असार / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

Gadya Kosh से
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अनुभा ने तन्द्रावस्था में देखा कि माँ ने अपनी नाक में लगी हुई नली को खींचकर बाहर निकाल दिया है। यह देखते ही अनुभा की तन्द्रा टूट गई। उसे तो यह भी अच्छी तरह याद नहीं था कि वह कब से माँ के बोझ पर अपना सिर रखकर सो रही थी। रात के लगभग तीन बजे थे कि भैया ने अनुभा की पीठ पर थपथपी देते हुए उठाया और कहने लगे "अब मुझे नींद आ रही है। तुम जरा उठकर माँ को देखती रहो।"

"ठीक है भैया, आप ने मुझे पहले से ही क्यों नहीं जगा दिया?" यहकहते हुए अनुभा माँ के सिरहाने की तरफ रखी हुई प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठ गई। भाई ने आगे कहना जारी रखा "चाय पियोगी, फ्लास्क में रखी हुई है। चाय पीने से तुम्हारी नींद खुल जाएगी।

"नहीं रहने दीजिए। मेरे पर्स में बबलगम है। मैं उसे चबाती रहूँगी। आप निश्चित होकर सो जाइए।"

कहीं नींद न आ जाय , इस डर से अनुभा ने पर्स में से बबलगम निकाला तथा धीरे-धीरे उसे चबाने लगी। माँ बार-बार नाक में लगी हुई नली को बाहर खींचने का प्रयास कर रही थी। इसलिए उन्हें रात भर जगकर माँ की निगरानी करनी पड़ रही थी। लगातार विगत चार रातों से भैया जाग रहे थे। इसलिए अनुभा ने कहा, "हम एक काम करते हैं, मिलकर बारी-बारी से जागते हैं ताकि किसी को भी रात भर जागने का विशेष कष्ट न हो।"

वे लोग भोजन करने के उपरान्त दस बजे के आस-पास अस्पताल आ गए थे। पास की किसी दुकान से भैया ने अनुभा के लिए बबलगम और 'पास-पास' गुटखा रात्रि जागरण में मददगार चीज के नाम पर खरीद लिया था और वह कहने लगे, "अच्छा अब तुम सो जाओ। मैं तुम्हें रात को दो बजे नींद से जगा दूँगा।"

परन्तु भैया ने दो बजे के स्थान पर उसको तीन बजे जगाया था। हमेशा से ही भैया उदार प्रवृत्ति के इंसान थे। उन्होंने जरुर यह सोचा होगा कि बेचारी अनुभा एक घण्टा और अधिक सो जाए। उस प्रकार अनुभा को रात्रिकालीन तीन बजे से सुबह पाँच बजे तक यानी केवल दो घण्टे का ही दायित्व निर्वहन करना था। परन्तु ये दो घण्टे भी वह ठीक से जाग नहीं सकी। वह खुद को भीतर ही भीतर बहुत दोषी अनुभव कर रही थी. वह सोच रही थी कि क्या इस समय भैया को नींद से जगाकर यह कहना उचित होगा कि माँ ने अपनी नाक में लगी हुई नली को खींच कर बाहर निकाल दिया है। भैया क्या कहेंगे? तुम ठीक से दो घण्टे के लिए भी माँ को संभाल नहीं पाई। सुबह जब दूसरे लोगों को इस बारे में पता चलेगा तो वे लोग क्या सोचेगे? किसी के मुँह पर पट्टी तो नहीं बाँधी जा सकती। वे कहेंगे, आप लोगों के सोने की वजह से माँ ने उस घटना को अंजाम दिया। आप लोग वास्तव में बहुत लापरवाह हैं। अनुभा ने मन ही मन सोचा चाहे कोई कुछ कहे, कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर उसे वर्तमान हालत में क्या करना चाहिए, इस बात के लिए चिंतित थी। क्या नर्स को डयूटीरूम से बुलाया जाय? क्या अभी नर्स को बुलाने से वह आएगी? इसी नली के माध्यम से सुबह छह बजे माँ को दूध पिलाया जाता है।

उन्होंने अपने मन की शांति के लिए अस्पताल के केबिन में भर्ती कराया था, अन्यथा वार्ड राउंड में आने वाले डाक्टर को इस बात का जरा भी ख्याल नहीं रहता कि उस अमुक केबिन में कोई गंभीर रोगी भर्ती भी है। वार्ड राउंड खत्म होने के बाद डॉक्टर के आगे-पीछे घूमकरअनुनय- विनय करने पर कहीं वह माँ को देखने आते थे।

प्रतिदिन डॉक्टर आते थे और दवाइयाँ बदल कर चले जाते थे लेकिन उन्हें भी सही मायने में रोगी के मर्ज का पता नहीं चला था। हृदय की धड़कन ठीक है,फेफड़े सुचारु रुप से कार्य कर रहे हैं, किडनी सही ढंग से काम कर रही है, तब ऐसा क्यों? ढेर सारी दवाइयाँ देने तथा सुइयाँ लगाने के बावजूद भी न तो मरीज उठ पा रहा था, न ही बैठकर बातचीत कर पा रहा था। ऐसा भी नहीं कि लकवा के कोई लक्षण दिखाई पड़ रहे हों। पैर के तलवों में गुदगुदी करने से वे पैर हिला पा रही थी।

