अर्द्धसत्य में सदाशिव / व्यक्तिश: / नैनसुख / सुशोभित

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अर्द्धसत्य में सदाशिव
सुशोभित


गोविंद निहलानी की पहली फ़िल्म 'अर्द्धसत्य' से सदशिव अमरापुरकर ने भी अपने फ़िल्म कैरियर की शुरुआत की थी। अलबत्ता इससे पहले ही वह मराठी रंगमंच में पर्याप्त सक्रिय हो चुके थे। 'अर्द्धसत्य' का स्क्रीनप्ले विजय तेंडुलकर लिख रहे थे। फ़िल्म की कास्टिंग के दौरान उन्होंने निहलानी को सुझाया कि रामा शेट्टी के रोल के लिए सदाशिव को लें। निहलानी ने इससे पहले कभी सदाशिव का काम नहीं देखा था तो वह तेंडुलकर के साथ उनका एक प्ले देखने गए। 'हैंड्स अप' नामक उस प्ले में मराठी थिएटर की क़द्दावर शख़्सियत भक्ति बर्वे ('जाने भी दो यारो' की शोभा जी) मुख्य भूमिका में थीं। उनके सामने थे अविनाश मासुरेकर। लेकिन सदाशिव छोटी-सी भूमिका में भी अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रहे। निहलानी ने प्ले पूरा होने से पहले ही सदाशिव को 'अर्द्धसत्य' में महत्त्वपूर्ण भूमिका देने का निर्णय कर लिया।

फ़िल्म में अभिनय से भी अधिक महत्त्वपूर्ण एक अपरिभाषेय 'व्यक्ति-व्याकरण' होता है। इसलिए कास्टिंग का काम फ़िल्म-निर्माण में केन्द्रीय महत्त्व का हो जाता है। यह कल्पनाशीलता कि फलाँ भूमिका को फलाँ व्यक्ति ही ठीक से निभा सकता है, फ़िल्म की नियति तय करने वाला निर्णय होता है। इसके होने न होने से बात बनती-बिगड़ती है। ‘अर्द्धसत्य' में सदाशिव को लेना एक मास्टरस्ट्रोक था, क्योंकि सदाशिव के व्यक्तित्व में वह ख़ास 'वर्नाक्यूलर-टेक्सचर' था, जिसकी कि उस फ़िल्म को दरकार थी। सदाशिव एक मराठीभाषी व्यक्ति का प्रतिनिधि चेहरा थे। देहभाषा, क़द-काठी, आवाज़ का लहज़ा, भाव-भंगिमा, नज़रें तरेरने का अंदाज़- ये यूँ तो अमूर्त चीजें हैं, जो कहीं दर्ज नहीं होतीं- लेकिन फ़िल्म के कैनवस में ये ही रंग भरती हैं।

'अर्द्धसत्य' में सदाशिव जिस तरह से ओम पुरी को उनका नाम लेकर बुलाते हैं (वेळणकर), मैं दावे से कह सकता हूँ, किसी अन्य भाषा का अभिनेता उसको उस तरह से नहीं बोल सकता। वह एक विशुद्ध मराठी उच्चार है। प्रसंगवश, मराठी थिएटर ने हिन्दी चित्रपट को कई आला अभिनेता दिए हैं। सदाशिव और भक्ति बर्वे का उल्लेख किया जा चुका है। इसी कड़ी में डॉ. श्रीराम लागू, मोहन अगाशे, सुलभा देशपांडे, अमोल पालेकर, विक्रम गोखले, मोहन गोखले, नाना पाटेकर इत्यादि के नाम भी शामिल किए जा सकते हैं। और स्मिता पाटिल तो जैसे तमाम मराठी स्त्रियों का प्रतिनिधि चेहरा हैं। यही बात हिन्दी में काम कर चुके अन्य वर्नाक्यूलर अभिनेताओं के बारे में भी कही जा सकती है, जैसे कन्नड़भाषी गिरीश कर्नाड, तमिलभाषी कमल हासन, बाँग्लाभाषी अभि भट्टाचार्य, गुजरातीभाषी परेश रावल, पंजाबीभाषी बलराज साहनी इत्यादि। मुज़फ़्फ़र अली अपनी फ़िल्मों में कैसे अवधी बोली-बानी को जीवंत कर देते हैं, देखें। मुख्यधारा के बम्बइया सिनेमा में क्षेत्रीय विवरणों का समावेश क्लीशे और कैरीकेचर्स के परे अपनी ठेठ ठसक के साथ अधिकाधिक होना चाहिए था। ऐसा हुआ तो है, पर उतना नहीं, जितना कि हो सकता था। गोविंद निहलानी का जैसा सजग-विवेक सदाशिव के चयन में रहा, वैसा ही अधिक से अधिक फ़िल्म निर्देशक प्रदर्शित करते तो यह और अच्छे से हो सकता था।

चलते-चलते, यह एक पूर्वग्रह कि हिन्दी सिनेमा के कैनवस में रंग भरने का जितना काम सहयोगी और समान्तर अभिनेताओं ने किया है, उतना मुख्यधारा के नायक और महानायक नहीं कर सके हैं। आप शुरू से देख लीजिए- मोतीलाल, बलराज साहनी, डेविड से लेकर नसीर, ओम, रैना से होते हुए ऐन अभी के मनोज बाजपेयी, इरफ़ान, नवाज़, केके मेनन, विजय राज, जीशान अय्यूब और दीपक डोबरियाल। गोया कि हिन्दी सिनेमा में असल काम देखना हो तो परदे के इधर-उधर देखिए, मार्जिन में देखिए, में नहीं हाशिए में। बहुत मुमकिन है कि 'व्यक्ति-व्याकरण' के सबसे दिलचस्प डिटेल्स आपको वहीं मिलेंगे।