो नियत संकेत द्वारा अर्थबोध मात्र हो जाता है, दूसरे में वस्तु का बिंब या चित्र अंत:करण में उपस्थित होता है। वर्णनों में सच्चे कवि द्वितीय पक्ष का आलंबन करते हैं। ये वर्णन इस ढंग पर करते हैं कि बिंबग्रहण हो। अत: रसात्मक वर्णनों में यह आवश्यक है कि ऐसी वस्तुओं का बिंबग्रहण कराया जाय, ऐसी वस्तुएँ सामने लाई जाय, जो प्रस्तुत रस के अनुकूल हों, उसकी प्रतीति में बाधक न हों। सादृश्य और साधर्म्य के आधार पर आरोप द्वारा भी जो वस्तुएँ लाई जाय, वे भी ऐसी ही होनी चाहिए। वीररस की अनुभूति के समय कुच, तरिवन, सिंदूर आदि सामने लाना या श्रृंगार रस की अनुभूति के अवसर पर मस्त हाथी, भाले, बरछे सामने रखना रसानुभूति में सहायक कदापि नहीं।
बात की काटछाँटवाले अलंकार - जैसे, परिसंख्या - यद्यपि जायसी में कम हैं पर कई प्रसंगों में जहाँ किसी पात्र का वाक्चातुर्य दिखाना कवि को इष्ट है वहाँ श्लेष और मुद्रा अलंकार का आश्रय बहुत लिया गया है - यहाँ तक कि जी ऊबने लगता है। रत्नसेन पद्मावती के प्रथम समागम के अवसर पर जब सखियाँ पद्मावती को छिपा देती हैं तब राजा के रसायनी प्रलाप में धातुओं आदि के बहुत से नाम निकलते हैं जैसे -
सो न रूप जासौं दुख खोलौं। गएउ भरोस तहाँ का बोलौं॥
जहँ लोना बिरवा कै जाती। कहि कै सँदेस आन को पाती॥
जो एहि घरी मिलावै मोहीं। सीस देउँ बलिहारी ओहीं॥
राजा कहता है 'वह रूप (पद्मावती) सामने नहीं है जिसके आगे मैं अपना दु:ख खोलूँ। ......जहाँ वह सलोनी लता (पद्मावती) है वहाँ सँदेसा कह कर उसका पत्र कौन लावे?' इत्यादि। इसमें श्लेष और मुद्रा दोनों अलंकार हैं। इसी प्रकार की एक उक्ति वियोगदशा में नागमती की है -
धौरी पंडुक कह पिउ नाऊँ। जौं चित रोख न दूसर ठाऊँ॥
जाहि बया होहि पिउ कंठ लवा। करै मेराव सोइ गौरवा॥
अर्थात् - सफेद और पीली (पाण्डुवर्ण) पड़ कर भी मैं उस प्रिय का नाम लेती हूँ। (क्योंकि) यदि मैं चित्त में रोष करूँ तो मेरे लिए और दूसरा ठिकाना नहीं है। जा और (सँदेसा कह कर) आ1, जिसमें प्रिय कंठ से लगे। जो मिलाप करावे वही गौरवांवित है। (चौपाई के बड़े टाइपों के शब्द चिड़ियों के नाम भी हैं।)
1. बया (फारसी) - आ।
इसी प्रकार रत्नसेन के सिंहलद्वीप से चलने की तैयारी करने पर पद्मावती कहती है -
मोहि असि कहाँ सो मालति बेली। कदम सेवतीं चंप चमेली॥
(कदम सेवती। - (1) चरणों की सेवा करती हैं, (2) कदंब और सेवती फूल)।
यहाँ तक अर्थालंकारों के नमूने हुए। शब्दालंकारों में जायसी ने वृत्यानुप्रास, यमक और श्लेष का प्रयोग किया है, पर संयम के साथ। अनुप्रास आदि पर ही लक्ष्य रख कर खेलवाड़ इन्होंने कहीं नहीं किया है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते है। -
(1) रसनहिं रस नहिं एकौ भावा। (यमक)
(2) गइ सो पूजि, मन पूजि न आसा। (यमक)
(3) भूमि जो भीजि भएउ सब गेरू। (अनुप्रास)
