असार (भाग 2) / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

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अनुभा के पहले दिन की ये अनुभूतियाँ बड़ी ही कटुता तथा माधुर्य का सम्मिश्रण थी। पहले तो वह अपने माँ-पिता और भाई की दुरावस्था देखकर दुःखी हुई। दूसरी तरफ माँ को जिन्दा देखकर वह मन ही मन खुश भी थी। मुम्बई में रहते समय वह सोच रही थी कि वह शायद ही माँ को देख पाएगी। परन्तु ऐसी कोई अघटनीय घटना नहीं घटी थी। घर पहुँचने पर उसने देखा कि माँ ने कोई बिस्तर नहीं पकड़ा था। केवल दिमागी हालत खराब होने से वह उल्टी- पुल्टी हरकते कर रही थी। उसे लग रहा था कि माँ इस अवस्था में भी आराम से कम से कम दो-तीन साल जी पाएगी।

जबकि दूसरे दिन अचानक एक दुर्घटना घटित हुई। दोपहर के समय जब भैया ऑफिस से लौटकर घर पहुंचे और माँ को साफ करने लगे उस समय अनुभा उनकी मदद कर रही थी। मई महीने की प्रचंड गर्मी से शायद माँ को कष्ट हो रहा होगा, सोचकर अनुभा कहने लगी "भैया माँ को थोड़ा पकड़िए तो अच्छी तरह नहला देते हैं।"

दोनो मिलकर माँ को नहला ही रहे थे कि हठात् माँ मिट्टी के लोंदे की भाँति जमीन पर गिर पड़ी। भले ही माँ का अस्थि पञ्जर दिखने पर भी पहले माँ सीधी होकर खड़ी हो पा रही थी, चल पा रही थी, अपने आपको बचाने लायक उसके पास थोड़ी-बहुत ताकत भी थी। नहलाना अगर उसकी इच्छा के विपरीत होता तो वह जरुर विरोध करती, ऐसे मिट्टी के लोंदे की भाँति जमीन पर

गिर नहीं जाती। माँ का शरीर जोर-जोर से काँप रहा था। भैया उनको उठाकर बाहर ले गए तथा सूखे वस्त्र पहना दिए। देखते-देखते शाम को माँ को बुखार आ गया। तीन दिन तक तेज बुखार उतरा नहीं। सारा शरीर पीला पड़ना शुरु हो गया। डॉक्टर को घर में बुलाया गया। डॉक्टर ने सारी बातें सुनी, उनको देखा तथा अस्पताल में भर्ती करवाने को कहकर चले गए। अगर उन्हें अस्पताल में रखा गया तो ठीक से देखभाल की जा सकेगी?

अनुभा को अस्पताल का नाम सुनते ही डर लगने लगा। माँ को अस्पताल में भर्ती कर देने के बाद पता नहीं क्यों अनुभा को असहाय और एकाकी लग रहा था। मरीज घर में होने से बात कुछ अलग होती है लेकिन अगर उसे अस्पताल में भर्ती करवा दिया जाता है तो उसकी सेवा-सुश्रुषा करने के लिए अतिरिक्त आदमियों की आवश्यकता पड़ती है। चूँकि माँ की हालत गंभीर थी इसलिए डॉक्टर ने उसे अस्पताल में भर्ती करने के लिए कहा। उसे ऐसा लग रहा था मानो माँ को उसी का इन्तजार था। क्या अब माँ और बच नहीं पाएगी, दिल काँप उठा था अनुभा का। वह/घबराने लग गई थी। घबराकर उसने आस-पास शहरों में रहने वाले भाई-बहनों को फोन कर दिया था। जब वे सभी घर आ गए तो घर में भीड़ हो गई। पूरा दिन सभी माँ को घेरकर बैठ जाते थे लेकिन जैसे ही रात होती थी, उन सभी का कुछ न कुछ काम निकल जाता था। भाई के अलावा कोई भी सच्चे मन से रात को अस्पताल में रहना नहीं चाहता था। यहाँ तक कि अनुभा भी नहीं। इधर डॉक्टर भी समझ नहीं पा रहे थे कि माँ की बीमारी की असली जड़ क्या है? आठ दिन से माँ ने कुछ भी नहीं खाया, इस वजह से कहीं उसे डिहाइड्रेशन तो नहीं हो गया। शायद यही सोचकर डॉक्टर ने यह नली लगाई थी। नली की मदद से सलाइन के अतिरिक्त तरल खाना भी दिया जाता था। इतना होने के बाद भी माँ उठकर नहीं बैठ पाई। उसके खून में हिमोग्लोबिन का प्रतिशत छह तक रह गया था। खून की कमी देखकर डॉक्टर ने तीन बोतल खून चढ़ाने के लिए कहा। तीन बोतल खून का नाम सुनकर सभी सिहर उठे। ह्मदय ठीक काम रहा है, फेफड़े और किडनी भी ठीक है। तब खून की जरुरत क्यों? क्या डिहाइड्रेशन रोकने के लिए जो सलाइन माँ को चढ़ाया गया था, वह पर्याप्त नहीं है? वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिरकर माँ को डिहाइड्रेशन क्यों हुआ। सभी एक दूसरे पर आक्षेप लगा रहे थे. हो सकता है माँ की देखभाल ठीक से नहीं हुई, हो सकता है माँ के प्रति काफी लापरवाही बरती गई। कौन सुनना चाहेगा माँ की गाली-गलौज? कौन सहन करना चाहेगा माँ का धक्का-मुक्का और पागलपन? लोग कह रहे थे, अगर समय रहते माँ को अस्पताल लाया जाता तो शायद यह दुर्गति नहीं होती। ऐसे ही तर्क-वितर्क, एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में समय बीता जा रहा था। भैया का ब्लड ग्रुप माँ के ब्लड ग्रुप के साथ मेल खा रहा था, इसलिए पहले-पहल खून भैया ने दिया। माँ के हाथ की बारीक शिराओं में बार-बार सूई लगाकर नर्स ने लहलुहान कर दिया तब भी सही शिरा पकड़ में नहीं आई थी। इस काम के लिए भी मेडिकल स्टॉफ की खूब खुशामद करनी पड़ी थी। वे लोग कह रहे थे आपको मरीज को सामान्य वार्ड में रखना था। वहाँ क्यों नहीं रखा?केबिन में हमारी कोई ड्यूटी नहीं है। यहाँ नर्सिंग स्टॉफ बहुत कम हैं इसलिए केबिन में किसी को भी ड्यूटी नहीं दी जाती है। अगर मैं अभी ब्लड की बोतल चढ़ाकर चली जाती हूँ तो दूसरी पारी में मेरी ड्यूटी नहीं है और दूसरी पारी का चार्ज केवल एक दीदी के पास रहता है। वह अकेली दीदी वार्ड देखेगी या केबिन में दोड़ती रहेगी? उस नर्स को शान्त करने के लिए भैया ने छोनापुड़ और कोल्ड-ड्रिंक मँगवाया था. तब कहीं नर्स का पारा कुछ कम हुआ। अनुभा इच्छा नहीं होते हुए भी नर्स की ओर देखकर हँसने लगी। नर्स हँसते हुए कह रही थी " देखिए न मौसी के शरीर में केवल

