आजाद-कथा / भाग 2 / खंड 105 / रतननाथ सरशार
वहाँ दो दिन और रह कर दोनों लेडियों के साथ लखनऊ पहुँचे और उन्हें होटल में छोड़ कर नवाब साहब के मकान पर आए। इधर वह गाड़ी से उतरे, उधर खिदमतगारों ने गुल मचाया कि खुदावंद, मुहम्मद आजाद पाशा आ गए। नवाब साहब मुसाहबों के साथ उठ खड़े हुए तो देखा कि आजाद रप-रप करते हुए तुर्की वर्दी डाटे चले आते हैं। नवाब साहब झपट कर उनके गले लिपट गए और बोले - भाईजान, आँखें तुम्हें ढूँढ़ती थीं।
आजाद - शुक्र है कि आपकी जियारत नसीब हुई।
नवाब - अजी, अब यह बातें न करो, बड़े-बड़े अंगरेज हुक्काम तुमसे मिलना चाहते हैं।
मुसाहब - बड़ा नाम किया। वल्लाह करोड़ों आदमी एक तरफ और हुजूर एक तरफ।
खोजी - गुलाम भी आदाब अर्ज करता है।
आजाद - तुम यहाँ कब आ गए ख्वाजा साहब?
नवाब - सुना, आपने तीन-तीन करोड़ आदमियों से अकेले मुकाबिला किया!
गफूर - अल्लाह की देन है हुजूर!
नवाब - अरे भाई, गंगा-जमुनी हुक्का भर लाओ आपके वास्ते, आजाद पाशा को ऐसा-वैसा न समझना। इनकी तारीफ कमिश्नर तक की जबान से सुनी। सुना, आपसे रूस के बादशाह से भी मुलाकात हुई। भाई, तुमने वह दरजा हासिल किया है कि हम अगर हुजूर कहें तो बजा है। कहाँ रूस के बादशाह और कहाँ हम!
खोजी - खुदावंद, मोरचे पर इनको देखते तो दंग रह जाते। जैसे शेर कछार में डँकारता है।
नवाब - क्यों भाई आजाद, इन्होंने वहाँ कोई कुश्ती निकाली थी?
आजाद - मेरे सामने तो सैकड़ों ही बार चपतियाए गए और एक बौने तक ने इनको उठाके दे मारा।
मुसाहब - भाई, इस वक्त तो भंभाड़ा फूट गया।
आजाद - क्या यह गप उड़ाते थे कि मैंने कुश्तियाँ निकालीं?
मस्तियाबेग - ऐ हुजूर, जब से आए हैं, नाक में दम कर दिया। बात हुई और करौली निकाली।
गफूर - परसों तो कहते थे कि मिस्र में हमने आजाद के बराबर के पहलवान को दम भर में आसमान दिखा दिया।
आजाद - क्या खूब! एक बौने तक ने तो उठाके दे मारा, चले वहाँ से दून की लेने।
इतने में नवाब साहब के यहाँ एक मुंशी साहब आए और आजाद को देख कर बोले - वल्लाह, आजाद पाशा साहब हैं, आपने तो बड़ा नाम पैदा किया, सुभान-अल्लाह।
नवाब - अजी, कमिश्नर साहब इनकी तारीफ करते हें। इससे ज्यादा इज्जत और क्या होगी।
खोजी - साहब, लड़ाई के मैदान में कोई इनके सामने ठहरता ही न था।
मुंशी - आपने भी बड़ा साथ दिया ख्वाजा साहब, मगर आपकी बहादुरी का जिक्र कहीं सुनने में नहीं आया।
खोजी - आप ऐसे गीदियों को मैं क्या समझता हूँ, मैंने वह-वह काम किए हैं कि कोई क्या करेगा। करौली हाथ में ली और सफों की सफें साफ कर दीं।
मुंशी - आप तो नवाब साहब के यहाँ बने हैं न?
खोजी - बने होंगे आप, बनना कैसा! क्या मैं कोई चरकटा हूँ। कसम है हुजूर के कदामों की, सारी दुनिया छान डाली, मगर आज तक ऐसा बदतमीज देखने में नहीं आया।
आजाद - जनाब ख्वाजा साहब ने जो बातें देखी हैं वह औरों को कहाँ नसीब हुई। आप जिस जगह जाते थे वहाँ की सारी औरतें आपका दम भरने लगती थीं। सबसे पहले बुआ जाफरान आशिक हुई।
खोजी - तो फिर आपको बुरा क्यों लगता है? आप क्यों जलते हैं?
नवाब - भई आजाद, यह किस्सा जरूर बयान करो। अगर आपने इसे छिपा रखा तो वल्लाह, मुझे बड़ा रंज होगा। अब फरमाइए, आपको मेरा ज्यादा ख्याल है या इस गीदी का?
खोजी - हुजूर, मुझसे सुनिए। जिस रोज आजाद पाशा और हम पिलौना के किले में थे, उस रोज की कार्रवाई देखने लायक थी। किला पाँचों तरफ से घिरा हुआ था।
मुसाहब - यह पाँचवाँ कौन तरफ है साहब? यह नई तरफ कहाँ से लाए? जो बात कहोगे वही अनोखा।
खोजी - तुम हो गधे, किसी ने बात की और तुमने काट दी, यों नहीं वों, वों नहीं यों। एक तरफ दरिया था और खुश्की भी थी। अब हुई पाँच तरफें या नहीं, मगर तुम ऐसे गौखों को हाल क्या मालूम। कभी लड़ाई पर गए हो? कभी तोप की सूरत देखी है? कभी धुआँ तक तो देखा न होगा और चले हैं वहाँ से बड़े सिपाही बन कर! तो बस जनाब, अब करें तो क्या करें। हाथ-पाँव फूले हुए कि अब जायँ तो किधर जायँ और भागे तो किधर भागें।
नवाब - सचमुच वक्त बड़ा नाजुक था।
खोजी - और रूसियों की यह कैफियत कि गोले बरसा रहे थे। बस आजाद पाशा ने मुझसे कहा कि भाईजान, अब क्या सोचते हो, मरोगे या निकल जाओगे! मेरे बदन में आग लग गई। बोला, निकलना किसे कहते है जी! इतने में किले की दीवारें चलनी हो गई। जब मैंने देखा कि अब फौज के बचने की कोई उम्मीद नहीं रही, तो तलवार हाथ में ली और अपने अरबी घोड़े पर बैठ कर निकल पड़ा और उसी वक्त दो लाख रूसियों को काट कर रख दिया।
मुसाहब - इस झूठ पर खुदा की मार।
खोजी - अच्छा, आजाद से पूछिए, बैठे तो हैं सामने।
नवाब - हजरत, सच-सच कहिएगा। बस फकत इतना बता दीजिए, यह बात कहाँ तक सच है?
आजाद - जनाब, पिलौना का जो कुछ हाल बयान किया वह तो सब ठीक है, मगर दो लाख आदमियों का सिर काट लेना महज गप है। लुत्फ यह है कि पिलौना की तो इन्होंने सूरत भी न देखी। उन दिनों तो यह खास कुस्तुनतुनियाँ में थे।
इस पर बड़े जोर का कहकहा पड़ा। बेगम साहब ने कहकहे की आवाज सुनी तो महरी से कहा - जा देख, यह कैसी हँसी हो रही है।
महरी - हुजूर, वह आए हैं मियाँ आजाद, वह गोरे-गोरे से आदमी, बस वही हँसी हो रही है।
बेगम - अख्खाह, आजाद आ गए, जाके खैर-आफियत तो पूछ! हमारी तरफ से न पूछना! वहाँ कहीं ऐसी बात न करना।
महरी - वाह हुजूर, कोई दीवानी हूँ क्या? सुनती हूँ उस मुल्क में बड़ा नाम किया। तुमने कभी तोप देखी है गफूरन?
गफूरन - ऐ खुदा न करे हुजूर!
महरी - हमने तो तोप देखी है, बल्कि रोज ही देखती हूँ।
बेगम - तोप देखी है! तुम्हारे मियाँ सवारों के साईस होंगे। तोप नहीं वह देखी है।
महरी - हुजूर, यह सामने तोप ही लगी है या कुछ और?
महल में रहीमन नाम की एक महरी और सबों से मोटी-ताजी थी। महरी ने जो उसकी तरफ इशारा किया तो बेगम साहब खिल-खिला कर हँस पड़ीं।
रहीमन - क्या पड़ा पाया है बहन गफूरन?
