आइंस्टाइन और एडिन्गटन / आइंस्टाइन के कान / सुशोभित
सुशोभित
'आइंस्टाइन और एडिन्गटन' नामक फ़िल्म सुपरिचित न्यूटन-आइंस्टाइन द्वैत में एक दिलचस्प परिप्रेक्ष्य उत्पन्न करती है। एक राजनैतिक पर्सपेक्टिव। माजरा यह है कि बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में यूरोप में होने वाली कोई भी घटना राजनीति से अलग-थलग नहीं हो सकती थी, फिर जनरल रेलेटिविटी का तो प्रवर्तन ही तब हुआ था (1915), जब वहां पहला विश्व युद्ध लड़ा जा रहा था। आइंस्टाइन से पहले भौतिकी एक न्यूटोनियन-यथास्थिति के सूत्रों से संचालित होती थी और अगर आइंस्टाइन सही थे, तो इससे न्यूटन भले ग़लत साबित ना होते हों, किंतु उस न्यूटोनियन-यथास्थिति में रद्दोबदल की स्थिति ज़रूर निर्मित होती थी। कैम्ब्रिज में न्यूटन को लगभग एक देवता का दर्जा प्राप्त था और युद्ध के उस दौर में ब्रिटिश इम्पीरियलिज़्म और क्रिश्चियन फ़ैथ ने न्यूटन में ही अपना आलम्बन पाया था। इसके सामने दुश्मन देश (जर्मनी) का आइंस्टाइन था (अलबत्ता उसने स्विस नागरिकता ग्रहण कर ली थी), और यह स्वीकार करना इंग्लैंड में सबके लिए कठिन था कि भौतिकी की नई नियमावली आइंस्टाइन के द्वारा रची जाएगी और वैसा न्यूटन को अपदस्थ करके किया जाएगा। वैसे साइंस इस दाख़िल-ख़ारिज की भाषा में नहीं सोचता। वो आइंस्टाइन को न्यूटन के बाद एक कन्टिन्यूअम (नैरन्तर्य) में देखता है, लेकिन पोलिटिक्स द्वैत-दृष्टि का नाम है। फ़िल्म दृढ़ता से कहती है कि ज्ञान-परम्पराएँ राष्ट्रीय-सीमाओं से परे और सार्वभौमिक होती हैं। हमें अपने देश के साइंटिस्ट और पराये देश के साइंटिस्ट में भेद नहीं करना चाहिए।
फ़िल्म का शीर्षक है- 'आइंस्टाइन और एडिन्गटन'। आइंस्टाइन को हम जानते हैं, लेकिन एडिन्गटन कौन था? आर्थर एडिन्गटन वह वैज्ञानिक था, जिसने आइंस्टाइन की जनरल रेलेटिविटी के प्रति सर्वसम्मति बनाने की दिशा में बहुत परिश्रम किया और अनेक प्रयोगों और शोधों के माध्यम से आइंस्टाइन को स्थापित किया। उस ज़माने में ब्रिटेन में किसी जर्मन साइंटिस्ट का नाम लेना राजद्रोह से कम ना था, क्योंकि यह माना जाता था कि जर्मन साइंटिस्ट वॉरफ़ेयर-रिसर्च में मुब्तिला हैं और इन असलहों का इस्तेमाल वॉर में ब्रिटेन के बरख़िलाफ़ किया जा रहा है। वैसे में इस तथ्य ने एडिन्गटन की मदद की कि आइंस्टाइन ने ना केवल स्वयं को भरसक उग्र जर्मन-राष्ट्रवाद से दूर रखा था, बल्कि उसने उस मैनिफ़ेस्टो को भी साइन करने से इनकार कर दिया था, जिसमें तत्कालीन जर्मनी के 93 वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और कलाकारों ने जर्मन सैन्यवाद को पूर्ण समर्थन दिया था। इतिहास के एक निर्णायक मोड़ पर एक राजनैतिक दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने से इनकार करके आइंस्टाइन ने अपनी वैधता की रक्षा कर ली थी और सुदूर इंग्लैंड में इसका मीठा फल उसे एडिन्गटन के सहानुभूतिपूर्ण उपक्रमों के माध्यम से मिला था।
ऊपर जिस न्यूटन-आइंस्टाइन द्वैत का उल्लेख किया गया है, वह केवल भौतिकी के क्षेत्र तक ही सीमित नहीं था, उसका प्रसार धार्मिक-विश्वासों तक भी था। अपनी तमाम वैज्ञानिक-मेधा के बावजूद न्यूटन ने हमेशा ईश्वर के लिए स्थान सुरक्षित रखा था। वह एकेश्वरवादी था और सृष्टि के निर्माता के रूप में ईश्वर को स्वीकार करता था। वास्तव में न्यूटन को रहस्यवादी की तरह देखने वाले भी कम नहीं हैं और इस दृष्टिकोण से पुस्तकें लिखी गई हैं (जिनमें रॉब इलीफ़ की 'प्रीस्ट ऑफ़ नेचर : द रिलीजीयस वर्ल्ड्स ऑफ़ आइज़ैक न्यूटन' विशेष उल्लेख्य है)। ऑर्थोडॉक्स-ब्रिटेन में न्यूटन की सर्वस्वीकार्यता का एक मुख्य कारण यह भी था। दूसरी तरफ़ आइंस्टाइन था, जो भले अनीश्वरवादी नहीं था, लेकिन स्वयं को अज्ञेयवादी अवश्य कहता था और सगुण-ईश्वर की अवधारणा को बचकाना बतलाता था। उसे स्पिनोज़ा का सर्वेश्वरवादी निर्गुण ईश्वर अधिक रुचिकर लगता था, जैसा कि आधुनिक-युग के अमूमन सभी कवियों, वैज्ञानिकों और दार्शनिकों को लगता है।
एडिन्गटन की दुविधा यह थी कि कहीं वो न्यूटन के सामने आइंस्टाइन को स्थापित करके अपने रिलीजीयस-फ़ैथ के साथ धोखा तो नहीं कर रहा है? उसके भीतर धर्म और विज्ञान का संघर्ष हमेशा बना रहता था और अलबत्ता आख़िरकार उसने आइंस्टाइन की स्थापनाओं के प्रति निष्ठावान होने से स्वयं को नहीं रोका, लेकिन दिल के एक कोने में अपने सगुण-ईश्वर के लिए जगह ज़रूर बनाकर रखी। उसने आइंस्टाइन के भीतर भी नवप्रवर्तन के एक ईश्वर की ही आवाज़ सुनी थी, जैसा कि फ़िल्म का एक दृश्य बतलाता है। फ़िल्म में एडिन्गटन की भूमिका निभा रहे स्कॉटिश अभिनेता (यह किसी अमरीकी के बस का रोग नहीं था) डेविड टेनैन्ट ने इसे बहुत सुंदर रूप से प्रदर्शित किया। अपने मार्मिक अभिनय से उन्होंने आइंस्टाइन की भूमिका निभा रहे एंडी सेर्कीस को निष्प्रभ कर दिया है।
इतिहास ने आइंस्टाइन को याद रखा है और एडिन्गटन को भुला दिया है, क्योंकि आइंस्टाइन प्रवर्तक था और एडिन्गटन केवल एक अनुसंधानकर्ता, किंतु फ़िल्म एडिन्गटन पर केंद्रित है और इतिहास के तर्कों को काव्य-न्याय के परिप्रेक्ष्य में संशोधित करती है। मुझे ख़ुशी हुई कि न्यूटन-आइंस्टाइन द्वैत पर एक सुंदर फ़िल्म देखने का अवसर मिला!