उसके शरीर की चमड़ी ढीली पड़ गई थी, वह कंकाल की भाँति दिखाई दे रही थी दुर्भिक्ष पीड़ित लोगों की भाँति। डॉक्टरों के अनुसार उन्हें डी-हाईड्रेशन हो गया है, क्योंकि कई दिनों से उन्होंने भोजन ग्रहण नहीं किया था। उनका सारा शरीर संज्ञाशून्य हो गया था। गत तीन-चार दिनों से माँ के शरीर में केवल सलाइन चढ़ाए जा रहे थे। खास परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा था। डॉक्टर ने माँ के लिए प्रति दो दिन के अन्तराल में खून की एक बोतल चढ़ाने का सुझाव दिया। माँ के खून में हिमोग्लोबिन की मात्रा काफी कम हो गई थी। इसी वजह से डॉक्टरों ने माँ की नाक में रॉयल ट्यूब लगा दी थी ताकि उनके द्वारा हठधर्मी माँ को दूध अथवा हॉर्लिक्स की कुछ मात्रा खिलाई जा सके। पता नहीं कैसे, माँ ने उस नली को खींचकर बाहर निकाल दिया। हो सकता है जैसे ही उसे जरा सी झपकी आई होगी, वैसे ही माँ ने उस घटना को अंजाम दे दिया होगा।

माँ और ठीक हो गई , घर के उस कमरे से उस कमरे में घूमेगी, वह उठकर बैठ सकेगी , उन बातों पर अनुभा को बिल्कुल भी विश्वास नहीं हो रहा था। उसे लग रहा था सभी लोग ठीक ही कह रहे थे कि माँ को केवल उसके आने का ही इन्तजार था। दिन-प्रति दिन माँ की अवस्था खराब होती जा रही थी। नजदीक में रहने वाले सगे सम्बन्धी माँ को देखकर चले जाते थे। अनुभा ही एक ऐसी भाग्यहीन बेटी थी जो माँ को दो साल से मिल नहीं पाई थी।

सचमुच अनुभा जैसे ही घर पहुँची वैसे ही माँ की तबीयत बिगड़नी शुरु हुई। तबियत भी बिगड़ी तो ऐसी बिगड़ी कि उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा मानो और कोई उसकी इच्छा बची हुई नहीं थी। उसने अपने सारे बच्चों को आँखों के सामने देख लिया था । अब वह सांसारिक बन्धन से मुक्ति पा कर शान्ति के साथ अपने अन्तिम गंतव्य स्थान को प्रवेश कर पाएगी।

दो साल पहले जब अनुभा अपनी माँ से मिली थी, उस समय उसने माँ के व्यवहार में हो रहे अस्वभाविक बदलाव को देखा था। तभी से उसे उस बात का एहसास हो गया था कि माँ ज्यादा नहीं जिएगी । उस घटना के दो साल बाद वह माँ को देखने आ पाई थी। मन में कई बार माँ को देखने की तीव्र इच्छा पैदा हुई, परन्तु घर-गृहस्थी के मायाजाल में फँसकर आ नहीं पाई ।

उसे याद आया कि जब वह पहले आई थी, तब उस समय छोटी बहन की शादी की बातें चल रही थीं। वे सभी सगाई पक्की करने के लिए समधी के घर गए थे। माँ भी साथ में थी। उसी समय अनुभा ने माँ के अस्वभाविक व्यवहार को नजदीक से देखा। जब भी वह समधी के घर की किसी भी औरत को गले लगाती तो यह पूछती, "क्या आप समधिन हैं? एक ही बात को वह रटती जाती थी। अनुभा को माँ के इस व्यवहार पर लज्जा आ रही थी। वह सोच रही थी कि रिश्तेदार लोग क्या सोचेंगे? कहीं माँ की वजह से बहन की शादी न टूट जाय। इसी बात को लेकर वे सब लोग डर गए थे। जब वे लोग घर लौट रहे थे तो नीता ने माँ से पूछा "माँ आप हर किसी को गले लगाकर

समधन-समधन कह कर पुकार रही थीं। क्या आप को कुछ दिखाई नहीं देता है?"

माँ ने अनमने भाव से कहा "ऐसा क्या कह दिया मैंने?"

"समधन-समधन नहीं बोल रही थीं?"

अन्यमनस्क होकर माँ ने हामी भर दी, फिर एकदम चुप हो गई।

अनुभा सोचने लगी कि शायद माँ की आँखे कमजोर हो गई हैं। इसलिए या तो चश्मा बदलना होगा या फिर आपरेशन करवाना पड़ेगा। माँ की बातचीत से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि कुछ समय पहले की गई सारी अप्रासंगिक बातों को वह पूर्णतया भूल चुकी थी। शायद यह वही घटना थी जो उसके शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की ओर संकेत कर रही थी। उस दिन घर लौटने के बाद लड़के वालो के विषय में बातें हुई। अनुभा ने अपने पिताजी से कहा "पापा, माँ की आँखों का आपरेशन करवाना अब अति आवश्यक है। बिना मतलब के चश्मा वह पहने हुई हैं।जब तक वह आँखें फाड़-फाड़कर नहीं देख लेती हैं तब तक वह किसी को भी पहचान नहीं पाती हैं।"

पिताजी ने अनुभा की इस बात को गंभीरता से नहीं लिया और कहने लगे "कितने दिनों तक वह जिएगी जो उसकी आँखों का आपरेशन करवाने की जरुरत है।"

अभी तक अनुभा ने कभी भी पिताजी के सामने मुँह खोलकर बातें नहीं की थी। लेकिन एक छोटे से आपरेशन के लिए पिताजी राजी नहीं हो रहे थे .उस बात को वह समझ नहीं पा रही थी। उसे लग रहा था शायद पिताजी डर रहे होंगे कि कहीं माँ की आँखे पूरी तरह से खराब न हो जाय या फिर माँ को शारीरिक कष्ट होते देखकर वह सहन नहीं कर पाएंगे इस डर से या फिर उन्हें आपरेशन के लिए रुपये खर्च करने पडेंगे उस डर से?