गफूरन - आज एक नई बात देखने में आई है बहन।
रहीमन - हमको भी दिखाओ। देखें कोई मिठाई है या खिलौना है?
गफूरन - तोप की तोप और औरत की औरत।
रहीमन - (बात समझ कर) तुम्हीं लोगों ने तो मिल कर हमें नजर लगा दी।
बेगम - ऐ आग लगे, अब और क्या मोटी होती, फूलके कुप्पा तो हो गई है।
उधर खोजी ने देखा कि यार लोग रंग नहीं जमने देते तो मौका पा कर आजाद के कदमों पर टोपी रख दी और कहा - भाई आजाद, बरसों तुम्हारा साथ दिया है, तुम्हारे लिए जान देने को तैयार रहा हूँ। मेरी दो-दो बातें सुन लो।
आजाद - मैं आपका मतलब समझ गया, कहाँ तक जब्त करूँ?
खोजी - इस दरबार में मेरे जलील करने से अगर आपको कुछ मिले तो आपको अख्तियार है।
आजाद - जनाब, आप मेरे बुजुर्ग हैं, भला मैं आपको जलील करूँगा?
खोजी - हाय अफसोस, तुम्हारे लिए जान लड़ा दी और अब इस दरबार में, जहाँ रोटियों का सहारा है, आप हमको उल्लू बनाते हैं, जिसमें रोटियों से भी जायँ!
आजाद - भई, माफ करना, अब तुम्हारी ही सी कहेंगे।
खोजी - मुरे रंग तो बाँधने दो जरा।
आजाद - आप रंग जमाएँ, मैं आपकी ताईद करूँगा।
ख्वाजा साहब का चेहरा खिल गया कि अब गप के पुल बाँध दूँगा और जब आजाद मेरा कलमा पढ़ने लगेंगे तो फिर क्या पूछना।
नवाब - ख्वाजा साहब, यह क्या बातें हो रही हैं हमसे छिप-छिप कर?
खोजी - खुदावंद, एक मामले पर बहस हो रही थी।
नवाब - कैसी बहस किस मामले पर?
खोजी - हुजूर, मेरी राय है कि इस मुल्क में भी नहरें जारी होनी चाहिए और आजाद पाशा की राय है कि नहरों से आबपाशी तो होगी, मगर मुल्क की आबहवा खराब हो जायगी।
मस्तियाबेग - अख्खाह, तो यह कहिए कि आप शहर के अंदेशे में दुबले हैं!
खोजी - तुम गौखे हो, यह बातें क्या जानो। पहले यह तो बताओ कि एक बाट्री में कितनी तोपें होती हैं? चले वहाँ से सुकरात की दुम बनके।
नवाब - खोजी है तो सिड़ी, मगर बातें कभी-कभी ठिकाने की करता है।
आजाद - इन बातों का तो इन्हें अच्छा तजरबा है।
गफूर - हुजूर, इनको बड़ी-बड़ी बातें मालूम हुई हैं।
आजाद - साहब, सफर भी तो इतना दूर-दराज का किया था! कहाँ हिंदोस्तान, कहाँ रूम! खयाल तो कीजिए।
मीर साहब - क्यों ख्वाजा साहब, पहाड़ तो आपने बहुत देखे होंगे?
खोजी - एक-दो नहीं, करोड़ों, आसमान से बातें करने वाले।
नवाब - भला आसमान वहाँ से कितनी दूर रह जाता है?
खोजी - हुजूर, बस एक दिन की राह। मगर जीना कहाँ?
नवाब - और क्यों साहब, वहाँ से तो खूब मालूम होता होगा कि मेंह किस जगह से आता है?
खोजी - जनाब, पहाड़ की चोटी पर मैं था और मेंह नीचे बरस रहा था।
नवाब - क्यों साहब, यह सच है? अजीब बात है भाई!
आजाद - जी हाँ, यह तो होता ही है, पहाड़ पर से नीचे मेंह का बरसना साफ दिखाई देता है।
मस्तियाबेग - और जो यह मशहूर है कि बादल तालाबों में पानी पीते हैं?
खोजी - यह तुम जैसे गधों में मशहूर होगा।
नवाब - भई, यह तजरबेकार लोग हैं, जो बयान करें वह सही है।
खोजी - हुजूर ने दरिया डैन्यूब का नाम तो सुना ही होगा। इतना बड़ा दरिया है कि उसके आगे समुद्र भी कोई चीज नहीं। इतना बड़ा दरिया और एक रईस के दीवानखाने के हाते से निकला है।
मीर साहब - ऐं, हमें तो यकीन नहीं आता।
खोजी - आप लोग कुएँ में मेढक हैं।
नवाब - मकान के हाते से! जैसे हमारे मकान का यह हाता?
खोजी - बल्कि इससे भी छोटा। हुजूर, खुदा की खुदाई है, इसमें बंदे को क्या दखल। और खुदावंद, हमने इस्तंबोल में एक अजायबखाना देखा।
मीर साहब - तुमको तो किसी ने धोखे में बंद नहीं कर दिया।
खोजी - बस, इन जाँगलुओं को और कुछ नहीं आता!
नवाब - अजी, तुम अपना मतलब कहो, उस अजायबखाने में कोई नई बात थी?
खोजी - हुजूर, एक तो हमने भैंसा देखा। भैंसा क्या, हाथी का पाठा था।और नाक के ऊपर एक सींग। इत्तिफाक से जिस मकान में वह बंद था उसकी तीन छड़ें टूट गई थीं। उसे रास्ता मिल तो सिमट-सिमट कर निकला। जनाब, कुछ न पूछिए, दो हजार आदमी गड़-बड़ एक के ऊपर एक इस तरह गिरे कि बेहोश। कोई चार-पाँच सौ आदमी जख्मी हुए। मैंने यह कैफियत देखी तो सोचा, अगर तुम भी भागते हो तो हँसी होगी। लोग कहेंगे कि यह फौज में क्या करते थे। जरा से भैंसे को देख कर डर गए। बस एक बार झपटके जो जाता हूँ तो गरदन हाथ आई, बस बाएँ हाथ से गरदन दबाई और दबोचके बैठ गया, फिर लाख-लाख जोर उसने मारे, मगर मैंने हुमसने न दिया। जरा गरदन हिलाई और मैंने दबोचा। जितने आदमी खड़े थे सब दंग हो गए कि वाह से पहलवान! आखिर जब मैंने देखा कि उसका दम टूट गया तो गरदगन छोड़ दी। फिर उसने बहुत चाहा कि उठे, मगर हुमन न सका। मुझसे लोग मिन्नतें करने लगे कि उसे कठघरे में डाल दो, ऐसा न हो कि बफरे तो सितम ही कर डाले। इस पर मैंने उसे एक थप्पड़ जो लगाया तो चौंधिया कर तड़ से गिरा।
मस्तियाबेग - इसके क्या मतलब? आपके खौफ के मारे लेटा तो था ही, फिर लेटे-लेटे क्यों गिर पड़ा?
खोजी - बाही हो। बस हुजूर, मैंने कान पकड़ा तो इस तरह साथ हो लिया जैसे बकरी। उसी कठघरे में फिर बंद कर दिया।
नवाब - क्यों साहब, यह किस्सा सच है?
आजाद - मैं उस वक्त मौजूद न था, शायद सच हो।
मीर साहब - बस-बस, कलई खुल गई, गजब खुदा का, झूठ भी तो कितना! इस वक्त जी चाहता है, उठके ऐसा गुद्दा दूँ कि दस गज जमीन में धँस जाय।
खोजी - कसम है खुदा की, जो अब की कोई बात मुँह से निकली तो इतनी करौलियाँ भोंकूँगा कि उम्र भर याद करेगा। तू अपने दिल में समझा क्या है! यह सूखी हड्डियाँ लोहे की हैं।
नवाब - इतने बड़े जानवर से इनसान क्या मुकाबला कर सकता है?
आजाद - हुजूर बात यह है कि बाज आदमियों को यह कुदरत होती है कि इधर जानवर को देखा, उधर उसकी गरदन पकड़ी। ख्वाजा साहब को भी यह तरकीब मालूम है।
नवाब - बस, हमको यकीन आ गया।
मस्तियाबेग - हाँ खुदावंद, शायद ऐसा ही हो।
मुसाहब - जब हुजूर की समझ में एक बात आ गई तो आप किस खेत की मूली हैं।
मीर साहब - और जब एक बात की लिम भी दरियाफ्त हो गई तो फिर उसमें इनकार करने की क्या जरूरत?
