अष्‍टावक्र महागीता / ओशो / प्रवचन–170

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स्वयं परमात्मा सपने में खो गया

जैन शास्त्रों में एक और कथा है, अमरावती के श्रेष्ठि सुमेद की। सुमेद के पिता की मृत्यु हुई। वह अमरावती का सबसे बड़ा धनी व्यक्ति था। पिता के मर जाने पर अंत्येष्टि क्रिया और सारे परिजनों-प्रियजनों के विदा हो जाने पर, जो बड़ा मुनीम था, बूढ़ा मुनीम था, वह आया। उसने सारा हिसाब-किताब सुमेद के सामने रखा। कितनी उनकी कोठियां हैं सारे देश में, किस कोठी में कितना धन संलग्न है, कितने उनके व्यवसाय हैं, किस व्यवसाय में कितना धन लगा है, कितनी उनकी तिजोरियां हैं- कहा कि आप आएं, तलघर में चलें तो मैं सारी चाबियां आपको सौंप दूं और आप के पिता मुझे सब सौंप गए हैं, अब आप मालिक हैं। सुमेद उठा। उसने सारे खाते-बही देखे। करोड़ों रुपए की संपत्ति थी। उसने जा कर सारी तिजोरियां देखीं। उनमें बहुमूल्य रत्न भरे थे, अरबों-खरबों की संपत्ति थी। उसने यह सब देखा। लेकिन मुनीम बड़ा हैरान हुआ। वह देख तो रहा था, लेकिन जैसे कहीं बहुत दूर से, पास नहीं था, लोलुप नहीं था। और देखते-देखते उसकी आंखों में आंसू आने लगे। और मुनीम ने पूछा कि मैं समझा नहीं। आप रो रहे हैं! आप इस वक्त पृथ्वी के सबसे धनी लोगों में एक हैं। पिता के जाने पर अब आप मालिक हैं। ये आपके पुरखों की संपदा है। इसको हरेक पीढ़ी बढ़ाती चली गई है, इसमें से घटा कभी भी नहीं है। आप प्रसन्न हों। सुमेद ने पूछा, मुझे एक बात पूछनी है। मेरे पिता के पिता मरे, वे भी इसे न ले जा सके। मेरे पिता भी मर गए, वे भी इसे न ले जा सके। और मैं तुमसे कहता हूं कि मैं इसे ले जाना चाहता हूं? तुम कोई तरकीब खोजो। तुम कहते हो, पीढ़ियों से चली आयी है! इसका मतलब साफ है. लोग मरते रहे और सब यहीं छूटता गया। अब मैं यह नहीं करना चाहता कि मैं मरूं और सब यहीं छूट जाए। क्योंकि जो यहीं छूट जाए, उसमें सार क्या? ले जाऊंगा सब साथ। या तो तुम खोज कर कल सुबह तक मुझे खबर कर दो या मैं खोज लूंगा। लेकिन अब मुझे चैन नहीं, क्योंकि किसी भी क्षण मौत आ सकती है। फिर ये चाबियां किसी और के हाथ में होंगी। फिर तुम किसी और को दिखाओगे, मेरे बेटे को दिखाओगे। लेकिन न मैं ले जा सकूंगा न मेरा बेटा ले जा सकेगा। नहीं, मैं यह हिसाब खत्म ही करना चाहता हूं। मैं यह सब साथ ही ले जाना चाहता हूं। मुनीम ने कहा, यह तो कभी हुआ नहीं और हो भी नहीं सकता। कोई इसे कभी ले नहीं गया। सुमेद ने कहा, मैंने तरकीब खोज ली। उसने उसी क्षण सारी संपत्ति दान कर दी। वह संन्यस्त हो. गया। उसने कहा, मैंने तरकीब खोज ली। मैं इसे साथ ले जाऊंगा! यह कह कर उसने सब छोड़ दिया और संन्यस्त हो गया। एक क्रांति घटती है, जब बाहर का तुम छोड़ते हो, भीतर का उसी क्षण मिल जाता है। लोगों ने तो एक ही बात देखी कि उसने बाहर की संपत्ति छोड़ दी, तुम्हें मैं दूसरी बात में जगाना चाहता हूं-उसने बाहर की संपत्ति यहां छोड़ी कि भीतर की संपत्ति वहां मिली। वह साथ ले कर गया। भीतर का ही साथ जाता है। बाहर में उलझे होने के कारण भीतर का दिखाई नहीं पड़ता। जब भीतर का दिखाई पड़ता है तो बाहर की पकड़ नहीं रह जाती। आश्चर्य! कहा अष्टावक्र ने। जैसे बार—बार जनक ने कहा आश्चर्य! कि परम ब्रह्म शाश्वत चैतन्य, और कैसे माया में भटक गया था. जैसे बार—बार जनक ने कहा कि आश्चर्य! कि मैं स्वयं परमात्मा और कैसे सपने में खो गया था! ऐसे ही अब बार—बार अष्टावक्र कहते हैं। ‘आश्चर्य! कि जैसे सीपी के अज्ञान चांदी की भ्रांति में लोभ पैदा होता है, वैसे ही आत्मा के अज्ञान से विषय— भ्रम के होने पर राग पैदा होता है। ‘