माँ एक अलग साम्राज्य की मालकिन बन चुकी थी। वहाँ उसकी कल्पना के अनुसार लोगों का आना-जाना होता था। शाम होते ही वह दूरदर्शन के सामने ऐसे बैठ जाती थी जैसे वह कोई मन पसंद धारावाहिक देखना चाहती हो। जबकि उसे कुछ नहीं दिखाई देने के कारण मन ही मन इधर-उधर की बातें करती रहती थी। सबसे बड़ी बात थी-- माँ अपने अन्धेरे के साम्राज्य की खूब सारी मनगढ़न्त कहानियों की रचना करती थीं। अगर उन कहानियों को वह झूठा मानती तो भी कोई बात नहीं थी, लेकिन कभी कहानियों को सत्य समझकर चिल्लाने लगती थीं। वह कहने लगती थी कि घर के सारे बर्तन व सोने के जेवरात अनुभा की चाची चोरी करके ले गई हैं। बहुत दिन पूर्व मर चुकी अपनी छोटी बहन के बारे में यह कहते हुए रो पड़ती थी कि वह उसके घर से बिना खाए-पिए रुठकर लौट गई है। ये सारी बाते काल्पनिक थीं मगर कितनी भी कोशिश के बाद कोई मां को समझा नहीं पा रहा था। माँ को इस अवस्था में छोड़कर अनुभा अपने घर मुम्बई चली गई थी। मुम्बई पहुँच कर उसने माँ के बारे में एक चिट्ठी लिखी। यह उसका पिताजी के नाम पहला पत्र था, भले ही इससे पूर्व स्कूली परीक्षा की कॉपी में उत्तर लिखने के लिए पिताजी के नाम चिट्ठी लिखी हो। किस तरह, किस आधार पर वह लिखेगी कि माँ की आँखों का आपरेशन करवाइए ताकि वह प्रकृति, पेड़-पौधों को देख सकें, गाय-मनुष्य को देख सके, देवी- देवता , बहू-बेटी, नाती-नातिन सभी को देख सकें। उनके सुख-दुख में भागीदार हो सकें। फिर एक बार परिपूर्ण हो जाय उसका जीवन और उसके अन्धकारमय राज्य की काल्पनिक नायक-नायिकाएँ दूर हो सकें। लेकिन पिताजी के पास ऐसी चिट्ठी लिखी जा सकती है?

अनुभा ने एक-एक शब्द को सोच-सोचकर ध्यानपूर्वक लिखा "पिताजी, माँ को किसी अच्छे डॉक्टर के पास ले जाइएगा। उसका पागलपन धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा है। अगर समय रहते

उसका इलाज करवा दिया जाय तो निश्चित तौर पर वह ठीक हो जाएगी।"

लेकिन पिताजी ने उसके उस पत्र का कोई उत्तर नहीं दिया। उन्होंने उसकी इन बातों पर पूर्ण विराम लगा दिया। छोटी बहन की शादी में अनुभा शामिल नहीं हो पाई थी। बाद में अनुभा को इस बात का पता चला कि उसकी माँ को छोटी बेटी की शादी के बारे में विल्कुल भी जानकारी नहीं थी। शादी में वह चुप-चाप दूसरे अतिथियों की भाँति सज-सँवरकर बैठी थी। कभी किसी काम में उनकी जरुरत पड़ जाने पर उल्टा वह पूछने लगती थी "भैया किसकी शादी हो रही है?"

बेटी की विदाई के समय सब फूट-फूटकर रो रहे थे। परन्तु माँ भीड़ के अन्दर घुसकर बार-बार यही पूछती थी, "क्या हुआ, तुम सब लोग क्यों रो रहे हो?"

कोई-कोई बोल भी देता था "तुम्हारे बेटी ससुराल जा रही है। उसकी शादी हो गई है।"

जैसे कि उसके द्वारा रची हुई दुनिया धीरे-धीरे उससे दूर जाने लगी थी। जैसे कि एक-एक कदम बढ़ाकर माँ शून्य ओर बढ़ती जा रही हो। जहा से पेड़-पौधे, पहाड़-पर्वत, नदी-नाले, स्नेह-वात्सल्य-प्रेम, स्वप्न-यथार्थ सभी कुछ धुंधले दिखाई दे रहे हो। धीर-धीरे सब कुछ अदृश्य हो जाएंगे और माँ ऊपर की ओर उठ जाएगी जहाँ पर सांस लेने के लिए हवा का एक अणु भी उपलब्ध नहीं होगा। अनुभा यह सोचकर बहुत दुखी हो रही थी। मुम्बई के फ्लैट में अकेले रहते समय उसे माँ की याद काफी सताने लगी। उसे स्मरण हो आता था माँ का वह चेहरा जिस समय वह आठ महीने के पेट को लेकर रेंगते-रेंगते आम का आचार बनाने रसोईघर की तरफ जाती थी।

