अष्‍टावक्र महागीता / ओशो / प्रवचन–171

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वही मेरी जीविका है

ऐसा सुलतान महमूद के जीवन में उल्लेख है कि वह रोज रात अपने घोड़े पर सवार हो कर निकलता था गांव में देखने—कहां क्या हो रहा है, कैसी व्यवस्था चल रही है? छिपे वेष में। वह रोज रात एक आदमी को देखता था—नदी के किनारे, रेत को छानते। उसने एक—दो दफा पूछा भी कि तू क्या करता है आधी—आधी रात तक? उसने कहा, मैं रेत छानता हूं इसमें कभी—कभी चांदी के कण मिल जाते हैं। उनको मैं इकट्ठा करता हूं। वही मेरी जीविका है। ऐसा अनेक रातों देख कर एक दिन महमूद को लगा कि बेचारा मेहनत तो बड़ी करता है, मिलता कुछ खाक नहीं। तो उसने अपना भुज—बंध, जो लाखों रुपये का रहा होगा, निकाल कर चुपचाप रेत में फेंक दिया और चल पड़ा। उस रेत छांनने वाले ने तो देखा भी नहीं। लेकिन थोड़ी देर बाद खोजने पर उसे मिल गया भुज—बंध। दूसरे दिन फिर महमूद रात आया। उसने सोचा कि आज तो वह रेत छांनने वाला नहीं होगा वहा। लेकिन वह फिर रेत छान रहा था। महमूद हैरान ने मुझे खबर दे दी है कि जो भुज—बंध मैं फेंक गया था। वह तुझे मिल गया है। तू उसे बाजार में बेच भी चूका है। वह भी खबर आ चुकी है। मैं सुलतान महमूद हू! भुज—बंध लाखों रुपये का था। तेरे जीवन के लिए और तेरे बच्चों जीवन के लिए पर्याप्त हैक्स। अब तू किस लिए छान रहा है रेत? उसने कहा मालिक : इसी रेत के छांनने मे भुज—बध मिला; अब तो चाहे कुछ भी हो जाए मैं छांनना छोड़ नहीं सकता। अब तो छानता ही रहूंगा। अब तो यह जिंदगी है और मैं हूं और यह रेत है। जहां ऐसी—ऐसी चीजें मिल सकती हैं—भुज—बंध मिल गया! अब इसको मैं रोक नहीं सकता। महमूद ने अपनी आत्मकथा में लिखवाया है कि उसके तर्क में तो बल है; लेकिन हम इस संसार में क्या खोज रहे हैं जहां किसी को कभी कुछ नहीं मिला? फिर भी रेत छान रहे हैं। कुछ मिला किसी को कभी? कहते हैं, आश्चर्य कि जैसे सीपी के अज्ञान से चांदी की भ्रांति में लोभ पैदा होता है, वैसे ही आत्मा के अज्ञान से विषय—भ्रम के होने पर राग पैदा होता है। हे जनक, कहीं तेरे भीतर राग तो नहीं बचा है? कहीं थोड़ा—सा भी मोह तो नहीं बचा, लोभ तो नहीं बचा है? यह तुम्हें याद दिला दूं। तुमने बहुत बार सुना है कि लोभ छोड़ो, मोह छोड़ो, राग छोड़ो, क्रोध छोड़ो तो आत्मज्ञान होगा। हालत बिलकुल उल्टी है। आत्मज्ञान हो तो राग, मोह, लोभ, क्रोध छूटता है, वह परिणाम है। अंधेरे को थोड़े ही छोड़ना पड़ता है प्रकाश को लाने के लिए; प्रकाश लाना पड़ता है, अधेंरा छटता है। इसलिए अष्टावक्र यह प्रश्न पूछ रहे हैं। वे कह रहे हैं, आत्मज्ञान हो गया जनक? तेरी उदघोषणा से लगता है आत्मज्ञान हो गया। अब मैं तुझसे पूछता हूं जरा खोज, कहीं राग तो नहीं? अभी भी कहीं पुराने भ्रम पकड़े तो नहीं हैं?