हाड़-माँस ही बचा है। सुई लगाऊँ तो कहाँ लगाऊँ? थोड़ा आप सभी उनकी तरफ देखिए कहीं हाथ इधर-उधर न हिलाएँ। बोतल पूरी होने से कुछ समयपहले ड्यूटी रूम से दीदी को बुला लेना।"

ठीक उसी समय डॉक्टर साहब ने केबिन के अन्दर प्रवेश किया। अनुभा उनके सम्मान में कुर्सी से उठकर खड़ी हो गई "खून चढ़ा दिया है? ठीक है, ठीक है ।"

बस इतना कहते हुए डॉक्टर बाहर निकल गए। धीरे-धीरे माँ के पास परिजनों का तांता लगने लगा था। मगर भाई-बहनो में से कोई-कोई तो अपना अत्यावश्यक काम दिखाकर उसी दिन वापस अपने घरो को लौट चले थे। भैया अभी भी माँ के ठीक होने की उम्मीद करने लगे थे कि खून की तीन बोतले चढ़ने के बाद माँ अवश्य ठीक हो जाएगी, वह उठकर एक कमरे से दूसरे कमरे में घूम-पिर सकेगी। वह अपने आप फिर से बड़बड़ाने लगेगी।

खून की दूसरी बोतल के लिए अनुभा की छोटी बहन का नाम सामने आया था। दो-तीन दिनो के बाद दूसरी बोतल चढ़ाना था। सात भाई बहनो में से आधे अपने-अपने घर कौ लौट जाने के कारण अनुभा को क्रोध पैदा हो रहा था। वह सोच रही थी कि सारे के सारे स्वार्थी हैं। बिना कुछ काम-काज किए अपने-अपने काम में व्यस्त हो गए। क्या मेरा कोई घरबार नहीं है? दो साल के बाद तो घर आई थी तो इसका मतलब ये नहीं है कि सारा का सारा भार मेरे कन्धों पर लाद दिया जाए। उसका मन इस कदर खट्टा हो गया था कि रात को अस्पताल में रहने की बात उठते ही उसने साफ-साफ मना कर दिया।

लेकिन भैया बिना किसी का इन्तजार किए निर्विकार भाव से अस्पताल की ओर चल दिए। उस समय तक चार दिन हो चुके थे, भैया को बिना सोए हुए। भैया की यह हालत देखकर अनुभा के मन में दया-भाव जाग उठा। इधर भाभी भैया से कह रही थी "चलिए आज हम दोनो अस्पताल में रात गुजारेंगे। आप अकेले और कितने दिनो तक जागते रहेंगे. आपका छोटा भाई सोनू माँ को देखने के लिए मेहमान की तरह आया और चला गया अपने बाल-बच्चों के साथ। अपनी नौकरी वाली जगह पर. हम लोग तो हैं न, चलिए। मैं जागूंगी तो आप थोड़ा विश्राम कर लीजियेगा।"

मगर भाभी की बातें सुनकर अनुभा आश्वस्त नहीं हुई। एक बार अनुभा ने दिन के समय देखा था कि अस्पताल में भाभी माँ के दोनो हाथों को एक साड़ी से बाँधकर दीवार के सहारे सो रही थी। उस दिन से अनुभा का भाभी पर से विश्वास उठ गया था। उसे ठीक उसी तरह लगा जैसे कि वह अमानवीय ढंग से माँ को घर में बंद करके रखती थी। बहुत सारे ऐसे मरीज अस्पताल में आते हैं जिन्हें सलाइन भी चढ़ता है और खून भी। मगर कोई उन मरीजों को हाथ-पैर बाँधकर तो नहीं रखता!