उन दो साल के दौरान माँ की मानसिक अवस्था और ज्यादा खराब होती गई। बीच-बीच में अपने भाई-बहन से अनुभा माँ के बारे में खबर ले लेती थी। छोटे बच्चों की तरह माँ जिद्दी होती जा रही थी। सप्ताह दो सप्ताह में नई साड़ी खरीदने के लिए जिद्द करने लगती। नई साड़ी लम्बी है सोचकर काटकर उसे छोटा कर देती। छोटी साड़ी शरीर के लिए छोटी पड़ रही है, यह कहकर विरक्त भाव से नई साड़ी खरीदने के लिए फरमाइश करने लगती। अगर उसकी फरमाइश पूरी नहीं होती तो वह आमरण अनशन पर बैठ जाती। कभी-कभी कंघी लेकर दिन भर बालों में कंघी करने लगती। इतनी कंघी करती कि सिर पर घाव होकर खून निकलने लगता। उसका सारा सिर खून से लथपथ हो जाता था। कभी-कभी जब वह बाथरुम में नहाने जाती तो घंटो नहाती, शॉवर के नीचे से आने का नाम ही नहीं लेती थी। जो कुछ उसके हाथ में बर्तन, बक्सा, कपड़ा आता था उन्हें कुँए में डाल देती थी। उनसे भी बढ़कर कभी-कभी तो वह घर से भाग जाती थी, सबकी दृष्टि से बचकर। अगर कोई जान पहचान वाला आदमी उसे देख लेता था तो बहला-फुसलाकर उनके घर लाकर छोड़ देता था। नहीं तो घर के सारे लोग अपना काम-धाम छोड़कर उसे खोजने निकल पड़ते थे। इतना होने के बाद भी कभी भी पिताजी ने माँ के लिए किसी डॉक्टर से कोई परामर्श नहीं लिया ।

माँ देखने में बहुत सुन्दर व बोलने में स्पष्टवादी थी, लेकिन स्वभाव से वह भोली-भाली थी। यह बात अलग थी कि पिताजी की अभिरुचियाँ माँ के स्वभाव से मेल नहीं खाती थी । इस वजह से वह पिताजी के दिल पर राज न कर सकी। पिताजी अगर किसी औरत से प्रभावित थे तो वह थी उसकी काकी। दिखाई देने में भले ही वह खास नहीं थी मगर उसकी व्यवहार कुशलता, मधुर भाषिता तथा जीवन के गहरे अनुभवों के कारण पिताजी उसे अपना दार्शनिक दोस्त और मार्गदर्शक के रूप में मानते थे। एक यह भी कारण था कि पिताजी की दादी का देहान्त पिताजी के बचपन में ही हो

गया था। और उस समय अगर उनको किसी ने सहारा दिया था तो वह थी उनकी भाभी। किसी भी प्रकार की विपरीत परिस्थितियों में अनुभा के पिताजी उनके पास सलाह लेने के लिए जाते थे। यहाँ तक कि पूजा-पाठ, हवन या किसी भी प्रकार के कोई शुभ अनुष्ठान में उन्हीं की मदद ली जाती थी। पिताजी, चाहे घर बनाना हो, चाहे जमीन खरीदनी हो या अन्य कोई महत्वपूर्ण काम हो भाभी के बिना साथ के कुछ भी कदम नहीं बढ़ाते थे। एक बार तो ऐसा भी हुआ । उनका एक जरुरी आपरेशन था, मगर वह इस बात पर अड़ गए थे कि जब तक भाभी नहीं आएंगी तब तक उन्हें आपरेशन थिएटर में नहीं ले जाया जाय। उस अवस्था में उनकी भाभी को जो उस समय अपनी बेटी के ससुराल भवानीपटना में थीं, टेलीग्राम द्वारा बुलाया गया। ये ही सब छोटे-मोटे कारण थे जिनकी वजह से माँ पिताजी से असंतुष्ट रहती थी। पिताजी के इस दुर्गण को बच्चे लोग भी नापसन्द करते थे। जिन्दगी भर माँ पिताजी के इस रवैये की वजह से अपमानित और आहत होती रही। आज भी अनुभा के मन मस्तिष्क पर ये सारी कड़वी अनुभूतियाँ चिपकी हुई थीं। उनमें किसी भी प्रकार का धुंधलापन नहीं आया था। मुम्बई से घर आते समय वह सोच रही थी कि इस बार पिताजी से इस बिषय पर स्पष्ट बात करेगी और पूछेगी "क्या कारण है कि आप माँ की इस तरह अवहेलना कर रहे हैं? केवल साड़ी-गहना, खाना-पीना दे देने से नहीं होता है। जीवन में एक-दूसरे का संपूरक बनना पड़ता है। अगर एक के घुटने में दर्द हो तो दूसरा उसको हाथ पकड़कर कुछ कदम अपने साथ ले चले।

लेकिन जब वह घर पहुँची तो पिताजी के चेहरे को देखकर अनुभा हतप्रभ रह गई। बुढ़ापे के तूफान में उनका चेहरा लाचार व असहाय दिख रहा था। वे उद्विग्न मन से इस तरह बैठे हुए थे मानो बारिश के/दिनों में भीगी हुई दीमक की बम्बी। सिर के ऊपर मात्र एक मुट्ठी घुंघराले बाल बचे हुए थे और मुँह पर कटे हुए धान के खेत की तरह दाढ़ी उग आई थी। बरामदे में दोनो घुटनो के बीच सिर रखकर उदास मन से बैठे हुए थे। अनुभा को उनकी यह अवस्था देखकर मन में उठ रहे सवालो को पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई। अपना सूटकेस बरामदे में रखकर उसने पिताजी के चरण स्पर्श किए। ठीक उसी समय ड्राइंग रूम के अन्दर से किसी के रोने तथा दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। अनुभा ने पूछा "कौन है घर के अन्दर?"

वहाँ पहले से खड़ी भाभीजी ने उत्तर दिया "माँ को आजकल कमरे के अन्दर बन्द करके रखना पड़ता है, नहीं तो वह घर से बाहर भाग जाती हैं। उनको हर समय तो नजरबन्द करके नहीं रखा जा सकता।"

कमरे के बाहर की तरफ से बन्द चिटकनी को खोलते हुए अनुभा कहने लगी "इसका मतलब ये तो नहीं है कि आप किसी को भी घर के अन्दर बन्द करके रखेंगे? देखते नहीं , माँ किस तरह बिलख- बिलख कर रो रही हैं?"

