पात्र द्वारा भावव्यंजना / मलिक मुहम्मद जायसी / रामचन्द्र शुक्ल

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पात्र द्वारा जिन स्थायी भावों की प्रधानत: व्यंजना जायसी ने कराई है वे रति, शोक और युध्दोत्साह हैं। दो एक स्थानों पर क्रोध की भी व्यंजना है। भय का केवल आलंबन मात्र हम समुद्रवर्णन के भीतर पाते हैं, किसी पात्र द्वारा भय का प्रदर्शन नहीं। बीभत्स का भी आलंबन ही प्रथानुसार युद्धवर्णन में है। हास का तो अभाव ही समझना चाहिए। गौण भावों की व्यंजना कुछ तो अन्य भाव के संचारियों के रूप में है, कुछ स्वतंत्र रूप में। जायसी की भावव्यंजना के संबंध में यह समझ रखना चाहिए कि उन्होंने जबरदस्ती विभाव, अनुभाव और संचारी ठूँसकर पूर्ण रस की रस्म अदा करने की कोशिश नहीं की है। भाव का उत्कर्ष जितने से सधा गया है उतने ही से उन्होंने प्रयोजन रखा है। अनुभावों की योजना कम है। 'पदमावत' में यद्यपि श्रृंगार ही प्रधान है पर उसके संभोग पक्ष में स्तम्भ, स्वेद, रोमांच नहीं मिलते। वियोग में अश्रुओं का बाहुल्य है। हावों का भी विधान नहीं है। विप्रलंभ में वैवर्ण्य आदि थोड़े से सात्त्विकों का कहीं-कहीं आभास मिलता है। इस कमी से रतिभाव के स्वरूप के उत्कर्ष में तो कोई कमी नहीं हुई है पर संभोगपक्ष उतना अनुरंजनकारी नहीं हुआ है।

भावव्यंजना का विचार करते समय दो बातें देखनी चाहिए -

(1) कितने भावों और गूढ़ मानसिक विकारों तक कवि की दृष्टि पहुँची है।

(2) कोई भाव कितने उत्कर्ष तक पहुँचा है।

पहली बात में हम जायसी को बढ़ा-चढ़ा नहीं पाते। इनमें गोस्वामी तुलसीदास जी की सी वह सूक्ष्म अंतर्दृष्टि नहीं है जो भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के बीच संघटित होने वाली अनेक मानसिक अवस्थाओं का विश्लेषण करती है। कैकेयी और मंथरा के संवाद में मानव प्रकृति का जैसा सूक्ष्म अध्‍ययन पाया जाता है वैसा पद्मिनी और दूती के संवाद में नहीं। क्षोभ से उत्पन्न उदासीनता और आत्मनिंदा, आश्चर्य से भिन्न चकपकाहट ऐसे गूढ़ भावों तक जायसी की पहुँच नहीं पाई जाती। सारांश यह कि मनुष्य हृदय की अधिक अवस्थाओं का सन्निवेश जायसी में नहीं मिलता। जो भाव संचारियों में गिना दिए हैं उनका भी बहुत ही कम संचरण किसी स्थायी भाव के भीतर दिखाई पड़ता है। इन गिनाए हुए भावों के अतिरिक्त और न जाने कितने छोटे-छोटे भाव और मानसिक दशाएँ हैं जो व्यवहार में देखी जाती हैं और अनुसंधान करने पर भावुक कवियों की रचनाओं में बराबर पाई जाएँगी। आश्चर्य ऐसे लोगों पर होता है जो 'देव' कवि के 'छल' नामक एक और संचारी ढूँढ़ निकालने पर वाह-वाह का पुल बाँधते हैं और देव को एक आचार्य समझते हैं। गोस्वामी जी की आलोचना में मैं कई ऐसे भाव दिखा चुका हूँ जिनके नाम संचारियों की गिनती में नहीं हैं। संचारियों में गिनाए हुए भाव तो उपलक्षण मात्र हैं। खैर, यहाँ केवल हमें इतना ही कहना है कि जायसी में भावों के भीतर संचारियों का सन्निवेश बहुत कम मिलता है। 'पदमावत' में रतिभाव की प्रधानता है पर उसके अंतर्गत भी हम 'असूया', 'गर्व' आदि दो - एक संचारियों को छोड़ 'व्रीड़ा' 'अवहित्था' आदि अनेक भावों का कहीं पता नहीं पाते। इनके अवसर आए हैं पर कवि ने इनका विधान नहीं किया है - जैसे पद्मिनी में मंडपगमन का अवसर, प्रथम समागम का अवसर।

