अल्लाह मियां का शुक्रिया कि मेरे शौहर का काम ढीला हुआ / सुमेरा

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[[सुमेरा, उम्र 22 साल। सुमेरा बी.ए.सेकंड ईयर की छात्रा हैं। लोकनायक जयप्रकाश कॉलोनी में रहती हैं। इनका जन्म सन 1997 में हुआ। पिछले दो सालों से अंकुर से जुड़ी हैं। लोगों से बातचीत करना और उन्हें लिखना इनके शौक हैं।]]

शबाना बाजी जल्दी-जल्दी बच्चों को गली से बाहर ले जा रही थीं और थोड़ी ऊंची आवाज़ में कह रही थी, “जल्दी चलो बाहर, वरना रिक्शेवाले भैया चले जायेंगे तो फिर तुम्हें छोड़ने कौन जाएगा? मुझे काम पर भी जाना है। अगर मैं तुम्हें स्कूल छोड़ने गई तो मुझे काम पर पहुंचने में देर हो जाएगी।”

शबाना बाजी का रंग सांवला है। वह अक्सर सलवार-कमीज़ पहनती हैं और हाथों में दो-दो चूड़ियां। मैंने उन्हें आवाज़ लगाने की सोची, मगर पुकार नहीं पाई। मैंने सोचा बच्चों को छोड़कर जब वापस आयेंगी, तब बात करूंगी।

मैं रात नौ बजे उनके घर पहुंच गई। जब उनके घर जा रही थी, तब दिल में एक हिचकिचाहट थी। इनको मेरा आना अच्छा लगेगा या नहीं! कहीं गुस्सा न हो जाएं! यही सोचते-सोचते मैं उनके घर का जीना चढ़ गई। वह सब्जी काट रही थीं। उनकी बेटी स्कूल का होमवर्क कर रही थी और बेटे टी.वी. पर काटूर्न देख रहे थे। मैंने पूछा, “क्या मैं अंदर जा सकती हूं?” जवाब मिला, “हां-हां बेटा क्यों नहीं, तुम्हारा ही घर है। आओ अंदर, यह भी कोई पूछने वाली बात है।”

मेरा डर थोड़ा कम हुआ। उनके बच्चे शोर मचाने लगे। वे अपने बच्चों से बोलीं, “क्या बात है? क्यों शोर मचा रहे हो? अगर अब शोर मचाया तो अच्छा नहीं होगा।”

उनकी बात सुनकर बच्चे शांत होकर बैठ गए, ऐसा लग रहा था कि कमरे में कोई नहीं है। बच्चे ऐसे चुप हो गए, जैसे वहां कोई है ही नहीं। तभी शबाना बाजी चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट लाते हुए बोलीं, “और बताओ, कैसे आना हुआ?”

वह मुझे दूसरे कमरे में ले गई और मुझे पानी दिया। दूसरे कमरे में बैठकर भी उनकी नज़रें अपने बच्चों पर ही थी। “एक महीने बाद परीक्षा आने वाली हैं, स्कूल की पढ़ाई कर लो, कुछ याद कर लो!” कहकर वह मेरे पास आकर बैठ गई।

मैंने हँसते हुए उनसे कहा, “आप बच्चों पर क्यों गुस्सा हो रही हैं?” वे बोली, “अगर ध्यान न दो तो ये पढ़ाई नहीं करते और घर पर आए मेहमान को देखकर अपना पागलपन दिखाने लगते हैं।”

मुझे पहले तो थोड़ी हंसी आई क्योंकि मेरे घर में भी बच्चे हैं। मैं उनकी हां में हां मिलाते हुए बोली, “हां, यह बात तो है, मेरी भतीजियां भी यही करती हैं। बच्चे इसी को तो कहते हैं, इन्हें बच्चे नहीं कहेंगे तो किसे कहेंगे। बच्चों से तो शैतान भी हार मान गया, फिर हम तो इंसान हैं।”

इसी दौरान मैंने उनसे पूछा, “बाजी, आप कहां काम करती हो?”