जैसे ही उसने कमरे की चिटकनी खोली, वैसे ही बिना कुछ बोले माँ झट से उस अंधेरे कमरे से बाहर निकल आई। घर के अन्दर कुछ भी नहीं था, केवल बिना बिछोने वाले लकड़ी के तख्त को छोड़कर। पहले किसी ने उसको फोन पर बताया भी था कि आजकल माँ बेडशीट को फाड़ दे रही है। इसलिए उसको कड़कड़ाती सर्दी के महीनो में भी न तो कोई कम्बल दिया गया और न ही कोई ओढ़ने के लिए चादर। यह खबर सुनकर अनुभा को उस समय भयंकर कष्ट हुआ था। अभी जब वह अपनी आँखो से देख रही थी कि माँ के तख्त के ऊपर एक फटी पुरानी गुदड़ी भी नहीं थी। इतना बड़ा घर, घर में इतने सारे सामान जुटाने के बाद/भी ऐसी अवस्था होती है इन्सान की ! हाय ! छोटी

काकी बताने लगी "दीदी अन्दर मत जाइएगा। माँ की याददाश्त खत्म हो गई है। वह किसी को भी पहचान नहीं पा रही हैं। उनके होश भी ठिकाने नहीं है, टट्टी -पेशाब करके इधर-उधर फेंक दे रही हैं।"

छोटी काकी की बात को अनसुना कर वह माँ को अपने हाथ से पकड़कर बाहर ले आई और पूछने लगी "देखो तो माँ, मैं कौन हूँ?"

"कौन?" माँ कहने लगी।

अनुभा कहने लगी "माँ, मुझे नहीं पहचान पा रही हो। मैं तुम्हारी बेटी अनुभा हूँ।"

माँ ने तो कोई उत्तर नहीं दिया। कुहनी कलाई, ऊँगलियों की पोरो पर बँधे हुए बेन्डेज दिखाते हुए रोते-रोते माँ बोलने लगी "उसको खोल दो।"

अनुभा अपनी माँ को हाथ से पकड़कर शयनकक्ष की तरफ लेकर जा रहीथी, तभी बड़ी काकी कहने लगी "अन्नु माँ को हाथ से मत पकड़ना उसके हाथों में सूखा मल चिपका होगा।"

अनुभा ने देखा कि माँ की ऊँगलियों पर काले-काले दाग की तरह सूखा हुआ मल चिपक गया था। माँ के शरीर में अब कुछ भी जान नहीं थी। केवल बचा हुआ था अस्थियों का कंकाल एवं थोड़ी सी चमड़ी। आँखें तो ऐसी लग रही थी मानो कोटर के अन्दर बैठे चिड़ियों के दो बच्चे। आहा ! बुढ़ापा किस तरह आदमी को कांतिहीन कर देता है ! ऐसी एक जिन्दा लाश को देखकर सिद्धार्थ गौतम बुद्द बन गया। एक दिन ऐसा भी था! माँ का कद एक मॉडल की तरह पाँच फुट छः इंच था, मगर आज वह सिकुड़ कर केवल चार फीट की दिखाई पड़ रही है। गोरे रंग वाली माँ का शरीर आज जले हुए कोयले की तरह दिखाई दे रहा था। माँ बार-बार इशारे के माध्यम से अपने हाथों पर बँधी हुई पट्टियों को खोलने के लिए गिड़गिड़ा रही थी। अनुभा ने पूछा "क्या हुआ माँ, तुम्हारे उन हाथों को? कहीं गिर गई थी क्या?"

अनुभा का प्रश्न सुनकर भाभी ने उत्तर दिया "नहीं, नहीं क्यों गिरेंगी? उन्होंने अपने नाखूनों से चिकोटी काट-काटकर हाथों में घाव पैदा कर लिए हैं। इनका दिमाग तो ठीक है नहीं। कैसे पता चलेगा उनको? होश ही नहीं है। तुम्हारे भैया ने आज सुबह दवाई लगाकर उनको पट्टियाँ बाँधी थी। माँ फिर से पट्टियाँ खोल देने के लिए इशारे करने लगी. अनुभा ने पूछा "माँ क्या बहुत कष्ट हो रहा है।"

जैसे ही अनुभा पट्टी ढीला करके खोलने जा रही थी, उसी समय भाभी ने मना कर दिया और कहने लगी,

"पट्टी मत खोलिए नहीं तो नाखून से फिर हाथों पर घाव कर देंगी।"

लोकिन माँ तो एक जिद कर रही थी, छोटे बच्चों की तरह रोते-गिड़गिड़ाते। हताश होकर अनुभा पलंग पर बैठ गई तभी उसी समय छोटी भाभी ने एक कप चाय सामने लाकर रख दी। चाय पीते-पीते अनुभा सोच रही थी, यहीं पुराने शीशम के लकड़ीवाले पलंग पर उसका बचपन गुजरा है। उसी पलंग पर माँ और पिताजी सोया करते थे। यह माँ-पिताजी का ही कमरा था। शीशम की लकड़ी से बनी आलमारी, लोहे का बड़ा सा लाकर यह सभी इसी घर की शोभा बढ़ाया करते थे। सारा सामान पहले की तरह ही रखा हुआ था, बस कमी थी तो इस बात की कि अब उस कमरे में माँ और पिताजी नहीं रहा करते थे। माँ की हरकतों से तंग आकर पिताजी ऊपर वाले कमरे में रहने लगे थे और ड्रॉइंग रूम को खाली कराकर माँ को इसमें रखा गया था।