अब दूसरी बात भाव के उत्कर्ष पर आइए। इसमें जायसी बहुत बढ़े-चढ़े हैं, पर जैसा कि दिखाया जा चुका है, यह उत्कर्ष विप्रलंभ पक्ष में ही अधिक दिखाई पड़ता है।

श्रृंगार का बहुत कुछ विवेचन विप्रलंभ श्रृंगार और संयोग श्रृंगार के अंतर्गत हो चुका है। यहाँ पर केवल रतिभाव के अंतर्गत कुछ मानसिक दशाओं की व्यंजना के उदाहरण ही काफी समझाता हूँ। रत्नसेन से विवाह हो जाने पर पद्मावती अपनी कामदशा का वर्णन कैसे सीधे-सीधे पर भावगर्भित वचनों द्वारा करती है -

कौन मोहनी दहुँ हुति तोही। जो तोहि बिथा सो उपनी मोही।

बिनु जल मीन तलफ जस जीऊ। चातक भइउँ कहत 'पिउ पीऊ'॥

जरिउँ बिरह जस दीपक बाती। पथ जोहत भइँ सीप सेवाती॥

× × × × ×

भइउँ बिरह दहि कोइल कारी। डारि डारि जिमि कूकि पुकारी॥

कौन सो दिन जब पिउ मिलै, यह मन राता जासु।

वह दुख देखै मोर सब, हौं दुख देखौं तासु॥

दोहे में 'अभिलाष' का कैसा सच्चा प्राकृत स्वरूप है। प्रेम प्रेम चाहता है। इसी अभिलाष के अंतर्गत अपना दु:ख प्रिय के सामने रखने, और प्रिय भी मेरे विरह में दु:खी है, इस बात का निश्चय प्राप्त करने की उत्कंठा प्रेमी को होती है। रतिभाव के संचारी के रूप में 'आशा' या 'विश्वास' की बड़ी सुंदर व्यंजना जायसी ने पद्मावती के मुँह से कराई है। देवपाल की दूती के यह कहने पर कि 'कस तुइँ, बारि, रहसि कुँभिलानी?' पद्मावती कहती है -

तौ लौं रहौ झुरानी जौ लहि आव सो कंत।

एहि फूल, एहि सेंदुर होइ सो उठै बसंत॥

इसी फूल (शरीर) से जिसे तुम इतना कुँभलाया हुआ कहती हो और इसी सिंदूर की फीकी रेखा से जो रूखे सिर में दिखाई पड़ती है फिर बसंत का विकास और उत्सव हो सकता है, यदि पति आ जाय। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि होली के उत्सव के लिए जायसी ने अबीर के स्थान पर बराबर सिंदूर का व्यवहार किया है। संभव है, उस समय सिंदूर से ही अबीर बनाया जाता रहा हो।

श्रृंगार के संचारी 'वितर्क' का एक उदाहरण, जो नया नहीं कहा जा सकता, लीजिए। बादल की नवागता वधू युद्ध के लिए जाने को तैयार पति की ओर देख रही है और खड़ी खड़ी सोचती है -

रहौ लजाइ तो पिउ चलै, कहौं तो कह मोहि ढीठ।

'वात्सल्य' के उद्गार दो स्थानों पर हैं। एक तो वहाँ जहाँ राजा रत्नसेन जोगी हो कर घर से निकलने को तैयार होता है - फिर वहाँ जहाँ बादल रत्नसेन को छुड़ाने की प्रतिज्ञा करने के उपरांत युद्धयात्रा के लिए चलने को उद्यत होता है। दोनों स्थानों पर व्यंजना माता के मुख से है पर विस्तीर्ण और गंभीर नहीं है, साधारण है। परिस्थिति के अनुसार रत्नसेन की माता का वात्सल्य 'सुख के अनिश्चय' के द्वारा व्यक्त होता है और बादल की माता का 'शंका संचारी' द्वारा। रत्नसेन की माता कहती है -

