अष्टावक्र महागीता / ओशो / प्रवचन–165
जीवन की एक मात्र दीनता: वासना
गुरु मात्र शिक्षक ही नहीं है, शास्ता भी है। शास्ता यानी वह, जो जीवन को एक अनुशासन दे, जीवन को शासन दे। जो मात्र शब्द दे, वह शिक्षक। जो शासन भी दे, वह शास्ता। अष्टावक्र शब्द दे कर ही संतुष्ट नहीं हो गए। शब्द देने के बाद जो पहला खतरा है, उस खतरे की तरफ इंगित है इन सूत्रों में। शब्द सुन कर गुरु के इस बात की बहुत संभावना है कि तुम शब्द से ऐसे अभिभूत हो जाओ कि तुम समझो सब हो गया; तुम शब्द को ही पकड़ लो और शब्द को ही सत्य मान लो। सदगुरु से निकले हुए शब्दों का बल है, ऊर्जा है। उस ऊर्जा और बल में तुम आविष्ट हो सकते हो, सम्मोहित हो सकते हो। तुम बिना ज्ञानी हुए ज्ञानी बन सकते हो—यही पहला खतरा है। शब्द ठीक मालूम पड़े, तर्कयुक्त मालूम पड़े, बुद्धि प्रभावित हो, हृदय प्रफुल्लित हो जाए—तो ऐसी घड़ियां आ सकती है सत्संग में, जब जो तुम्हारा अनुभव नहीं है अभी, वह भी अनुभव जैसा मालूम होने लगे। तो गुरु परीक्षक भी है। वह तुम्हारी परीक्षा भी करेगा कि जो तुम कह रहे हो वह हुआ भी है या केवल सुनी हुई बात दोहरा रहे हो? मेरे पास बहुत लोग आते हैं। उनमें अनेक कृष्णमूर्ति के भक्त हैं। वे मुझसे आ कर कहते हैं कि हम वर्षों से सुनते हैं; जो सुनते हैं वह शत—प्रतिशत ठीक भी मालूम होता है, उसमें हमें कुछ संदेह नहीं है। जो कृष्णमूर्ति कहते हैं, उसे हमने समझ भी लिया है। हम नहीं समझे, ऐसा भी नहीं है। लेकिन फिर भी जीवन में कोई क्रांति नहीं घटती। बौद्धिक रूप से सब समझ में आ गया है। बुद्धि भर गई है, लेकिन आत्मा रिक्त की रिक्त रह गई है। ऊपर—ऊपर सब जान लिया और भीतर— भीतर हम वैसे के वैसे हैं; भीतर कोई घटना नहीं घटी। अछूते के अछूते रह गए हैं। वर्षा हो गयी है, घड़ा खाली रह गया है। बड़ी अड़चन में पड़ जाता है व्यक्ति, जब उसे बौद्धिक रूप से सब समझ में आ जाता है और अस्तित्वगत कोई समानांतर घटना नहीं घटती। तुम्हें उसकी दुविधा का अंदाज नहीं। उसे दिखाई पड़ता है कि दरवाजा कहा है, लेकिन निकलता दीवाल से है। जिसको दरवाजा नहीं दिखाई पड़ता, वह भी दीवाल से निकलता है; लेकिन उसे दरवाजा दिखाई ही नहीं पड़ता, इसलिए शिकायत किससे? जिस आदमी को खयाल है कि मुझे दरवाजा दिखाई पड़ता है, समझ आ गया है कि कहां है, लेकिन फिर भी मैं दीवाल से सिर तोड़ता हूँ—तुम उसकी पीड़ा समझो। जब भी उसका सिर टूटता है, वह महाविषाद से भर जाता है कि मुझे मालूम तो है कि ठीक क्या है, फिर मैं गलत क्यों करता हूं? मुझे मालूम तो है कि कहां जाना चाहिए, फिर मैं विपरीत क्यों जाता हूं? सब मालूम है उसे और कुछ भी मालूम नहीं। तो उसके भीतर सीखने की क्षमता भी खो जाती है। उसमें शिष्यत्व का भाव भी खो जाता है, क्योंकि उसे मालूम तो सब है; अब सीखने को और क्या है? उसकी विनम्रता भी खो जाती है। और भीतर की पीड़ा सघन होती चली जाती है। उसमें कोई अंतर पड़ता नहीं।