अष्टावक्र महागीता / ओशो / प्रवचन–158
विश्राम में ध्यान और समाधि है
सुधारवादी मत बनना। सुधारवादी से ज्यादा से ज्यादा तुम सज्जन बन सकते हो। मैं तुम्हें क्रांतिकारी बनाना चाहता हूं। क्रांति तुम्हारे जीवन में संतत्व को लाएगी। तुम्हारे जो संत हैं वे सज्जन से ज्यादा नहीं हैं। वास्तविक संत तो परम विद्रोही होता है। विद्रोह—स्वयं के ही अतीत से। विद्रोह— अपने ही समस्त अतीत से। वह अपने को विच्छिन्न कर लेता है। वह तोड़ देता है सातत्य। वह कहता है, मेरा कोई नाता नहीं उस अतीत से; वह पूरा का पूरा गलत था; मैं सोया था अब तक, अब मैं जागा। जब तुम सोए थे, तब तुम सोए थे, तब सब गलत था। ऐसा थोड़े ही है कि सपने में कुछ चीजें सही थीं और कुछ चीजें गलत थीं, सपने में सभी चीजें सपना थीं। ऐसा थोड़े ही है कि सपने में से कुछ चीजें तुम बचा कर ले आओगे और कुछ चीजें खो जाएंगी। सपना पूरा का पूरा गलत है। अहंकार एक मूर्च्छा है, एक सपना है। उसे तुम पूरा ही गलत देखना। यद्यपि अहंकार कोशिश करेगा कि कुछ तो बचा लो, एकदम गलत नहीं हूं कई चीजें अच्छी हैं। अगर तुमने कुछ भी बचाया अहंकार से, अहंकार पूरा बच जाएगा। अगर सपने में से तुमने कुछ भी बचा लिया और तुम्हें लगता रहा कि यह सच है तो पूरा सपना बच जाएगा। क्योंकि जिसको सपने में अभी सच दिखाई पड़ रहा है, वह अभी जागा नहीं। इसलिए मैं जोर दे कर बार—बार कहता हूं. तुम पूरे गलत हो। इससे तुम्हें बेचैनी होती है। तुम मुझसे कभी नाराज भी हो जाते हो कि पूरे गलत! ऐसा तो नहीं हो सकता कि हम बिलकुल ही गलत हों! तुम्हारे अहंकार को मैं कोई जगह बचने की नहीं देता। तुमसे कहता हूं तुम पूरे ही गलत हो। लेकिन इससे तुम उदास मत होना, क्योंकि इससे मैं एक और बात भी कह रहा है जो शायद तुम्हें सुनाई न पड़ रही हो, कि तुम चाहो तो पूरे के पूरे अभी सही हो सकते हो। उस आशा के दीप पर ध्यान दो। अगर पूरे गलत हो तो पूरे के पूरे सही हो सकते हो। अगर तुम थोड़े— थोड़े गलत हो, थोड़े— थोड़े सही हो—तो तुम थोड़े— थोड़े गलत और थोड़े — थोड़े सही ही रहोगे। तब तुम पूरे के पूरे सही न हो. सकोगे। तब तुम घसीटते रहोगे अपने अतीत को। तब तुम एक मिश्रित खिचड़ी रहोगे। और खिचड़ी होने में सुख नहीं। खिचड़ी होने में नर्क है। तुम शुद्ध हो। तुम एक रोशनी से भरो। और उस रोशनी से भरने के लिए इतना ही जानना जरूरी है कि तुमने अभी तक अपने को जो माना है, वह तुम नहीं हो। तुम कोई और हो। कोई अज्ञात तुम्हारे भीतर छिपा है। कोई अज्ञात कमल तुम्हारे भीतर खिलने को राजी है, जरा मुड़ो भीतर की तरफ! ‘जरा रुको, किसी छाया में बैठो। धूप में मत भागो! विश्राम! और उसी विश्राम में ध्यान और समाधि है।