रात दस बजे के आस-पास खाना खा लेने के बाद अनुभा अपने भाई के साथ अस्पताल की ओर निकल पड़ी। उसके जाते समय भाभी ने ऊपरी मन से एकाध बार जरुर मना किया था। दोनो के अस्पताल पहुँचने के बाद वहाँ पहले से मौजूद छोटी बहन और अन्य परिजन घर लौट गए। भैया बाहर जाकर एक सादा गुट्खा और तीन-चार बबलगम खरीदकर ले आए और कहने लगे "पहले तुम सो जाओ रात को एक बजे के आस-पास मैं तुमको जगा दूँगा। तब उठकर तुम माँ की देख-भाल करना।"

मगर भैया ने उसे एक बजे नहीं उठाया बल्कि तीन बजे के आस-पास जगाया। हो सकता है अनुभा को गहरी नींद में सोता देख उन्हे दया आ गई हो। नींद से जागने के बाद अनुभा माँ के हाथ के ऊपर अपना हाथ रखकर प्लास्टिक कुर्सी में बैठ गई और अपने दोनो पैर माँ की खटिया के ऊपर

रख दिए ताकि उसे अपनी कमर दर्द में कुछ राहत मह्सूस हो। बैठे-बैठे पता नहीं कब उसे नींद लग गई। उसी दौरान माँ ने उसके नाक में लगी हुई नली को खींचकर बाहर निकाल दिया। यह देखकर वह चिन्ता में पड़ गई। अभी सवेरा होने वाला है, घर से कोई न कोई यहाँ आएगा और माँ की खुली नली को देखकर दोषारोप सीधा उसी के ऊपर करेगा। वह कहेगा "माँ की सही देख -भाल के लिए आप लोग अस्पताल में आए थे कि सोने के लिए?"

अनुभा ने देखा, भैया आँखो के ऊपर हाथ रखकर गहरी नींद में सो गए थे। भैया को क्या कहेगी अनुभा? भैया उसको क्या सुनाएंगे? कहेंगे अगर नींद लग रही थी तो उन्हें जगा देना चाहिए था। इधर नर्स भी व्यर्थ में आकर इस पर चिल्लाने लगेगी। यही सोचकर अनुभा ने भैया को नहीं उठाया। अगर वह भैया को उठाती तो वह क्या कर लेते। जो कुछ भी होगा डॉक्टर के आने के बाद ही तो होगा । सवेरे- सवेरे अस्पताल के आस-पास गाड़ी, मोटर, लोगों की आवाज से भैया की नींद खुली। जैसे ही वह नींद से उठे अनुभा कहने लगी "ये देखिए तो भैया माँ ने नाक की नली खींचकर बाहर निकाल दी।"

अनुभा सोच रही थी कि भैया उसे गाली देंगे और गुस्सा होकर कहने लगेंगे कि एक अकेला आदमी कितना कर सकता है। मगर भैया हँस कर कहने लगे "क्या झपकी लग गई थी? ठीक है घबराने की कोई बात नहीं। डॉक्टर का इन्तजार करते हैं और आने के बाद फिर एक बार लगवा देंगे।"

उस दिन अनुभा अपने नित्य कर्म से निवृत होने के लिए घर नहीं गई। वह वहीं बैठकर डॉक्टर का इन्तजार करने लगी। मगर दुर्भाग्य से वही डॉक्टर न आकर कोई दूसरे नए डॉक्टर आए थे। यह डॉक्टर जब से माँ को भर्ती करवाया गया था तब से छुट्टी पर थे. सवेरे से ही भैया माँ की नली लगवा देने के लिए नर्स और डॉक्टर के आगे-पीछे घूम रहे थे। बार-बार उनके सामने अनुनय- विनय कर रहे थे पर किसी के पास समय नहीं था।

चिड़चिड़ाकर नर्स कहने लगी "धीरज रखिए, जो भी होगा वार्ड का राउंड खत्म होने के बाद होगा।"

वार्ड में सौ से ज्यादा मरीज भर्ती थे। इतने रोगियों को देखने से डॉक्टर को कब फुर्सत मिलेगी।

सुबह माँ को नली द्वारा खाना नहीं दिया जा सका। लगभग साढ़े ग्यारह बजे के आस-पास डॉक्टर केबिन में आए। पुरानी कहावत है कि बृषभ का क्रोध महादेव से ज्यादा होता है, ठीक उसी प्रकार नर्स नागिन की तरह फुंफकार रही थी। यद्यपि यह जान-पहचान वाली नर्स थी। फिर भी उसका व्यवहार पूरी तरह से रुक्ष था। विगत चार दिनो में भैया ने उसको आठ-दस कोल्ड-ड्रिंक पिला दिए थे, उसके बावजूद भी उसका मिजाज ठंडा नहीं हुआ। यह नया डॉक्टर भी अच्छे स्वभाव का नहीं था। वह संवेदनहीन था। पहले वाले डॉक्टर की तुलना में वह सीनियर था तथा उसकी खूब प्रैक्टिस चलती थी। छह महीने पहले यही डॉक्टर उनके घर भी आए थे माँ को देखने के लिए।