यह पूछते ही वह मेरी तरफ़ देखने लगीं और बोलीं, “तुम्हें इससे क्या मतलब है? क्या करोगी जानकर?”

तब मैंने उनसे कहा, “मैं तो ऐसे ही पूछ रही हूं, आप ग़लत मत समझो। आज सुबह मैंने आपको बच्चों से कहते सुना था। इन्हीं सब बातों से मेरे मन में कुछ सवाल आ रहे थे। अगर आपको बुरा लगा हो तो माफ़ी मांगती हूं।”

मेरी बात सुनकर वह बोलीं, “अच्छा! मैं तो बस इसलिए कह रही हूं कि मैं जानती हूं कि आज-कल जो लोग अक्सर पूछते हैं कि मैं क्या और कहां काम करती हूं और इसका मुझे खूब अहसास है। पर तुम कहती हो तो बताती हूं।”

“मैं सीताराम बाज़ार पर जो पहाड़ी है, वहां तीन-चार घरों में झाड़ू-पोंछा और बर्तन धोने का काम करती हूं। वो काम तो पूरा करवाएंगे लेकिन जब पैसे देने की बारी आएगी तो पीछे हट जाएंगे और समय से पैसे नहीं देंगे।“

आप तीन-चार घरों में काम करती हैं? क्या ये घर एक-दूसरे के आसपास हैं या थोड़ी दूरी पर! “थोड़ी-थोड़ी दूरी पर हैं, ज़्यादा दूर नहीं हैं।” उन्होंने कहा।

क्या कभी ज़्यादा काम होने पर बीच में आराम करने/सांस लेने का समय मिलता है आपको?

वह मुझे देखने लगीं और थोड़ा ठहर कर बोलीं, “कभी मिल जाता है, कभी नहीं मिलता है। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि एक मिनट की भी फुरसत नहीं होती।”

क्या आप अपने लिए दोपहर का खाना लेकर जाती हैं या खाना ही नहीं खाती?

वह हँसते हुए बोलीं, “काम करते-करते वक़्त कब बीत गया पता ही नहीं चलता। वैसे मैं खाना नहीं लेकर जाती।”

जब आपको याद आ जाता है कि खाना खाना है या किसी दिन बहुत तेज़ भूख लग रही हो तो आप कैसे मैनेज करती हो?

वह बोलीं, “एक घर ऐसा है जो इन सब बातों का बहुत ध्यान रखता है। वहां मुझे खाना खिला देते हैं और पग़ार भी समय पर देते हैं। वैसे मैं घर आकर ही खाना खाती हूं, पांच बजे।”

खाना खाने में कितना समय लगता होगा?

“पंद्रह-बीस मिनट।”

क्या कभी ऐसा हुआ है कि लोग वहां आपको खाना देना भूल गए हों, उस वक़्त क्या आप खुद खाना ले लेती हो या उनसे खाना खाने के लिए पूछ लेती हैं?

“नहीं, मैं नहीं पूछती। उन्होंने दे दिया तो ठीक है वरना कोई बात नहीं। घर आकर खा लेती हूं। अगर भूख बर्दाशत नहीं होती तब मैं बाज़ार से छोले-भठूरे लेकर खा लेती हूं।”

बाहर छोले–भटूरे खाने में कितना अच्छा लगता है न!

वह मुझे मुस्कुराकर देखने लगी और बोली, “क्यों तुमने कभी नहीं खाये?”

मैंने हंस कर कहा, कभी नहीं।

वह बोलीं, “मैंने भी इस उम्र में आकर खाये हैं। जब मैं तुम्हारी उम्र की थी तो बाहर क्या मिलता है, कैसे मिलता है, कितने का मिलता है, इसका मुझे कुछ भी पता नहीं होता था। बस घर के भीतर ही सब कुछ मिल जाता था। या तुम यह भी कह सकती हो कि जीवन घर की दीवारों के बीच ही बीतता था।”

मैं इस बात पर उनसे कुछ नहीं कही, बस पूछा, फिर ये घर से बाहर निकलने का फैसला कैसे लेना हुआ?