नवाब - क्यों साहब, लड़ाई में तो आपने खून नाम पैदा किया है, बताइए कि आपके हाथ से कितने आदमियों का खून हुआ होगा?
खोजी - गुलाप से पूछिए, इन्होंने कुल मिला कर दो करोड़ आदमियों को मारा होगा।
नवाब - दो करोड़!
खोजी - जभी तो रूम और शाम, तूरान और मुलतान, आस्ट्रिया और इँगलिस्तान, जर्मनी और फ्रांस में इनका नाम हुआ है।
नवाब - ओफ्फोह, खोजी को इतने मुल्कों के नाम याद हैं।
आजाद - हुजूर, अब इन्हें वह खोजी न समझिए।
खोजी - खुदावंद, मैंने एक दरिया पर अकेले एक हजार आदमियों का मुकाबिला किया।
नवाब - भाई, मुझे तो यकीन नहीं आता।
मस्तियाबेग - हुजूर, तीन हिस्से झूठ और एक हिस्सा सच।
मीर साहब - हम तो कहते हैं, सब डींग है।
आजाद - नवाब साहब, इस बात की तो हम भी गवाही देते हैं। इस लड़ाई में मैं शरीक न था, मगर मैंने अखबार में इनकी तारीफ देखी थी और वह अखबार मेरे पास मौजूद है।
नवाब - तो अब हमको यकीन आ गया, जब जनरल आजाद ने गवाही दी तो फिर सही है।
खोजी - वह मौका ही ऐसा था।
आजाद - नहीं-नहीं भाई, तुमने वह काम किया कि बड़े-बड़े जनरलों ने दाँतों अँगुली दबाई। वहीं तो सफशिकन भी तुम्हें नजर आए थे?
खोजी - हुजूर, यह कहना तो मैं भूल ही गया। जिस वक्त मैं दुश्मनों का सुथराव कर रहा था, उसी वक्त सफशिकन को एक दरख्त पर बैठे देखा।
नवाब - लो साहबो, सुनो, मेरे सफशिकन रूम की फौज में भी जा पहुँचे।
मुसाहब - सुभान-अल्लाह! वाह रे सफशिकन, बहादुर हो तो ऐसा हो।
खोजी - खुदाबंद, इस डाँट-डपट का बटेर भी कम देखा होगा।
नवाब - देखा ही नहीं, कम कैसा? अरे मियाँ, गफूर, जरा घर में इत्तला करो कि सफशिकन खैरियत से हैं।
गफूर डयोढ़ी पर आया। वहाँ खिदमतगार, दरबान, चपरासी सब नवाब की सादगी पर खिलखिला कर हँस रहे थे।
खिदमतगार - ऐसा उल्लू का पट्ठा भी कहीं न देखा होगा।
गफूर - निरा पागल है, वल्लाह निरा पागल।
चपरासी - अभी देखिए, तो क्या-क्या किस्से गढ़े जाते हैं।
महरी ने यह खबर बेगम साहब को दी तो उन्होंने कहकहा लगाया और कहा - इन पाजियों ने नवाब को अँगुलियों पर नचाना शुरू किया। जाके कह दो कि जरी खड़े-खड़े बुलाती हैं।
नवाब साहब उठे, मगर उठते ही फिर बैठ गए और कहा - भाई, जाने को तो मैं जाता हूँ, मगर कहीं उन्होंने मुफस्ल हाल पूछा तो?
आजाद - ख्वाजा साहब से उनका हाल पूछिए, इन्हें खूब मालूम हैं।
खोजी - साथ तो सच पूछिए तो मेरा ही उनका बहुत रहा। इनके अंगरेजी लिबास से चकराते थे।
नवाब - भला किस मोरचे पर गए थे या नहीं, या दूर ही से दुआ दिया किए?
खोजी - खुदावंद गुलाम जो अर्ज करेगा, किसी को यकीन न आएगा, इस पर मैं झल्लाऊँगा और मुफ्त ठाँय-ठाँय होगी।
नवाब - क्या मजाल, खुदा की कसम, अब तुम मेरे खास मुसाहब हो, तुमने तो तजरबा हासिल किया है वह औरों को कहाँ नसीब। तुम्हारा कौन मुकाबिला कर सकता है?
खोजी - यह हुजूर के इकबाल का असर है, वरना मैं तो किसी शुमार में न था। बात यह हुई कि गुलाम एक नदी के किनारे अफीम घोल रहा था कि जिस दरख्त की तरफ नजर डालता हूँ, रोशनी छाई हुई है। घबराया कि या खुदा, यह क्या माजरा है, इसी फिक्र में पड़ा था कि हुजूर सफशिकन न जाने किधर से आ कर मेरे हाथ पर बैठ गए।
नवाब - खुदा का शुक्र है, तुम तो बड़े खुश हुए होगे?
खोजी - हुजूर, जैसे करोड़ों रुपए मिल गए। पहले हुजूर का हाल बयान किया। फिर शहर का जिक्र करने लगे। दुनिया की सभी बातें उन पर रोशन थीं। बस हुजूर, तो यह कैफियत हुई कि दुश्मन किसी लड़ाई में जम ही न सके। इधर रूसियों ने तोपों पर बत्ती लगाई, उधर मेरे शेर ने कील ठोंक दी।
नवाब - वाह-वाह, सुभान-अल्लाह, कुछ सुनते हो यारो?
मस्तियाबेग - खुदावंद, जानवर क्या, जादू है!
खोजी - भला उनको कोई बटेर कह सकता है! और जानवर तो आप खुद हैं। आप उनकी शान में इतना सख्त और बेहूदा लफ्ज मुँह से निकालते हैं।
नवाब - मस्तियाबेग, अगर तुमको रहना है तो अच्छी तरह रहो, वरना अपने घर का रास्ता लो। आज तो सफशिकन को जानवर बनाया, कल को मुझे जानवर बनाओगे।
मुसाहब - खुदावंद, यह निरे फूहड़ हैं। बात करने की तमीज नहीं।
गफूर - अच्छा तो अब खामोश ही रहिए साहब, कुसूर हुआ।
खोजी - नहीं, सारा हाल तो सुन चुके, मगर तब भी अपनी ही सी कहे जाएँगे, दूसरा अगर इस वक्त जानवर कहता तो गलफड़े चीर कर धर देता, न हुई करौली!
नवाब - जाने भी दो, बेशऊर है।
खोजी - खुदावंद, खुशी में तो सभी लड़ सकते हैं, मगर तरी में लड़ना मुश्किल है। सो हुजूर, तरी की लड़ाई में सफशिकन सबसे बढ़ कर रहे। एक दफा का जिक्र है कि एक छोटा-दरिया था। इस तरफ हम, उस तरफ दुश्मन। मोरचे-बंदी हो गई, गोलियाँ चलने लगीं, बस क्या देखता हूँ कि सफशिकन ने एक कंकरी ली और उस पर कुछ कर पढ़ इस जोर से फेंकी कि एक तोप के हजार टुकड़े हो गए।
नवाब - वाह-वाह, सुभान अल्लाह।
मुसाहब - क्या पूछना है, एक जरा की कंकरी की यह करामात!
खोजी - अब सुनिए, कि दूसरी कंकरी जो पढ़ कर फेंकी तो एक ओर तोप फटी और बहत्तर टुकड़े हो गए। कोई तीन-चार हजार आदमी काम आए।
नवाब - इस कंकरी को देखिएगा। वल्लाह-वल्लाह! एक हजार टुकड़े तोप के और तीन-हजार आदमी गायब! वाह रे मेरे सफशिकन।
खोजी - इस तरह कोई चौदह तोपें उड़ा दीं और जितने आदमी थे सब भुन गए। कुछ न पूछिए हुजूर, आज तक किसी की समझ में न आया कि यह क्या हुआ। अगर एक गोला भी पड़ा होता तो लोग समझते, उसमें कोई ऐसा मसाला रहा होगा, मगर कंकरी तो किसी को मालूम भी नहीं हुई।
नवाब - बला की कंकरी थी कि तोप के हजारों टुकड़े कर डाले और हजारों आदमियों की जान ली। भई, जरा कोई जा कर सफशिकन की काबुक तो लाओ?