उस डॉक्टर के आने से पहले अस्पताल में माँ के कई स्वास्थ्य सम्बंधी परीक्षण हो रहा था। यह नया डॉक्टर भी अच्छे स्वभाव का नहीं था। वह संवेदनहीन था। पहले वाले डॉक्टर की तुलना में वह सीनियर था तथा उसकी खूब प्रैक्टिस चलती थी। छह महीने पहले यही डॉक्टर उनके घर भी आए थे माँ को देखने के लिए।

कई बार दवाइयाँ बदली गई थी । उस वजह से मेडिकल रिपोर्ट का ढेर जमा हो गया था। इस डॉक्टर साहब ने सारी रिपोर्टों को नीचे फेंक दिया और कहने लगे " बताएँ क्या बीमारी है?"

भैया बतलाने लगे "दो साल से माँ की दिमागी हालत ठीक नहीं है। वह किसी को भी पहचान नहीं पा रही है। कभी दिन भर खाती रहती है तो कभी आठ-दस दिन तक मुँह में एक दाना भी नहीं डालती है। चार दिन पहले माँ को बुखार आ गया और वह धड़ाम से नीचे गिर पड़ी। उसके बाद वह खड़ी नहीं हो पाई।"

भैया विस्तार पूर्वक डॉक्टर को माँ के बारे में बताते जा रहे थे तभी डॉक्टर ने बीच में उनको रोका और पूछने लगे "स्मृति विभ्रम के लिए क्या-क्या दवाई दी जा रही है?"

भैया कहने लगे "आप को पूछकर माँ को एक बार नींद की कुछ दवाइयाँ दी थी। उसके बाद और उनको कहीं नहीं दिखाया।"

"अच्छा।"

"सर, माँ ने नाक वाली नली बाहर निकाल दी है। कृपया उसको लगवा देते।"

"सर्जरी डॉक्टर को कहिए।" कहकर डॉक्टर वहाँ से बाहर निकल गए। सुबह से ही डाक्टरों के पीछे भागते-भागते भैया थक चुके थे और काम नहीं होने की वजह से वे दुःखी हो गए थे। बारह बज चुके थे मगर माँ के पेट में हॉरलिक्स मिले दूध की दो बूँदे भी नहीं जा पाई थीं। अनुभा अपने आप को दोषी मान रही थी। भैया से आखिरकर रहा नहीं गया, वे अपने पुराने डॉक्टर के घर जाकर किसी तरह मनाकर केबिन में ले आए थे। डॉक्टर ने नली को लगा दिया और कहने लगे कल एक और बोतल खून चढ़वा दीजिए। डॉक्टर अनुभा की तरफ देखकर पूछने लगे "मुझे लगता है आपकी माँ का चेहरा पहले से थोड़ा अच्छा लग रहा है।"

यही देखने के लिए मैंने बहुत देर तक मेडिकल किताबों का अध्ययन किया।"

कोल्डड्रिंक पीते हुए डॉक्टर ने कहा ।शायद आज उनका मूड ठीक लग रहा था। मेडिकल रिपोर्टों को अपने हाथ से पलटते हुए कहना जारी रखा "ट्रीटमेंट चलते हुए एक सप्ताह हो गया है इसलिए इस इंजेक्शन को और देने की जरुरत नहीं है। अच्छा एक काम कर लीजिए। खून की एक बोतल और चढ़वा दीजि॥ फिर देखते हैं आगे क्या करना है।"

माँ की दिमागी हालत के बारे में उन्होंने कुछ भी नहीं बताया और भैया की तरफ देखकर केबिन से बाहर चले गए।

आठ दिन हो गए थे भैया को ऑफिस से छुट्टी लिए हुए। अकेले सारी दौड़-धूप कर रहे थे। उनकी छुट्टी का समय भी बीता जा रहा था। माँ की तबियत में कोई सुधार परिलक्षित न होता देख ऐसा लग रहा था मानो समय भी वहाँ आकर रुक गया हो। अच्छे-अच्छे डॉक्टर भी किसी भी नतीजे पर नहीं पहुँच पा रहे थे। इधर अनुभा का मुम्बई लौट जाने का समय नजदीक आ गया था। बच्चों का स्कूल खुलने वाला था और वहाँ रुकना उसके लिए सम्भव नही था। तीन टिकट पहले से बने हुए था। अब वह और इन्तजार नहीं कर सकती थी मगर फिर भी उसके मन में एक जिज्ञासा इस बात को लेकर बनी हुई थी कि ऐसे क्या कारण हो सकते हैं कि डॉक्टर ने खून की एक और बोतल चढ़ाने का परामर्श दिया। अब यह खून और कौन देगा. क्या दीदी को फिर बुलाया जाए। उसका ब्लडग्रुप माँ के ग्रुप से मेल खाता था । अनुभा के शरीर में तो पिताजी के ग्रुप का खून था। पहली दो बोतल बोतले तो भैया और छोटी बहन ने दे दी थी इसलिए इस तरफ सोचने की कोई जरुरत ही नहीं पड़ी मगर तीसरी बोतल? इसके लिए भैया अस्पताल के रक्त बैंक में भी गए थे मगर उन्हें निराशा हाथ लगी। तभी अनुभा को चार दिन पूर्व मनु भाई के साथ हुई बातचीत याद आ गई। वह कह रह थे कि खून की व्यवस्था आराम से हो जाएगी क्योंकि वह रोटरी क्लब के एक वरिष्ठ सदस्य है। कहीं न कहीं से व्यवस्था हो ही जाएगी. अनुभा छोटी बहन को साथ लेकर उनके घर गई तथा सारी बातें बता आई । सब बातें सुनने के बाद मनु भाई अपने वचन से पलट गए और कहने लगे "अरे !इतनी जल्दी ब्लड कैसे मिल पाएगा? मैं दे देता लेकिन अभी-अभी अट्ठारह बार दे चुका हूँ। ठीक है, देखते हैं। अब घर आई हो तो कुछ व्यवस्था तो करनी ही पड़ेगी।"