वह नज़रें मिलाते हुए बोलीं, “यह मेरा ख़ुद का फैसला था। अपने लिए और किसी के लिए नहीं। मैं तो मौका तलाशती थी कि कब मैं बाहर शहर में काम करने के लिए जाऊं? लेकिन कभी वह वक्त नहीं आया था। मैं तब से काम कर रही हूं, जब मैं यहां आई। बच्चे भी नहीं हुए थे। एक वक्त जब शौहर का काम थोड़ा धीमा हुआ, बस तभी मैं बाहर निकल गई। जो आया, जो कर सकती थी वह सब किया। आज थोड़ा थक गई हूं, मगर मज़ा आता है। काम पर जो औरतें मिलती हैं, वे ज़्यादा अच्छी बातें करती हैं। यहां–वहां की छोड़ दूर–दूर की बातें बताती हैं। मैं तो अल्लाह मियां का शुक्रिया करती हूं कि मेरे शौहर का काम ढीला हुआ।”

इस बात पर हम दोनों खूब हँसे। वह हँसते हुए बोलीं, “वैसे तो घरवाले कभी चौखट पर भी खड़ा नहीं होने देंगे। लेकिन जब इस तरह के हालात हो जाते हैं तो कभी नहीं रोकते। मैं तो चाहती हूं कि जो औरत बाहर निकलना चाहती है वह दुआ करें कि उनके मियां का काम हल्का हो जाये और पैसे की तंगी आए।”

यह कहकर वह खूब हंसी। शबाना बाजी हँसते हुए बहुत हसीन लगती हैं। मैंने मुस्कुराते हुए पूछा, अच्छा इससे तो आपका अपना मनोरंजन हो जाता होगा?

यह सुनकर वह मुझे हैरानी से देखने लगी और बोलीं, “मनोरंजन क्या होता है बहन?”

मैंने उन्हें समझाते हुए कहा, आप अपने मन की कब करती हो या सबसे ज़्यादा सुकून कब मिलता है?

वह बोलीं, “ये काम ही मेरा मनोरंजन है। इसी से मैं थकती हूं और ख़ुश भी होती हूं। वैसे शाम को जब मैं अपने घर आती हूं तो मुझे अपने बच्चों के साथ हँसी-मज़ाक करना, उनके साथ खेलकर अच्छा लगता है। मगर मज़ा तो काम पर ही आता है।”

आप बच्चों के साथ कौन सा खेल खेलती हैं?

“उस वक़्त बच्चे जो खेल रहे होते हैं, मैं भी उनके साथ वही खेलने लग जाती हूं।”

क्या आप टी.वी. देखती हैं? गाने सुनती हैं या सीरियल देखती हैं?

वह फिर से नज़रे मिलाकर बोलीं, “मैं इतनी थकी होती हूं कि टी.वी. देखने का मन नहीं करता। जब कभी टी.वी. देखती हूं तो कब आँख लग जाती है पता ही नहीं चलता। वैसे भी मुझे सुबह जल्दी उठना होता है। आखिर, तुम यह सब क्यों पूछना चाहती थी?”

मैंने उनसे कहा, मैं भी बाहर निकलना चाहती हूं।

वह मुस्कुरा कर बोलीं, “शहर में निकलो लेकिन सिर्फ पैसा कमाने के लिए नहीं बल्कि अपना ख़ुद का वजूद बनाने के लिए।“

फिर वह उन्हीं रोज़मर्रा के कामों में लग गयीं। उनके साथ बात करते–करते कब एक घंटा बीत गया मालूम ही नहीं पड़ा। मगर आज लगा कि जैसे मैं अपने आने वाले कल के साथ बात कर रही हूं, जो ख़ुद के लिए शहर में निकला है।