इतने में महरी ने फिर आ कर कहा - हुजूर; बड़ा जरूरी काम है, जरा चल कर सुन लें। नवाब साहब खोजी को ले कर जनानखाने में चले। खोजी की आँखों में दोहरी पट्टी बाँधी गई और वह डयोढ़ी में खड़े किए गए।
बेगम - क्या सफशिकन का कोई जिक्र था, कहाँ हैं आजकल?
नवाब - यह कुछ न पूछो, रूम जा पहुँचे। वहाँ कई लड़ाइयों में शरीक हुए और दुश्मनों का काफिला तंग कर दिया। खुदा जाने, यह सब किससे सीखा है?
बेगम - खुदा की देन है, सीखने से भी कहीं ऐसी बातें आती हैं?
नवाब - वल्लाह, सच कहती हो बेगम साहब! इस वक्त तुमसे जी खुश हो गया। कहाँ तोप, कहाँ सफशिकन, जरा खयाल तो करो।
बेगम - अगर पहले से मालूम होता तो सफशिन को हजार परदों में छिपाके रखती। हाँ, खूब याद आया, वह तो अभी जीते-जागते हैं और तुमने उनकी कब्र बनवा दी।
नवाब - वल्लाह, खूब याद दिलाया। सुभान-अल्लाह!
बेगम - यह तो कोसना हुआ किसी बेचारे को।
नवाब - अगर कहीं यहाँ आ जायँ, और पढ़े लिखे तो हैं ही, कहीं कब्र पर नजर पड़ गई, उस वक्त यही कहेंगे कि यह लोग मेरी मौत मना रहे हैं, क्या झपाके से कब्र बनवा दी। इससे बेहतर यही है कि खुदवा डालूँ।
बेगम - जहन्नुम में जाय। इस अफीमची को घर के अंदर लाने की क्या जरूरत थी?
नवाब - अजी, यह वही हैं जिनको हम लोग खोजी-खोजी कहते हैं। लड़ाई के मैदान में सफशिकन इन्हीं से मिले थे। अगर कहो तो यहाँ बुला लूँ।
बेगम - ऐ जहन्नुम में जाय मुआ, और सुनो, उस अफीमची को घर के अंदर लाएँगे।
नवाब - सुन तो लो। पहले बूढ़ा, पेट में आँत न मुँह में दाँत, दूसरे मातबर, तीसरे दोहरी पट्टी बँधी है।
बेगम - हाँ, इसका मुजायका नहीं, मगर में उन मुए लुंगाड़ों के नाम से जलती हूँ, उन्हीं की सोहबत में तुम्हारा यह हाल हुआ।
नवाब - ऐं, क्या खूब!
खोजी - खुदावंद, गुलाम हाजिर है।
महरी - मैं तो समझी कि कुएँ में से कोई बोला।
बेगम - क्या यह हरदम पिनक में रहता है?
नवाब - ख्वाजा साहब, क्या सो गए?
दरबार - ख्वाजा साहब, देखो सरकार क्या फरमाते हैं?
खोजी - क्या हुक्म है खुदावंद!
बेगम - देखो, खुदा जानता है, ऊँघ रहा था। मैं तो कहती ही थी।
नवाब - भाई, जरा सफशिकन का हाल तो कह चलो।
खोजी - खुदावंद, तो अब आँखें तो खुलवा दीजिए।
बेगम - क्या कुतिया के पिल्ले की आँखें हैं जो अब भी नहीं खुलतीं।
नवाब - पहले हाल तो बयान करो। जरा तोपवाला जिक्र फिर करना, यहाँ किसी को यकीन ही नहीं आता।
खोजी - हुजूर, क्योंकर यकीन आए, जब तक अपनी आँखों से न देखेंगे, कभी न मानेंगे।
नवाब - तो भाई हमने क्योंकर मान लिया, इतना तो सोचो?
खोजी - खुदा ने सरकार को देखने वाली आँखें दी हैं। आप न समझें तो कौन समझे। हुजूर, यह कैफियत हुई कि दरिया के दोनों तरफ आमने-सामने तोपें चढ़ी हुई थीं। बस सफशिकन ने एक कंकरी उठा कर, खुदा जाने क्या जादू फँक दिया कि इधर कंकरी फेंकी और उधर तोप के दो सौ टुकड़ें और हर टुकड़े ने सौ-सौ रूसियों की जान ली।
बेगम - इस झूठ को आग लगे, अफीम पी-पी के निगोड़ों को क्या-क्या सूझती है। बैठे-बैठे एक कंकरी से तोप के सौ टुकड़े हो गए। खुदा का डर ही नहीं।
नवाब - तुम्हें यकीन ही न आए तो कोई क्या करे।
बेगम - चलो, बस खामोश रहो, जरा सा मुआ बटेर और कंकरी से उसने तोप के दो सौ टुकड़े कर डाले। खुदा जानता है, तुम अपनी फस्द खुलवाओ।
नवाब - अब खुदा जाने, हमें जनून है या तुम्हें।
खोजी - खुदावंद, बहस से क्या फायदा! औरतों की समझ में यह बातें नहीं आ सकतीं।
बेगम - महरी, जरा दरबान से कह, इस निगोड़े अफीमची को जूते मारके निकाल दे। खबरदार जो इसको कभी डयोढ़ी में आने दिया।
खोजी - सरकार तो नाहक खफा होती हैं।
बेगम - मालूम होता है, आज मेरे हाथों तुम पिटोगे, अरे महरी, खड़ी सुनती क्या है, जाके दरबान को बुला ला।
हुसैनी दरबान ने आ कर खोजी के कान पकड़े और चपतियाता हुआ ले चला।
खोजी - बस-बस, देखो, कान-वान की दिल्लगी अच्छी नहीं।
महबूबन - अब चलता है या मचलता है?
खोजी - (टोपी जमीन से उठा कर) अच्छा, अगर आज जीते बच जाओ तो कहना। अभी एक थप्पड़ दूँ तो दम निकल जाय।
इतना कहना था कि दूसरी महरी आ पहुँची और कान पकड़ कर चपतियाने लगी। खोजी बहुत बिगड़े, मगर सोचे कि अगर सब लोगों को मालूम हो जायगा कि महरियों की जूतियाँ खाईं तो बेढब होगी। झाड़-पौंछ कर बाहर आए और एक पलंग पर लेट रहे।
खोजी के जाने के बाद बेगम साहब ने नवाब को खूब ही आड़े हाथों लिया। जरा सोचो तो कि तुम्हें हो क्या गया है। कहाँ बटेर और कहाँ तोप, खुदा झूठ न बोलाए तो बिल्ली खा गई हो, या इन्हीं मुसाहबतों में से किसी ने निकल कर बेच लिया होगा और तुम्हें पट्टी पढ़ा दी कि वह सफशिकन थे। आखिर तुम किसी अपने दोस्त से पूछो। देखो, लोगों की क्या राय हैं?
नवाब - खुदा के लिए मेरे मुसाहबों को न कोसों, चाहे मुझे बुरा-भला कह लो।
बेगम - इन मुफ्तखोरों से खुदा समझे।
नवाब - जरा आहिस्ता-आहिस्ता बोलो, कहीं वह सब सुन लें, तो सब के सब चलते हों और मैं अकेला मक्खियाँ मारा करूँ।
बेगम - ऐ है, ऐसे बड़े खरे हें! तुम जूतियाँ मार के निकालो तो भी ये चूँ न करें। जो बस निकल जायँ तो होगा क्या? वह कल जाते हों तो आज ही जायँ।
महरी - हुजूर तो चूक गईं, जरी इस मुए खोजी की कहानी तो सुनी होती। हँसते-हँसते लोट जातीं।
बेगम - सच, अच्छा तो उसको बुलाओ जरी, मगर कह देना कि झूठ बोला और मैंने खबर ली।
नवाब - या खुदा, यह तुमसे किसने कह दिया कि वह झूठ ही बोलेगा। इतने दिनों से दरबार में रहता है, कभी झूठ नहीं बोला तो अब क्यों झूठ बोलने लगा?और आखिर इतना तो समझो कि झूठ बोलने से उसको मिल क्या जायगा?