"मैंने तो आप को चार दिन पहले से बोल कर रखा था। कल तो जरुरत है। और अब कब मिलेगा?"

"नहीं, नहीं जुगाड़ नहीं हो पाया था।" मनुभाई ने टी.वी. देखते-देखते उत्तर दिया। अनुभा की समझ में आ गया कि मनु भाई और कुछ भी नहीं करने वाले हैं। जब वह लौटकर आ रही थी तभी उसकी मुलाकात मनु भाई के बड़े भाई बुनु से हो गई। अनुभा ने उनको भी ब्लड की जरुरत के बारे में बताया तथा उनके ब्लड ग्रुप के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की। बुनु भाई कहने लगे "मेरा ब्लड ग्रुप ए पोजिटिव

है।"

यह सुनकर अनुभा के मन में आशा की एक नई किरण जागी और कहने लगी माँ का भी ए पोजिटिव है। डॉक्टर चाह रहे हैं कि एक और बोलत खून दे दिया जाय। क्या आप.....?"

घबराकर बुनु भाई तोतले स्वर मे बोले "मैं दे देता, मगर मेरा खून किसी काम का नहीं है। मेरी उम्र पचास से ज्यादा हो गई है। और इस उम्र में सारा खून तो पानी हो जाता है।"

बुनु भाई की बातों को अनसुना कर अनुभा अस्पताल लौट आई। छोटा भाई तो पहले से ही अपनी नौकरी पेशे वाली जगह पर चला गया था इसलिए उसके ब्लडग्रुप के बारे में तो कोई जानकारी ही नहीं रही. अनुभा को अपने अन्य भाई-बहनो के ब्लडग्रुप के बारे में पता नहीं था। अगर पता होता भी तो वह क्या कर लेती? पास में तो कोई भी न था । आखिर थक हारकर अनुभा ने घर में जाकर दोनो भाभियों को कहा "चलिए आप लोग भी अपना ब्लड ग्रुप चेक करवा लेते?"

दोनों में से किसी ने भी अनुभा की बात पर ध्यान नहीं दिया. पास में अनुभा का भतीजा भी खड़ा था वह अपनी माँ से कहने लगा "माँ आप लोग दादी को खून क्यों नहीं दे रहे हैं?"

उसकी माँ सीधे रसोई-घर में चली गई और वहाँ से कहने लगी "ऐ बेटा मेरा खून तो पानी हो गया।"

"मतलब?"

अनुभा अपनी हँसी को रोक नहीं पाई। "अगर खून पानी हो जाता तो आप ऐसे घूम फिर पाते?"

उससे पहले कि अनुभा छोटी भाभी को कुछ कहे, पहले वही कहने लगी "मेरे शरीर में तो खून की कमी है। डॉक्टर ने खून बढ़ाने के लिए

आयरन टॉनिक भी लिखे हैं।"

उस दिन अनुभा ने उस बात का अनुभव किया कि लोगों में रक्त दान के बारे में कितनी गलत धारणा है और डर ब्याप्त है। वह सोचने लगी शायद इंसान से ज्यादा और कोई स्वार्थी और संकीर्ण दिमाग वाला प्राणी इस धरती पर नहीं होगा। उसने तय किया कि वह अपने खून का विनिमय करके माँ के ग्रुप का खून अवश्य जुगाड़ करेगी। ब्लड बैंक में जाकर उस बाबत अपने पूर्व परिचित डॉक्टर और फार्मासिस्ट से सलाह लेने लगी। "ठीक है कोई आएगा तो हम आपको बता देंगे। फिर भी आप अपने स्तर पर प्रयास जारी रखिए। अगर कोई आपसे बी लेकर ए देना चाहे तो हमें बताइएगा।"

अनुभा निरुत्साहित होकर कहने लगी "इतने बड़े हास्पीटल में किस-किस से पूछूँगी, किसको जाकर बोलूँगी, बी पोजिटिव का खून लीजिए और ए पोजिटिव का खून दीजिए।"

"अरे ! आप अस्पताल में क्यों खोजेंगे। जाइए सामने वाली दो-चार दवाइयों की दुकान में खबर कर दीजिए। देखते-देखते एक घण्टे के भीतर खून की व्यवस्था हो जाएगी।"

भैया जाकर सामने की दो-चार दवाइयों की दुकानों में रक्त विनिमय के बारे में बताकर आ गए। वास्तव में आधा घण्टा भी नहीं बीता होगा कि एक आदमी केबिन में पहुँच गया और कहने लगा "सर, कौन बी पोजिटिव खून देंगे?"