सब दिन रहेहु करत तुम भोगू। सो कैसे साधब तप जोगू॥

कैसे धूप सहब बिनु छाहाँ। कैसे नींद परिहि भुइँ माहाँ॥

कैसे ओढ़ब काथरि कंथा? कैसे पावँ चलब तुम पंथा॥

कैसे सहब खनहि खन भूखा? कैसे खाब कुरकुटा रूखा॥

जितना दु:ख औरों के दु:ख को सुन कर होता है, उतना दु:ख प्रिय व्यक्ति के सुख के अनिश्चय मात्र से होता है। यह अनिश्चय प्रिय व्यक्ति के आँख से ओझल होते ही उत्पन्न होने लगता है। तुलसी और सूर ने कौशल्या और यशोदा के मुख से ऐसे अनिश्चय की बड़ी सुंदर व्यंजना कराई है। ऐसे स्थलों पर इस अनिश्चय का कारण रतिभाव ही होता है; अत: जिस प्रकार 'शंका' रतिभाव का संचारी होती है उसी प्रकार यह 'अनिश्चय' भी। परिस्थितिभेद से कहीं संचारी केवल 'अनिश्चय' तक रहता है और कहीं 'शंका' तक पहुँचता है। छोटी अवस्था का बादल जिस समय रणक्षेत्र में जाने को तैयार होता है, उस समय माता की यह 'शंका' बहुत ही स्वाभाविक है -

बादल राय मोर तुइ बारा। का जानसि कस होइ जुझारा॥

बादसाह पुहुमीपति राजा। सनमुख होइ न हमीरहि छाजा॥

बरिसहिं सेल बान घन घोरा। धीरज धीर न बाँधिहिं तोरा॥

जहाँ दलपती दलमलहिं, तहाँ तोर का काज?

आजु गवन तोर आवै, बैठि मानु सुख राज॥

शंका तक पहुँचता हुआ यह 'अनिश्चय' प्रेमप्रसूत है, गूढ़ रति भाव का द्योतक है -

ह्नेयर लव इज ग्रेट, द लिटिलेस्ट डाउट्स आर फियर्स।

ह्नेयर लिटिल फियर्स ग्रो ग्रेट, ग्रेट लव इज देयर।

- शेक्सपियर

मायके के स्वाभाविक प्रेम की कैसी गंभीर व्यंजना इन पंक्तियों में है -

गहबर नैन आए भरिऑंसू। छाँड़ब यह सिंहल कबिलासू॥

छाँड़िउँ नैहर , चलिउँ बिछोई। एहि रे दिवस कहँ हौं तब रोई॥

छाड़िउँ आपनि सखी सहेली। दूरि गवन तजि चलिउँ अकेली॥

नैहर आइ काह सुख देखा। जनु होइगा सपने कर लेखा॥

मिलहु सखी ! हम तहँवा जाहीं। जहाँ जाइ पुनि आउब नाहीं॥

हम तुम मिलि एकै सँग खेला। अंत बिछोह आनि गिउ मेला॥

दूती और पद्मावती के संवाद में पद्मावती द्वारा पतिव्रत की बड़ी ही विशद व्यंजना हुई है। पतिव्रत कोई भाव नहीं है। वह धर्म और पूज्यबुद्धि मिश्रित दांपत्य प्रेम है। उसके अंतर्गत कभी रतिभाव की व्यंजना होती है, कभी प्रिय के महत्त्व को प्रकाशित करने वाले पूज्य भाव की, कभी प्रिय के महत्त्व के गर्व की और कभी धर्मानुराग की। पहले पद्मावती उस दूती को अपने अनन्य प्रेम की सूचना इस प्रकार देती है -

अहा न राजा रतन अँजोरा। केहि क सिंघासन केहि क पटोरा॥

चहुँ दिसि यह घर भा अँधियारा। सब सिंगार लेइ साथ सिधा ॥

काया बेलि जानौ तब जामी। सींचनहार आव घर स्वामी॥

इस पर जब दूती दूसरे पुरुष की बात कहती है तब वह क्रोध से तमतमा उठती है और धर्म के तेज से भरे ये वचन कहती है -

