अष्टावक्र महागीता / ओशो / प्रवचन–166
जीवन की एक मात्र दीनता: वासना
मैंने सुना है, स्वामी रामतीर्थ एक छोटी—सी कहानी कहा करते थे। वे कहते थे, कल्प—गंगा के किनारे, स्वर्ग की गंगा के किनारे, ज्ञान और मोह एक सुबह आ कर रुके। गंगा ने कहा, भले आए स्वागत! लो डुबकी मुझमें, तुम्हें पवित्र कर दूंगी। उतरो मुझमें। नहा लो। तुम नए हो जाओगे। तुम्हें फिर कुंआरा कर दूंगी। सारी धूल पोंछ डालूंगी। ज्ञान तो अकड़ा खड़ा रहा, क्योंकि ज्ञान ने कहा : तू और मुझे शुद्ध करेगी? उसे तो इस बात पर भरोसा न आया। और झुकने की क्षमता वह खो चुका था, समर्पण की कला खो चुका था, शिष्य होना भूल चुका था। किसी दूसरे कुछ हो सकता है, यह बात ही भूल चुका था। ज्ञान की अकड़ आ गई थी कि मैं सब स्वयं कर लूंगा, किस गंगा की जरूरत है? किस तीर्थ की जरूरत? किस गुरु की जरूरत? किसी की कोई जरूरत नहीं है। वह तो मुस्कुराया। वह तो गंगा के इस बेहूदे आमंत्रण पर मुस्कुराया। लेकिन मोह तो मोह है— मोहाविष्ट हो गया। मोह को तो बात लुभा गई। लोभ के कारण वह तो उतर गया। गंगा ने उसे नहला दिया। वह शुद्ध हो गया। वह पवित्र हो गया। वह निर्दोष हो गया। वह बाहर तो देवताओं ने उसकी स्तुति की, आरती की; क्योंकि मोह अब प्रेम हो चुका था। नहा लिया था गंगा में, झुक गया था। मोह अब प्रेम हो चुका था। मोह ही तो शुद्ध हो कर प्रेम हो जाता है। प्रेम ही की तो आखिरी ऊंचाई प्रार्थना है। और प्रार्थना का ही आखिरी पड़ाव तो परमात्मा है। लेकिन ज्ञान तो अपने रास्ते पर जा चुका था—अकड़ा हु, अपनी धूल—’ सम्हाले हुए, खोपड़ी भरी और मजबूत और भारी, और हृदय बिलकुल सूखा और रिक्त.. अष्टावक्र सुन कर जनक की बातें इन सूत्रों में पहला सवाल उठाते हैं कि जनक, ऐसा तुझे हुआ है? या बातों में उलझ गया? या मेरी बातों आ गया? वे जगह—जगह से उसे ठोंकते हैं। पहला सूत्र अष्टावक्र ने कहा, ‘आत्मा को तत्वत: एक और अविनाशी जान कर भी क्या तुझ आत्मज्ञानी धीर को धन कमाने में अभी भी रुचि है?’ क्योंकि जनक ने कोई —महल तो छोड़ा नहीं। जनक ने कोई धन का त्याग तो किया नहीं। जनक जैसा है वैसा का वैसा है। एक प्रश्न अष्टावक्र उठाते हैं। जब शिष्य प्रश्न उठाता है तो अज्ञान से उठता है; जब गुरु प्रश्न उठाता है तो ज्ञान से उठता है। शिष्य के प्रश्नों के उत्तर देने बड़े आसान हैं; गुरु के प्रश्नों के उत्तर तो केवल जीवन से दिए जा सकते हैं, और तो कोई उपाय नहीं। अविनाशिनमात्मानमेक विज्ञाय तत्वत:। —तत्व घोषणा कर रहा है कि एक है अविनाशी, एक है आत्मा? अद्वैत की तू तत्वत: धोषणा कर रहा हूं?