पलंग के ऊपर रखे हुए सारे गद्दे पत्थर की तरह पड़े-पड़े कठोर हो गए थे। वे सभी सात

भाई- बहन उसी पलंग के ऊपर सोते-सोते गप्पे मारते थे। किसी का पाँव किसी के सिर की तरफ रहता था तो किसी की जाँघ किसी के पेट के ऊपर।

बैसाख के महीने में दोपहर के समय कभी-कभी जब आँधी आया करती थी तो माँ सभी बच्चों को नाम से पुकार कर जोर-जोर से चिल्लाने लगती थी। सभी बच्चे उस समय जहाँ भी हो, भागते हुए आ जाते थे। इसी कमरे में सभी को भरकर माँ दरवाजा बन्द कर लेती थी। उसका ऐसा मानना था कि अगर मरेंगे तो सभी एक साथ मरेंगे। उसका कोई भी बच्चा खेलते-खेलते किसी दूसरी जगह क्यों मरेगा? माँ के इस डर तथा उससे बचाव की युक्ति को देखकर पड़ोसी लोग उपहास करने लगते थे। लेकिन हाय ! आज माँ किसी को भी पहचान नहीं पा रही है कि कौन अनुभा है तो कौन सुप्रभा? पिताजी अनुभा के पास आकर बैठ गए।

"माँ को क्या पूछ रही हो अनुभा? वह क्या उत्तर देगी? वह तो पागल है। बहुत परेशान कर चुकी है, मर जाती तो अच्छा होता।"

वाक्य के अंतिम अंश को पिताजी ने भन्नाते हुए कहा। और इस अन्तिम वाक्यांश ने अनुभा के सीने को छलनी कर दिया। क्या पिताजी को अन्त में ऐसे ही कहना था। माँ पिताजी को देखकर पट्टियाँ खोलने के लिए बाध्य करने लगी। चिड़चिड़ाकर पिताजी कहने लगे "क्या तुम मुझे शान्ति से बैठने भी नहीं दोगी? ऐसा क्यों कर रही हो?"

मगर माँ को मानो पिताजी के चिड़चिड़ेपन से कोई लेना-देना न हो। ऐसे ही पिताजी का कंधा हिलाते हुए बोलने लगी "अजी, खोल दीजिए।"

"रुक-रुक ! मुझे तंग मत कर।" कहते हुए पिताजी ने माँ को फिर से डाँटा। नीचे जमीन पर बैठकर माँ रोते-रोते कहने लगी "मैने उनको कहा तो मुझे गाली दे रहे हैं। अब मैं इस घर में कभी नहीं रहूँगी।"

माँ का इस तरह रोना देखकर अनुभा के सीने पर कटार सी चलने लगी। पलंग से उठकर अनुभा ने माँ को गले लगा लिया और पुचकारते हुए कहने लगी "माँ ऐसा मत करो। अच्छा बताओ तो, मैं कौन हूँ?"

यह सोचकर अनुभा के मन में एक आभा की किरण जागी कि जब माँ पिताजी को पहचान पा रही है तो अवश्य ही उसको भी पहचान पाएगी। माँ अनुभा के पास पिताजी के नाम से शिकायत कर रही थी। पिताजी सिर पर हाथ रखकर किंकर्तव्यबिमूढ़ होकर बैठ गए। उनका चेहरा माँ की तुलना में और दयनीय दिख रहा था।

भाभी माँ को हाथ से पकड़कर भीतर की तरफ ले जा रही थी। तभी पिताजी ने उससे पूछा "क्या माँ को खाना खिला दिया है?"

रूखी आवाज में भाभी ने उत्तर दिया "यह काम मुझसे नहीं होगा।"

"नहीं होगा मतलब?" पिताजी ने कहा।

माँ को उसके कमरे में बंद करके भाभी लौट आई और कहने लगी "अन्नु तुम लोग तो बाहर रहते हो। तुम्हें कैसे पता चलेगा कि माँ कितना परेशान कर रही है? और क्या बताऊँ तुम्हारे भैया के अलावा कोई भी इनको नहीं खिला पाता है। पिछले आठ-दस दिनों से वह ठीक से खाना नहीं खा रही हैं। एक बार तो उन्होंने मुट्ठीभर नमक/खा लिया था उसके बाद कुछ भी खाने से पहले मुट्ठीभर चीनी खिलानी पड़ती थी, तब जाकर के खाना खाती थीं। मगर अभी तो कुछ भी नहीं खा रही हैं।"

"आपने डॉक्टर को दिखाया?"

"पिताजी चाहेंगे तभी तो?"

"क्या आप सभी काम पिताजी को पूछकर ही करते हैं? अगर आप लोग अपनी जिम्मेवारी खुद निभाएंगे तो पिताजी को पूछने की बिल्कुल भी जरुरत कहाँ है?"

"ऐसी बात नहीं है कि हमने अपनी जिम्मेवारी नहीं निभाई है। बीच में तुम्हारे भैया ने डॉक्टर से परामर्श लेकर कुछ दवाइयाँ खरीदी थीं। जब वह दवाइयाँ माँ को दी जाती थी तो माँ केवल या तो सोती रहती थीं या फिर दीवार के सहारे बैठकर झपकी लेती रहती थीं। यह देखकर पिताजी को गुस्सा आ गया और कहने लगे कि इसके शरीर में अब बच क्या गया है जो खाने के लिए इतनी तेज दवाइयाँ दी जा रही है। यह सुनकर भैया ने और दवाइयाँ देना बन्द कर दिया।"

"कटक ले जाकर किसी मनोरोगी विशेषज्ञ को दिखाकर इलाज करवा सकते थे।"

"तुम तो अपनी आँखों से देख रही हो कि माँ कैसे कर रही है। गाड़ी में बैठकर जा पाएगी? जब इतना बोल ही रही हो तो खुद ले जाकर डॉक्टर को क्यों नहीं दिखा लाती?"