बेगम - अच्छा, बुलाओ। मैं भी जरा सफशिकन का हाल सुनूँ।
महरी ने जा कर खोजी को बुलाया। ख्वाजा साहब झल्लाए हुए पलंग पर पड़े थे । बोले - जा कर कह दो, अब हम वह खोजी नहीं हैं जो पहले थे, आने-वाले और जानेवाले, बुलानेवाले और बुलवानेवाले, सबको कुछ कहता हूँ।
आखिर लोगों ने समझाया तो ख्वाजा साहब ड्योढ़ी में आए और बोले - आदाब अर्ज करता हूँ सरकार, अब क्या फिर कुछ मेहरबानी की नजर गरीब के हाल पर होगी? सभी कुछ इनाम बाकी हो तो अब मिल जाय।
बेगम - सफशिकन का कुछ हाल मालूम हो तो ठीक-ठीक कह दो। अगर झूठ बोले तो तुम जानोगे।
खोजी - वाह री किस्मत, हिंदोस्तान से बंबई गए, वहाँ सब के सब 'हुजूर- हुजूर' कहते थे। तुर्की और रूस में कोहकाफ की परियाँ हाथ बाँधे हाजिर रहती थीं। मिस रोज एक-एक बात पर जान देती थीं, अब भी उसकी याद आ जाती है तो रात भर अच्छे-अच्छे ख्वाब देखा करता हूँ -
ख्वाब में एक नूर आता है नजर; याद में तेरी जो सो जाते हैं हम।
बेगम - अब बताओ, है पक्का अफीमची या नहीं, मतलब की बात एक न कही वाही-तबाही बकने लगा।
खोजी - एक दफे का जिक्र है कि पहाड़ के ऊपर तो रूसी और नीचे हमारी फौज। हमको मालूम नहीं कि रूसी मौजूद है। वहीं पड़ाव का हुक्म दे दिया। फौज तो खाने पीने का इंतजाम करने लगी और मैं अफीम घोलने लगा कि एकाएक पहाड़ पर से तालियों की आवाज आई। मैं प्याली ओठों तक ले गया था कि ऊपर से रूसियों ने बाढ़ मारी। हमारे सैकड़ों आदमी घायल हो गए। मगर वाह रे, खुदा गवाह है, प्याली हाथ से न छूटी। एकाएक देखता हूँ कि सफशिकन उड़े चले आते हैं, आते ही मेरे हाथ पर बैठ कर चोंच अफीम से तर की, और उसके दो कतरे पहाड़ पर गिरा दिए। बस धमाके की आवाज हुई और पहाड़ फट गया। रूस की सारी फौज उसमें समा गई। मगर हमारी तरफ का एक आदमी भी न मरा। मैंने सफशिकन का मुँह चूम लिया।
बेगम - भला सफशिकन बातें किस जबान में करते हैं?
खोजी - हुजूर, एक जबान हो तो कहूँ, उर्दू, फारसी, अरबी, तुर्की, अंगरेजी।
बेगम - क्या और जबानों के नाम नहीं याद हैं?
खोजी - अब हुजूर से कौन कहे।
नवाब - अब यकीन आया कि अब भी नहीं? और जो कुछ पूछना हो, पूछ लो।
बेगम - चलो, बस चुपके बैठ रहो। मुझे रंज होता है कि इन हरामखोरों के पास बैठ-बैठ तुम कहीं के न रहे।
नवाब - हाय अफसोस, तुम्हें यकीन ही नहीं आता, भला सोचो तो, यह सब के सब मुझसे क्यों झूठ बोलेंगे। खोजी को मैं कुछ इनाम दे देता हूँ या कोई जागीर लिख दी है इसके नाम?
खोजी - खुदावंद, अगर इसमें जरा भी शक हो तो आसमान फट पड़े। झूठ बात तो जबान से निकलेगी ही नहीं, चाहे कोई मार डाले।
बेगम - अच्छा, ईमान से कहना कि कभी मोरचे पर भी गए या झूठ-मूठ के फिकरे ही बनाया करते हो?
खोजी - हुजूर मालिक हैं, जो चाहें, कह दें, मगर गुलाम ने जो बात अपनी आँखों देखी, वह बयान की। अगर फर्क हो तो फाँसी का हुक्म दे दीजिए।
एक बूढ़ी महरी ने खोजी की बातें सुनने के बाद बेगम से कहा - हुजूर, इसमें ताज्जुब की कौन बात है, हमारे महल्ले में एक बड़ा काला कुत्ता रहा करता था। मुहल्ले के एक लड़के उसे मारते, कान पकड़ कर खींचते, मगर वह चूँ भी नहीं करता था। एक दिन महल्ले के चौकीदार ने उस पर एक ढेला फेंका। ढेला उसके कान में लगा और कान से खून बहने लगा। चौकीदार दूसरा ढेला मारना ही चाहता था कि एक जोगी ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, क्यों जान का दुश्मन हुआ है बाबा। यह कुत्ता नहीं है। उसी रात को चौकीदार ने ख्वाब देखा कि कुत्ता उसके पास आया! और अपना घाव दिखा कर कहा - या तो हमीं नहीं, या तुम्हीं नहीं। सबेरे जो चौकीदार उठा तो उसने पास-पड़ोसवालों से ख्वाब का जिक्र किया। मगर अब देखते हें तो कुत्ते का कहीं पता ही नहीं। दोपहर को चौकीदार कुएँ पर पानी भरने गया तो पानी देखते ही भूँकने लगा।
बेगम - सच?
महरी - हुजूर, अल्लाह बचाए इस बला से, कुत्ते के भेस में क्या जाने कौन था।
नवाब - अब इसको क्या कहोगी भई, अब भी सफशिकन के कमाल को न मानोगी?
बेगम - हाँ, ऐसी बातें तो हमने भी सुनी हैं, मगर...
खोजी - अगर-मगर की गुँजायश नहीं, गुलाम आँखों देखी कहता है। एक किस्सा और सुनिए, आपको शायद इसका भी यकीन न आए। सफशिकन मेरे सिर पर आ कर बैठ गए और कहा, रूसियों की फौज में धँस पड़ो। मेरे होश उड़ गए। बोला, साहब आप हैं कहाँ? मेरी जान जायगी, आपके नजदीक दिल्लगी है, मगर वह सुनते किसकी हैं। कहा, चलो तो तुम! आधी रात थी, घटा छाई हुई थी, मगर मजबूरन जाना पड़ा। बस, रूसी फौज में जा पहुँचा। देखा, कोई गाता है, कोई सोता है। हम सबको देखते हैं, मगर हमें कोई नहीं देखता। सफशिकन अस्तबल की तरफ चले और फुदक के एक घोड़े की गरदन पर जा बैठे। घोड़ा धम से जा गिरा, अब जिस घोड़े की गरदन पर बैठते हैं, जमीन पर लोटने लगता है। इस तरह कोई सात हजार घोड़े उसी दम धम-धम करके लोट गए। फौज से निकले तो आपने पूछा, कहो आज की दिल्लगी देखी, कितने सवार बेकार हुए!
मैं - हुजूर, पूरे सात हजार!
सफशिकन - आज इतना ही बहुत है, कल फिर देखी जायगी, चलो, अपने पड़ाव पर चलें। चलते-चलते जब थक जाओ तो हमसे कह दो।
मैं - क्यों, आपसे क्या कह दूँ?
सफशिकन - इसलिए कि हम उतर जायँ।
मैं - वाह, मुट्ठी भर के आप, भला आपके बैठने से मैं क्या थक जाऊँगा? आप क्या और आपका बोझ क्या?
इतना सुनना था कि खुदा जाने ऐसा कौन सा जादू कर दिया कि मेरा कदम उठाना मुहाल हो गया। मालूम होता था, सिर पर पहाड़ का बोझ लदा हुआ है। बोला, हुजूर, अब तो बहुत ही थक गया, पैर ही नहीं उठते। बस, फुर्र से उड़ गए। ऐसा मालूम हुआ कि सिर से दस-बीस करोड़ मन बोझा उतर गया।
नवाब - यह तो भाई, नई-नई बातें मालूम होती जाती हैं। वाह रे सफशिकन।
खोजी - हुजूर, खुदा जाने, किस औलिया ने यह भेस बदला है।
बेगम साहब ने इस वक्त तो कुछ न कहा, मगर ठान ली कि आज रात को नवाब साहब को खूब आड़े हाथों लूँगी। नवाब साहब ने समझा कि बेगम साहब को सफशिकन के कमाल का यकीन आ गया। बाहर आ कर बोले - वल्लाह, तुमने तो ऐसा समा बाँध दिया कि अब बेगम साहब को उम्र भर शक न होगा।
खोजी - हुजूर, सब आँखों देखी बात बयान की है।
नवाब - यही तो मुश्किल है कि वह सच्ची बातों को भी बनावट समझती हैं।
खोजी - समझ में नहीं आता, मुझसे क्यों इतनी नाराज हैं।
नवाब - नाराज नहीं हैं जी, मतलब यह कि अब इस बात को सिवा पढ़े-लिखे आदमी के और कौन समझ सकता है। और भई, मैं सोचता हूँ कि आखिर कोई झूठ क्यों बोलने लगा, झूठ बोलने में किसी को फायदा ही क्या है।
खोजी - ऐ सुभान-अल्लाह, क्या बात हुजूर ने पैदा की है! सच-मुच कोई झूठ क्यों बोलने लगा। एक तो झूठा कहलाए, दूसरे बे आबरू हो।
नवाब - भाई, हम इनसान को खूब पहचानते हैं। आदमी का पहचानना कोई हमसे सीखे। मगर दो को हमने भी नहीं पहचाना। एक तुमको, दूसरे सफशिकन को।
खोजी - खुदावंद, मैं यह न मानूँगा, हुजूर की नजर बड़ी बारीक है।
नवाब साहब खोजी की बातों से इतने खुश हुए कि उनके हाथ में हाथ दिए बाहर आए। मुसाहबों ने जो इतनी बेतकल्लुफी देखी तो जल मरे, आपस में इशारे होने लगे -
मस्तियाबेग - ऐं, मियाँ खोजी ने तो जादू कर दिया यारो!