(4) पपिहा पीउ पुकारता पावा। (अनुप्रास)
(5) रंग रकत रह हिरदय राता। (अनुप्रास)
(6) भइ बगमेल सेन घनघोरा। औ गजपेल अकेल सो गोरा। (अनुप्रास)
श्लेष के बहुत से उदाहरण पहले आ चुके हैं।
अलंकार हैं क्या? वर्णन करने की अनेक प्रकार की चमत्कारपूर्ण शैलियाँ, जिन्हें काव्यों से चुन कर प्राचीन आचार्यों ने नाम रखे और लक्षण बनाए। ये शैलियाँ न जाने कितनी हो सकती हैं। अत: यह नहीं कहा जा सकता कि जितने अलंकारों के नाम ग्रंथों में मिलते हैं उतने ही अलंकार हो सकते हैं। बीच-बीच में नए आचार्य नए अलंकार बढ़ाते आए हैं; जैसे, 'विकल्प' अलंकार को अलंकारसर्वस्वकार राजानक रुय्यक ने ही निकाला था। इसलिए यह न समझना चाहिए कि किसी कवि की रचना में उतनी ही चमत्कारपूर्ण शैलियों का समावेश होगा जितनी नाम रख कर गिना दी गई हैं। बहुत से स्थलों पर कवि ऐसी शैली का अलंबन कर जायगा जिसके प्रभाव या चमत्कार की ओर लोगों का ध्यान न गया होगा और जिसका कोई नाम न रखा गया होगा; यदि रखा भी गया होगा तो किसी दूसरे देश के रीतिग्रंथ में। उदाहरण के लिए यह पद्य लीजिए -
कँवलहि बिरह बिथा जस बाढ़ी। केसर बरन पीर हिय गाढ़ी॥
'केसर बरन पीर हिय गाढ़ी', इस पंक्ति का अर्थ अन्वयभेद से तीन ढंग से हो सकता है - (1) कमल केसरवर्ण (पीला) हो रहा है, हृदय में गाढ़ी पीर है। (2) गाढ़ी पीर से हृदय केसरवर्ण हो रहा है। (3) हृदय में केसर वर्ण गाढ़ी पीर है। इनमें से पहला अर्थ तो ठीक नहीं होगा, क्योंकि कवि की उक्ति का आधार केवल कमल के हृदय का पीला होना है, सारे कमल का पीला होना नहीं। दूसरा अर्थ अलबत्ते सीधा और ठीक जँचता है, पर अन्वय इस प्रकार खींचतान कर करना पड़ता है - 'गाढ़ी पीर हिय केसर बरन।' तीसरा अर्थ यदि लेते हैं तो 'पीर' का एक असाधारण विशेषण 'केसर बरन' रखना पड़ता है। इस दशा में 'केसरवर्ण' का लक्षणा से अर्थ करना होगा 'केसरवर्ण करनेवाली, पीला करने वाली' और पीड़ा का आतिशय्य लक्षणा का प्रयोजन होगा। पर योरोपीय साहित्य में इस प्रकार की शैली अलंकार रूप से स्वीकृत है और हाईपैलेज कहलाती है। इसमें कोई गुण प्रकृत गुणी से हटा कर दूसरी वस्तु में आरोपित कर दिया जाता है; जैसे यहाँ पीलेपन का गुण 'हृदय' से हटाकर 'पीड़ा' पर आरोपित किया गया है।
एक उदाहरण और लीजिए - 'जस भुइँ दहि असाढ़ पलुहाई।' इस वाक्य में 'पलुहाई' की संगति के लिए 'भुइँ' शब्द का अर्थ उस पर के घास पौधों अर्थात् आधार के स्थान पर आधेय लक्षणा से लेना पड़ता है। बोलचाल में भी इस प्रकार के रूढ़ प्रयोग आते हैं, जैसे 'इन दोनों घरों में झगड़ा है।' योरोपीय अलंकार शास्त्र में आधेय के स्थान पर आधार के कथन की प्रणाली को मेटानमी अलंकार कहेंगे। इसी प्रकार अंगी के स्थान पर अंग, व्यक्ति के स्थान पर जाति आदि का लाक्षणिक प्रयोग सिनेकडोकी अलंकार कहा जाता है। सारांश यह कि चमत्कार प्रणालियाँ बहुत सी हो सकती हैं।