रँग ताकर हौं जारौं काँचा। आपन तजि जो पराएहि राँचा॥

दूसर करै जाइ दुइ बाटा। राजा दुइ न होहिं एक पाटा॥

साथ ही अपने पति का महत्त्व दिखाती हुई उस पर इस प्रकार गर्व प्रकट करती है -

कुल कर पुरुष सिंह जेहि केरा। तेहि थल कैस सियार बसेरा॥

हिया फार कूकुर तेहि केरा। सिंघहि तजि सियारमुख हेरा॥

सोन नदी अस मोर पिउ गरुवा । पाहन होइ परै जौ हरुवा॥

जेहि ऊपर अस गरुआ पीऊ। सो कस डोलाए डोलै जीऊ॥

पिछली चौपाई में 'गरुआ' और 'डोलै' शब्दों के प्रयोग द्वारा कवि ने जो एक अगोचर मानसिक विषय का गोचर भौतिक व्यापार के रूप में प्रत्यक्षीकरण किया है वह काव्यपद्धति का अत्यंत उत्कृष्ट उदाहरण है, पर उससे भी बढ़ कर है व्यंजित गर्व की मार्मिकता। यह गर्व पतिव्रत की अचल धुरी है। जिसमें यह गर्व नहीं, वह पतिव्रता नहीं। एक बार एक लुच्चे ने रास्ते में एक स्‍त्री को छेड़ा। वह स्‍त्री छोटी जाति की थी पर उसके ये शब्द मुझे अब तक याद हैं कि क्या तू मेरे पति से बहुत सुंदर है?

'सम्मान' और 'कृतज्ञता' ऐसे भावों की व्यंजना भी जायसी ने बड़ी ही मार्मिक भाषा में कराई है। बादल जब राजा रत्नसेन को दिल्ली से छुड़ा कर लाता है तब पद्मिनी बादल की आरती पूजा कर के कहती है -

यह गजगवन गरब जो मोरा। तुम राखा बादल औ गोरा॥

सेंदुर तिलक जो ऑंकुस अहा। तुम राखा माथे तौ रहा॥

काछ काछि तुम जिउ पर खेला। तुम जिउ आनि मँजूसा मेला॥

राखा छात, चँवर औधा। राखा छुद्रघंट झनकारा॥

राजा रत्नसेन के बंदी होने पर नागमती जो विलाप करती है उसके बीच पद्मिनी के प्रति उसकी झुँझलाहट कितनी स्वाभाविक है, देखिए -

पदमिनि ठगिनी भइ किस साथा। जेहि ते रतन परा पर हाथा।

शोक के दो प्रसंग 'पदमावत' में आए है - पहला रत्नसेन के जोगी होने पर और दूसरा रत्नसेन के मारे जाने पर। इनमें से पात्र द्वारा व्यंजना पहले ही प्रसंग में है, दूसरे में केवल करुण दृश्य का चित्रण है। रत्नसेन के जोगी हो कर घर से निकलने पर रानियाँ जो विलाप करती हैं उसमें पहले सुख के आधार के हटने का उल्लेख है फिर उससे उत्पन्न विषाद की व्यंजन है -

रोवहिं रानी तजहिं पराना। नोंचहि बार करहिं खरिहाना॥

चूरहिं गिउ - अभरन उर हारा। अब कापर हम करब सिंगारा॥

जाकहँ कहहिं रहसि कै पीऊ। सोइ चला, काकर यह जीऊ॥

मरै चहहिं पै मरै न पावहिं। उठै आगि सब लोग बुझावहिं॥

रसज्ञों की दृष्टि में यहाँ करुण रस की पूरी व्यंजना है, क्योंकि विभाव के अतिरिक्त रोना और बाल नोचना अनुभाव और विषाद संचारी भी है।

जैसा पहले कहा जा चुका है, राजा रत्नसेन के मरने पर कवि ने जिस करुण परिस्थिति का दृश्य दिखाया है वह अत्यंत प्रशांत और गंभीर है। रानियों के मुख से क्षुब्ध आवेग की व्यंजना नहीं कराई गई है, केवल पद्मिनी के उस समय के रूप की झलक दिखा कर परिस्थिति की गंभीरता का आभास दिया गया है -

