अष्टावक्र महागीता / ओशो / प्रवचन–164
आखिरी प्रश्न...!
आखिरी प्रश्न : मैं स्त्रैण—चित्त का आदमी हूं, संकल्प बिलकुल नहीं है। क्या संकल्प का विकास करना जरूरी है? जरा भी जरूरी नहीं है। समर्पण पर्याप्त है। अपने चित्त को पहचानो। कुछ भी थोपना आवश्यक नहीं है। चित्त जैसा हो उसी चित्त के सहारे परमात्मा तक पहुंचो। परमात्मा तक स्त्रैण चित्त पहुंच जाते हैं, पुरुष—चित्त पहुंच जाते हैं। परमात्मा तक तुम जहा हो, वहीं से पहुंचने का उपाय है, बदलने की कोई जरूरत नहीं है। और बदलने की झंझट में तुम पड़ना मत, क्योंकि बदल तुम पाओगे न। अगर तुम्हारा चित्त भावपूर्ण है तो तुम लाख उपाय करो, तुम उसे संकल्प से न भर पाओगे। अगर तुम्हारा चित्त हृदय से भरा है तो तुम बुद्धि का आयोजन न कर पाओगे। जरूरत भी नहीं है। ऐसी उलझन में पड़ना भी मत। अन्यथा तुम जो हो, वह भी न रह पाओगे; और तुम जो होना चाहते हो वह तो तुम हो न सकोगे। गुलाब का फूल गुलाब के फूल की तरह ही चढ़ेगा प्रभु के चरणों में। कमल का फूल कमल के फूल की तरह चढ़ेगा। तुम जैसे हो वैसे ही स्वीकार हो। तुम जैसे हो वैसा ही प्रभु ने तुम्हैं बनाया। तुम जैसे हो वैसा ही प्रभु ने तुम्हें चाहा। तुम अन्यथा होने की चेष्टा में विकृत मत हो जाना, क्षत—विक्षत मत हो जाना।