"मैं" अनुभा चहककर कहने लगी "आपके पास ए पोजिटिव वाला खून है?"

पूछने के बाद अनुभा बड़ा संकुचित अनुभव कर रही थी कि यह कैसा व्यापार?

इस आदमी के माँ-बाप , बेटा या पत्नी किसी के जिन्दा रहने के लिए खून की जरुरत होगी ऐसे में सीधा बोलना शायद उचित नहीं था। व्यस्तता में आदमी ने उत्तर दिया "हाँ, ए पोजिटिव मिल जाएगा। हमारे पास एक आदमी है उसको लाने के लिए मैने अपनी जान-पहचान वाले को भेज दिया है।"

"वह आदमी खून देने के लिए राजी होगा?"

"हाँ मैडम। वह रिश्ते में मेरा साला लगता है। मेरी खातिर इतना नहीं करेगा।"

अनुभा मन ही मन हँस रही थी कि एक बोतल खून के लिए कहाँ-कहाँ खाक नही छानी। मगर अब आशा की इस नव किरण को देखकर वह आश्वस्त हो गई थी और बेचैनी से उस आदमी के आने का इन्तजार करने लगी, इसलिए दोपहर को वह खाना खाने के लिए अपने घर भी नहीं जा पाई। इधर बी पोजिटिव खून चाहने वाला आदमी बार-बार केबिन में आकर अनुभा को देखने लगता "मैडम, आप हैं न?"

"मैं तो हूँ पर आप का आदमी?"अनुभा कहने लगती।

"देख रहा हूँ मैडम अभी तक तो उसको आ जाना चाहिए था।"

अब तक भैया ब्लड-बैंक के दो-चार चक्कर काट चुके थे परन्तु वहाँ न ता कोई खून विनिमय करने के लिए आया था और न ही देने के लिए। लगभग तीन बजे अनुभा अपने घर जाकर कुछ खाना खाकर आ गई। मानो अन्तहीन हो गया था वह इन्तजार, दिन ढलकर शाम होने जा रही थी, फिर भी वह आदमी कहीं दिखाई नहीं दिया। अनुभा ने सोचा और ज्यादा इन्तजार करने में कोई लाभ नहीं है। अगर माँ के लिए खून नहीं भी मिलता है तो भी वह अपना खून उस आदमी को दे देगी। बेचारा कितनी आशाएँ लिए उसके पास दौड़ा/आया था। अनुभा भैया से कहने लगी "माँ के लिए खून की व्यवस्था नही होने पर भी मैं उस आदमी के लिए अपना खून देना चाहती हूँ। आप की क्या राय है?"

भैया शान्त लहजे में बोले "देगी?" शायद ऊपरवाले को अनुभा के उस त्याग प्रवृत्ति का ही इन्तजार था। जैसै ही उसने मन में स्वेच्छा से खून देने का निर्णय/किया वैसे ही वह आदमी अपने साथ खून देने के लिए अपने साले को लेकर पहुँच गया था। अनुभा खुश हो गई थी। जो भी हो, सारी समस्याओं का निदान हो गया। छोटी बहन को माँ के पास छोड़कर अनुभा भैया को साथ ब्लड-बैंक चली गई वहाँ उन दोनो के ब्लड क परीक्षण/किया गया। ङक्त फैक्टर और क्तक्ष्ज् टेस्ट भी किया गया तथा दोनो का वजन भी चेक किया गया। उसके बाद औपचारिक लिखा-पढ़ी व अन्य काम समाप्त होने के बाद कहीं अनुभा नर्वस न हो जाए इसलिए उसको खाने के लिए मिठाई और पीने के लिए दूध दिया गया। अनुभा हँस रही थी। वह मन ही मन सोच रही थी क्या उसको सूली पर चढ़ाया जा रहा है। भैया ने उसको बात मान लेने के लिए कहा, तभी छोटी बहन ने एक अन्जाने लड़के के हाथ में जल्दी आने के लिए यह खबर भेजी कि माँ की तबियत बहुत बिगड़ती जा रही है। भैया ने कहा ठीक है हम लोग पहुँच रहे है "पहले ब्लड वाला काम पूरा हो जाय।"

जैसे ही अनुभा के खून देने का काम पूरा हुआ वैसे ही दोनो बिना एक पल रुके दौड़ते हुए माँ के पास पहुँच गए। प्रतीक्षा करती निराश छोटी बहन उनको देखते ही कहने लगी "देखिए तो भैया, माँ अपनी कमर किस तरह से बार-बार ऊपर उठा रही है पता नहीं उसको क्या हो गया।"

"शायद पाखाना हुआ होगा।"

"नहीं, पाखाना नहीं हुआ है।"

"अच्छा ठीक है, डॉक्टर को बुलाते हैं।"

भैया ने धीरे से माँ को उठाकर बैठा दिया। उन्होंने देखा कि माँ की कमर के दोनो तरफ चमड़ी निकलकर लाल घाव हो गए। छोटी बहन डरते हुए कहने लगी "बेडसोर। यह तो उनकी पूरी पीठ में फैल जाएँगे। मेरी सास को भी बेडसोर हुए थे । मैं एक महीने तक खूब परेशान हुई थी।"

अनुभा को उस बारे में कोई जानकारी नहीं थी। वह घबराकर धम से कुर्सी पर बठ गई।

"तो फिर क्या किया जा सकता है? घाव देखने से ही डर लग रहा है। कैसे ठीक होंगे?"

