अष्‍टावक्र महागीता / ओशो / प्रवचन–157

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यहीं से क्रांति की शुरुआत होती है

इस अहंकार की तरकीब से बचना, नहीं तो तुम एक सुधारवादी, एक रिफार्मिस्ट हो जाओगे। और तुम्हारे जीवन में वह महाक्रांति न हो पाएगी, जो महाक्रांति इस महागीता में जनक के जीवन में हुई। वह क्षण में हो गई, क्योंकि जनक ने देख लिया कि मैं पूरा का पूरा गलत था। इसे मैं फिर दोहराऊं कि या तो तुम पूरे गलत होते हो, या तुम पूरे सही होते हो; दोनों के बीच में कोई पडाव नहीं है। अहंकार को यह बात माननी बहुत कठिन है कि पूरा का पूरा गलत हूं। अहंकार कहता हैं, होऊंगा गलत, लेकिन कुछ तो सही होऊंगा। जिंदगी पूरी की पूरी गलत मेरी? मगर यहीं से क्रांति की शुरुआत होती है। एक बड़ी प्राचीन कथा है कि एक ब्राह्मण सदा लोगों को समझाता कि जो कुछ करता है परमात्मा करता है; हम तो साक्षी हैं, कर्ता नहीं। परमात्मा ने उसकी परीक्षा लेनी चाही। वह गाय बन कर उसकी बगिया में घुस गया और उसके सब वृक्ष उखाड़ डाले और फूल चर डाले और घास खराब कर दी और उसकी सारी बगिया उजाड़ डाली। जब वह ब्राह्मण अपनी पूजा—पाठ से उठ कर बाहर आया— पूजा—पाठ में वह यही कह रहा था कि तू ही है कर्ता, हम तो कुछ भी नहीं हैं, हम तो द्रष्टा—मात्र हैं— बाहर आया तो द्रष्टा वगैरह सब भूल गया। वह बगिया उजाड़ डाली थी; वह उसने बड़ी मेहनत से बनाई थी, उसका उसे बड़ा गौरव था। सम्राट भी उसके बगीचे को देखने आता था। उसके फूलों का कोई मुकाबला न था; सब प्रतियोगिताओं में जीतते थे। वह भूल ही गया सब पूजा—पाठ, सब साक्षी इत्यादि उसने उठाया एक डंडा और पीटना शुरू किया गाय को। उसने इतना पीटा कि वह गाय मर गई। तब वह थोड़ा घबड़ाया कि यह मैंने क्या कर दिया! गौ—हत्या ब्राह्मण कर दे? और ब्राह्मणों की जो संहिता है, मनुस्मृति, वह कहती है, यह तो महापाप है। इससे बड़ा तो कोई पाप ही नहीं है। गौ—हत्या! वह कंपने लगा। लेकिन तभी उसके शान ने उसे सहारा दिया। उसने कहा, ‘अरे नासमझ! सदा तू कहता रहा है कि हम तो साक्षी हैं, यह भी परमात्मा ने ही किया। कर्ता तो वही है। यह कोई हमने थोड़े ही किया। ‘ वह फिर सम्हल गया। गांव के लोग आ गए। वे कहने लगे, महाराज! ब्राह्मण महाराज, यह क्या कर डाला? उसने कहा, मैं करने वाला कौन! करने वाला तो परमात्मा है। उसी ने जो चाहा वह हुआ। गाय को मरना होगा, उसे मारना होगा। मैं तो निमित्त मात्र हूं। बात तो बड़े ज्ञान की थी। ज्ञान की ओट में छिप गया अहंकार। ज्ञान की ओट में छिपा लिया उसने अपने सारे पाप को। कोई इसका खंडन भी न कर सका। लोगों ने कहा, ब्राह्मण देवता पहले से ही समझाते रहे हैं कि यह सब साक्षी है; तब यह भी बात ठीक ही है, वे क्या कर सकते हैं जी: परमात्मा दूसरे दिन फिर आया, तब वह एक भिखारी ब्राह्मण की तरह आया। उसने आ कर कहा कि अरे, बड़ा सुंदर बगीचा है तुम्हारा! बड़े सुंदर फूल खिले हैं। यह किसने लगाया? उस ब्राह्मण ने कहा, किसने लगाया? अरे, मैंने लगाया! वह उसे दिखाने लगा परमात्मा को ले जा ले जा कर—जो वृक्ष उसने लगाए थे, संवारे थे, जो बड़े सुंदर थे। और बार—बार परमात्मा उससे पूछने लगा, ब्राह्मण देवता, आपने ही लगाए? सच कहते हैं? वह बार—बार कहने लगा, ही, मैंने ही लगाए हैं। और कौन लगाने वाला है? अरे और कौन है लगाने वाला ई मैं ही हूं लगाने वाला। यह मेरा बगीचा है। विदा जब होने लगा वह ब्राह्मण—छिपा हुआ परमात्मा—तो उसने कहा, ब्राह्मण—देवता, एक बात कहनी है मीठा—मीठा गप्प, कडुवा—कडुवा यू! उसने कहा, मतलब? ब्राह्मण ने पूछा, तुम्हारा मतलब? मीठा—मीठा गप्प, कडुवा—कडुवा यू! उसने कहा, अब तुम सोच लेना। गाय मारी तो परमात्मा ने, तुम साक्षी थे, और वृक्ष लगाए तुमने! परमात्मा साक्षी है!