गफूर - जरूर किसी मुल्क से जादू सीख आए हैं।
मस्तियाबेग - तजरबाकार हो गया न, अब इसका रंग कुछ जम गया।
गफूर - कैसा कुछ, अब तो सोलहों आने के मालिक हैं।
मिरजा - अरे मियाँ, दोनों हाथ में हाथ दे कर निकले, वाह री किस्मत। मगर यह खुश किस बात पर हुए?
गफूर - इनको अभी तक यही नहीं मालूम, बताइए साहब!
मस्तियाबेग - मियाँ, अजब, कूढमगज हो, कहने लगे, खुश किस बात पर हुए। सफशिकन की तारीफों के पुल बाँध दिए। सूझ ही तो है, अब लाख चाहें कि उसका रंग फीका कर दें, मुमकिन नहीं।
मिरजा - इस वक्त तो खोजी का दिमाग चौथे आसमान पर होगा।
मस्तियाबेग - अजी, बल्कि और उसके भी पार, सातवें आसमान पर।
गफूर - मैं बाग में गया था, देखा, नवाब साहब मोढ़े पर बेठे हैं और खोजी तिपाई पर बैठा हुआ, खास सरकार की गुड़गुड़ी पी रहा है?
मिरजा - सच, तुम्हें खुदा की कसम!
गफूर - चल कर देख लीजिए न, बस जादू कर दिया। यह वही खोती हैं जो चिलमें भरा करते थे, मगर जादू का जोर, अब दोस्त बने हुए हैं।
मिरजा - खोजी को सब के सब मिल कर मुबारकबाद दो और उनसे बढ़िया दावत लो। अब इससे बढ़ कर कौन दरजा है?
इतने में नवाब साहब खोजी को लिए हुए दरबार में आए, मुसाहब उठ खड़े हुए। ख्वाजा साहब को सरकार ने अपने करीब बिठाया और आजाद से बोले - हजरत, आपकी सोहबत में ख्वाजा साहब पारस हो गए।
आजाद - जनाब, यह सब आपकी खिदमत का असर है। मेरी सोहबत में तो थोड़े ही दिनों से हैं, आपकी शागिर्दी करते बरसों गुजर गए।
नवाब - वाह, अब तो ख्वाजा साहब मेरे उस्ताद हैं जनाब!
मस्तियाबेग - खुदावंद, यह क्या फरमाते हैं। हुजूर के सामने खोजी की क्या हस्ती है?
नवाब - क्या बकता है? खोजी की तारीफ से तुम सब क्यों जल मरते हो?
मिरजा - खुदावंद, यह मस्तियाबेग तो दूसरों को देख कर हमेशा जलते रहते हैं।
गफूर - यह परले सिर के गुस्ताख हैं, बात तो समझे नहीं, जो कुछ मुँह में आया, बक दिए। आखिर ख्वाजा साहब बेचारे ने इनका क्या बिगाड़ा!
नवाब - मुझको सुनो साहब, दिल में पुरानी कुदूरत है।
मुसाहब - सुभान-अल्लाह! हुजूर, बस यही बात है।
खोजी - हुजूर इसका ख्याल न करें। यह जो चाहें, कहें। भाई गफूर, जरा सा पानी पीएँगे।
नवाब - ठंडा पानी लाओ ख्वाजा साहब के वास्ते।
खिदमतगार सुराही का झला ठंडा पानी लाया, चाँदी के कटोरे में पानी दिया। जब ख्वाजा साहब पानी पी चुके तो नवाब साहब ने पानदान से दो गिलौरियाँ निकाल कर खास अपने हाथ से उनको दीं।
मिरजा - मैंने मस्तियाबेग से हजार बार कहा कि भाई, तुम किसी को देख के जले क्यों मरते हो, कोई तुम्हारा हिस्सा नहीं छीन ले जाता, फिर ख्वाहम-ख्वाह के लिए अपने को क्यों हलकान करते हो।
नवाब - मुझे इस वक्त उसकी बातें बहुत नागवार मालूम हुई।
मुसाहब - जानते हैं कि इस दरबार में खुशामदियों की दाल नहीं गलती, फिर भी अपनी हरकत से बाज नहीं आते।
मुसाहब लोग तो बाहर बैठे सलाह कर रहे थे, इधर दरबार में नवाब साहब, आजाद और खोजी में यूरोप के रईसों का जिक्र होने लगा। आजाद ने यूरोप के रईसों की खूब तारीफ की।
नवाब - क्यों साहब, हम लोग भी उन रईसों की तरह रह सकते हैं?
आजाद - बेशक, अगर उन्हीं की राह पर चलिए। आपकी सोहबत में चंडूबाज, मदकिए, चरसिए इस कसरत से हैं कि शायद ही कोई इनसे खाली हो। यूरोप के रईसों के यहाँ ऐसे आदमी फटकने भी न पाएँ!
नवाब - कहिए तो ख्वाजा साहब के सिवा और सबको निकाल दूँ।
खोजी - निकालिए चाहे रहने दीजिए, मगर इतना हुक्म जरूर दे दीजिए कि आपके सामने दरबार में न कोई चंडू के छींटे उड़ाए, न मदक के दम लगाए और न अफीम घोले।
आजाद - दूसरी बात यह है कि खुशामदी लोग आपकी झूठी तारीफे कर-करके खुश करते हैं। इनको झिड़क दीजिए और इनकी खुशामद पर खुश न होइए।
नवाब - आप ठीक कहते हैं। वल्लाह, आपकी बात मेरे दिल में बैठ गई। यह सब भर्रे दे-दे कर मुझे बिलटाए देते हैं।
आजाद - आपको खुदा ने इतनी दौलत दी है, यह इस वास्ते नहीं कि आप खुशामदियों पर लुटाएँ। इसको इस तरह काम में लाएँ कि सारी दुनिया में नहीं तो हिंदोस्तान भर में आपका नाम हो जाय। खैरातखना कायम कीजिए, अस्पताल बनवाइए, आलिमों की कदर कीजिए। मैंने आपके दरबार में कसिी आलिम फाजिल को नहीं देखा।
नवाब - बस, आज ही से इन्हें निकाल बाहर करता हूँ।
आजाद - अपनी आदतें भी बदल डालिए, आप दिन को ग्यारह बजे सो कर उठते और हाथ-मुँह धो कर चंडू के छींटे उड़ाते हैं। इसके बाद इन फिकरेबाजों से चुहल होती है। सुबह का खाना आपको तीन बजे नसीब होता है। आप फिर आराम करते हें तो शाम से पहले नहीं उठते। फिर वही चंडू और मदक का बाजार गर्म होता है। कोई दो बजे रात को आप खाना खाते हैं। अब आप ही इनसाफ कीजिए कि दुनिया में आप कौन सा काम करते हैं।
नवाब - इन बदमाशों ने मुझे तबाह कर दिया।
आजाद - सबेरे उठिए, हवा खाने जाइए, अखबार पढ़िए, भले आदमियों की सोहबत में बैठिए, अच्छी-अच्छी किताबें पढ़िए, जरूरी कागजों को समझिए, फिर देखिए कि आपकी जिंदगी कितनी सुधर जाती हैं।
नवाब - खुदा की कसम, आज से ऐसा ही करूँगा,एक-एक हर्फ की तामील न हो तो समझ लीजिएगा, बड़ा झूठा आदमी हैं।
खोजी - हुजूर, मुझे तो बरसों इस दरबार में हो गए, जब सरकार ने कोई बात ठान ली तो फिर चाहे जमीन और आसमान एक तरफ हो जाय, आप उसके खिलाफ कभी न करेंगे। बरसों से यही देखता आता हूँ।
आजाद - एक इश्तहार दे दीजिए कि लोग अच्छी-अच्छी किताबें लिखें, उन्हें इनाम दिया जायगा। फिर देखिए, आपका कैसा नाम होता है!