"छोटी बहन कहने लगी, ये घाव कहाँ ठीक होते हैं? जब एक घाव सूखेगा तब दूसरा घाव तैयार हो जाता है।"

उसकी बातें सुनकर भैया का चेहरा पीला पड़ गया और वे कहने लगे "गीता तू सच बोल रही है?"

माँ को दाई करवटे सुलाकर कुछ समय तक वे तीनो चुपचाप बैठे रहे। कुछ देर बाद छोटी बहन फिर से अपनी सास के बेडसोर के बारे में जितनी उसको जानकारी थी, वह बताने लगी। अनुभा उसकी बातें सुनकर भयभीत होने लगी। छोटी बहन उसको डरते देख कहने लगी "डरने की कुछ भी बात नहीं है। घाव को हमेशा हवा की दिशा में रखना पड़ेगा । पाउडर लगा कर रखने से और नहीं फैल पायेंगे ।"

वार्तालाप के बीच में से भैया उठकर कहीं बाहर चले गए और दस मिनट के/बाद एक आदमी को लेकर साथ लौट आए। वह आदमी उनका पुराना दोस्त था। उनकी एक दवाई की दुकान भी थी। वह कहने लगा "दिखाइए, कहाँ बेडसोर हुआ है?"

माँ की कमर पर से कपडे हटाकर भैया उसको दिखाने लगे।

"ओह ! यह तो शुरुआत है। मल्हम लगाकर खुला करके रखेंगे। मेरी दादी को जब बेडसोर हुए थे तो खूब पैसे खर्च हुए थे। छह महीने तक पचास रुपए का एक कैप्सूल दिन में तीन बार। हर दिन 150 रु. खर्चा आता था।

"डेढ सौ रुपया, भैया ने आश्चर्य चकित होकर पूछा।"

"मेरी दादी भी इसी तरफ कोमा में पड़ी हुई थी।"

अनुभा ने पूछा "कोमा में आदमी कितने दिनों तक पड़ा रहता है?"

"साल दो साल भी हो सकता है।"

उस आदमी की बातें सुनकर तीनों स्तब्ध रह गए मानो अब माँ के इस बोझ को सम्भालते-सम्भालते वे लोग थक चुके थे। एक-एक कर माँ को देखने के लिए घरवाले और रिश्तेदार आना शुरु हुए परन्तु उन तीनो ने एकदम मौन व्रत धारण कर लिया, किसी से कुछ भी बातचीत नहीं की । लगभग आठ बजे रात को भैया ने कुर्सी में बैठकर जम्हाई लेते हुए कहा "अन्नु आज रात को और मै रुक नहीं पाऊँगा। बहुत कष्ट/हो रहा है।" "भैया, अगर आप इस तरह टूट जाएँगे तो फिर हम लोग क्या करेंगे?"

छोटी बहन ने कहा "अस्पताल में माँ की देखभाल करते हुए बड़े भैया को बहुत दिन हो गए हैं। अब वे बुरी तरह थक भी चुके हैं। आज छोटा भाई भुवनेश्वर से घर आता ही होगा। छोटे भाई और छोटी भाभी को आज रात में यहाँ रहने के लिए कह देते हैं।"

अनुभा सोच रही थी, माँ छोटे बेटे को बहुत ज्यादा प्यार करती थी लेकिन क्या वह माँ को देखने के लिए रात में अस्पताल में जाग पाएगा? बचपन से ही वह बड़े लाड़-प्यार में पला है। वह कभी भी रात में यहाँ रहने के लिए तैयार नहीं होगा। लग रहा है भैया को ही ये सब कष्ट सहन करने पड़ेंगे । क्योंकि वे अपनी तकदीर में लिखवाकर लाए हैं । घर में सबसे ज्यादा धैर्यवान बड़े भैया थे। वह भी बेडसोर का नाम सुनते ही ऐसे टूटे कि वहाँ रहने का उनका मन ही नहीं हो रहा था। नाक में फिट की हुई रायल ट्यूब के सहारे सिरिन्ज के द्वारा खाना खिलाना, पानी जैसे बहने वाले पतले मल को साफ़ करना और ऊपर से बचा था तो यह 'बेडसोर' भी। अनुभा भैया की मानसिक स्थिति का आकलन करते हुए कहने लगी "कल हम माँ को खून की बोतल चढाने के बाद घर ले जाएँगे। डॉक्टर भी तो अभी तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहे हैं। पहले तो वे कह रहे थे कि माँ के ब्रेन में खून का संचरण रुक गया है। अभी तक उनको किसी सही बीमारी का पता भी नहीं चला है। अभी कह रहे हैं 'ओल्ड एज सिम्पटम' है।

