अष्टावक्र महागीता / ओशो / प्रवचन–155
"मेरी कोई याद न रह जाए"
एक सूफी कथा है। एक आदमी था। उसे अपनी परछाईं सै घृणा हो गई। न केवल परछाईं से घृणा हो गई, उसे अपने पद—चिह्नों से भी घृणा हो गई। उस आदमी को अपने से ही घृणा थी। जब अपने से घृणा थी तो अपने पद—चिह्नों से भी घृणा हो गई। और जब अपने सै घृणा थी तो अपनी छाया. से भी घृणा हो गई। वह बचना चाहता था। वह चाहता था कि यह छाया मिट जाए। और वह चाहता था कि मैं कोई पद—चिह्न पृथ्वी पर न छोडूं? मेरी कोई याद न रह जाए, मैं इस तरह मिट जाऊं कि जैसे मैं कभी हुआ ही नहीं। वह भागने लगा—छाया और पद—चिह्नों से बचने को। वह खूब दूर मीलों भागने लगा। लेकिन जितना ही वह भागता, छाया उसी के साथ घसिटती हुई भागती। वह जितना भागता, उतने ही पद—चिह्न बनते। आखिर उसकी बुद्धि ने कहा कि तुम ठीक से नहीं भाग रहे, तुम तेजी से नहीं भाग रहे हो। उसके तर्क ने कहा कि इस तरह काम न चलेगा, ऐसे तो तुम भागते रहोगे, छाया साथ लगी है। तुम्हारे दौड़ने में जितनी गति होनी चाहिए उतनी गति नहीं है। गति से दौड़ो! तुम जितनी तेजी से दौड़ रहे हौ, उतनी तेजी से तो छाया भी दौड़ रही है। इसलिए छाया भी उतना. दौड़ सकती है। इतने दौड़ो कि छाया न दौड़ सके, तो संबंध टूट जाए। तो वह इतना ही दौड़ा और कहते हैं, गिरा और मर गया। सूफी इस कहानी की व्याख्या करते हैं। वे कहते हैं, ऐसी ही आदमी की दशा है। कुछ हैं यहां, जो छाया को भरने में लगे हैं, जो छाया पर हीरे—मोती लगा रहे हैं, जो छाया को सोने से मढ़ रहे हैं। वे कहते हैं, यह हमारी छाया है, इसे हम सजाएंगे; इसे हम रूपवान बनाएंगे, इस पर हम इत्र छिड़केगे; इस पर हम मखमल बिछाएगे। यह हमारी छाया है; यह किसी गरीब—गुरबे, किसी भिखमंगे की छाया नहीं। यह ऐसे सड़क के कंकड़—पत्थरों पर न पड़ेगी; यह सिंहासनों पर पड़ेगी; यह स्वर्ण—पटे मार्गों पर पड़ेगी। सूफी कहते हैं; काश यह पागल आदमी हट गया होता, किसी छप्पर के नीचे शांति से बैठ गया होता, छाया मिट गई होती!