नवाब - मुझे किसी बात में उज्र नहीं है।
उधर मुसाहबों में और ही बातें हो रही थीं -
मस्तियाबेग - वल्लाह, आज तो अपना खून पी कर रह गया यारो।
मिरजा - देखते हो, किस तरह झिड़क दिया!
मस्तियाबेग - झिड़क क्या दिया, बस कुछ न पूछो, मैं - जान-बूझ कर चुप हो रहा, नहीं बेढब हो जाती। किसी ने अपनी इज्जत नहीं बेची है। और अब आपस में सलाहें हो रही हैं। खोजी ने सबको बिलटाया।
मस्तियाबेग - कोई लाख कहे, हम न मानेंगे, यह सब जादू का खेल हैं।
गफूर - मियाँ, इसमें क्या शक है, यह जादू नहीं तो है क्या?
मिरजा - अजी, उल्लू का गोश्त नवाब साहब को न खिला दिया हो तो नाक कटवा डालूँ। इन लोगों ने मिल कर उल्लू का गोश्त खिला दिया है, जभी तो उल्लू बन गए, अब उनसे कहे कौन?
मस्तियाबेग - कहके बहुत खुश हुए कि अब किसी दूसरे को हिम्मत होगी।
गफूर - अब तो कुछ दिन खोजी की खुशामद करनी पड़ेगी।
मस्तियाबेग - हमारी जूती उस पाजी की खुशामद करती है।
मिरजा - फिर निकाले जाओगे, यहाँ रहना है तो खोजी को बाप बनाओ, दरिया में रहना और मगर से बैर?
मस्तियाबेग - दो-चार दिन रहके यहाँ का रंग-ढंग देखते हैं। अगर यही हाल रहा तो हमारा इस्तीफा है, ऐसी नौकरी से बाज आए! बराबरवालों की खुशामद हमसे न हो सकेगी।
मीर साहब - बराबरवाले कौन? तुम्हारे बराबरवाले होंगे। हम तो खोजी को जलील समझते हैं।
गफूर - अरे साहब, अब तो यह सबके अफसर हैं और हम तो उन्हें गुड़-गुड़ी पिला चुके। आप लोग उन्हें मानें या न मानें, हमारे तो मालिक हैं।
मिरजा - सौ बरस बाद घूरे के भी दिन फिरते हैं। भाईजान, किसी को इसका गुमान भी था कि खोजी को सरकार इस तपाक से अपने पास बिठाएँगे, मगर अब आँखों देख रहे हैं।
नवाब साहब बाहर आए तो इस ढंग से कि उनके हाथ में एक छोटी सी गुड़गुड़ी और ख्वाजा साहब पी रहे हैं। मुसाहबों के रहे-सहे होश भी उड़ गए। ओफ्फोह, सरकार के हाथ में गुड़गुड़ी और यह टुकरचा, रईस बना हुआ दम लगा रहा है। नवाब साहब मसनद पर बैठे तो खोजी को भी अपने बराबर बिठाया। मुसाहब सन्नाटे में आ गए। कोई चूँ तक नहीं करता, सबकी निगाह खोजी पर है। बारे मीर साहब ने हिम्मत करके बात-चीत शुरू की -
मीर साहब - खुदावंद, आज कितनी बहार का दिन है, चमन से कैसी भीनी-भीनी खुशबू आ रही हैं।
नवाब - हाँ, आज का दिन इसी लायक है कि कोई इल्मी बहस हो।
मीर साहब - खुदावंद, आज का दिन तो गाना सुनने के लिए बहुत अच्छा है।
नवाब - नहीं, कोई इल्मी बहस होनी चाहिए। ख्वाजा साहब, आप कोई बहस शुरू कीजिए।
मस्तियाबेग - (दिल में) इनके बाप ने भी कभी इल्मी बहस की थी?
मिरजा - हुजूर, ख्वाजा साहब की लियाकत में क्या शक है, मगर -
नवाब - अगर-मगर के क्या मानी? क्या ख्वाजा साहब के आलिम होने में आप लोगों को कुछ शक है?
मिरजा - मिस इल्म की बहस कीजिएगा ख्वाजा साहब? इल्म का नाम तो मालूम हो।
खोजी - हम इल्म जालोजी में बहस करते हैं, बतलाइए, इस इल्म का क्या मतलब है?
मिरजा - किस इल्म का नाम लिया आपने, जालोजी! यह जालोजी क्या बला है?
नवाब - जब आपको इस इल्म का नाम तक नहीं मालूम तो बहस क्या खाक कीजिएगा। क्यों ख्वाजा साहब, सुना है कि दरिया में जहाजों के डुबो देने के औजार भी अँगरेजों ने निकाले हैं। यह तो खुदाई करने लगे!
खोजी - उस औजार का नाम तारपेडो है। दो जहाज हमारे सामने डुबो दिए गए! पानी के अंदर ही अंदर तारपेडो छोड़ा जाता है, बस जैसे ही जहाज के नीचे पहुँचा वैसे ही फटा। फिर तो जनाब, जहाज के करोड़ों टुकड़े हो जाते हैं।
मस्तियाबेग - और क्यों साहब, यह बम का गोला कितनी दूर का तोड़ करता है?
खोजी - बम के गोले कई किस्म के होते हैं, आप किस किस्म का हाल दरियाफ्त करते हैं?
मस्तियाबेग - अजी, यही बम को गोले।
खोजी - आप तो यही-यही करते हैं, उसका नाम तो बतलाइए?
नवाब - क्यों जनाब, लड़ाई के वक्त आदमी के दिल का क्या हाल होता होगा? चारों तरफ मौत ही मौत नजर आती होगी?
मिरजा - मैं अर्ज करूँ हुजूर, लड़ाई के मैदान में आ कर जरा...।
नवाब - चुप रहो साहब, तुमसे कौन पूछता है, कभी बंदूक की सूरत भी देखी है या लड़ाई का हाल ही बयान करने चले!
खोजी - जनाब, लड़ाई के मैदान में जान का जरा भी खौफ नहीं मालूम होता। आपको यकीन न आएगा, मगर मैं सही कहता हूँ कि इधर फौजी बाजा बजा और उधर दिलों में जोश उमड़ने लगा। कैसा ही बुजदिल हो, मुमकिन नहीं कि तलवार खींच कर फौज के बीच में धँस न जाय। नंगी तलवार हाथ में ली और दिल बढ़ा। फिर अगर दो करोड़ गोले भी सिर पर आएँ तो क्या मजाल कि आदमी हट जाय।
खोजी यही बातें कर रहे थे कि खिदमतगार ने आ कर कहा - हुजूर, बाहर एक साहब आए हैं, और कहते हैं, नवाब साहब को हमारा सलाम दो, हमें उनसे कुछ कहना है। नवाब साहब ने कहा - ख्वाजा साहब, आप जरा जा कर दरियाफ्त कीजिए कि कौन साहब हैं। खोजी बड़े गरूर के साथ उठे और बाहर जा कर साहब को सलाम किया। मालूम हुआ कि यह पुलिस का अफसर है, जिले के हाकिम ने उसे आजाद का हाल दरियाफ्त करने के लिए भेजा है।
खोजी - आप साहब से जा कर कह दीजिए, आजाद पाशा नवाब साहब के मेहमान हैं और उनके साथ ख्वाजा साहब भी हैं।
अफसर - तो साहब उनसे मिलनेवाला है। अगर आज उनको फुरसत हो तो अच्छा, नहीं तो जब उनका जी चाहे।
खोजी - मैं उनसे पूछ कर आपको लिख भेजूँगा।
इस्पेक्टर साहब चले गए तो मस्तियाबेग ने कहा - क्यों साहब, यह बात हमारी समझ में नहीं आई कि आपने आजाद पाशा से इसी वक्त क्यों न पूछ लिया। एक ओहदेदार को दिक करने से क्या फायदा? खोजी ने त्योरियाँ बदल कर कहा - तुमसे हजार बार मना किया कि इस बारे में न बोला करो, मगर तुम सुनते ही नहीं। तुम तो हो अक्ल के दुश्मन, हम चाहते हैं कि आजाद पाशा जब किसी हाकिम से मिलें तो बराबर की मुलाकात हो। इस वक्त यह वर्दी नहीं पहने हैं। कल जब यह फौजी वर्दी पहन कर और तमगे लगा कर हाकिम-जिला से मिलेंगे तो वह खड़ा हो कर ताजीम करेगा।
नवाब - अब समझे या अब भी गधे ही बने हो? ख्वाजा साहब को तौलने चले हैं! वल्लाह, ख्वाजा साहब, आपने खूब सोची। अगर इस वक्त कह देते कि आजाद वह क्या बैठे हैं तो कितनी किरकिरी होती।
इतने में खाने का वक्त आ पहुँचा। खाना चुना गया, सब लोग खाने बैठे, उस वक्त खोजी ने एक किस्सा छेड़़ दिया - हुजूर, एक बार जब अंगरेजों की डच लोगों से मुठभेड़ हुई तो अंगरेजी अफसर ने कहा, अगर कोई आदमी दूसरी तरफ के जहाजों को ले आए तो हमारी फतह हो सकती है, नहीं तो हमारा बेड़ा तबाह हो जायगा। इतना सुनते ही बारह मल्लाह पानी में कूद पड़े। उनके साथ पंद्रह साल का एक लड़का भी पानी में कूदा।
नवाब - समुद्र में, ओफ्फोह!