माँ की उम्र ज्यादा होने के कारण यह सब हो रहा है? उसको अस्पताल में रखकर गिनी पिग की तरह इधर से उधर....... क्या/रखा है माँ के शरीर में , जो उसको सुई से छेद -छेद करके इतना कष्ट/दिया जाय। चार दिन बाद मुझे भी मुंबई जाना होगा। गीता/को आए बहुत दिन हो गए हैं। उनके पति भले ही कितने अच्छे आदमी हो मगर अकेले रहने में उनको भी तो परेशानियां हो रही होगी। बेचारे खुद खाना बनाकर ऑफिस जाते होंगे। गीता भी कितने दिन तक यहाँ बैठी रहेगी? आपकी भी छुट्टी पूरी होने वाली होगी, और कितनी रातें आप जाग पाएँगे? माँ को घर ले जाने से सब थोड़ा-थोड़ा समय निकालकर देखभाल कर पाएँगे।"

एक लम्बे भाषण को समाप्त करने के बाद अनुभा एक दम मौन हो गई मानो माँ उसके लिए भी अब एक अनसुलझी पहेली बन गई हो। अनुभा स्वयं ही माँ को अस्पताल में भर्ती करवाने के लिए आगे आई थी और अब वह खुद ही घर/ले जाने की बात कर रही थी। पहली बार उसने थोड़ा-बहुत समय माँ को दिया था। पर न माँ ठीक हो पाई और न ही मुक्त। केवल एक लम्बी प्रतीक्षा। इसका मतलब क्या माँ उसी के आने का ही इन्तजार कर रही थी? अस्पताल के बरामदे में बैठे पिताजी शायद उसकी बात को सुन रहे थे, केबिन के भीतर आकर उदास स्वर में पूछने लगे "माँ को क्या घर ले जाओगे? क्या उसकी अवस्था में कोई सुधार नहीं आ रहा है?"

पिताजी के चेहरे और आवाज में एक दुखी आदमी का दर्द स्पष्ट झलक रहा था। अभी तक अनुभा अपने पिताजी को समझ नहीं पाई? माँ के लिए उनके ह्मदय के किसी कोने में छुपा हुआ यह थोड़ा सा प्यार , जिसको आज तक अनुभा ने नहीं देखा था। एक पुरुष व्यक्तित्व के अन्दर छुपा हुआ यह निर्मल प्रेम चारो ओर बिखेरने का वह प्रयास कर रहे थे जिसे अनुभा देख न सकी। शायद माँ को कष्ट होगा, यही सोचकर उसकी आँखो का ऑपरेशन करवाने के लिए उन्होंने मना कर दिया। शायद इलेक्ट्रिक शॉक के डर से किसी मनोवैज्ञानिक डॉक्टर के पास वह लेकर नहीं गए।

लेकिन अनुभा ने क्या किया? सारे माहौल को बदलकर माँ को अस्पताल में भर्ती करवा दिया। चलती-फिरती माँ को कुछ ही दिनो में एक सरीसृप बना दिया। सभी भाई-बहन यही कह रहे थे कि माँ तो केवल उसका ही इन्तजार कर रही थी और अनुभा खुद भी यह सोच रही थी कि माँ उसको देखकर अपनी आँखें सदा-सदा के लिए मूँद लेगी जैसा कि अक्सर फिल्मों में होता है। अब माँ को किसका इन्तजार है? अगर वह ठीक भी हो जाएगी, उठकर खड़ी होने लगेगी, चलने-फिरने लगेगी तो भी क्या लाभ मिलेगा। ऐसे ही जंगलियों की भाँति इधर-उधर घूमेगी और लाश बनकर बिना कुछ खाए अपना जीवन विताएगी। अगर माँ जिन्दा भी रह गई तो उसमें से वह पुरानी माँ तो लौट कर नहीं आ पाएगी। माँ तो उनके जीवन से बहुत दिन पहले ही चली गई थी। बहुत दिन बीत गए माँ को सबके लिए अर्थहीन हुए। माँ को तो इस बात का भी एह्सास नहीं कि उसके चारो तरफ हो-हल्ला करते हुए चक्कर काटने वाले सब उसके बेटा-बेटी, बहु, पोता-पोती हैं। बहुत दिन हो गए अनुभा ने अपनी माँ को खो दिया उसके जीवन में कहीं और माँ का नामो निशान न था। वह तो कब से मर चुकी है ! सोचते-सोचते अनुभा फफक कर रो पडी। उसको रोते देख छोटी बहन भी विलाप करने लगी। भैया थककर पता नहीं कब से कुर्सी पर बैठे-बैठे सो गए थे। अनुभा ने अपने आँसुओं को पोछते हुए देखा कि पिताजी के गाल के ऊपर बहते हुए आँसुओं की धारा । ये आँसू हैं या प्रेम? अनुभा ने माँ के/शरीर के ऊपर से अपना हाथ घुमाया, मन ही मन वह कहने लगी "तू जा माँ, तू इस संसार को छोड़कर उड़ जा। अब यह संसार तुम्हारा नहीं है। तू भी अब किसी की नहीं रही। जा तू किसी दूसरे संसार के लिए उड़ जा।"

परन्तु माँ बहुत हठधर्मी होकर अनुभा की बातों को अनसुनी कर ऐसी ही पड़ी रही। अभी भी माँ के गले के पास एक नाड़ी धड़क रही थी।