पदमावति पुनि पहिरि पटोरी। चली साथ पिउ के होइ जोरी॥

सूरुज छिपा रैनि होइ गई। पूनिउँ ससी अमावस भई॥

छूटे केस, मोति लर छूटीं। जानहुँ रैनि नखत सब टूटीं॥

सेंदुर परा जो सीस उघारी। आगि लागि चह जग अँधियारी॥

सूर्यरूपी रत्नसेन अस्त हुआ। पद्मावती के पूर्ण-चंद्र-मुख में एक कला भी नहीं रह गई। पहले एक स्थान पर कवि कह चुका है कि 'चाँदहि कहाँ जोति औ करा? सूरुज के जोति चाँद निरमरा'। जब सूर्य ही नहीं रहा, तब चंद्रमा में कला कहाँ से रह सकती है? काले केश छूट पड़े हैं, मोती बिखर कर गिर रहे है - अमावस्या की अँधेरी छा गई है जिसमें नक्षत्र इधर-उधर टूट कर गिरते दिखाई पड़ते हैं। वह घने काले केशों के बीच सिंदूर की रेखा दिखाई पड़ी - अब घोर अंधकार के बीच आग भी लगा चाहती है - सती की ज्योति से सारा जगत जगमगाया चाहता है।

देखिए, पद्मिनी के तात्कालिक रूप में ही कवि ने प्रस्तुत करुण परिस्थिति की गंभीरता की पूर्ण छाया दिखा दी है। पद्मिनी सारे जगत के शोक का स्वच्छ आदर्श हो गई जिसमें सारे जगत के गंभीर शोक का प्रशांत स्वरूप दिखाई पड़ता है। कुछ काल के लिए पद्मिनी के सहित सारा जगत शोक-सागर में मग्न दिखाई पड़ता है। फिर पद्मिनी और नागमती दोनों इस दु:खमय जगत से मुँह फेरती हैं और उस लोक की ओर दृष्टि करती हैं जहाँ दु:ख का लेश नहीं।

दोउ सौति चढ़ि खाट बईठीं। औ सिवलोक परा तिन्ह दीठी॥

इस जगत से दृष्टि फिरते ही सारे दु:ख द्वंद छूट गए हैं। अब न झगड़ा और कलह है, न क्लेश और संताप। दोनों सपत्नी एक साथ मिल कर दूसरे लोक में पति से जा मिलने की आशा से परिपूर्ण और शांत दिखाई पड़ती हैं और सती होने जा रही हैं। आगे बाजा बजता चलता है। यह प्रेममार्ग के विजय का बाजा है -

एक जो बाजा भएउ बियाहू। अब दुसरे होइ ओर निबाहू॥

रत्नसेन की चिता तैयार है। दोनों रानियाँ चिता की सात प्रदक्षिणा करती हैं। एक बार जो भाँवरी (विवाह के समय) हुई थी उससे इस संसार यात्रा में रत्नसेन का साथ हुआ था, अब इस भाँवरी से परलोक के मार्ग में साथ हो रहा है -

एक जो भाँवरि भई बियाही। अब दुसरै होइ गोहन जाहीं॥

जियत कन्त! तुम हम्ह घर लाई। मुए कंठ नहिं छोड़हिं साँई॥

औ जो गाँठि कंत! तुम जोरी। आदि अंत लहि जाइ न छोरी॥

यह जग काह जो अछहि न आथी। हम तुम नाह! दुहूँ जग साथी॥

सतियों के मुख पर आनंद की शुभ्र ज्योति दिखाई पड़ती है। इस लोक से मुँह मोड़ अब वे दूसरे लोक के मार्ग के द्वार पर खड़ी हैं। इस लोक की अग्नि में अब उन्हें क्लेश और ताप पहुँचाने की शक्ति नहीं रही है। उनके लिए वह सबसे शीतल करने वाली वस्तु हो गई है क्योंकि वह पतिलोक का द्वार खोलना चाहती है। हिंदू सती का यह कैसा गंभीर, शांत और मर्मभेदी उत्सव है!

आजु सूर दिन अथवा, आजु रैनि ससि बूड़ ।

आजु नाचि जिउ दीजिए, आजु आगि हम्ह जूड़ ॥

फिर क्या था?