भाभी का पूँजीभूत क्रोध जैसे कि ज्वालामुखी की तरह फट गया हो और उसकी भीषण गर्मी अनुभा को धराशायी करने लगी हो। अनुभा और कुछ बोलती कि इतने में बीच में पिताजी आकर भाभी के पक्ष में कहने लगे "कहाँ जाएगी? और अब कितने दिन जिन्दा रहेगी? क्यों इसके पीछे लगी हो?

इस तरह पिताजी ने माँ के प्रसंग को बदल दिया। अनुभा ने लम्बी साँस छोड़ी। माँ के प्रति इतनी अवहेलना का कारण क्या है, एक बात फिर से यह पूछने की इच्छा जाग गई। क्या हो सकते हैं इसके सम्भावित कारण? मैं इतनी मूर्ख और भोली जो ठहरी। लेकिन हमारे लिए हमारा भोलापन ही ठीक था। अनुभा ने पिताजी को भले ही कुछ नहीं बोला मगर भाभी से वह कहने लगी "कृपा करके माँ को घर के अंदर बंद करके तो मत रखो।, बहुत ही खराब लग रहा है। इस कमरे से उस कमरे में उसको घूमने दो, इसमें क्या परेशानी है?"

घूमने से कोई परेशानी नहीं है, लेकिन वह घर से भाग जाती है। कभी- कभी पहनने के कपड़े भी खोल देती है। पडोस के लोग उस चीज का उपहास के साथ-साथ तरह-तरह की बातें करते हैं।

"आप को पडोसियों से क्या लेना-देना? क्या वे नहीं जानते कि माँ पागल है?"

"देखिए न ! कुछ दिन पहले माँ घर से भाग गई थी। बड़े पिताजी और दादा के घर के सामने खड़े होकर दामन फैलाकर भीख माँग रही थी। यह तो अच्छा है, चाची उनको हाथ से पकड़कर वापिस घर तो ले आयी। इस बात को लेकर सभी लोग मुझे दोषी ठहराते थे। कह रहे थे, अपनी सास को सम्भाल कर नहीं रख पाती हो क्या? दूसरों के घर जाकर अगर भीख माँगेगी तो हमारी बची-खुची इज्जत मटियामेट हो जाएगी। पागल तो है ही, अपने दुष्कर्मो का फल अगर इस जन्म में नहीं भोगेगी तो और कब भोगेगी?

"दुष्कर्मो का फल?" अनुभा क्रोधित स्वर में बोली "सीधी-सादी भोली माँ को उन लोगों ने कम परेशान नहीं किया और अभी कह रहे हैं कि उसे अपने किए का फल मिल रहा है। ऐसा क्या किया मेरी माँ ने? असल बात क्या है जानती हो? माँ "निशा -मंगलवार" का व्रत रखा करती थी। हर मंगलवार को वह सातघर से अन्न भिक्षा के रुप में माँगकर लाती थी और बिना पीछे मुड़कर देखे सीधे जाकर नदी के पानी में डुबकी लगाकर उस भिक्षा को फेंक देती थी। शायद तुम नहीं जानती हो कि वह यह व्रत तुम सभी की भलाई के लिए रखती थी। जिन्दगी भर उसने अपने हर बच्चे के

लिए एक-एक अलग व्रत उपवास का संकल्प लिया था। किसी के लिए वह बाँए हाथ से खाती थी तो किसी के लिए द्वितीया का व्रत। किसी के लिए वह चैत्र का मंगलवार करती थी तो किसी के लिए मेरु उपवास (विशुभ संक्रांति) का उपवास। हो सकता है अभी भी माँ के अवचेतन मन में भिक्षा माँगने वाली वह बात कहीं न कहीं अंकित होगी अन्यथा वह उनके घर जाकर क्यों भिक्षा मांगेगी? इसलिए इसमें संकुचित होने की कोई बात नहीं है।"

शायद भाभी के मन में कोई पुराना क्षोभ एक लम्बे अर्से से दबा हुआ होगा , अतः प्रतिशोध की भावना से वह फुफकारने लगी।

"तुम भीतर जाकर देखो, तुम्हारा ड्राइंग रुम अब क्या पहले जैसा है? दीवारों पर जो आधुनिक पेंटिंग सजाई गई थी, किस प्रकार उन्होंने अपने मल से पोतकर एकदम माडर्न बना दिया है।"

अनुभा ने भाभी के इस परिहास पर बिलकुल अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और कहने लगी "वह तो पागल है उसका तो दिमाग काम नहीं कर रहा है। और क्या होगा? आप तो जानती हैं वह अपने घर को कितना साफ-सुथरा रखती थी । जब वह ठीक थी तो दिन में दो बार घर में पोंछा लगाती थी। हर दिन कपड़ों की एक बड़ी गठरी धोई जाती थी। "

