अलीगढ़ में मनोज बाजपेयी / व्यक्तिश: / नैनसुख / सुशोभित

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
अलीगढ़ में मनोज बाजपेयी
सुशोभित


मनोज बाजपेयी ने फ़िल्म 'अलीगढ़' में जैसी देहभाषा प्रस्तुत की, उसके बारे में देर तक सोचता रहा था। मुझे याद नहीं आया मैंने हिन्दी सिनेमा में इससे पहले किसी पुरुष अभिनेता की वैसी भाव-भंगिमा कब देखी थी।

यह एक अजीब तरह से करुण और स्पर्श-कातर देहभाषा थी। समलिंगी-संबंधों के परिप्रेक्ष्य में- कह लीजिए किंचित स्त्रैण भंगिमा लिए- जो अपनी निजता के सार्वजनिक हो जाने से निहायत एम्बैरेस्ड (लज्जारुण) है। चूँकि वो एक्टिविस्ट-प्रजाति का व्यक्ति नहीं है और शायद एक परम्परावादी मराठी ब्राह्मण ही अधिक है, इसलिए उसमें अपनी इस स्वेच्छाचारिता के लिए ग्लानि भी है। उसे न्याय के संघर्ष में खींच लिया गया है, तब वह आधे मन से वहाँ उपस्थित रहता है। वैसा व्यग्र, एन्क्षस, असहज, सकुचाया चेहरा मैंने तो हिन्दी सिनेमा में नहीं देखा।

पहले मैं सोचता था कि अच्छा अभिनेता वह है, जो अपने पार्ट को भली प्रकार अभिनीत कर लेता है। अगर वह किंचित नाटकीयता के साथ उसे निभा ले जाए, तब तो और अच्छा। धीरे-धीरे, समय के साथ, जब दुनिया-जहान का सिनेमा देखा और आला दर्जे के अभिनेताओं के काम का साक्षी बना तो यह धारणा भीतर थिर हुई कि अच्छा अभिनेता वह होता है, जो अपनी देहभाषा को जाने कैसी मद्धम आँच पर सिंकाकर पात्र के अनुकूल ढाल लेता है, किन्तु वैसा वह सायास नहीं करता। इसके लिए वह अपनी स्मृति, अवचेतन, अनुभूतियों और सृष्टि ने उसको जैसा शरीर दिया है- विशेष तौर पर मुखमण्डल- उसको उस विशेष प्रयोजन के लिए पुकारता है और उस व्यक्ति को वहाँ सम्भव करता है।

जब वह वैसा करने में सक्षम हो जाता है, तो- अगर फ़िल्म दत्तचित्त होकर बनाई गई है और उसके माध्यम से एक ऐसा स्पेस परदे पर रचा गया है, जो सार्वजनिक होकर भी निहायत निजी है- उस अभिनेता का काम वहाँ देखते ही बनता है। देखकर तसल्ली मिलती है। आप सिनेमाघर से कुछ लेकर लौटते है, जो कि बड़ा जाती क़िस्म का कलात्मक संतोष है। आपको लगता है कि वहाँ पर कुछ ऐसा हुआ था कि बात बन गई थी, और आपने एक ऐसी चीज़ को जीया, जो ख़ूब पकी थी।

नसीरुद्दीन शाह ने 'स्पर्श' में वह किया था। उन्होंने उस फ़िल्म में एक विशिष्ट बॉडी लैंग्वेज अर्जित कर ली थी, जिसमें वो बिना अतिरिक्त प्रयास किए स्थिर रह सकते थे, अलबत्ता कोई और उसे भरपूर कोशिशें करके भी छू नहीं सकता था। 'लंचबॉक्स' में फिर यही इरफ़ान ने किया। और फिर 'अलीगढ़' में मनोज बाजपेयी ने। हिन्दी सिनेमा में ये तीन अभिनय-प्रयास मुझे विशेष रूप से याद रह गए हैं।

फिर 'वासेपुर' के हिंस्र, बनैले पुरुष के तीनेक साल बाद 'अलीगढ़' में वैसा एम्बैरेस्ड स्त्रैण चेहरा सामने रख देना- यह तो और कमाल है। इस जक्स्टापोज़िशन- यानी जिसमें दो मुख़्तलिफ़-स्वरूप एक-दूसरे के सामने कुछ वैसे रख दिए जाएँ कि उनसे एक तीसरी ही रौशनी उभरकर सामने आए- की बिनाह पर आप निश्चित कह सकते हैं कि इस अभिनेता में कुछ तो बात है, जो सबमें नहीं!