लेइ सर ऊपर खाट बिछाई। पौढ़ीं दुवौ कंत गर लाई॥

लागी कंठ आगि देई होरी। छार भई जरि, अंग न मोरी॥

क्रोधका प्रसंग केवल वहाँ आया है जहाँ राजा रत्नसेन को अलाउद्दीन की चिट्ठी मिलती है। पर वहाँ भी रौद्र रस का विस्तृत संचार नहीं है। क्रोध का वह आवेश नहीं है जिसमें नीति और विचार का पता नहीं रह जाता। चिट्ठी पढ़ी जाने पर -

सुनि अस लिखा उठा जरि राजा। जानौ दैउ तड़पि घन गाजा॥

का मोहि सिंघ देखावसि आई। कहौं तौ सारदूल धरि खाई॥

तुरुक! जाइ कहु मरै न धाई। होइहि इसकंदर कै नाई॥

पर इस उग्र वचन के उपरांत ही राजा अलाउद्दीन के संदेश के औचित्य अनौचित्य की मीमांसा करने लगता है -

भलेहि साह पुहुमीपति भारी। माँग न कोउ पुरुष कै नारी॥

रस की रस्म के विचार से तो उपर्युक्त वर्णन पूरा ठहर जाता है क्योंकि इसके अनुभाव के रूप में डाँट डपट और उग्र वचन तथा संचारी के रूप में अमर्ष मौजूद है। यहीं तक नहीं, साहित्य के आचार्यों ने आत्मावदानकथन अर्थात् अपने मुँह से अपनी बड़ाई को भी रौद्र रस का अनुभाव कहा है। आगे वह भी मौजूद है -

हौं रनथँभउर नाह हमीरू। कलपि माथ जेइ दीन्ह सरीरू॥

हौं सो रतनसेन सकबन्धी। राहु बेधि जीता सैरंधी॥

हनुवँत सरिस भार जेइ काँधा। राघव सरिस समुद जेइ बाँधा ॥

विक्रम सरिस कीन्ह जेइ साका। सिंघलदीप लीन्ह जौ ताका॥

जौ अस लिखा, भएउँ नहिं ओछा। जियत सिंघ कै गह को मोछा॥

पर यह सामग्री होते हुए भी यह कहना पड़ता है कि रौद्र रस का परिपाक जायसी में नहीं है। न तो अनुभावों और संचारियों की मात्रा ही यथेष्ट है, न स्वरूप ही पूर्ण स्फुट है। जायसी का कोमल भावपूर्ण हृदय उग्र वृत्तियों के वर्णन के उपयुक्त नहीं था।

वीर रस का वर्णन अच्छा है। अलाउद्दीन के चित्तौरगढ़ घेरने पर तो केवल सेना की सजावट और तैयारी, चढ़ाई की हलचल तथा युद्ध की घमासान के वर्णन में ही कवि रह गया है, युद्धोत्साह की व्यंजना किसी व्यक्ति द्वारा नहीं कराई गई है। उत्साह की व्यंजना गोरा बादल के प्रसंग में हमें मिलती है। पद्मिनी के विलाप पर दोनों वीरों ने कैसी क्षात्र तेज से भरी प्रतिज्ञा की है -

जौ लगि जिउ, नहिं भागहिं दोऊ। स्वामि जियत कित जोगिनि होऊ॥

उए अगस्त हस्ति जब गाजा। नीर घटै घर आइहि राजा॥

बरषा गए अगस्त जो दीठिहि। परहि पलानि तुरंगन पीठिहि॥

बेधौं राहु छोड़ावहुँ सूरू। रहै न दुख कर मूल अँकूरू॥

इसको कहते हैं उत्साह-आशा से भरी हुई साहस की उमंग। अगस्त्य के उदय होने पर नदियों और तालों का जल जब घटने लगेगा तब बंदी गृह से छूट कर राजा अपने घर आ जायगे। शरद्काल आते ही चढ़ाई हो जायगी।

बादल की माता जब हाथियों की रेलपेल और युद्ध की भीषणता दिखा कर उसे रोकना चाहती है, तब वह कहता है -

