दीप्ति यानी मिस चमको / व्यक्तिश: / नैनसुख / सुशोभित
सुशोभित
दीप्ति नवल 'मिस चमको' से तंग आ चुकी हैं। पिछले चार दशकों से यह तमगा उनका पीछा कर रहा है। वह जहाँ भी जाती हैं, उन्हें 'मिस चमको' कहकर ही पुकारा जाता है, कभी-कभी तो लगभग किसी फ़ब्ती की तरह। वह इससे हैरान हैं। हाल ही में उन्होंने कहीं कहा कि उनका पूरा जीवन 'मिस चमको' की छवि से बाहर निकलने की क़वायद है। उन्होंने कहा, "मैं 'गर्ल नेक्स्ट डोर' नहीं हूँ, मैं इस इमेज को ध्वस्त कर देना चाहती हूँ।"
'चश्मेबद्दूर' 1981 में आई थी। यह उनकी तीसरी या चौथी फ़िल्म थी। उसके बाद दीप्ति ने ‘साथ-साथ', 'कमला', 'पंचवटी', 'दामुल', 'मैं ज़िन्दा हूँ', 'फ्रीकी चक्र', 'मेमरीज़ इन मार्च' जैसी फ़िल्में की हैं, और वह चाहती हैं उन्हें इन फ़िल्मों के लिए याद रखा जाए। वह चाहती हैं कि उन्हें फ़िल्म 'लीला' के अपने इस संवाद के लिए याद रखा जाए, “आई हैड बिकम टू इंडिपेंडेंट फ़ॉर हिम सो आई थ्रू हिम आउट! “उन्होंने 1991 के बाद से मुख्यधारा की हिन्दी फ़िल्में न के बराबर की हैं। उन्होंने तिब्बत की ख़ाक़ छानी है, लद्दाख की पैदल सैर की है। उन्होंने टेलीविज़न के लिए धारावाहिक बनाए हैं। एक फ़िल्म भी बनाई है, 'दो पैसे की धूप, चार आने की बारिश'। उन्होंने चार किताबें लिखी हैं, फ़ोटोग्राफ़ी की है, पेंटिंग्स बनाई हैं। दीप्ति चाहती हैं कि उन्हें 'सेल्फ़ पोर्ट्रेट एज अ प्रेग्नेंट नन' बनानेवाली कलाकार के रूप में याद रखा जाए- 'मिस चमको' की तरह नहीं।
लोकवृत्त में काम करने वाले कलाकारों को अकसर इस दुविधा का सामना करना पड़ता है। ‘आर्टिस्ट' और 'ऑडियंस' का द्वैत बहुत पेचीदा शै है। दोनों के बीच अजब अन्त:क्रियाएँ चलती हैं। नज़रिए को लेकर विरोधाभास होता है। एक आर्टिस्ट का काम अनिवार्यत: उसकी ऑडियंस के ही परिप्रेक्ष्य में होता है, अन्यथा उसका बस चले तो वह ऑडियंस को निरस्त ही कर दे। आर्टिस्ट की अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ होती हैं, ऑडियंस की अपनी पसंद होती हैं, इनमें टकराव अवश्यम्भावी है। लेकिन चूँकि एक आर्टिस्ट का समूचा ऐतिहासिक अस्तित्व उसकी ऑडियंस की अनुशस्ति पर आधारित होता है, जिसके बिना वह संदर्भहीन होकर इतिहास-च्युत हो जाएगा, इसलिए वह बार-बार ऑडियंस के पास लौटकर आने को विवश होता है। इस 'आर्टिस्ट-ऑडियंस डायलेक्टिक' की त्रिज्याएँ मिलकर एक वृहत्तर-वृत्त का निर्माण करती हैं, लेकिन उसका लगातार परिसीमन भी होता रहता है। लोकवृत्त का दबाव आर्टिस्ट के सार्वजनिक व्यक्ति-रूपक को पोषित और परिभाषित करता है, जबकि आर्टिस्ट को लगातार यह शिकायत भी बनी रहती है कि उसकी श्रेष्ठ कृति के साथ न्याय नहीं किया जा रहा है।
मनुष्य का मन जटिल होता है। आर्टिस्ट का तो और ज़्यादा। सरल के प्रति वह विद्रोह करता है। उसे ख़ुद को मनवाना होता है। उसकी यह ज़िद होती है कि उसके महत्त्व को माना जाए और जायज़ वजहों से माना जाए। लेकिन ऑडियंस अपने चहेते कलाकार के पास उसका 'लोहा मानने' के लिए नहीं आती है। वह उस पर 'रीझने' के लिए आती है। वह उसकी एक बेख़याल मुस्कराहट पर भी रीझ सकती है, जिसके सामने समूचे जीवन की सायास-पूँजी फीकी पड़ जाए। आर्टिस्ट को इससे कोफ़्त होती है। वह इसका ज़ोरदार प्रतिकार करता है।
मार्केज़ ने बहुत 'ज़ोर' लगाकर 'पैट्रियार्क' लिखी थी, लेकिन पाठकों को नहीं जँची, तो नहीं जँची। उन्होंने मार्केज़ को 'सॉलिट्यूड' के लिए ही प्यार किया। सिप्पी ने बहुत ज़ोर लगाकर 'शान' बनाई, लेकिन वह दूसरी 'शोले' नहीं बनी, तो नहीं बनी। जैक्सन ने बहुत ज़ोर लगाकर 'घोस्ट' बनाई थी, लेकिन वह एक महंगा मज़ाक़ बन गया। उसके चाहने वालों ने उसे हमेशा 'थ्रिलर' के लिए ही पसंद किया। बच्चन का मतलब 'मधुशाला' बन गया। फ़रीदा ख़ानूम का मतलब 'आज जाने की ज़िद ना करो' बन गया। इक़बाल बानो जीवनभर के लिए 'हम देखेंगे' में सिमटकर रह गईं। बॉब डिलन 'ब्लोइन इन द विंड' को लाँघ नहीं सके। बहुत-सी चीजें ऐसी होती हैं, जिन पर एक सीमा के बाद रचनाकार का बस नहीं चलता। 'पब्लिक डोमेन' अजब चीज़ है। उसमें जाने के बाद चीजें एक अलग ही शक्ल अख़्तियार कर सकती हैं, जो कि मूलतः सोची नहीं गई थीं। कुछ क्लासिक बन जाती हैं, कुछ मिथ कहलाती हैं, कुछ भुला दी जाती हैं- एक ठंडी क्रूरता के साथ- जो कि उन्मादी प्रशंसकों के ही बस की बात है।
दीप्ति 'मिस चमको' से चाहे जितना तंग आ जाएँ, उन्हें 'मिस चमको' की तरह ही याद रखा जाएगा। अब यह किसी के बस में नहीं है। दीप्ति चाहे जो कर गुज़रें, 'मिस चमको' के सामने सब नाकुछ हैं। साधारण दर्शक 'श्रेय' को उतना महत्त्व नहीं देता, जितना 'प्रेय' को देता है। अवाम को 'मिस चमको' से शफ़क़त थी, है और रहेगी। सन् इक्यासी में अनजाने ही एक करिश्मा हो गया था, और आख़िरकार करिश्मा ही तो सिर चढ़कर बोलता है!