अष्टावक्र महागीता / ओशो / प्रवचन–156
तीसरा प्रश्न
तीसरा प्रश्न : आपने उस रोज कहा, तुम किसी अंश में नहीं, पूरे के पूरे गलत हो। जो भी हो, गलत ही हो। इसका क्या कारण है? अहंकार या अज्ञान दर्प या भ्रांति? और क्या अहंकार और अज्ञान अन्योन्याश्रित हैं? पहली बात, ये सब नाम ही हैं एक ही बीमारी के अलग—अलग। जैसे कि तुम्हें कोई बीमारी हो, तुम आयुवेदिक चिकित्सक के पास जाओ और वह कोई नाम बताए, वह कहे कि तुम्हें दमा हो गया। और तुम जाओ एलोपैथिक चिकित्सक के पास और वह कहे कि तुम्हें अस्थमा हो गया। तो तुम इस चिंता में मत पड़ना कि तुम्हें दो बीमारियां हो गई हैं, कि तुम बड़ी मुश्किल में पड़े—दमा भी हो गया, अस्थमा भी हो गया। फिर तुम जाओ और किसी यूनानी हकीम के पास, और किसी होमियोपैथ के पास और वे अलग—अलग नाम देंगे; क्योंकि अलग—अलग भाषाएं हैं उनकी, अलग पारिभाषिक शब्द हैं। आदमी की बीमारी तो एक है—कहो अज्ञान, कहो अहंकार कहो माया, कहो भ्रांति, कहो बेहोशी, मूर्च्छा, प्रमाद, पाप, विस्मरण—जों तुम कहना चाहो। बीमारी एक है, नाम हजार हैं। तो पहली बात तो यह स्मरण रखना कि तुम्हारी बीमारियां बहुत नहीं हैं, इससे भी मन हलका हो जाएगा कि एक ही बीमारी है। और तुम्हें हजारों बीमारियों का इलाज भी नहीं करना है, नहीं तो बीमारी तो बीमारी, इलाज मार डालेंगे। बीमारी तो एक तरफ रहेगी, औषधियां मार डालेंगी। तुम्हारी बहुत बीमारियां नहीं हैं। माया, मत्सर, लोभ, मोह, क्रोध—ये सब अलग—अलग बीमारियां नहीं हैं; ये एक ही बीमारी की अलग—अलग अभिव्यक्तियां हैं, अलग—अलग रूप—रंग हैं। ये एक ही बीमारी के अलग—अलग नाम हैं। अहंकार बिलकुल ठीक है नाम, मुझे पसंद है। क्योंकि इस ‘मैं’— भाव से ही सब पैदा होता है। ‘मैं’— भाव से ‘मेरा’ पैदा होता, ‘मेरे’ से सारा माया—मोह बनता है। ‘मैं’ भाव से जरा—जरा में क्रोध आता है। जरा चोट लग जाए तो क्रोध आ जाता है। ‘मैं’— भाव से दूसरों के प्रति दूसरों के प्रति निंदा पैदा होती है, अपने को ऊंचा करने की, दूसरों को नीचा करने की आकांक्षा पैदा होती है। ‘मैं’— भाव से प्रतिस्पर्धा, गला—घोंट प्रतिस्पर्धा शुरू होती है कि सब को पछाड़ देना है, हरा देना है, पराजित कर देना है; मुझे जीत की घोषणा करनी है कि मैं कौन हूं। ‘मैं’ से संघर्ष पैदा होता है, विरोध पैदा होता है, युद्ध पैदा होता है, हिंसा पैदा होती है। और जितना ही यह ‘मैं’ में तुम डूबने लगते हो, उतनी ही बेहोशी बढ़ती जाती है। यह गहरा नशा हो जाता है। तुमने देखा, अहंकारी को चलते हुए? जैसे हमेशा शराब पीये हुए है! उसको हमने अहंकार का मद इसीलिए तो कहा है। उसके पैर जमीन पर ही नहीं पड़ते और वह तत्क्षण उलझने को तैयार है। वह खोज ही रहा है कि कोई मिल जाए, जिसके सामने वह अपने अहंकार को टकरा ले, क्योंकि अहंकार का पता ही टकराहट में चलता है। जैसी टकराहट, उतना ही अहंकार का पता चलता है। बड़ी टकराहट, तो बड़ा पता चलता है। छोटी—मोटी टकराहट, तो छोटा—मोटा पता चलता है। तो अहंकार शत्रु की तलाश करता है। एक ही नाम काफी है—अहंकार। दूसरी बात, मैंने निश्चित कहा कि तुम किसी अंश में नहीं, पूरे के पूरे गलत हो। यह अहंकार की एक बड़ी बुनियशदीत व्यवस्था है कि अहंकार तुमसे कहता है कि तुम गलत हो माना, लेकिन अंश में गलत हो, अंश सभी गलत होते हैं। थोड़ी गलती किसमें नहीं है? थोड़ी गलती है, सुधार लेंगे। इससे तुम्हारे जीवन में एक तरह का सुधारवाद चलता है, क्रांति नहीं हो पाती। अहंकार कहता है, यह गलत है, इस को सुधार लो, यहां पलस्तर उखड़ गया है, पलस्तर कर दो, यहां जमीन में गड्डा हो गया है, पाट दो; यहां की दीवाल गिरने लगी है, संभाल दो; यहां खंभा लगा दो; यहां नए खपड़े बिछा दो। अहंकार कहता है, मकान तो बिलकुल ठीक है; जरा—जरा कहीं गड़बड़ होती है, उसको ठीक करते जाओ, एक दिन सब ठीक हो जाएगा। तो कभी ठीक न होगा। यह अहंकार के बचाव की बुनियबादी तरकीब है कि वह कहता है कि थोड़ी—सी गलती है, बाकी तो सब ठीक है। तुमसे कहना चाहता हूं जब तक अहंकार है तब तक सभी गलत है। ऐसा थोड़े ही होता है कि कमरे एक कोने में प्रकाश है और पूरे कमरे में अंधकार है। ऐसा थोड़े ही होता है कि कमरे के जरा—से हिस्से में अंधकार है और बाकी प्रकाश है। प्रकाश होता है तो पूरे कमरे में हो जाता है। प्रकाश नहीं होता तो पूरे कमरे में नहीं होता। साक्षी जब जागता है तो सर्वांश में जागता है। ऐसा नहीं कि थोड़ा— थोड़ा जग गए, थोड़ा— थोड़ा सोए। जब तुम्हारा ध्यान फलता है तो समग्ररूपेण फलता है।