खोजी - खुदावंद, उनसे बढ़ कर दिलेर और कौन हो सकता है? बस अफसर ने मल्लाहों से कहा, इस लड़के को रोक लो। लड़के ने कहा, वाह, मेरे मुल्क पर अगर मेरी जान कुरबान हो जाय तो क्या मुजायका? यह कह कर वह लड़का तैरता हुआ निकल गया।
नवाब - ख्वाजा साहब, कोई ऐसी फिक्र कीजिए कि हमारी-आपकी दोस्ती हमेशा इसी तरह कायम रहे।
खोजी - भाई सुनो, हमें खुशामद करनी मंजूर नहीं, अगर साहब-सलामत रखना है तो रखिए, वरना आप अपने घर खुश और मैं अपने घर खुश।
नवाब - यार, तुम तो बेवजह बिगड़ खड़े होते हो।
खोजी - साफ तो यह है कि जो तजरबा हमको हासिल हुआ है उस पर हम जितना गरूर करें, बजा है।
नवाब - इसमें क्या शक है जनाब।
खोजी - आप खूब जानते हैं कि आलिम लोग किसी की परवा नहीं करते। मुझे दुनिया में किसी से दबके चलना नागवार है, और हम क्यों किसी से दबें? लालच हमें छू नहीं गया, हमारे नजदीक बादशाह और फकीर दोनों बराबर। जहाँ कहीं गया, लोगों ने सिर और आँखों पर बिठाया। रूम, मिस्र, रूस बगैरह मुल्कों में मेरी जो कदर हुई वह सारा जमाना जानता है। आपके दरबार में आलिमों की कदर नहीं। वह देखिए, नालायक मस्तियाबेग आपके सामने चंडू का दम लगा रहा है। ऐसे बदमाशों से मुझे नफरत है।
नवाब - कोई है, इस नालायक को निकाल दो यहाँ से।
मुसाहिब - हुजूर तो आज नाहक खफा होते हैं, इस दरबार में तो रोज ही चंडू के दम लगा करते हैं। इसने किया तो क्या गुनाह किया?
नवाब - क्या बकते हो, हमारे यहाँ चंडू का दम कोई नहीं लगाता।
खोजी - हमें यहाँ आते इतने दिन हुए, हमने कभी नहीं देखा, चंडू पीना शरीफों का काम ही नहीं।
मिरजा - तुम तो गजब करते हो खोजी, जमाने भर के चंडूबाज, अफीमची, अब आए हो वहाँ से बढ़-बढ़के बातें बनाने। जरा सरकार ने मुँह लगाया तो जमीन पर पाँव ही नहीं रखते।
नवाब - गफूर इन सब बदमाशों को निकाल बाहर करो। खबरदार जो आज से कोई यहाँ आने पाया।
मीर साहब - खुदावंद! बस, कुछ न कहिएगा, हम लोगों ने अपनी इज्जत नहीं बेची हैं।
नवाब - निकालो इन सबों को, अभी-अभी निकाल दो।
ख्वाजा साहब शह पा कर उठे और एक कतारा लेकर मस्तियाबेग पर जमाया। वह तो झल्लाया था ही, खोजी को एक चाँटा दिया, तो गिर पड़े, इतने में कई सिपाही आ गए, उन्होंने मस्तियाबेग को पकड़ लिया और बाकी सब भाग खड़े हुए। खोजी झाड़ पोंछ कर उठे और उठते ही हुक्म दिया कि मस्तियाबेग को उस दरख्त में बाँधकर दो सौ कोड़े लगाए जायँ, नमकहराम अपने मालिक के दोस्तों से लड़ता है। बदन में कीड़े न पड़ें तो सही।
उधर मियाँ आजाद साहब से मिलकर लौटे तो देखा कि दरबार में सन्नाटा छाया हुआ है। नवाब साहब उन्हें देखते ही बोले - हजरत, आज से हमने आपकी सलाहों पर चलना शुरू कर दिया।
आजाद - दरबार के लोग कहाँ गायब हो गए?
खोजी - सबके सब निकाल दिए गए, अब कोई यहाँ फटकने भी न पाएगा।
नवाब - अब हम हुक्काम से मिला करेंगे और कोशिश करेंगे कि हर एक किस्म की कमेटी में शरीक हों। वाही-तबाही आदमियों की सोहबत में आप देखें तो मेरे कान पकड़िएगा।
आजाद - अब आप हर किस्म की किताबें पढ़ा कीजिए।
नवाब - आप तो कुछ फरमाते हैं, बजा है, मेरा पच्चीसवाँ साल है, अभी मुझे पढ़ने-लिखने का बहुत मौका है; और मुझे करना ही क्या है।
आजाद - खुदा आपकी नीयत में बरकत दे।
खोजी - बस, आज से आपको आलिमों की सोहबत रखनी चाहिए। ऐसा न हो, इस वक्त तो सब कुछ तकरार कर लीजिए, और कल से फिर वही ढाक के तीन पात।
नवाब - खुदा ने चाहा तो यह सब बातें अब नाम को भी न देखिएगा।
दूसरे दिन आजाद सैर करने निकले तो क्या देखते हैं कि एक जगह कई आदमी एक छत पर बैठे हुए हैं। आजाद को देखते ही देखते ही एक आदमी ने आ कर उनसे कहा - अगर आपको तकलीफ न हो, तो जरा मेरे साथ आइए। आजाद उसके साथ छत पर पहुँचे तो उन आदमियों में एक ही सूरत अपनी से मिलती-जुलती पाई। उसने आजाद की ताजीम की और कहा - आइए, आपसे कुछ बातें करूँ। आपने अपनी सूरत तो आईने में देखी होगी।
आजाद - हाँ और इस वक्त बगैर आईने के देख रहा हूँ। आपका नाम?
आदमी - मुझे आजाद मिरजा कहते हैं।
आजाद - तब तो आप मेरे हमनाम भी हैं। आपने मुझे क्योंकर पहचाना?
मिरजा - मैंने आपकी तसवीरें देखी हैं और अखबारों में आपका हाल पढ़ता रहा हूँ।
आजाद - इस वक्त आपसे मिल कर बहुत खुशी हुई।
मिरजा - और अभी और भी खुशी होगी। सुरैया बेगम को तो आप जानते हैं?
आजाद - हाँ, हाँ, आपको उनका कुछ हाल मालूम है?
मिरजा - जी हाँ, आपके धोखे में मैं उनके यहाँ पहुँचा था, और अब तो वह बेगम हैं। एक नवाब साहब के साथ उनका निकाह हो गया है।
आजाद - क्या अब दूर से भी मुलाकात न होगी?
मिरजा - हरगिज नहीं।
आजाद - बे अख्तियार जी चाहता है कि मिल कर बातें करूँ।
मिरजा - कोशिश कीजिए, शायद मुलाकात हो जाय, मगर उम्मेद नहीं?