अनुभा समझ नहीं पा रही थी कि किस कारण से भाभी माँ से असंतुष्ट है। माँ को कमरे में बन्द रखने की अमानवीय घटना को लेकर जो उनके बीच में तर्क-वितर्क हुआ, शायद उसी वजह से भाभी नाराज हो गई होगी। अनुभा को लग रहा था कि इस अवस्था में भाभी को क्रोध आना भी स्वाभाविक है। छोटा भाई अपनी पत्नी के साथ आराम से अपनी नौकरी वाली जगह पर रह रहा था। बाकी सभी जो जहाँ थे, वे वहाँ चले गए। अकेले में ही भाभी को माँ के पागलपन को सहन करना पड़ा। बेचारी को दोष देने से क्या फायदा? इस प्रकार अनुभा के मन में भाभी के ।प्रति कोई बुरी धारणा जड़ नहीं कर पाई । लम्बी रेल यात्रा की थकावट को दूर करने के लिए अनुभा स्नान करने गई। जब वह बाथरुम से बाहर आ रही थी तो उसने बड़े भैया को घर में आते हुए देखा। वह भाभी से कह रहे थे "लंच- अवर के बाद ऑफिस में मीटिंग है, माँ की साफ-सफाई कौन करेगा?यही सोचकर बड़ी मुश्किल से समय निकालकर आया हूँ।"

आते ही ऑफिस के कपड़े बदलकर अपनी लुँगी पहनी और माँ के कमरे के सारे खिड़की और दरवाजे खोल दिए। कमरे के अन्दर पर्याप्त उजाला एवं साफ हवा का संचार होने लगा। माँ को पास में बिठाकर सारी पट्टियाँ खोल दी तथा भाभी को गरम पानी लाने के लिए कहने लगे "आज थोड़ा जल्दबाजी में हूँ इसलिए ज्यादा समय रुक नहीं पाऊँगा।"

पहले से ही भैया ने माँ के बाल अपने हाथ से काटकर छोटे-छोटे कर दिए थे। छोटे बच्चे की तरह भैया ने माँ के सिर पर तेल लगाकर कंघी की। फिर गरम पानी में डिटाल मिलाकर माँ के हाथ-पैर, ऊंगलियों में चिपके हुए सूखे मल को धोकर साफ़ कर दिया। फिर हल्के गर्म पानी से माँ को स्नान कराके वस्त्र बदल दिए। जैसे कि माँ उनकी छोटी बेटी हो। घाव को धोकर फिर से भैया ने पट्टियाँ बाँध दी। अनुभा मदद करने के लिए उनके पास जा रही थी तो उन्होंने पास आने से मना कर दिया। "कुछ समय के लिए रूक जाओ, देख रही हो न चारो तरफ मल-मूत्र कैसे बिखरा हुआ पड़ा है ! पहले फिनाइल डालकर कमरे को धो लेने दो।"

माँ को बाहर छोड़कर भाई ने सर्फ व डिटाल डालकर माँ के कपड़े आदि साफ किए ।उसके बाद कमरे को डिटाल के पानी से अच्छी तरह धो दिया। यह सब काम करते-करते उनको आधे घण्टे

से ज्यादा समय लग गया। अन्त में छोटे बच्चों को जिस तरह खिलाया जाता है, उसी तरह प्यार से, तो कभी डाँट से माँ को एकाध टुकड़ा पावरोटी और आधा कप दूध पिला दिया। माँ को खाना खिलाने की कोशिश तो अनुभा ने भी की थी, किन्तु मुश्किल से आधा टुकड़ा भी नहीं खिला पाई। भैया बड़े ही असहाय दिख रहे थे। अगर माँ को थोड़ा ठीक से खिला पाते तो शायद उनकी अन्तरात्मा को अच्छा लगता। माँ के ये सब काम पूरे करने के बाद ऑफिस वाले कपड़े पहनकर भैया बाहर निकल गए। जाते-जाते भाभी को यह कहते हुए कि आज वह घर में खाना नहीं खाएंगे। भैया बाहर निकल गए। भाभी कहने लगी "आपको तो पहले से ही मालूम था कि दोपहर को यह सब खिन्न काम करना पड़ेगा तो दस बजे जाते समय थोड़ा-बहुत खाना खाकर चले जाते।"

भाभी को शान्त करने के लहजे में भैया ने कहा "अच्छा ठीक है दे दो जल्दी से कुछ।"

हड़बड़ी में भैया ने थोड़ा बहुत खाया और घर से बाहर हड़बड़ी में निकल गए। उस समय माँ इधर-उधर घूम रही थी। अनुभा माँ को घूमते देख कहने लगी "माँ जाकर के सो जाइए।"

परन्तु मानो माँ ने कुछ भी न सुना हो। वह चुप-चाप ज्यों की त्यों खड़ी रही। यह देख भाभी कहने लगी "माँ कैसे सोएगी? उनको तो बिल्कुल भी नींद नहीं आती है। भूत-प्रेत की भाँति इस कमरे से उस कमरे में चक्कर लगाती रहती है। देखिए न उनकी इस बीमारी की वजह से मेरे सारे बाल सफेद हो गए। अनुभा ने भाभी के बालों की तरफ देखा तो वास्तव में बीच-बीच में सफेद बालों की लटें स्पष्ट दिखाई दे रही थी। अनुभा समझ नहीं पाई कि वह क्या कहे? क्यों वह उसको देखकर बार-बार अपना मुँह बिगाड़ रही थी? वह इतनी नाराज व दुःखी क्यों है? कहीं भाभी ऐसा तो नहीं सोच रही है कि बेटी होने के नाते अनुभा को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, वह नहीं निभा रही है और केवल उसे ही इन गंदे कामों में फँसे रहना पड़ता है। अगर वह ऐसा सोच रही है तो बिल्कुल गलत सोच रही है। अब कौन उसको समझाएगा कि अनुभा उस घर की बेटी नहीं है। वह पराए घर की बेटी है। और कुछ ही दिनो में अपने घर लौट जाएगी। इससे बढ़कर भाभी को इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि जो कुछ भी वह कर रही है वह सब उसके कर्मो का भोगफल है।