मातु न जानसि बालक आदी। हौं बादला सिंह - रनबादी॥

सुनि गजजूह अधिक जिउ तपा। सिंघ क जोति रहै किमि छपा?॥

तौ लगि गाज न गाज सिंघेला। सौंह साह सौं जुरौं अकेला॥

को मोहिं सौंह होइमैमंता। फारौं सूँड़, उखारौं दंता॥

जुरौं स्वामि सँकरे जसढारा। औ भिवँ जस दुरजोधन मारा॥

अंगद कोपि पाँव जस राखा। टेकौ कटक छतीसौ लाखा॥

हनुवँत सरिस जंघ बर जोरौं। दहौं समुद्र, स्वामि बँदि छोरौं॥

इसी प्रकार के उत्साहपूर्ण वाक्य वृद्ध वीर गोरा के हैं जब वह केवल हजार कुँवर ले कर बादशाह की उमड़ती हुई सेना को रोकने के लिए खड़ा होता है। ऐसे वाक्यों में अपने बल का पूर्ण निश्चय और समुपस्थित कर्म की अल्पता का भाव प्रधान हुआ करता है। इस वीरदर्प को उत्साह का मुख्य अवयव समझना चाहिए। देखिए, इस उक्ति में कैसा अमर्षमिश्रित वीरदर्प है -

रतनसेन जो बाँधा, मसि गोरा के गात।

जौ लगि रुहिर न धोबौं, तो लगि होइ न रात॥

हास्य और बीभत्स - ये दो रस ऐसे हैं जिनमें आलंबन के स्वरूप से ही कविपरंपरा काम चलाती है, आश्रय द्वारा व्यंजना की अपेक्षा नहीं रहती। वस्तुवर्णन के अंतर्गत युद्धवर्णन में डाकिनियों आदि का बीभत्स दृश्य दिया जा चुका है। जैसा कहा जा चुका है, भय के आलंबन का ही चित्रण कवि ने किया है। हास्य रस का तो 'पदमावत' में अभाव ही है।

अब एक विशेष बात पर पाठकों का ध्यान आकर्षित कर के इस भावव्यंजना के प्रकरण को समाप्त करता हूँ। एक स्थायी भाव दूसरे स्थायी भाव का संचारी हो कर आ सकता है, यह बात तो ग्रंथों में प्रसिद्ध ही है। पर रीतिग्रंथों में जो संचारी कहे गए हैं उनमें से भी कुछ ऐसे हैं जो कभी-कभी स्थायी बन कर आते हैं और दूसरे भावों को अपना संचारी बनाते हैं। जायसी का एक छोटा-सा उदाहरण देते हैं। जब पद्मावती ने सुना कि उपपत्नी नागमती के बगीचे में बड़ी चहल पहल है और राजा भी वहीं बैठा है तब -

सुनि पदमावति रिस न सँभारी। सखिन्ह साथ आई फुलवारी॥

यह रिस या अमर्ष स्वतंत्र भाव नहीं है, क्योंकि पद्मावती का कोई अनिष्ट नागमती ने नहीं किया था। यह 'असूया' का संचारी हो कर आया है; क्योंकि यह 'असूया' से उत्पन्न भी है और रस की दृष्टि से उससे विरुद्ध भी नहीं पड़ता। एक संचारी का दूसरे संचारी का स्थायी बन कर आना लक्षण ग्रंथों के अभ्यासियों को कुछ विलक्षण अवश्य लगेगा। किसी दूसरे स्थल पर हम कुछ संचारियों को विभाव, अनुभाव और संचारी तीनों से युक्त दिखाएँगे।

उक्त उदाहरण में यह नहीं कहा जा सकता कि जिस प्रकार 'असूया' रतिभाव का संचारी हो कर आया है उसी प्रकार 'अमर्ष' भी। इस अमर्ष का सीधा लगाव 'असूया' से है, न कि रति से। यदि असूया न होती तो यह अमर्ष न होता। अब प्रश्न यह उठता है कि यदि किसी स्थायी भाव का संचारी भी विभाव, अनुभाव और संचारी से युक्त हो तो क्या वह भी स्थायी कहा जायगा। स्थायी तो वह अवश्य होगा, पर ऐसा स्थायी नहीं जो रसावस्था तक पहुँचाने वाला हो। इन सब बातों का विवेचन मैं कभी अन्यत्र करूँगा, यहाँ इतना ही दिग्दर्शन बहुत है।